श्रीमद् भागवत महापुराण माहात्म्य अध्याय 3: भक्ति के कष्ट की निवृत्ति
श्रीमद्भागवतमाहात्म्यम्
कृष्णं नारायणं वन्दे कृष्णं वन्दे व्रजप्रियम्।
कृष्णं द्वैपायनं वन्दे कृष्णं वन्दे पृथासुतम्॥
अथ तृतीयोऽध्यायः (अध्याय 3)
भक्ति के कष्ट की निवृत्ति
श्लोक-1
नारद उवाच
ज्ञानयज्ञं करिष्यामि शुकशास्त्रकथोज्ज्वलम्।
भक्तिज्ञानविरागाणां स्थापनार्थं प्रयत्नतः॥
नारदजी कहते हैं अब मैं भक्ति, ज्ञान और वैराग्यको स्थापित करनेके लिये प्रयत्नपूर्वक श्रीशुकदेवजीके कहे हुए भागवतशास्त्रकी कथाद्वारा उज्ज्वल ज्ञानयज्ञ करूँगा॥1॥
श्लोक-2
कुत्र कार्यो मया यज्ञः स्थलं तद्वाच्यतामिह ।
महिमा शुकशास्त्रस्य वक्तव्यो वेदपारगैः॥
यह यज्ञ मुझे कहाँ करना चाहिये, आप इसके लिये कोई स्थान बता दीजिये। आपलोग वेदके पारगामी हैं, इसलिये मुझे इस शुकशास्त्रकी महिमा सुनाइये॥2॥
श्लोक-3
कियद्भिर्दिवसैः श्राव्या श्रीमद्भागवती कथा।
को विधिस्तत्र कर्तव्यो ममेदं ब्रुवतामितः॥
यह भी बताइये कि श्रीमद्भागवतकी कथा कितने दिनोंमें सुनानी चाहिये और उसके सुननेकी विधि क्या है॥3॥
श्लोक-4
कुमारा ऊचुः शृणु नारद वक्ष्यामो विनम्राय विवेकिने।
गङ्गाद्वारसमीपे तु तटमानन्दनामकम्॥
सनकादि बोले- नारदजी! आप बड़े विनीत और विवेकी हैं। सुनिये, हम आपको ये सब बातें बताते हैं। हरिद्वारके पास आनन्द नामका एक घाट है॥4॥
श्लोक-5
नानाऋषिगणैर्जुष्टं देवसिद्धनिषेवितम्।
नानातरुलताकीर्णं नवकोमलवालुकम्॥
वहाँ अनेकों ऋषि रहते हैं तथा देवता और सिद्धलोग भी उसका सेवन करते रहते हैं। भाँति-भाँतिके वृक्ष और लताओंके कारण वह बड़ा सघन है और वहाँ बड़ी कोमल नवीन बालू बिछी हुई है॥5॥
श्लोक-6
रम्यमेकान्तदेशस्थं हेमपद्मसुसौरभम्।
यत्समीपस्थजीवानां वैरं चेतसि न स्थितम्॥
वह घाट बड़ा ही सुरम्य और एकान्त प्रदेशमें है, वहाँ हर समय सुनहले कमलोंकी सुगन्ध आया करती है। उसके आस पास रहनेवाले सिंह, हाथी आदि परस्पर-विरोधी जीवोंके चित्तमें भी वैरभाव नहीं है॥6॥
श्लोक-7
ज्ञानयज्ञस्त्वया तत्र कर्तव्यो ह्यप्रयत्नतः।
अपूर्वरसरूपा च कथा तत्र भविष्यति॥
वहाँ आप बिना किसी विशेष प्रयत्नके ही ज्ञानयज्ञ आरम्भ कर दीजिये, उस स्थानपर कथामें अपूर्व रसका उदय होगा। 7॥
श्लोक-8
पुरःस्थं निर्बलं चैव जराजीर्णकलेवरम्।
तवयं च पुरस्कृत्य भक्तिस्तत्रागमिष्यति॥
भक्ति भी अपनी आँखोंके ही सामने निर्बल और जराजीर्ण अवस्थामें पड़े हुए ज्ञान और वैराग्यको साथ लेकर वहाँ आ जायगी॥8॥
यदा यातास्तटं ते तु तदा कोलाहलोऽप्यभूत्।
भूर्लोके देवलोके च ब्रह्मलोके तथैव च॥
जिस समय वे तटपर पहुँचे, भूलोक, देवलोक और ब्रह्मलोक -सभी जगह इस कथाका हल्ला हो गया॥11॥
