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भगवान श्रीराम की गुरुसेवा

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मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम अपने शिक्षागुरु विश्वामित्रजी के पास बहुत संयम, विनय और विवेक से रहते थे। गुरु की सेवा में वे सदैव

मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम अपने शिक्षागुरु विश्वामित्रजी के पास बहुत संयम, विनय और विवेक से रहते थे। गुरु की सेवा में वे सदैव तत्पर रहते थे। उनकी सेवा के विषय में भक्त कवि तुलसीदासजी ने लिखा हैः

मुनिबर सयन कीन्हि तब जाई। लगे चरन चापन दोउ भाई।।

जिन्ह के चरन सरोरूह लागी। करत बिबिध जप जोग बिरागी।।

बार बार मुनि अग्या दीन्ही। रघुबर जाइ सयन तब कीन्ही।।

(श्रीरामचरित मानसबालकांडः 225.2.3)

 

गुर तें पहिलेहिं जगतपति जागे रामु सुजान।।

(श्रीरामचरित मानसबालकांडः 226)

सीता स्वयंवर में जब सब राजा एकएक करके धनुष उठाने का प्रयत्न कर रहे थे, तब श्रीराम संयम से बैठे ही रहे। जब गुरु विश्वामित्र की आज्ञा हुई तभी वे खड़े हुए और उन्हें प्रणाम करके धनुष उठाया।

सुनि गुरु बचन चरन सिरु नावा। हरषु बिषादु कछु उर आवा।।

(श्रीरामचरित मानसबालकांडः 253.4)

गुरहि प्रनामु मनहिं मन कीन्हा। अति लावघवँ उठाइ धनु लीन्हा।।

(श्रीरामचरित मानसबालकांडः 260.3)

श्री सदगुरुदेव के आदर और सत्कार में श्रीराम कितने विवेकी और सचेत थे इसका उदाहरण तब देखने को मिलता है, जब उनको राज्योचित शिक्षण देने के लिए उनके गुरु वसिष्ठजी महाराज महल में आते हैं। सदगुरु के आगमन का समाचार मिलते ही श्रीराम सीता जी सहित दरवाजे पर आकर गुरुदेव का सम्मान करते हैं

गुरु आगमनु सुनत रघुनाथा। द्वार आइ पद नायउ माथा।।

सादर अरघ देइ घर आने। सोरह भाँति पूजि सनमाने।।

गहे चरन सिय सहित बहोरी। बोले रामु कमल कर जोरी।।

(श्रीरामचरित मानसअयोध्याकांडः 8.1.2)

इसके उपरांत श्रीरामजी भक्तिभावपूर्वक कहते हैं– “नाथ ! आप भले पधारे। आपके आगमन से घर पवित्र हुआ। परंतु होना तो यह चाहिए था कि आप समाचार भेज देते तो यह दास स्वयं सेवा में उपस्थित हो जाता।

इस प्रकार ऐसी विनम्र भक्ति से श्रीराम अपने गुरुदेव को संतुष्ट रखते थे।


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Shiv

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