नित नव सोचु सती उर भारा। कब जैहउँ दुख सागर पारा॥ मैं जो कीन्ह रघुपति अपमाना। पुनि पतिबचनु मृषा करि जाना॥1॥
श्रीगणेशायनमः | Shri Ganeshay Namah
श्रीजानकीवल्लभो विजयते | Shri JanakiVallabho Vijayte
श्रीरामचरितमानस | Shri RamCharitManas
प्रथम सोपान | Descent First
श्री बालकाण्ड | Shri Bal-Kanda
चौपाई (58.1) | Caupāī (58.1)
नित नव सोचु सती उर भारा। कब जैहउँ दुख सागर पारा॥
मैं जो कीन्ह रघुपति अपमाना। पुनि पतिबचनु मृषा करि जाना॥1॥
भावार्थ:-सतीजी के हृदय में नित्य नया और भारी सोच हो रहा था कि मैं इस दुःख समुद्र के पार कब जाऊँगी। मैंने जो श्री रघुनाथजी का अपमान किया और फिर पति के वचनों को झूठ जाना-॥1॥
nita nava sōcu satīṃ ura bhārā. kaba jaihauom dukha sāgara pārā..
maiṃ jō kīnha raghupati apamānā. punipati bacanu mṛṣā kari jānā..
The grief that preyed on Sati’s mind was ever new; for She did not know when She would be able to cross the ocean of sorrow. “I slighted the Lord of Raghus and again took my husband’s words to be untrue;