बरवै रामायण हिंदी अर्थ सहित पाठ (श्री गोस्वामी तुलसीदास विरचित)
॥श्रीहरि:॥
श्री गोस्वामी तुलसीदास विरचित बरवै रामायण
बरवै रामायण परिचय:
बरवै रामायण गोस्वामी तुलसीदास की प्रसिद्ध रचनाओं में से एक है। इसमें ‘बरवा या बरवै’ छन्दों में भगवान श्रीराम की कथा कही गयी है। गीताप्रेस के मुद्रित बरवै रामायण पाठ में स्फुट 69 बरवै छंद हैं, जो ‘कवितावली’ की ही भांति सात काण्डों में विभाजित है। प्रथम छ: काण्डों में रामकथा के छन्द हैं, उत्तरखण्ड में रामभक्ति के छन्द हैं। यह रचना बहुत स्फुट ढंग पर निर्मित हुई है, या यों कहना चाहिए कि इसमें बहुत स्फुट ढंग पर रचे हुए रामकथा तथा रामभक्ति सम्बन्धी बरवा छन्दों का संग्रह हुआ है।
बरवै छंद के सिद्धांत/ परिभाषा:
यह अवधी भाषा’ का व्यक्तिगत छन्द है जो प्रायः श्रृंगार रस के लिए प्रयुक्त होता है, इसमें कुल 19 मात्रा होती है, जिसमें 12 एवं 7 पर यति र्थात विराम होता है। सम चरणों के अन्त में ‘जगण’ (। S ।) होता है। बरवै छंद के सरल उदाहरण निम्नलिखित पद हैं;
(बरवै रामायण बालकाण्ड)
बड़े नयन कुटि भृकुटी भाल बिसाल।
तुलसी मोहत मनहि मनोहर बाल ॥ १॥
गोस्वामी तुलसीदासजी कहते हैं कि (बालक श्रीरामके) नेत्र बड़े-बड़े हैं, भौंहें टेढ़ी हैं, ललाट विशाल (चौड़ा) है, यह मनोहर बालक मन को मोह लेता है॥१॥
कुंकुम तिलक भाल श्रुति कुंडल लोल।
काकपच्छ मिलि सखि कस लसत कपोल॥२॥
(अयोध्या के राजभवन की स्त्रियाँ कहती हैं-) सखी ! श्रीरमके ललाटपर केसरका तिलक है, कानोंमें चञ्नल कुण्डल हैं और जुल्फोंसे मिलकर
गोल-गोल गाल कैसे सुशोभित हो रहे हैं॥ २॥
भाल तिलक सर सोहत भौंह कमान।
मुख अनुहरिया केवल चंद समान॥३॥
मस्तक पर तिलक की रेखा बाण के समान शोभा दे रही है और भौंहें धनुष के समान हैं। मुख की तुलना में तो अकेला (पूर्णिमा का) चन्द्रमा
ही आ सकता है॥३॥
तुलसी बंक बिलोकनि मृदु मुसुकानि।
कस प्रभु नयन कमल अस कहौं बखानि॥४॥
तुलसीदासजी कहते हैं कि (श्रीराम की) चितवन तिरछी है, मन्द-मन्द मुसकान उनके होठों पर खेल रही है। प्रभु के नेत्रों कों कमल के समान कहकर कैसे वर्णन करूँ, (क्यों कि ये नेत्र तो नित्य प्रफ्फुल्लित रहते हैं और कमल रात्रि में कुम्हला जाता है।)॥४॥
चढ़त दसा यह उतरत जात निदान।
कहौं न कबहूँ करकस भौंह कमान॥५॥
(श्रीरामकी) भौंहोंको मैं कभी भी कठोर धनुष के समान नहीं कहूँगा; क्योंकि उस धनुष की दशा यह है कि वह एक बार (शत्रु के साथ मुठभेड़ होने पर) तो तन जाता है और अन्त में (काम होनेपर- प्रत्यक्ष से हाथ हटा लिये जाने पर क्रमशः) उतरता जाता (ढीला कर दिया जाता) है (इधर प्रभुकी भौंहें कोमल हैं तथा सदा बाँकी रहती हैं)॥५॥
