श्री रामचरितमानस में छन्द की चर्चा तथा विवरण
शंभु प्रसाद सुमति हिय हुलसी । रामचरितमानस कवि तुलसी ॥
क. प्रस्तावना
हिन्दी में लिखित यह लेख गोस्वामी तुलसीदास विरचित रामचरितमानस में प्रयुक्त सभी संस्कृत और प्राकृत के छंदों को सूचित करता है। अद्यतन ग्रन्थ के बहुत से मुद्रित संस्करण प्रचलित हैं | मैंने गुरुदेव जगद्गुरु रामभद्राचार्य द्वारा सम्पादित और तुलसी पीठ, चित्रकूट, उत्तर प्रदेश द्वारा प्रकाशितरामचरितमानस की प्रामाणिक प्रति को मान्य माना है।
रामचरितमानस में 10902 पद हैं, जोकि यहाँ वर्णित 18 संस्कृत और प्राकृत छंदों में रचित हैं। छंदों का ज्ञान त्रुटिरहित पाठ और गान के लिए अनिवार्य है – मात्राओं और यतियों का सूक्ष्म ज्ञान ग्रन्थ के पाठ और गान में सहायक है। एक भी मात्रा या यति में गड़बड़ी होने से लय टूट जाती है, और यह मानस के वरिष्ठ गायकों के साथ भी होता है। उदाहरणार्थ इस पंक्ति का गायन लीजिए (रामचरितमानस 1.96.9):
जो फल चहिय सुरतरुहिं सो बरबस बबूरहि लागई।
शिवविवाह एल्बम में अपने गान्धर्व स्वर में इस पंक्ति को प्रथम बार गाते हुए पण्डित छन्नूलाल मिश्र की लय एक मात्रा से टूटती है, वे चहिय पद को तीन मात्राओं के बजाय चार मात्राओं में गाते हैं। रामचरितमानस के मंजे हुए गायक होने के कारण वे इस त्रुटि को तुरंत जान लेते हैं और इस पंक्ति को पुनः गाते हैं, इस बार पूर्णतः निर्विकृत।
ख. संस्कृत और प्राकृत छन्दःशास्त्र का संक्षिप्त परिचय
रामचरितमानस अवधी (प्राकृत) और संस्कृत दोनों में रचित है। प्राकृत और संस्कृत में छन्द दो प्रकार के होते हैं – वार्णिक और मात्रिक। दोनों की इकाई है वर्ण, जो कि केवल एक स्वर सहित उच्चारित ध्वनि है। वर्ण से यहाँ अर्थ है –
एक अकेला व्यञ्जन रहित स्वर (अ, इ, उ, ए इत्यादि)
एक या एक से अधिक व्यञ्जन के बाद एक अन्त्य स्वर (क, क्य, स्त्य, र्स्त्न्य इत्यादि)
वार्णिक छन्द में वर्णों की सङ्ख्या, लघु-गुरु क्रम और तदनुसार मात्राओं की संख्या का नियम होता है। जबकि मात्रिक छन्द में केवल मात्राओं की संख्या का नियम होता है। लघु वर्ण की एक मात्रा होती है और गुरु वर्ण की दो।
छन्दःशास्त्र में लघु-गुरु निर्धारण के लिए कुछ नियम हैं –
अ इ उ ऋ ऌ – ये ह्रस्व स्वर अकेले हों या एक अथवा एकाधिक व्यञ्जन के बाद, इनकी एक मात्रा होती है (लघु)। यथा अ, इ, उ, ऋ, ऌ, क, हि, गु, तृ, कॢ इत्यादि।
आ ई ऊ ए ऐ ओ औ – ये दीर्घ स्वर अकेले हों या एक अथवा एकाधिक व्यञ्जन के बाद, इनकी दो मात्राएँ होती हैं (गुरु)। यथा आ, ई, ऊ, ए, ऐ, ओ, औ, हा, जी, मू, ते, को, गौ इत्यादि।
वर्ण के अन्त्य स्वर के बाद अनुस्वार और विसर्ग में होने पर दो मात्राएँ होती हैं (गुरु)। यथा सः, गाः, यं, श्रीं, इत्यादि।
