कहि न सकहिं कछु प्रेम बस भरि भरि लोचन बारि॥ सन्मुख चितवहिं राम तन नयन निमेष निवारि॥118 ग॥
श्रीगणेशायनमः | Shri Ganeshay Namah
श्रीजानकीवल्लभो विजयते | Shri JanakiVallabho Vijayte
श्रीरामचरितमानस | Shri RamCharitManas
षष्ठः सोपानः | Descent 6th
श्री लंकाकाण्ड | Shri Lanka Kand
दोहा :
कहि न सकहिं कछु प्रेम बस भरि भरि लोचन बारि॥
सन्मुख चितवहिं राम तन नयन निमेष निवारि॥118 ग॥
भावार्थ:
वे कुछ कह नहीं सकते, प्रेमवश नेत्रों में जल भर-भरकर, नेत्रों का पलक मारना छोड़कर (टकटकी लगाए) सम्मुख होकर श्री रामजी की ओर देख रहे हैं॥118 (ग)॥
IAST :
Meaning :