श्लोक-12
श्लोक-9
यत्र भागवती वार्ता तत्रभक्त्यादिकं व्रजेत्।
कथाशब्दं समाकर्ण्य तत्रिकं तरुणायते॥
क्योंकि जहाँ भी श्रीमद्भागवतकी कथा होती है वहाँ ये भक्ति आदि अपने-आप पहुँच जाते हैं। वहाँ कानोंमें कथाके शब्द पड़नेसे ये तीनों तरुण हो जायँगे॥9॥
श्लोक-10
सूत उवाच एवमुक्त्वा कुमारास्ते नारदेन समं ततः।
गङ्गातटं समाजग्मुः कथापानाय सत्वराः॥
सूतजी कहते हैं- इस प्रकार कहकर नारदजीके साथ सनकादि भी श्रीमद्भागवतकथामृतका पान करनेके लिये वहाँसे तरंत गंगातटपर चले आये॥10॥
श्लोक-11
श्रीभागवतपीयूषपानाय रसलम्पटाः।
धावन्तोऽप्याययुः सर्वे प्रथमं ये च वैष्णवाः॥
जो-जो भगवत्कथाके रसिक विष्णुभक्त थे, वे सभी श्रीमद्भागवतामृतका पान करनेके लिये सबसे आगे दौड़दौड़कर आने लगे॥ 12॥
श्लोक-13
भृगुर्वसिष्ठश्च्यवनश्च गौतमो मेधातिथिर्देवलदेवरातौ।
रामस्तथा गाधिसुतश्च शाकलो मृकण्डुपुत्रात्रिजपिप्पलादाः॥
श्लोक-14
योगेश्वरौ व्यासपराशरौ च छायाशुको जाजलिजह्वमुख्याः।
सर्वेऽप्यमी मुनिगणाः सहपुत्रशिष्याः स्वस्त्रीभिराययुरतिप्रणयेन युक्ताः॥
भृगु, वसिष्ठ, च्यवन, गौतम, मेधातिथि, देवल, देवरात, परशुराम, विश्वामित्र, शाकल, मार्कण्डेय, दत्तात्रेय, पिप्पलाद, योगेश्वर व्यास और पराशर, छायाशुक, जाजलि और जलु आदि सभी प्रधान प्रधान मुनिगण अपने-अपने पुत्र, शिष्य और स्त्रियोंसमेत बड़े प्रेमसे वहाँ आये॥ 13-14॥
श्लोक-15
वेदान्तानि च वेदाश्च मन्त्रास्तन्त्राः समूर्तयः। दशसप्तपुराणानि षट्शास्त्राणि तथाऽऽययुः॥
इनके सिवा वेद, वेदान्त (उपनिषद्), मन्त्र, तन्त्र, सत्रह पुराण और छहोंशास्त्र भी मूर्तिमान् होकर वहाँ उपस्थित हुए। 15॥
श्लोक-16
गङ्गाद्याः सरितस्तत्र पुष्करादिसरांसि च।
क्षेत्राणि च दिशः सर्वा दण्डकादिवनानि च।
श्लोक-17
नगादयो ययुस्तत्र देवगन्धर्वदानवाः।
गुरुत्वात्तत्र नायातान्भृगुः सम्बोध्य चानयत्॥
गंगा आदि नदियाँ, पुष्कर आदि सरोवर, कुरुक्षेत्र आदि समस्त क्षेत्र, सारी दिशाएँ, दण्डक आदि वन, हिमालय आदि पर्वत तथा देव, गन्धर्व और दानव आदि सभी कथा सुनने चले आये। जो लोग अपने गौरवके कारण नहीं आये, महर्षि भृगु उन्हें समझा-बुझाकर ले आये॥16-17॥
श्लोक-18
दीक्षिता नारदेनाथ दत्तमासनमुत्तमम्।
कुमारा वन्दिताः सर्वैर्निषेदुः कृष्णतत्पराः॥
तब कथा सुनानेके लिये दीक्षित होकर श्रीकृष्णपरायण सनकादि नारदजीके दिये हुए श्रेष्ठ आसनपर विराजमान हुए। उस समय सभी श्रोताओंने उनकी वन्दना की॥18॥
श्लोक-19
वैष्णवाश्च विरक्ताश्च न्यासिनो ब्रह्मचारिणः।
मुखभागे स्थितास्ते च तदने नारदः स्थितः॥
श्रोताओंमें वैष्णव, विरक्त, संन्यासी और ब्रह्मचारी लोग आगे बैठे और उन सबके आगे नारदजी विराजमान हुए॥ 19॥