संयुक्ताक्षर (दो या अधिक व्यञ्जन जिनके बीच कोई स्वर न हो यथा क्य, ज्ञ, क्ष, र्त्स्न्य, इत्यादि) के पहले आनेवाले लघुवर्ण को गुरु माना जाता है। इसके कुछ अपवाद हैं जैसे प्र ह्र ब्र और क्र। प्राकृत में यह तभी होता है जब एक पहले क वर्ण और संयुक्ताक्षर एक ही शब्द में आएँ। यथा मायामनुष्यं में नु गुरु है (संस्कृत), परन्तु जब ते राम ब्याहि घर आए (2.1.1) में राम का म लघु है (प्राकृत, भिन्न शब्द)।
छन्द के एक चरण (चौथे या आधे भाग) के अन्त में लघु को गुरु गिना जा सकता हैं यदि चरण पूरा करने के लिए आवश्यकता हो (पादपूर्ति)।
प्राकृत में एकार और ओकार एकमात्रिक भी होते हैं। यह सूक्ष्मज्ञान मानस के छन्द गाने के अभ्यास के बाद ही होता है, यहाँ कोई नियम नहीं है। यथा सभय हृदयँ बिनवति जेहि तेही (1.257.4) में जेहि का जे लघु है, परन्तु तेही का ते गुरु है।
काव्य का पाठ अथवा गान करते समय दो वर्णों के बीच आने वाले अल्पविराम को छन्दःशास्त्र में “यति” की संज्ञा दी जाती है।
छन्दःशास्त्र में आठ गणों द्वारा छन्दों का वर्णन किया जाता है। तीन वर्णों के समूह को संक्षेप में लिखने के लिए एक अक्षर का प्रयोग होता है। आठ गण इस प्रकार है –
य् लघु-गुरु-गुरु
म् गुरु-गुरु-गुरु
त् गुरु-गुरु-लघु
र् गुरु-लघु-गुरु
ज् लघु-गुरु-लघु
भ् गुरु-लघु-लघु
न् लघु-लघु-लघु
स् लघु-लघु-गुरु
उपर्युक्त गणों की श्रृंखला एक बी(2,3) डे-ब्रुइय्न श्रृंखला है जिसकी वर्णमाला में लघु और गुरु दो वर्ण हैं। गणों के अक्षरों को सरलता से कण्ठस्थ करने के लिए एक सूत्र है – यमाताराजभानसलगाः। इस विलक्षण सूत्र के प्रत्येक व्यञ्जन से प्रारंभ हुए तीन वर्णों की मात्राएँ गणसूत्रों में उस व्यञ्जन से सम्बन्धित तीन मात्राएँ हैं।
गणों का वर्णन करता एक श्लोक भी है –
आदिमध्यावसानेषु यरता यान्ति लाघवम् ।
भजसा गौरवं यान्ति मनौ तु गुरुलाघवम् ॥
मानस में विविध छन्दों की सङ्ख्या: चौपाई – 9388, दोहा – 1172, सोरठा – 87, श्लोक (अनुष्टुप्, शार्दूलविक्रीडित, वसन्ततिलका, वंशस्थ, उपजाति, प्रमाणिका, मालिनी, स्रग्धरा, रथोद्धता, भुजङ्गप्रयात, तोटक) – 47, छन्द (हरिगीतिका, चौपैया, त्रिभङ्गी, तोमर) – 208। कुल 10902।
ग. श्रीरामचरितमानस में संस्कृत में प्रयुक्त छन्द
मानस में कुल मिलाकर 47 संस्कृत के श्लोक हैं जिनके छन्द इस प्रकार हैं –
1. अनुष्टुप्
यह मानस का पहला छन्द है। वाल्मीकि रामायण मुख्यतः इसी छन्द में लिखी हुई है। इसे श्लोक भी कहते हैं। यह छन्द न पूर्णतयः मात्रिक है, न ही पूर्णतयः वार्णिक। इसमें चार चरण होते हैं। हर चरण में आठ वर्ण होते हैं – पर मात्राएँ सबमें भिन्न भिन्न। प्रत्येक चरण में पाँचवा वर्ण लघु और छठा वर्ण गुरु होता है। पहले और तीसरे चरण में सातवाँ वर्ण गुरु होता है, और दूसरे और चौथे में सातवाँ वर्ण लघु होता है।प्रत्येक चरण के बाद यति होती है। मानस में 7 अनुष्टुप् छन्द हैं – पाँच बालकाण्ड के प्रारंभ में (मङ्गलाचरण श्लोक 1 से 5), एक युद्धकाण्ड के प्रारंभ में (मङ्गलाचरण श्लोक ३) और एक उत्तरकाण्ड में रुद्राष्टकम् के अन्त में (7.108.9)। उदाहरण – मानस का पहला छन्द (1.1.1) –
वर्णानामर्थसङ्घानां रसानां छन्दसामपि ।
