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श्री विष्णु स्तुति संग्रह

श्रीहरिशरणाष्टकम् (हिंदी अर्थ सहित) स्वामिब्रह्मानन्दविरचितं | Sri Harisharanashtakam Lyrics

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श्रीहरिशरणाष्टकम् (हिंदी अर्थ सहित) स्वामिब्रह्मानन्दविरचितं

 

ध्येयं वदन्ति शिवमेव हि केचिदन्ये
शक्तिं गणेशमपरे तु दिवाकरं वै।
रूपैस्तु तैरपि विभासि यतस्त्वमेव
तस्मात्त्वमेव शरणं मम दीनबन्धो ॥१॥

कोई शिवको ही ध्येय बताते हैं तथा कोई शक्तिको, कोई गणेशको और कोई भगवान् भास्करको ध्येय कहते हैं; उन सब रूपोंमें आप ही भास रहे हैं, इसलिये हे दीनबन्धो! मेरी शरण तो एकमात्र आप ही हैं॥१॥
(* ‘शङ्खपाणे’ इति पाठान्तरम्।)

नो सोदरो न जनको जननी न जाया
नैवात्मजो न च कुलं विपुलं बलं वा।
सन्दृश्यते न किल कोऽपि सहायको मे।
तस्मात्त्वमेव शरणं मम दीनबन्धो॥२॥

भ्राता, पिता, माता, स्त्री, पुत्र, कुल एवं प्रचुर बल–इनमेंसे कोई भी मुझे अपना सहायक नहीं दीखता; अतः हे दीनबन्धो! आप ही मेरी एकमात्र शरण हैं॥२॥

नोपासिता मदमपास्य मया महान्त-
स्तीर्थानि चास्तिकधिया न हि सेवितानि।
देवार्चनं च विधिवन्न कृतं कदापि।
तस्मात्त्वमेव शरणं मम दीनबन्धो॥३॥

मैंने न तो अभिमानको छोड़कर महात्माओंकी आराधना की, न आस्तिक बुद्धिसे तीर्थोंका सेवन किया है और न कभी विधिपूर्वक देवताओंका पूजन ही किया है; अतः हे दीनबन्धो ! अब आप ही मेरी एकमात्र शरण हैं।३॥

दुर्वासना मम सदा परिकर्षयन्ति
चित्तं शरीरमपि रोगगणा दहन्ति।
सञ्जीवनं च परहस्तगतं सदैव।
तस्मात्त्वमेव शरणं मम दीनबन्धो॥४॥

दुर्वासनाएँ मेरे चित्तको सदा खींचती रहती हैं, रोगसमूह सर्वदा शरीरको तपाते रहते हैं और जीवन तो सदैव परवश ही है; अतः हे दीनबन्धो! आप ही मेरी एकमात्र शरण हैं॥४॥

पूर्वं कृतानि दुरितानि मया तु यानि
स्मृत्वाखिलानि हृदयं परिकम्पते मे।
ख्याता च ते पतितपावनता तु यस्मात्।
तस्मात्त्वमेव शरणं मम दीनबन्धो॥५॥

पहले मुझसे जो-जो पाप बने हैं, उन सबको याद कर-करके मेरा हृदय काँपता है; किन्तु तुम्हारी पतितपावनता तो प्रसिद्ध ही है, अतः हे दीनबन्धो! अब आप ही मेरी एकमात्र शरण हैं। ५॥

दुःखं जराजननजं विविधाश्च रोगाः
काकश्वसूकरजनिर्निरये च पातः।
ते विस्मृतेः फलमिदं विततं हि लोके।
तस्मात्त्वमेव शरणं मम दीनबन्धो॥६॥

प्रभो! आपको भूलनेसे जरा-जन्मादिसम्भूत दुःख, नाना व्याधियाँ, काक, कुत्ता, शूकरादि योनियाँ तथा नरकादिमें पतन-ये ही फल संसारमें विस्तृत हैं, अतः हे दीनबन्धो! अब आप ही मेरी एकमात्र गति हैं॥६॥

नीचोऽपि पापवलितोऽपि विनिन्दितोऽपि
ब्रूयात्तवाहमिति यस्तु किलैकवारम्।
तं यच्छसीश निजलोकमिति व्रतं ते।
तस्मात्त्वमेव शरणं मम दीनबन्धो॥७॥

नीच, महापापी अथवा निन्दित ही क्यों न हो; किन्तु जो एक बार भी यह कह देता है कि ‘मैं आपका हूँ’, उसीको आप अपना धाम दे देते हैं, हे नाथ! आपका यही व्रत है; अतः हे दीनबन्धो! अब आप ही मेरी एकमात्र गति हैं ॥ ७॥

वेदेषु धर्मवचनेषु तथागमेषु
रामायणेऽपि च पुराणकदम्बके वा।
सर्वत्र सर्वविधिना गदितस्त्वमेव।
तस्मात्त्वमेव शरणं मम दीनबन्धो॥८॥

वेद, धर्मशास्त्र, आगम, रामायण तथा पुराणसमूह में भी सर्वत्र सब प्रकार आपही का कीर्तन है; अतः हे दीनबन्धो! अब आप ही मेरी एकमात्र गति हैं॥८॥

इति श्रीमत्परमहंसस्वामिब्रह्मानन्दविरचितं श्रीहरिशरणाष्टकं सम्पूर्णम्।


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Shiv

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