श्लोक-20
एकभागे ऋषिगणास्तदन्यत्र दिवौकसः।
वेदोपनिषदोऽन्यत्र तीर्थान्यत्र स्त्रियोऽन्यतः॥
एक ओर ऋषिगण, एक ओर देवता, एक ओर वेद और उपनिषदादि तथा एक ओर तीर्थ बैठे, और दूसरी ओर स्त्रियाँ बैठीं॥20॥
श्लोक-21
जयशब्दो नमःशब्दः शङ्खशब्दस्तथैव च।
चूर्णलाजाप्रसूनानां निक्षेपः सुमहानभूत्॥
उस समय सब ओर जय-जयकार, नमस्कार और शंखोंका शब्द होने लगा और अबीर-गुलाल, खील एवं फूलोंकी खूब वर्षा होने लगी॥21॥
श्लोक-22
विमानानि समारुह्य कियन्तो देवनायकाः।
कल्पवृक्षप्रसूनस्तान् सर्वांस्तत्र समाकिरन्॥
कोई-कोई देवश्रेष्ठ तो विमानोंपर चढ़कर वहाँ बैठे हुए सब लोगोंपर कल्पवृक्षके पुष्पोंकी वर्षा करने लगे॥22॥
श्लोक-23
सूत उवाच
एवं तेष्वेकचित्तेषु श्रीमद्भागवतस्य च।
माहात्म्यमूचिरे स्पष्टं नारदाय महात्मने॥
सूतजी कहते हैं- इस प्रकार पूजा समाप्त होनेपर जब सब लोग एकाग्रचित्त हो गये, तब सनकादि ऋषि महात्मा नारदको श्रीमद्भागवतका माहात्म्य स्पष्ट करके सुनाने लगे॥23॥
श्लोक-24
कुमारा ऊचुः अथ ते वर्ण्यतेऽस्माभिर्महिमा शुकशास्त्रजः।
यस्य श्रवणमात्रेण मुक्तिः करतले स्थिता॥
सनकादिने कहा-अब हम आपको इस भागवतशास्त्रकी महिमा सुनाते हैं। इसके श्रवणमात्रसे मुक्ति हाथ लग जाती है। 24॥
श्लोक-25
सदा सेव्या सदा सेव्या श्रीमद्भागवती कथा।
यस्याः श्रवणमात्रेण हरिश्चित्तं समाश्रयेत्॥ श्री
मद्भागवतकी कथाका सदा-सर्वदा सेवन, आस्वादन करना चाहिये। इसके श्रवणमात्रसे श्रीहरि हृदयमें आ विराजते हैं॥25॥
श्लोक-26
ग्रन्थोऽष्टादशसाहस्रो द्वादशस्कन्धसम्मितः।
परीक्षिच्छुकसंवादः शृणु भागवतं च तत्॥
इस ग्रन्थमें अठारह हजार श्लोक और बारह स्कन्ध हैं तथा श्रीशुकदेव और राजा परीक्षित् का संवाद है। आप यह भागवतशास्त्र ध्यान देकर सुनिये॥26॥
श्लोक-27
तावत्संसारचक्रेऽस्मिन् भ्रमतेऽज्ञानतः पुमान्।
यावत्कर्णगता नास्ति शुकशास्त्रकथा क्षणम्॥
यह जीव तभीतक अज्ञानवश इस संसारचक्रमें भटकता है, जबतक क्षणभरके लिये भी कानोंमें इस शकशास्त्रकी कथा नहीं पड़ती॥27॥
श्लोक-28
किं श्रुतैर्बहुभिः शास्त्रैः पुराणैश्च भ्रमावहैः।
एकं भागवतं शास्त्रं मुक्तिदानेन गर्जति॥
बहुत से शास्त्र और पुराण सुननेसे क्या लाभ है, इससे तो व्यर्थका भ्रम बढ़ता है। मुक्ति देनेके लिये तो एकमात्र भागवतशास्त्र ही गरज रहा है॥28॥
श्लोक-29
कथा भागवतस्यापि नित्यं भवति यद्गृहे।
तद्गृहं तीर्थरूपं हि वसतां पापनाशनम्॥
जिस घरमें नित्यप्रति श्रीमद्भागवतकी कथा होती है, वह तीर्थरूप हो जाता है और जो लोग उसमें रहते हैं, उनके सारे पाप नष्ट हो जाते हैं॥29॥
श्लोक-30
अश्वमेधसहस्राणि वाजपेयशतानि च।