मङ्गलानां च कर्तारौ वन्दे वाणीविनायकौ ॥
2. शार्दूलविक्रीडित
इस मनोरम छन्द में चार चरण होते हैं। प्रत्येक चरण में 19 वर्ण होते हैं। 12 वर्णों के पश्चात् तथा चरण के अन्त में यति होती है। गणों का क्रम इस प्रकार है – म स ज स त त ग। मानस में यह छन्द सभी काण्डों में प्रयुक्त है (दोहा, सोरठा, चौपाई और हरिगीतिका भी सभी काण्डों में प्रयुक्त हैं )। मानस में 10 शार्दूलविक्रीडित छन्द हैं – बालकाण्ड (मङ्गलाचरण पद्य 6), अयोध्याकाण्ड (मङ्गलाचरण पद्य 1), सुन्दरकाण्ड (मङ्गलाचरण पद्य 1) और युद्धकाण्ड (मङ्गलाचरण पद्य 2) के प्रारम्भ में एक-एक, अरण्यकाण्ड (मङ्गलाचरण पद्य 1 और 2) और किष्किन्धाकाण्ड (मङ्गलाचरण पद्य 1 और 2) के प्रारम्भ में दो-दो, और उत्तरकाण्ड के (और मानस के) अन्तिम दो पद्य (7.131.1, 7.131.2)। उदाहरण – मानस का अन्तिम पद्य (7.131.2) –
पुण्यं पापहरं सदा शिवकरं विज्ञानभक्तिप्रदं
मायामोहमलापहं सुविमलं प्रेमाम्बुपूरं शुभम् ।
श्रीमद्रामचरित्रमानसमिदं भक्त्यावगाहन्ति ये
ते संसारपतङ्गघोरकिरणैर्दह्यन्ति नो मानवाः ॥
3. वसन्ततिलका
इसे उद्धर्षिणी या सिंहोन्नता भी कहते हैं। यह बड़ा ही मधुर छन्द है। इसमें चार चरण होते हैं। प्रत्येक चरण में 14 वर्ण होते हैं, 8 वर्णों के बाद यति होती है। गणों का क्रम इस प्रकार है – त-भ-ज-ज-ग-ग। “उक्ता वसन्ततिलका तभजा जगौ गः”। मानस में दो स्थानों पर यह छन्द प्रयुक्त है –
1) बालकाण्ड के प्रारम्भ में (मङ्गलाचरण पद्य 7)
नानापुराणनिगमागमसम्मतं यद्रामायणे निगदितं क्वचिदन्यतोऽपि ।
स्वान्तःसुखाय तुलसी रघुनाथगाथाभाषानिबन्धमतिमञ्जुलमातनोति ॥
2) सुन्दरकाण्ड के प्रारम्भ में (मङ्गलाचरण पद्य 2)
नान्या स्पृहा रघुपते हृदयेऽस्मदीये सत्यं वदामि च भवानखिलान्तरात्मा ।
भक्तिं प्रयच्छ रघुपुङ्गव निर्भरां में कामादिदोषरहितं कुरु मानसं च ॥
4. वंशस्थ
इसे वंशस्थविल अथवा वंशस्तनित भी कहते हैं । इसके चार चरण होते हैं। प्रत्येक चरण में 12 वर्ण होते हैं और गणों का क्रम होता है – ज त ज र। प्रत्येक चरण में पाँचवे और बारहवे वर्ण के बाद यति होती है। मानस में केवल एक वंशस्थ छन्द का प्रयोग है अयोध्याकाण्ड के प्रारम्भ में (मङ्गलाचरण पद्य 2) –
प्रसन्नतां या न गताभिषेकतस्तथा न मम्लौ वनवासदुःखतः ।
मुखाम्बुजश्री रघुनन्दनस्य मे सदाऽस्तु सा मञ्जुलमङ्गलप्रदा ॥
5. उपजाति
इन्द्रवज्रा (चार चरण, 11 वर्ण – त त ज ग ग) और उपेन्द्रवज्रा (चार चरण, 11 वर्ण – ज त ज ग ग) के चरण जब एक ही छन्द में प्रयुक्त हों तो उस छन्द को उपजाति कहते हैं। साधारणतः उपजाति छन्द संस्कृत के काव्यों में सबसे अधिक प्रयुक्त होता है, परन्तु मानस में यह एक ही स्थान पर प्रयुक्त हुआ है। अयोध्याकाण्ड के प्रारंभ में (मङ्गलाचरण पद्य 3) –
नीलाम्बुजश्यामलकोमलाङ्गं सीतासमारोपितवामभागम् ।
पाणौ महासायकचारुचापं नमामि रामं रघुवंशनाथम् ॥
6. प्रमाणिका