काम रूप सम तुलसी राम स्वरूप।
को कबि समसरि करै परै भवकूप॥६॥
तुलसीदासजी कहते हैं कि ऐसा कौन कवि है, जो श्रीराम के स्वरूप की तुलना कामदेव के रूप से करके (इस अपराध से) संसार रूपी कुएँ
(आवागमन के चक्र) में पड़ेगा॥ ६॥
साधु सुसील सुमति सुचि सरल सुभाव।
राम नीति रत काम कहा यह पाव॥७॥
श्रीराम साधु (परम सज्जन), उत्तम शील सम्पन्न, उत्तम बुद्धि वाले, पवित्र, सरल स्वभाव के तथा न्यायपरायण हैं, भला कामदेव यह (सब) कहाँ
पा सकता है॥७॥
सींक-धनुष हित सिखन सकुचि प्रभु लीन।
मुदित माँगि इक धनुही नृप हँसि दीन॥८॥
संकोच के साथ प्रभु ने ( धनुष चलाना) सीखने के लिये (हाथ में) एक तिनके का धनुष लिया। (यह देख) प्रसन्न होकर महाराज दशरथ ने एक धनुही (नन्हा धनुष) मँगाकर हँसकर उन्हें दिया॥८॥
केस मुकुत सखि मरकत मनिमय होत।
हाथ लेत पुनि मुकुता करत उदोत॥९॥
(श्रीराम रूप का वर्णन करनेके अनन्तर अब श्री जानकीजी के रूप का वर्णन करते हैं। जनकपुर की स्त्रियाँ परस्पर कह रही हैं– ) सखी !(श्रीजनककुमारी के) केशों में गूँथे जाने पर (उनका नीले रंग की झाईं पड़ने से ) मोती मरकत मणि (पन्ने) के बने हुए (हरे) प्रतीत होते हैं, किन्तु फिर हाथ में लिये जाने पर वे श्वेत आभा बिखेरने लगते हैं ॥ ९॥
सम सुबरन सुषमाकर सुखद न थोर।
सिय अंग सखि कोमल कनक कठोर॥१०॥
सखी! स्वर्ण शोभा (कान्ति)-में तो श्रीजानकीजी के श्रीअङ्गों के समान है, किन्तु उनकी तुलना में थोड़ा भी सुखदायी (शीतल) नहीं है और श्रीजानकी के अंग कोमल हैं, पर स्वर्ण कठोर है॥१०॥
सिय मुख सरद-कमल जिमि किमि कहि जाइ।
निसि मलीन वह निसि दिन यह बिगसाइ॥११॥
श्रीसीताजी का मुख शरद-ऋतु के कमल के समान कैसे कहा जाय, क्यों कि वह (कमल) तो रात्रि में म्लान होता है, किंतु यह (श्रीमुख) रात-दिन (समान रूप से) प्रफ्फुल्लित रहता है॥ ११॥
चंपक हरवा अंग मिलि अधिक सोहाइ।
जानि परै सिय हिवरें जब कुँभिलाइ॥१२॥
चम्पा के पुष्प की माला श्रीजानकीजी के अंग से सटकर बहुत शोभा देती है, किंतु (वह उनके शरीरकी कान्ति में ऐसी मिल जाती है कि) उनके हृदय पर माला है, यह यता तब लगता है, जब वह कुम्हिला जाती (कुछ सूख जाती) है॥१२॥
सिय तुव अंग रंग मिलि अधिक उदोत।
हार बेल पहिरावौं चंपक होत॥१३॥
(सखी श्रीजानकीजीसे ही कहती है–) जानकी ! तुम्हारे शरीरके रंगसे मिलकर पुष्पहार अधिक प्रकाशित होता है और तो और (तुम्हारे अंग की स्वर्ण कान्ति के कारण) बेला (मोगरा) के पुष्पों की माला मैं (तुम्हें) पहनाती हूँ तो वह भी चंपा के पुष्प की माला जान पड़ती है॥ १३॥
नित्य नेम कृत अरून उरय जब कीन।
निरखि निसाकर नृप मुख भए मलीन॥१४॥