शुकशास्त्रकथायाश्च कलां नार्हन्ति षोडशीम्॥
हजारों अश्वमेध और सैकड़ों वाजपेय यज्ञ इस शुकशास्त्रकी कथाका सोलहवाँ अंश भी नहीं हो सकते॥30॥
श्लोक-31
तावत्पापानि देहेऽस्मिन्निवसन्ति तपोधनाः।
यावन्न श्रूयते सम्यक् श्रीमद्भागवतं नरैः॥
तपोधनो! जबतक लोग अच्छी तरह श्रीमद्भागवतका श्रवण नहीं करते, तभीतक उनके शरीरमें पाप निवास करते हैं॥31॥
श्लोक-32
न गङ्गा न गया काशी पुष्करं न प्रयागकम्।
शुकशास्त्रकथायाश्च फलेन समतां नयेत्॥
फलकी दृष्टिसे इस शुकशास्त्रकथाकी समता गंगा, गया, काशी, पुष्कर या प्रयाग—कोई तीर्थ भी नहीं कर सकता॥ 32॥
श्लोक-33
श्लोकार्धं श्लोकपादं वा नित्यं भागवतोद्भवम्।
पठस्व स्वमुखेनैव यदीच्छसि परां गतिम्॥
यदि आपको परम गतिकी इच्छा है तो अपने मुखसे ही श्रीमद्भागवतके आधे अथवा चौथाई श्लोकका भी नित्य नियमपूर्वक पाठ कीजिये॥33॥
श्लोक-34
वेदादिर्वेदमाता च पौरुषं सूक्तमेव च।
त्रयी भागवतं चैव द्वादशाक्षर एव च॥
श्लोक-35
द्वादशात्मा प्रयागश्च कालः संवत्सरात्मकः।
ब्राह्मणाश्चाग्निहोत्रं च सुरभिर्दादशी तथा॥
श्लोक-36
तुलसी च वसन्तश्च पुरुषोत्तम एव च।
एतेषां तत्त्वतः प्राज्ञैर्न पृथग्भाव इष्यते॥
ॐकार, गायत्री, पुरुषसूक्त, तीनों वेद, श्रीमद्भागवत ‘ॐ नमो भगवते वासुदेवाय’—यह द्वादशाक्षर मन्त्र, बारह मूर्तियोंवाले सूर्यभगवान्, प्रयाग, संवत्सररूप काल, ब्राह्मण, अग्निहोत्र, गौ, द्वादशी तिथि, तुलसी, वसन्त ऋतु और भगवान् पुरुषोत्तम इन सबमें बुद्धिमान् लोग वस्तुतः कोई अन्तर नहीं मानते॥34-36॥
श्लोक-37
यश्च भागवतं शास्त्रं वाचयेदर्थतोऽनिशम्। जन्मकोटिकृतं पापं नश्यते नात्र संशयः॥ जो पुरुष अहर्निश अर्थसहित श्रीमद्भागवतशास्त्रका पाठ करता है, उसके करोड़ों जन्मोंका पाप नष्ट हो जाता है—इसमें तनिक भी संदेह नहीं है॥ 37॥
श्लोक-38
श्लोकार्धं श्लोकपादं वा पठेद्भागवतं च यः।
नित्यं पुण्यमवाप्नोति राजसूयाश्वमेधयोः॥
जो पुरुष नित्यप्रति भागवतका आधा या चौथाई श्लोक भी पढ़ता है, उसे राजसूय और अश्वमेधयज्ञोंका फल मिलता है। 38॥
श्लोक-39
उक्तं भागवतं नित्यं कृतं च हरिचिन्तनम्।
तुलसीपोषणं चैव धेनूनां सेवनं समम्॥
नित्य भागवतका पाठ करना, भगवान् का चिन्तन करना, तुलसीको सींचना और गौकी सेवा करना—ये चारों समान हैं।
श्लोक-40
अन्तकाले तु येनैव श्रूयते शुकशास्त्रवाक्।
प्रीत्या तस्यैव वैकुण्ठं गोविन्दोऽपि प्रयच्छति॥
जो पुरुष अन्तसमयमें श्रीमद्भागवतका वाक्य सुन लेता है, उसपर प्रसन्न होकर भगवान् उसे वैकुण्ठधाम देते हैं॥ 40॥
श्लोक-41
हेमसिंहयुतं चैतद्वैष्णवाय ददाति च।
कृष्णेन सह सायुज्यं स पुमाल्लभते ध्रुवम्॥