इसके चार चरण होते हैं। प्रत्येक चरण में 8-8 वर्ण होते हैं। चरण में वर्णों का क्रम लघु-गुरु-लघु-गुरु-लघु-गुरु-लघु-गुरु (।ऽ।ऽ।ऽ।ऽ) होता है। गणों में लिखे तो ज-र-ल-ग। मानस में 13 प्रमाणिकाएँ हैं। अरण्यकाण्ड में अत्रि मुनि कृत स्तुति (3.4.1 से 3.4.12) में 12 प्रमाणिकाएँ प्रयुक्त हैं जिनमें से प्रथम है –
नमामि भक्तवत्सलं कृपालुशीलकोमलम् ।
भजामि ते पदाम्बुजम् अकामिनां स्वधामदम् ॥
गुरुदेव के अनुसार 12 प्रमाणिकाएँ प्रयुक्त होने का कारण है कि प्रभु राम ने 12 वर्षों तक चित्रकूट में निवास किया था। उत्तरकाण्ड में काकभुशुण्डि-गरुड़ संवाद में एक प्रमाणिका है, छन्द संख्या 7.122(ग) –
विनिश्चितं वदामि ते न अन्यथा वचांसि मे ।
हरिं नरा भजन्ति येऽतिदुस्तरं तरन्ति ते ॥
7. मालिनी
इसके चार चरण होते हैं। प्रत्येक चरण में पन्द्रह (15) वर्ण होते हैं – दो नगण, एक मगण और दो यगण ( न-न-म-य-य ) होते हैं। आठवे वर्ण पर और चरण के अंत में यति होती है। मानस में केवल एक मालिनी छन्द है जो सुन्दरकाण्ड के प्रारम्भ में हनुमान जी की स्तुति में आता है (मङ्गलाचरण पद्य 3) –
अतुलितबलधामं स्वर्णशैलाभदेहं
दनुजवनकृशानुं ज्ञानिनामग्रगण्यम् ।
सकलगुणनिधानं वानराणामधीशं
रघुपतिवरदूतं वातजातं नमामि ॥
8. स्रग्धरा
स्रग्धरा मानस में प्रयुक्त संस्कृत छन्दों में सबसे लम्बा है। इसके चार चरण होते हैं। प्रत्येक चरण में वर्ण 21 होते हैं, और 7-7-7 के क्रम से यति। गणों का क्रम इस प्रकार है – म-र-भ-न-य-य-य। तदनुसार लघु(।)-गुरु(ऽ) का क्रम इस प्रकार है – ऽऽऽऽ।ऽऽ (यति) ।।।।।।ऽ (यति) ऽ।ऽऽ।ऽऽ (यति)। मानस में दो स्थानों पर यह छन्द प्रयुक्त है –
1) युद्धकाण्ड का पहला पद्य (मङ्गलाचरण पद्य 1)
रामं कामारिसेव्यं भवभयहरणं कालमत्तेभसिंहं
योगीन्द्रज्ञानगम्यं गुणनिधिमजितं निर्गुणं निर्विकारम् ।
मायातीतं सुरेशं खलवधनिरतं ब्रह्मवृन्दैकदेवं
वन्दे कन्दावदातं सरसिजनयनं देवमुर्वीशरूपम् ॥
2) उत्तरकाण्ड का पहला छन्द (मङ्गलाचरण पद्य 1)
केकीकण्ठाभनीलं सुरवरविलसद्विप्रपादाब्जचिह्नं
शोभाढ्यं पीतवस्त्रं सरसिजनयनं सर्वदा सुप्रसन्नम् ।
पाणौ नाराचचापं कपिनिकरयुतं बन्धुना सेव्यमानं
नौमीड्यं जानकीशं रघुवरमनिशं पुष्पकारूढरामम् ॥
9. रथोद्धता
इसके चार चरण होते हैं। प्रत्येक चरण में 11-11 वर्ण होते हैं। गणों का क्रम है र-न-र-ल-ग। हर चरण में तीसरे/चौथे वर्ण के बाद यति होती है। मानस में उत्तरकाण्ड के प्रारंभ में दो रथोद्धता छन्द हैं (मङ्गलाचरण पद्य 2 और 3) –
कोसलेन्द्रपदकञ्जमञ्जुलौ कोमलावजमहेशवन्दितौ ।
जानकीकरसरोजलालितौ चिन्तकस्य मनभृङ्गसङ्गिनौ ॥
कुन्द इन्दुदरगौरसुन्दरम् अम्बिकापतिमभीष्टसिद्धिदम् ।
कारुणीककलकञ्जलोचनं नौमि शङ्करमनङ्गमोचनम् ॥
गुरुवचन के अनुसार उपरिलिखित दूसरे पद्य के प्रारंभ में “कुन्दः मन्दबुद्धिः इन्दुदरगौरसुन्दरम्” विग्रह समझना चाहिए। कुन्दः अहम् तुलासीदासः शंकरं नौमि इति। सन्धि के कारण कुन्दः के विसर्ग का लोप हो गया है।
10. भुजङ्गप्रयात
