निज इच्छाँ प्रभु अवतरइ सुर मह गो िद्वज लागि। सगुन उपासक संग तहँ रहहिं मोच्छ सब त्यागि॥26॥
श्रीगणेशायनमः | Shri Ganeshay Namah
श्रीजानकीवल्लभो विजयते | Shri JanakiVallabho Vijayte
श्रीरामचरितमानस | Shri RamCharitManas
चतुर्थ: सोपान | Descent 4th
श्री किष्किंधाकांड | Shri kishkindha-Kand
दोहा :
निज इच्छाँ प्रभु अवतरइ सुर मह गो िद्वज लागि।
सगुन उपासक संग तहँ रहहिं मोच्छ सब त्यागि॥26॥
भावार्थ:
देवता, पृथ्वी, गो और ब्राह्मणों के लिए प्रभु अपनी इच्छा से (किसी कर्मबंधन से नहीं) अवतार लेते हैं। वहाँ सगुणोपासक (भक्तगण सालोक्य, सामीप्य, सारुप्य, सार्ष्टि और सायुज्य) सब प्रकार के मोक्षों को त्यागकर उनकी सेवा में साथ रहते हैं॥26॥
English :
IAST :
Meaning :