जो पुरुष इसे सोनेके सिंहासनपर रखकर विष्णुभक्तको दान करता है, वह अवश्य ही भगवान् का सायुज्य प्राप्त करता है। 41॥
श्लोक-42
आजन्ममात्रमपि येन शठेन किंचिच्चित्तं विधाय शुकशास्त्रकथा न पीता।
चाण्डालवच्च खरवद्बत तेन नीतं मिथ्या स्वजन्म जननीजनिदुःखभाजा॥
जिस दुष्टने अपनी सारी आयुमें चित्तको एकाग्र करके श्रीमद्भागवतामृतका थोड़ा-सा भी रसास्वादन नहीं किया, उसने तो अपना सारा जन्म चाण्डाल और गधेके समान व्यर्थ ही गँवा दिया; वह तो अपनी माताको प्रसव पीड़ा पहुँचानेके लिये ही उत्पन्न हुआ॥42॥
श्लोक-43
जीवच्छवो निगदितः स तु पापकर्मा येन श्रुतं शुककथावचनं न किंचित्।
धिक् तं नरं पशुसमं भुवि भाररूपमेवं वदन्ति दिवि देवसमाजमुख्याः॥
जिसने इस शुकशास्त्रके थोड़े-से भी वचन नहीं सुने, वह पापात्मा तो जीता हुआ ही मुर्देके समान है। ‘पृथ्वीके भारस्वरूप उस पशुतुल्य मनुष्यको धिक्कार है’—यों स्वर्गलोकमें देवताओंमें प्रधान इन्द्रादि कहा करते हैं॥43॥
श्लोक-44
दुर्लभैव कथा लोके श्रीमद्भागवतोद्भवा।
कोटिजन्मसमुत्थेन पुण्येनैव तु लभ्यते॥
संसारमें श्रीमद्भागवतकी कथाका मिलना अवश्य ही कठिन है; जब करोड़ों जन्मोंका पुण्य होता है, तभी इसकी प्राप्ति होती है॥44॥
श्लोक-45
तेन योगनिधे धीमन् श्रोतव्या सा प्रयत्नतः। दिनानां नियमो नास्ति सर्वदा श्रवणं मतम्॥ नारदजी! आप बड़े ही बुद्धिमान् और योगनिधि हैं। आप प्रयत्नपूर्वक कथाका श्रवण कीजिये। इसे सुननेके लिये दिनोंका कोई नियम नहीं है, इसे तो सर्वदा ही सुनना अच्छा है॥45॥
श्लोक-46
सत्येन ब्रह्मचर्येण सर्वदा श्रवणं मतम्।
अशक्यत्वात्कलौ बोध्यो विशेषोऽत्र शुकाज्ञया॥
इसे सत्यभाषण और ब्रह्मचर्यपालनपूर्वक सर्वदा ही सुनना श्रेष्ठ माना गया है। किन्तु कलियुगमें ऐसा होना कठिन है; इसलिये इसकी शुकदेवजीने जो विशेष विधि बतायी है, वह जान लेनी चाहिये॥ 46॥
श्लोक-47
मनोवृत्तिजयश्चैव नियमाचरणं तथा।
दीक्षां कर्तुमशक्यत्वात्सप्ताहश्रवणं मतम्॥
कलियुगमें बहुत दिनोंतक चित्तकी वृत्तियोंको वशमें रखना, नियमोंमें बँधे रहना और किसी पुण्यकार्यके लिये दीक्षित रहना कठिन है; इसलिये सप्ताहश्रवणकी विधि है॥47॥
श्लोक-48
श्रद्धातः श्रवणे नित्यं माघे तावद्धि यत्फलम्।
तत्फलं शुकदेवेन सप्ताहश्रवणे कृतम्॥
श्रद्धापूर्वक कभी भी श्रवण करनेसे अथवा माघमासमें श्रवण करनेसे जो फल होता है,वही फल श्रीशुकदेवजीने सप्ताहश्रवणमें निर्धारित किया है॥48॥
श्लोक-49
मनसश्चाजयाद्रोगात्पुंसां चैवायुषः क्षयात्।
कलेर्दोषबहुत्वाच्च सप्ताहश्रवणं मतम्॥
मनके असंयम, रोगोंकी बहुलता और आयुकी अल्पताके कारण तथा कलियुगमें अनेकों दोषोंकी सम्भावनासे ही सप्ताहश्रवणका विधान किया गया है॥49॥
श्लोक-50