(अब श्रीजानकी-स्वयंवर का वर्णन करते हैं। जनकपुर में स्वयंवर के दिन प्रातःकाल श्रीराम-लक्ष्मण ने) जब अरुणोदय हुआ तब नित्य-नियम (संध्यादि) किया। उन्हें देखकर चन्द्रमा के समान (दूसरे आगत) राजाओं के मुख कान्तिहीन हो गये ॥ १४॥
कमठ पीठ धनु सजनी कठिन अँदेस।
तमकि ताहि ए तोरिहिं कहब महेस॥१५॥
(स्वयंवर सभा में जनकपुर की नारियाँ श्रीराम को देखकर परस्पर कह रही हैं-) सखी! यही संदेह की बात है कि धनुष कछुए की पीठ के समान
कठोर है। (तब दूसरी सखी कहती है–) उसे ये बड़े तपाक के साथ तोड़ देंगे, स्वयं शंकरजी (अपने धनुषके टूट जानेको) कह देंगे॥१५॥
नृप निरास भए निरखत नगर उदास।
धनुष तोरि हरि सब कर हरेउ हरास॥१६॥
समस्त नरेश (धनुष तोड़ने में असफल होकर) निराश हो गये। (इससे) पूरा नगर (समस्त जनकपुर वासियों का समुदाय) उदास दिखायी देने लगा। तब श्रीराम ने धनुष को तोड़कर सबका दुःख (चिन्ता) दूर कर दिया॥ १६॥
का घूँघट मुख मूदहु नवला नारि।
चाँद सरग पर सोहत यहि अनुहारि॥१७॥
(विवाह के अनन्तर राजभवन में सखियाँ श्रीजानकी जी और श्रीराम के मिलन के समय श्रीजानकीजी से कहती हैं- ) ‘हे नवीना (मुग्धा) नारी! घूँघट से मुख क्यों छिपा रही हो, इसी के जैसा चन्द्रमा आकाश में शोभित है (उसे तो सब देखते ही हैं)॥ १७॥
गरब करहु रघुनंदन जनि मन माहँ।
देखहु आपनि मूरति सि कै छाहँ॥१८॥
(फिर सखियाँ श्रीरामसे विनोद करती कहती हैं-) रघुनन्दन ! तुम अपने मन में (अपने सौन्दर्य का) गर्व मत करो | तुम्हारी मूर्ति (साँवली होने के कारण) श्रीजानकीजी की छाया के समान है, यह देख लो॥ १८ ॥
उठीं सखीं हँसि मिस करि कहि मृदु बैन।
सिय रघुबर के भए उनीदे नैन॥१९॥
(विनोद के अनन्तर) सखियाँ हँसकर यह कोमल वाणी कहती हुई जाने का बहाना बनाकर उठीं कि श्रीजानकी और रघुनाथजी के नेत्र अब नींद से भर गये हैं। (इन्हें अब सोने देना चाहिये।) ॥ १९॥
(बरवै रामायण अयोध्याकाण्ड)
सात दिवस भए साजत सकल बनाउ।
का पूछहु सुठि राउर सरल सुभाउ॥२०॥
(मन्थरा महारानी कैकेयीजी से कहती है कि श्रीराम के राज्याभिषेक के लिये) सब प्रकार की तैयारियाँ करते-साज सजाते (महाराज को) सात दिन हो गये हैं! (आप अब) क्या पूछती हैं, आपका स्वभाव बहुत ही सीधा है॥२०॥
राजभवन सुख बिलसत सिय सँग राम।
बिपिन चले तजि राज सो बिधि बड़ बाम॥२१॥
श्रीराम राजभवन में श्रीजानकी के साथ (नाना प्रकार से) सुख भोग रहे थे; किंतु वहीं राज्य छोड़कर वन के लिये चल पड़े। विधाता की बड़ी ही विपरीत चाल है॥२१॥
कोउ कह नर नारायन हरि हर कोउ।
कोउ कह बिरहत बन मधु मनसिज दोउ॥२२॥
(मार्ग में श्रीराम-लक्ष्मण को देखने पर) कोई कहता है कि ‘ये नर और नारायण ऋषि हैं’, कोई कहता है कि ‘ये विष्णु और शिव हैं’
