समुझत सरिस नाम अरु नामी। प्रीति परसपर प्रभु अनुगामी॥ नाम रूप दुइ ईस उपाधी। अकथ अनादि सुसामुझि साधी॥1॥
श्रीगणेशायनमः | Shri Ganeshay Namah
श्रीजानकीवल्लभो विजयते | Shri JanakiVallabho Vijayte
श्रीरामचरितमानस | Shri RamCharitManas
प्रथम सोपान | Descent First
श्री बालकाण्ड | Shri Bal-Kanda
चौपाई 20.1| |Caupāī 20.1
समुझत सरिस नाम अरु नामी। प्रीति परसपर प्रभु अनुगामी॥
नाम रूप दुइ ईस उपाधी। अकथ अनादि सुसामुझि साधी॥1॥
भावार्थ:-समझने में नाम और नामी दोनों एक से हैं, किन्तु दोनों में परस्पर स्वामी और सेवक के समान प्रीति है (अर्थात् नाम और नामी में पूर्ण एकता होने पर भी जैसे स्वामी के पीछे सेवक चलता है, उसी प्रकार नाम के पीछे नामी चलते हैं। प्रभु श्री रामजी अपने ‘राम’ नाम का ही अनुगमन करते हैं (नाम लेते ही वहाँ आ जाते हैं)। नाम और रूप दोनों ईश्वर की उपाधि हैं, ये (भगवान के नाम और रूप) दोनों अनिर्वचनीय हैं, अनादि हैं और सुंदर (शुद्ध भक्तियुक्त) बुद्धि से ही इनका (दिव्य अविनाशी) स्वरूप जानने में आता है॥1॥
samujhata sarisa nāma aru nāmī. prīti parasapara prabhu anugāmī..
nāma rūpa dui īsa upādhī. akatha anādi susāmujhi sādhī..
The name and the object named, though similar in significance, are allied as master and servant one to the other. (That is to say, even though there is complete identity between God and His name, the former closely follows the latter even as a servant follows his master. The Lord appears in person at the very mention of His Name). Name and form are the two attributes of God; both of them are ineffable and beginningless and can be rightly understood only by means of good intelligence.