यत्फलं नास्ति तपसा न योगेन समाधिना।
अनायासेन तत्सर्वं सप्ताहश्रवणे लभेत्॥
जो फल तप, योग और समाधिसे भी प्राप्त नहीं हो सकता, वह सर्वांगरूपमें सप्ताहश्रवणसे सहजमें ही मिल जाता है। 50॥
श्लोक-51
यज्ञाद्गर्जति सप्ताहः सप्ताहो गर्जति व्रतात्।
तपसो गर्जति प्रोच्चैस्तीर्थान्नित्यं हि गर्जति॥
श्लोक-52
योगाद्गर्जति सप्ताहो ध्यानाज्ज्ञानाच्च गर्जति।
र्जनं तस्य रे रे गर्जति गर्जति॥
सप्ताहश्रवण यज्ञसे बढ़कर है, व्रतसे बढ़कर है, तपसे कहीं बढ़कर है। तीर्थसेवनसे तो सदा ही बड़ा है, योगसे बढ़कर हैयहाँतक कि ध्यान और ज्ञानसे भी बढ़कर है, अजी! इसकी विशेषताका कहाँतक वर्णन करें, यह तो सभीसे बढ़-चढ़कर है॥ 51-52॥
श्लोक-53
शौनक उवाच साश्चर्यमेतत्कथितं कथानकं ज्ञानादिधर्मान् विगणय्य साम्प्रतम्।
निःश्रेयसे भागवतं पुराणंजातं कुतो योगविदादिसूचकम्॥
शौनकजीने पूछा-सूतजी! यह तो आपने बड़े आश्चर्यकी बात कही। अवश्य ही यह भागवतपुराण योगवेत्ता ब्रह्माजीके भी आदि कारण श्रीनारायणका निरूपण करता है; परन्तु यह मोक्षकी प्राप्तिमें ज्ञानादि सभी साधनोंका तिरस्कार करके इस युगमें उनसे भी कैसे बढ़ गया?॥53॥
श्लोक-56
सूत उवाच यदा कृष्णो धरां त्यक्त्वा स्वपदं गन्तुमुद्यतः।
एकादशं परिश्रुत्याप्युद्धवो वाक्यमब्रवीत्॥
सूतजीने कहा- शौनकजी! जब भगवान् श्रीकृष्ण इस धराधामको छोड़कर अपने नित्यधामको जाने लगे, तब उनके मुखारविन्दसे एकादश स्कन्धका ज्ञानोपदेश सुनकर भी उद्धवजीने पूछा॥54॥
श्लोक-55
उद्धव उवाच
त्वं तु यास्यसि गोविन्द भक्तकार्यं विधाय च।
मच्चित्ते महती चिन्ता तां श्रुत्वा सुखमावह ॥
उद्धवजी बोले-गोविन्द! अब आप तो अपने भक्तोंका कार्य करके परमधामको पधारना चाहते हैं; किन्तु मेरे मनमें एक बड़ी चिन्ता है। उसे सुनकर आप मुझे शान्त कीजिये॥ 55॥
श्लोक-56
आगतोऽयं कलिगुँरो भविष्यन्ति पुनः खलाः।
तत्सङ्गेनैव सन्तोऽपि गमिष्यन्त्युग्रतां यदा॥
श्लोक-57
तदा भारवती भूमिर्गोरूपेयं कमाश्रयेत्।
अन्यो न दृश्यते त्राता त्वत्तः कमललोचन॥
अब घोर कलिकाल आया ही समझिये, इसलिये संसारमें फिर अनेकों दुष्ट प्रकट हो जायँगे; उनके संसर्गसे जब अनेकों सत्पुरुष भी उग्र प्रकृतिके हो जायेंगे, तब उनके भारसे दबकर यह गोरूपिणी पृथ्वी किसकी शरणमें जायगी? कमलनयन! मुझे तो आपको छोड़कर इसकी रक्षा करनेवाला कोई दूसरा नहीं दिखायी देता॥ 56-57॥
श्लोक-58
अतः सत्सु दयां कृत्वा भक्तवत्सल मा व्रज।
भक्तार्थं सगुणो जातो निराकारोऽपि चिन्मयः॥
इसलिये भक्तवत्सल! आप साधुओंपर कृपा करके यहाँसे मत जाइये। भगवन्! आपने निराकार और चिन्मात्र होकर भी भक्तोंके लिये ही तो यह सगण रूप धारण किया है॥58॥
श्लोक-59