तुलसी भइ मति बिथकित करि अनुमान।
राम लखन के रूप न देखेउ आन॥२३॥
तुलसीदासजी कहते हैं कि (मार्गवासियोंकी ) बुद्धि अनुमान करते-करते थक गयी। श्रीराम-लक्ष्मणके समान दूसरा कोई (देवतादि का) रूप
नहीं दिखायी पड़ा॥२३॥
तुलसी जनि पग धरहु गंग गह साँच।
निगानाँग करि नितहि नचाइहि नाच॥२४॥
तुलसीदासजी (केवट के शब्दों को दुहराते प्रभु से) कहते हैं– गङ्गा में (खड़े होकर मैं) सच कह रहा हूँ कि (आप मेरी नौका पर) चरण मत रखें, (नहीं तो नौका स्त्री के रूप में बदल जायगी और मेरी स्त्री मुझे एक और स्त्री के साथ देखकर) नित्य ही सर्वथा नंगा करके नाच नचाया करेगी॥ २४॥
सजल कठौता कर गहि कहत निषादं।
चढ़हु नाव पग धोइ करहु जनि बाद॥२५॥
निषाद हाथ में जल भरा कठौता लेकर (प्रभुसे) कहता है–‘चरण धोकर नौका पर चढ़िये, तर्क-वितर्क मत कौजिये’॥ २५॥
कमल कंटकित सजनी कोमल पाइ।
निसि मलिन यह प्रफुलित नित दरसाइ॥२६॥
(ग्राम-नारियाँ श्रीरम-लक्ष्मण तथा जानकीजी- को मार्ग में जाते देखकर कहती हैं–) सखी! कमल तो काँटों से युक्त होता है; इनके चरण तो (उससे भी) कोमल हैं। (इतना ही नहीं,) वह रात्रि में म्लान (बंद) हो जाता है, ये नित्य प्रफुल्लित दीखते हैं॥ २६॥
बाल्मीकि वचन
द्वै भुज करि हरि रघुबर सुंदर बेष।
एक जीभ कर लछिमन दूसर सेष॥२७॥
महर्षि वाल्मीकीजी ने कहा–‘ सुन्दर वेषधारी श्रीरघुनाथजी द्विभुज विष्णु हैं और लक्ष्मणजी एक जिह्वा वाले दूसरे शेषनाग हैं’॥ २७॥
(बरवै रामायण अरण्यकाण्ड)
बेद नाम कहि अँगुरिन खंडि अकास।
पठयो सूपनखहि लखन के पास॥२८॥
(चार) अंगुलियों से (चार) वेदों का नाम कहकर (श्रुतिवाचक कानों का संकेत करके) और आकाश में काटने का संकेत करके (उन्हें काट दो, यह सूचित करके प्रभु ने) शूर्पणखा को लक्ष्मणजी के पास भेज दिया॥ २८ ॥
हेमलता सिय मूरति मृदु मुसकाइ।
हेम हरिन कहँ दीन्हेउ प्रभुहि दिखाइ॥२९॥
स्वर्णलता की मूर्ति के समान सीताजी ने कोमलता पूर्वक (किचिंत) मुस्कराकर प्रभु को सोने का मृग दिखला दिया॥२९॥
जटा मुकुट कर सर धनु संग मरीच।
चितवनि बसति कनखियनु अँखियनु बीच॥३०॥
जटाओं का मुकुट बनायें, हाथ में धनुष-बाण लिये मारीच के साथ दौड़ते एवं (पीछे से जानकी की ओर) तिरछी दृष्टि से देखते हुए प्रभु की यह चितवनि (गोस्वामी तुलसीदासजी कहते हैं कि श्रीजानकीजी के) नेत्रों के मध्य निवास करती है (वे सदा उसी चितवन का चिन्तन करती रहती हैं।) ॥ ३०॥
रामवाक्य
कनक सलाक कला ससि दीप सिखाउ।
तारा सिय कहँ लछिमन मोहि बताउ॥३१॥
(जानकी-हरण के पश्चात्) श्रीराम कहते हैं- ‘लक्ष्मण! सोने की शलाका, चन्द्रमा की कला, दीपक की शिखा अथवा नक्षत्र के समान (ज्योतिर्मयी)
