निज कबित्त केहि लाग न नीका। सरस होउ अथवा अति फीका॥ जे पर भनिति सुनत हरषाहीं। ते बर पुरुष बहुत जग नाहीं॥6॥
श्रीगणेशायनमः | Shri Ganeshay Namah
श्रीजानकीवल्लभो विजयते | Shri JanakiVallabho Vijayte
श्रीरामचरितमानस | Shri RamCharitManas
प्रथम सोपान | Descent First
श्री बालकाण्ड | Shri Bal-Kanda
चौपाई 7(घ).6| Caupāī 7 (Gha).6
निज कबित्त केहि लाग न नीका।
सरस होउ अथवा अति फीका॥
जे पर भनिति सुनत हरषाहीं। ते बर पुरुष बहुत जग नाहीं॥6॥
भावार्थ:-रसीली हो या अत्यन्त फीकी, अपनी कविता किसे अच्छी नहीं लगती? किन्तु जो दूसरे की रचना को सुनकर हर्षित होते हैं, ऐसे उत्तम पुरुष जगत में बहुत नहीं हैं॥6॥
nija kavita kēhi lāga na nīkā. sarasa hōu athavā ati phīkā..
jē para bhaniti sunata haraṣāhī. tē bara puruṣa bahuta jaga nāhīṃ..
Who does not like one’s own poetry, be it delightful or exceedingly insipid? Such good people as delight to hear others’ composition are rare in this world.