इसके चार चरण होते हैं। हर चरण में चार यगण होते हैं (य-य-य-य)। उत्तरकाण्ड में रुद्राष्टक (7.108.1-7.108.8) में ब्राह्मण द्वारा की गयी शिवजी की स्तुति में आठ भुजङ्गप्रयात छन्दों का प्रयोग है, जिनमें से प्रथम है –
नमामीशमीशाननिर्वाणरूपं विभुं व्यापकं ब्रह्मवेदस्वरूपम् ।
निजं निर्गुणं निर्विकल्पं निरीहं चिदाकाशमाकाशवासं भजेऽहम् ॥
घ. श्रीरामचरितमानस में प्राकृत (अवधी) में प्रयुक्त छन्द
11. सोरठा (सौराष्ट्र)
यह मानस में प्राकृत में पहला छन्द है। यह मात्रिक छन्द है। इसमें चार चरणों में 11-13 11-13 मात्राएँ होती हैं। हर चरण के अन्त में यति होती है। पहले और तीसरे चरण के अन्त में तुक होता है, और तुक में गुरु-लघु का क्रम रहता है। 11 मात्राएँ 6-4-1 और 13 मात्राएँ को 6-4-3 में विभाजित होती हैं, परन्तु इस विभाजन में यति या शब्द सीमा का कोई नियम नहीं है। हर चरण के अन्त पर शब्द सीमा होती है। उदाहरणतः देखें बालकाण्ड के मङ्गलाचरण का आठवाँ पद्य –
जेहि सुमिरत सिधि होइ गन नायक करिबर बदन ।
करउ अनुग्रह सोइ बुद्धि रासि सुभ गुन सदन ॥
दोहा में 13-11 13-11 का क्रम रहता है और तुक दूसरे और चौथे चरण में बनता है – बाकी सब सोरठे जैसा ही है। वैसे यहाँ भी दूसरे और चौथे चरण में तुक है लेकिन यह दोहा नहीं है क्योंकि बदन और सदन में तुक में गुरु-लघु का क्रम नहीं है, और दूसरे पंक्ति में 13 मात्राओं के बाद यति (शब्द का अंत) नहीं है, “करउ अनुग्रह सोइ” में “बुद्धि” जोड़ने से ११ से सीधे १४ मात्राएँ हो जायेंगी और क्रम १४-१० हो जायेगा। मानस में 87 सोरठे हैं – बालकाण्ड में 36, अयोध्याकाण्ड में 13 (हर पच्चीसवे चौपाई समूह के बाद – 2.25, 2.50, 2.75, 2.100, 2.126, 2.151,इत्यादि), अरण्यकाण्ड में 8, किष्किन्धाकाण्ड में 3, सुन्दरकाण्ड में 1, युद्धकाण्ड में 9 और उत्तरकाण्ड में 17।
12. चौपाई
इस मात्रिक छन्द के दो चरण होते हैं, प्रत्येक में 16-16 मात्राएँ होती हैं। हर चरण में 8 मात्राओं के बाद यति होती है। केवल एक चरण हों तो उसे अर्धाली कहते हैं। यह मानस का प्रमुख छन्द है। प्रथम और द्वितीय चरण के अन्त में तुक होता है। उदाहरण (5.40.6)-
जहाँ सुमति तहँ संपति नाना । जहाँ कुमति तहँ बिपति निदाना ॥
हनुमान चालीसा में भी यही छंद है, और वहाँ 40 चौपाइयाँ हैं। मानस में कुल 9388 चौपाइयाँ हैं, जिनकी उपमा इस अर्धाली (1.37.4) में गोस्वामी जी ने मानससरोवर के घने कमल के पत्तों से दी है –
पुरइनि सघन चारु चौपाई ।
13. दोहा (द्विपाद)
यह भी एक मात्रिक छंद है। इसमें चार चरणों में 13-11 13-11 मात्राएं होती हैं। हर चरण के अन्त में यति होती है। दूसरे और चौथे चरण के अन्त में तुक होता है, और तुक में गुरु-लघु का क्रम रहता है। 13 मात्राएँ 6-4-3 और 11 मात्राएँ को 6-4-1 में विभाजित होती हैं, परन्तु इस विभाजन में यति या शब्द सीमा का कोई नियम नहीं है। हर चरण के अन्त पर शब्द सीमा होती है। उदाहरण (1.1) –
जथा सुअंजन अंजि दृग साधक सिद्ध सुजान ।
कौतुक देखत सैल बन भूतल भूरि निधान ॥