त्वद्वियोगेन ते भक्ताः कथं स्थास्यन्ति भूतले।
निर्गुणोपासने कष्टमतः किंचिद्विचारय॥
फिर भला, आपका वियोग होनेपर वे भक्तजन पृथ्वीपर कैसे रह सकेंगे? निर्गुणोपासनामें तो बड़ा कष्ट है। इसलिये कुछ और विचार कीजिये॥ 59॥
श्लोक-60
इत्युद्धववचः श्रुत्वा प्रभासेऽचिन्तयद्धरिः।
भक्तावलम्बनार्थाय किं विधेयं मयेति च॥
प्रभासक्षेत्र में उद्धवजीके ये वचन सुनकर भगवान् सोचने लगे कि भक्तोंके अवलम्बके लिये मुझे क्या व्यवस्था करनी चाहिये। 60॥
श्लोक-61
स्वकीयं यद्भवेत्तेजस्तच्च भागवतेऽदधात्।
तिरोधाय प्रविष्टोऽयं श्रीमद्भागवतार्णवम्॥
शौनकजी! तब भगवान्ने अपनी सारी शक्ति भागवतमें रख दी; वे अन्तर्धान होकर इस भागवतसमद्रमें प्रवेश कर गये। 61॥
श्लोक-62
तेनेयं वाङ्मयी मूर्तिः प्रत्यक्षा वर्तते हरेः।
सेवनाच्छ्रवणात्पाठाद्दर्शनात्पापनाशिनी॥
इसलिये यह भगवान् की साक्षात् शब्दमयी मूर्ति है। इसके सेवन, श्रवण, पाठ अथवा दर्शनसे ही मनुष्यके सारे पाप नष्ट हो जाते हैं॥62॥
श्लोक-63
सप्ताहश्रवणं तेन सर्वेभ्योऽप्यधिकं कृतम्।
साधनानि तिरस्कृत्य कलौ धर्मोऽयमीरितः॥
इसीसे इसका सप्ताहश्रवण सबसे बढ़कर माना गया है और कलियुगमें तो अन्य सब साधनोंको छोड़कर यही प्रधान धर्म बताया गया है॥63॥
श्लोक-64
दुःखदारिद्र्यदौर्भाग्यपापप्रक्षालनाय च।
कामक्रोधजयार्थं हि कलौ धर्मोऽयमीरितः॥
कलिकालमें यही ऐसा धर्म है, जो दुःख, दरिद्रता, दुर्भाग्य और पापोंकी सफाई कर देता है तथा काम-क्रोधादि शत्रुओंपर विजय दिलाता है॥ 64॥
श्लोक-65
अन्यथा वैष्णवी माया देवैरपि सुदुस्त्यजा।
कथं त्याज्या भवेत्पुम्भिः सप्ताहोऽतः प्रकीर्तितः॥
अन्यथा, भगवान् की इस मायासे पीछा छुड़ाना देवताओंके लिये भी कठिन है, मनुष्य तो इसे छोड़ ही कैसे सकते हैं। अतः इससे छूटनेके लिये भी सप्ताहश्रवणका विधान किया गया है। 65॥
श्लोक-66
सूत उवाच एवं नगाहश्रवणोरुधर्मे प्रकाश्यमाने ऋषिभिः सभायाम।
आश्चर्यमेकं समभूत्तदानीं तदुच्यते संशृणु शौनक त्वम्॥
सूतजी कहते हैं शौनकजी! जिस समय सनकादि मुनीश्वर इस प्रकार सप्ताहश्रवणकी महिमाका बखान कर रहे थे, उस सभामें एक बड़ा आश्चर्य हुआ; उसे मैं तुम्हें बतलाता हूँ, सुनो। 66॥
श्लोक-67
भक्तिः सुतौ तौ तरुणौ गृहीत्वा प्रेमैकरूपा सहसाऽऽविरासीत्।
श्रीकृष्ण गोविन्द हरे मुरारेनाथेति नामानि मुहुर्वदन्ती॥
वहाँ तरुणावस्थाको प्राप्त हुए अपने दोनों पुत्रोंको साथ लिये विशुद्ध प्रेमरूपा भक्ति बार बार ‘श्रीकृष्ण! गोविन्द! हरे! मुरारे! हे नाथ! नारायण! वासुदेव!’ आदि भगवन्नामोंका उच्चारण करती हुई अकस्मात् प्रकट हो गयीं॥67॥
श्लोक-68
तां चागतां भागवतार्थभूषां सुचारुवेषां ददृशुः सदस्याः।