श्रीरामचरितमानस में 1172 दोहे हैं – जिनमें बालकाण्ड में 359, अयोध्याकाण्ड में 314, अरण्यकाण्ड में 51, किष्किन्धाकाण्ड में 31, सुन्दरकाण्ड में 62, युद्धकाण्ड में 148 और उत्तरकाण्ड में 207 दोहे सम्मिलित हैं।
14. हरिगीतिका
यदि मानस कि चौपाइयाँ के पत्ते हैं और दोहा सोरठा आदि अन्य छन्द बहुरंगी कमल हैं, तो निश्चित रूप से हरिगीतिका उत्तुङ्ग शिखरों पे दीखने वाला “ब्रह्मकमल” है। यह छन्द गाने में अत्यन्त मनोहर है, और इसमें गोस्वामीजी के भाव ऐसे निखर के सामने आते हैं कि इस छन्द की शोभा सुनते ही बनती है। इसमें चार चरण होते हैं। प्रत्येक चरण में 28 मात्राएँ होती हैं, जोकि 7-7-7-7 (2-2-1-2, 2-2-1-2, 2-2-1-2, 2-2-1-2) के क्रम से होती हैं। प्रत्येक सातवीं मात्रा के बाद यति होती है। पहले और दूसरे चरण के अन्त में तुक होता है, और तीसरे और चौथे चरण के अन्त में भी तुक होता है। तुक में क्रम लघु-गुरु होता है। मानस में हरिगीतिका चौपाइयों और दोहा/सोरठा के बीच आता है। और इसके प्रारम्भ के 2-3 शब्द प्रायः इसके पहले की चौपाई के अंत के 2-3 शब्द अथवा उन शब्दों के पर्याय होते है। ध्यान देने योग्य है कि शिव विवाह में 11 स्थानों पर (1 सोरठा और 10 दोहों के पहले) और राम विवाह में 12 स्थानों पर (12 दोहों के पहले) हरिगीतिका छन्द है – स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती के अनुसार इसका कारण है कि रुद्र (शिव) 11 हैं और आदित्य (विष्णु) 12 हैं। उदाहरण (5.34.11) –
चिक्करहिं दिग्गज डोल महि गिरि लोल पावक खरभरे ।
मन हरष सभ गंधर्ब सुर मुनि नाग किंनर दुख टरे ।
कटकटहिं मर्कट बिकट भट बहु कोटि कोटिन्ह धावहीं ।
जय राम प्रबल प्रताप कोसलनाथ गुन गन गावहीं ॥
मानस में केवल पाँच छन्द हैं जो प्रत्येक काण्ड में हैं – चौपाई, दोहा, हरिगीतिका, सोरठा और शार्दूलविक्रीडित। हरिगीतिकाओं की सङ्ख्या 139 है – बालकाण्ड में 47, अयोध्याकाण्ड में 13, अरण्यकाण्ड में 14, किष्किन्धाकाण्ड में 3, सुन्दरकाण्ड में 6, युद्धकाण्ड में 38 और उत्तरकाण्ड में 18।
15. चौपैया
चार चरण, हर चरण में 30 मात्राएँ (10-8-12) , 10 और 18 मात्राओं के बाद यति, हर चरण के अंत में गुरु। पहले और दूसरे चरणों के अन्त में तुक, तीसरे और चौथे चरणों के अंत में तुक। और साथ ही हर चरण के अन्दर 10 और 18 मात्राओं के अन्त पे भी तुक। ध्यान रहे – त्रिभङ्गी में 10-8-14 मात्राओं का क्रम है, और यहाँ 10-8-12। मानसजी में बालकाण्ड में 10 चौपैया छन्दों का प्रयोग है – 1.183.9, 1.184.9, 1.186.1 से 1.186.4, 1.192.1 से 1.192.4। इनमें देवताओं द्वारा श्रीरामचन्द्र की स्तुति (1.186.1 से 1.186.4,) और श्रीराम का आविर्भाव (1.192.1 से 1.192.4) तो मानस प्रेमियों को अत्यन्त प्रिय हैं। उदाहरण –
1) देवताओं की स्तुति (1.186.1)
जय जय सुरनायक (10) + जन सुखदायक (8) + प्रनतपाल भगवंता (12) = 30 ।
गो द्विज हितकारी (10) + जय असुरारी (8) + सिंधुसुता प्रिय कंता (12) = 30 ।
पालन सुर धरनी (10) अद्भुत करनी (8) मरम न जानई कोई (12) = 30 ।
जो सहज कृपाला (10) + दीनदयाला (8) करउ + अनुग्रह सोई (12) = 30 ॥
2) श्रीराम जी का आविर्भाव (1.192.1)
भए प्रगट कृपाला (10) + दीनदयाला (8) + कौसल्या हितकारी (12) = 30 ।
हरषित महतारी (10) + मुनि मन हारी (8) + अद्भुत रूप निहारी (12) = 30 ।
लोचन अभिरामा (10) + तनु घनश्यामा (8) + निज आयुध भुज चारी (12) = 30 ।
भूषन बनमाला (10) + नयन बिशाला (8) शोभासिन्धु खरारी (12) = 30 ॥
16. त्रिभङ्गी
त्रिभङ्गी के एक चरण में 32 मात्राएँ होती हैं। इसमें एक चरण के अन्दर भी तुक होता है और चरणों के बीच मैं भी। प्रथम और द्वितीय चरणों में, और तृतीय और चतुर्थ चरणों में तुक होता है – और हर चरण का अन्तिम वर्ण गुरु होता है। 32 मात्राएँ 10-8-14 में विभाजित हैं, 10 और 8 के बीच यति है, और 8 और 14 के बीच यति है। साथ में 10 मात्राओं के अन्तिम वर्ण और 8 मात्राओं के अन्तिम वर्ण में भी तुक बनता है। ऐसे त्रिभंगी को 10-8-8-6 में भी बाँटते हैं, पर मानस में सर्वत्र अन्तिम 8 और 6 के बीच यति न होने के कारण 10-8-14 का क्रम दिया गया है। मानस में बालकाण्ड में अहल्योद्धार के प्रकरण में चार (4) त्रिभङ्गी छन्द प्रयुक्त हुए हैं – 1.211.1 से 1.211.4। गुरुवचन के अनुसार इसका कारण है कि अपने चरण से अहल्या माता को छूकर प्रभु श्रीराम ने अहल्या के पाप, ताप और शाप को भङ्ग (समाप्त) किया, अतः गोस्वामी जी की वाणी में सरस्वतीजी ने त्रिभङ्गी छन्द को प्रकट किया। उदाहरण (1.211.1) –
परसत पद पावन (10) + शोक नसावन (8) + प्रगट भई तपपुंज सही (14) = 32 ।
देखत रघुनायक (10) + जन सुखदायक (8) + सनमुख होइ कर जोरि रही (14) = 32 ।
अति प्रेम अधीरा (10) + पुलक शरीरा (8) + मुख नहिं आवइ बचन कही (14) = 32 ।
अतिशय बड़भागी (10) + चरनन लागी (8) + जुगल नयन जलधार बही (14) = 32 ॥
17. तोमर
तोमर एक मात्रिक छन्द है जिसके प्रत्येक चरण में 12 मात्राएँ होती हैं। पहले और दुसरे चरण के अन्त में तुक होता है, और तीसरे और चौथे चरण के अन्त में भी तुक होता है। मानस में तीन स्थानों पर आठ-आठ (कुल 24) तोमर छन्दों का प्रयोग है। ये तीन स्थान हैं –
1) अरण्यकाण्ड में खर, दूषण, त्रिशिरा और 14000 राक्षसों की सेना के साथ प्रभु श्रीराम का युद्ध (3.20.1 से 3.20.8)
तब चले बान कराल । फुंकरत जनु बहु ब्याल ।
कोपेउ समर श्रीराम । चले बिशिख निशित निकाम ॥
2) युद्धकाण्ड में रावण का मायायुद्ध (6.101.1 से 6.101.8)
जब कीन्ह तेहिं पाषंड । भए प्रगट जंतु प्रचंड ।
बेताल भूत पिशाच । कर धरें धनु नाराच ॥
3) युद्धकाण्ड में वेदवतीजी के अग्निप्रवेश और सीताजी के अग्नि से पुनरागमन के पश्चात् इन्द्रदेव द्वारा राघवजी की स्तुति (6.113.1 से 6.113.8)
जय राम शोभा धाम । दायक प्रनत बिश्राम ।
धृत तूण बर शर चाप । भुजदंड प्रबल प्रताप ॥
18. तोटक