कथं प्रविष्टा कथमागतेयंमध्ये मुनीनामिति तर्कयन्तः॥
सभी सदस्योंने देखा कि परम सुन्दरी भक्तिरानी भागवतके अर्थोंका आभूषण पहने वहाँ पधारी। मुनियोंकी उस सभामें सभी यह तर्क-वितर्क करने लगे कि ये यहाँ कैसे आयीं, कैसे प्रविष्ट हुईं॥68॥
श्लोक-69
ऊचुः कुमारा
वचनं तदानीं कथार्थतो निष्पतिताधुनेयम्।
एवं गिरः सा ससुता निशम्य सनत्कुमारं निजगाद नम्रा॥
तब सनकादिने कहा—’ये भक्तिदेवी अभी-अभी कथाके अर्थसे निकली हैं।’ उनके ये वचन सुनकर भक्तिने अपने पुत्रोंसमेत अत्यन्त विनम्र होकर सनत्कुमारजीसे कहा॥ 69॥
श्लोक-70
भक्तिरुवाच भवद्भिरद्यैव कृतास्मि पुष्टा कलिप्रणष्टापि कथारसेन।
क्वाहं तु तिष्ठाम्यधुना ब्रुवन्तु ब्राह्मा इदं तां गिरमूचिरे ते॥
भक्ति बोलीं-मैं कलियुगमें नष्टप्राय हो गयी थी, आपने कथामृतसे सींचकर मुझे फिर पुष्ट कर दिया। अब आप यह
बताइये कि मैं कहाँ रहूँ? यह सुनकर सनकादिने उससे कहा -॥70॥
श्लोक-71
भक्तेषु गोविन्दसरूपकी प्रेमैकधी भवरोगहन्त्री।
सा त्वं च तिष्ठस्व सधैर्यसंश्रया निरन्तरं वैष्णवमानसानि॥
‘तुम भक्तोंको भगवान् का स्वरूप प्रदान करनेवाली, अनन्यप्रेमका सम्पादन करनेवाली और संसाररोगको निर्मूल करनेवाली हो; अतः तुम धैर्य धारण करके नित्य-निरन्तर विष्णुभक्तोंके हृदयोंमें ही निवास करो॥71॥
श्लोक-72
ततोऽपि दोषाः कलिजा इमे त्वां द्रष्टुं न शक्ताः प्रभवोऽपि लोके।
एवं तदाज्ञावसरेऽपि भक्ति स्तदा निषण्णा हरिदासचित्ते॥
ये कलियुगके दोष भले ही सारे संसारपर अपना प्रभाव डालें, किन्तु वहाँ तुमपर इनकी दृष्टि भी नहीं पड़ सकेगी।’ इस प्रकार उनकी आज्ञा पाते ही भक्ति तुरन्त भगवद्भक्तोंके हृदयोंमें जा विराजी॥72॥
श्लोक-73
सकलभुवनमध्ये निर्धनास्तेऽपि धन्या निवसति हृदि येषां श्रीहरेर्भक्तिरेका।
हरिरपि निजलोकं सर्वथातो विहाय प्रविशति हृदि तेषां भक्तिसूत्रोपनद्धः॥
जिनके हृदयमें एकमात्र श्रीहरिकी भक्ति निवास करती है; वे त्रिलोकीमें अत्यन्त निर्धन होनेपर भी परम धन्य हैं; क्योंकि इस भक्तिकी डोरीसे बँधकर तो साक्षात् भगवान भी अपना परमधाम छोड़कर उनके हृदयमें आकर बस जाते हैं॥73॥
श्लोक-74
ब्रूमोऽद्य ते किमधिकं महिमानमेवं ब्रह्मात्मकस्य भुवि भागवताभिधस्य।
यत्संश्रयान्निगदिते लभते सुवक्ता श्रोतापि कृष्णसमतामलमन्यधर्मैः॥
भूलोकमें यह भागवत साक्षात् परब्रह्मका विग्रह है, हम इसकी महिमा कहाँतक वर्णन करें। इसका आश्रय लेकर इसे सुनानेसे तो सुनने और सुनानेवाले दोनोंको ही भगवान् श्रीकृष्णकी समता प्राप्त हो जाती है। अतः इसे छोड़कर अन्य धर्मोंसे क्या प्रयोजन है॥74॥
इति श्रीपद्मपुराणे उत्तरखण्डे श्रीमद्भागवतमाहात्म्ये भक्तिकष्टनिवर्तनं नाम तृतीयोऽध्यायः ॥3॥