तोटक में चार चरण होते हैं। हर चरण में 12-12 वर्ण होते हैं और सारे छंद में केवल “सगण” (लघु-लघु-गुरु अथवा ॥ऽ) का क्रम रहता है (“वद तोटकमब्धिसकारयुतम्” )। प्रत्येक चरण में 4 सगण होते हैं। मानस जी में 31 तोटक छन्द हैं जो कि इन स्थानों पर हैं –
1. युद्धकाण्ड में रावण वध के बाद ब्रह्माजी कृत राघवस्तुति में ग्यारह छन्द (6.111.1 से 6.111.11) –
जय राम सदा सुखधाम हरे । रघुनायक सायक चाप धरे ।
भव बारन दारन सिंह प्रभो । गुन सागर नागर नाथ बिभो ॥
2. उत्तरकाण्ड में वेदों द्वारा की गयी स्तुति में दस छन्द (7.14.1 से 7.14.10)
जय राम रमा रमणं शमनम् । भवताप भयाकुल पाहि जनम् ।
अवधेश सुरेश रमेश बिभो । शरणागत माँगत पाहि प्रभो ॥
3. उत्तरकाण्ड में काकभुशुण्डि जी के पूर्वजन्म की कथा में विकराल कलियुग वर्णन के प्रकरण में दस छन्द (7.101.1 से 7.101.5, और 7.102.1 से 7.102.5) –
बहु दाम सँवारहिं धाम जती । विषया हरी लीन्ह गई बिरती ।
तपसी धनवंत दरिद्र गृही । कलि कौतुक तात न जात कही ॥
Courtesy : Nityānanda Miśra, IIMBangaluru
रामचरितमानस में छन्द
छ्न्द शास्त्र की अनमोल और प्रमाणिक जानकारी ।
आप जैसे सुहृद पाठकों की प्रेरणा व मार्गदर्शन मिलता रहे |
इस पुनीत कार्य के लिए आपको बधाई! साधुवाद! नमन!
उपर्युक्त आलेख में कुछ विसंगतियां है, उन पर भी ध्यान देने की आवश्यकता है, यथा चौपाई चार चरणों का छन्द है , उसे दो चरणों का मान लेना और उसके अनुसार गणना करना उचित नहीं प्रतीत होता है!
चार चरणों की चौपाइयों की संख्या = ४६४८
शेष बची दो चरणों वाली अर्धालियों की संख्या = ९२
कुछ और भी विसंगतियां हैं! सादर!
एक बात और …
आपने तोमर छन्दों की संख्या 3.20.1 से 3.20.8 तक आठ बताई है किन्तु गीता प्रेस की रामचरित मानस में 3.20.1 से 3.20.7 तक सात ही तोमर हैं, 3.20.8 है ही नहीं! कृपया संदेह का निवारण करें!
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HUM TO RAM JI KE RAM JI HAMARE HAI
मानस में प्रयुक्त वर्णिक और मात्रिक छंदों का सटीक निरूपण पढ़कर सुखद अनुभूति हुई। बधाई।
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जो दोहा की संख्या का निरूपण किया गया है उसमें और ग्रंथ में अंतर है कृपया इसको प्रमाणित करें।
sundar jankari, bahut-bahut dhanyabad, pranam
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मानस छंद शास्त्र का अनमोल ज्ञान देने के लिए
हदयतल से आभार।
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Thankyou.🙏🙏🙏
Aapka bohot bohot dhnayewad jo aap sabke hit ke liye shreeram charit manas ji ka prasharad kar rhe hai 🥰👍❤️
जय श्री राम, बहुत सुंदर ✨👌🙏
महाकवि तुलसीदास जी ने रामचरितमानस में बहुत ही सुंदर चांद योजना बनाकर ग्रंथ का सृजन किया है,,
साथ ही साथ ही उपयुक्त छंद विधान की सटीक जानकारी प्रस्तुत करने के लिए आपको भी आपको भी बहुत-बहुत धन्यवाद जय श्री राम
बहुत सुंदर । कृपया सुतीक्ष्ण जी की स्तुति किस छंद में हैं जानकारी देने की कृपा करे