सीता कहाँ है? मुझे यह बता दो’॥३१॥
सीय बरन सम केतकि अति हियँ हारि।
कहेसि भँवर कर हरवा हृदय बिदारि॥३२॥
‘श्रीसीता के वर्ण (रूप) के साथ समता करते हुए चित्त में अत्यन्त निराश होकर केतकी-पुष्प ने अपना हृदय फाड़ दिया और (कलङ्क के रूप में)
भौंरों की (काली) माला बना (पहिन) लीं’॥ ३२॥
सीतलता ससि की रहि सब जग छाइ।
अगिनि ताप ह्वै हम कहँ सँसरत आइ॥३३॥
“चन्द्रमा की शीतलता समस्त संसार में व्याप्त हो रही है; किंतु वही (श्री जानकीजी के वियोग में तपे हुए) हमारे शरीर में लगकर अग्निका-सा ताप धारण कर लेती है’॥३३॥
(बरवै रामायण किष्किन्धाकाण्ड)
स्याम गौर दोउ मूरति लछिमन राम।
इन तें भइ सित कीरति अति अभिराम॥३४॥
(श्रीहनुमानजी सुग्रीव से परिचय कराते हुए कहते हैं-) “ये साँवले तथा गोरे शरीर वाले दोनों भाई श्रीराम और लक्ष्मण हैं। कीर्ति (की अधिष्ठात्री देवी) भी इनके द्वारा उज्जवल तथा अत्यन्त मनोहर हुई है (इनकी कीर्ति तो कीर्ति को भी उज्वल करने वाली है।)’॥ ३४॥
कुजन पाल गुन बर्जित अकुल अनाथ।
कहहु कृपानिधि राउर कस गुन गाथ॥३५॥
(सुग्रीव, श्रीरघुनाथजी से कहते हैं-) ‘कृपानिधान! आपके गुणों का कैसे वर्णन करूँ- आप (मेरे-जैसे) दुर्जन, गुणरहित, कुलहीन तथा अनाथ का पालन करनेवाले हैं’॥३५॥
(बरवै रामायण सुन्दरकाण्ड)
बिरह आगि उर ऊपर जब अधिकाइ।
ए अँखियाँ दोउ बैरति देहिं बुझाइ॥३६॥
(श्रीजानकीजी कहती हैं-) हृदय में जब वियोग की अग्नि भड़क उठती है, तब मेरी शत्रु ये दोनों आँखें (आँसू बहाकर) उसे बुझा देती हैं; (उस अग्रि में मुझे जल नहीं जाने देतीं।) ॥ ३६ ॥
डहकनि हैं अजिअरिया निसि नहिं धाम।
जगत जरत अस लागु मोहि बिनु राम॥३७॥
‘यह फैली हुई रात्रि की चाँदनी नहीं है (दुःखदायिनी) धूप है। मुझे श्रीराम के बिना (समस्त) जगत जलता-सा लगता है’॥३७॥
अब जीवन कै है कपि आस न कोइ।
कनगुरिया कै मुदरी कंकन होइ॥३८॥
हनुमान्! अब जीवित रहने की कोई आशा नहीं है। (तुम देखते ही हो कि) कनिष्ठिका अँगुली की अँगूठी अब कंगन बन गयी (उसे
हाथ में कंगन के समान पहिन सकती हूँ, इतना दुर्बल शरीर हो गया है।)॥३८॥
राम सुजस कर चहुँ जुग होत प्रचार।
असुरन कहँ लखि लागत जग अँधियार॥३९॥
‘श्रीराम के सुयश का प्रचार चारों युगों में होता है, किंतु असुरों कों देखकर लगता है कि संसार में अँधेरा (अन्याय ही व्याप्त) है (अर्थात् इस समय श्रीराम का यश राक्षसों के अत्याचार में छिप गया है।)’॥ ३९॥
सिय बियोग दुख केहि बिधि कहउँ बखानि।
फूल बान ते मनसिज बेधत आनि॥४०॥
(हनुमानूजी श्रीरामजीसे कहते हैं-) ‘श्रीजानकीजी के दु:ख का वर्णन किस प्रकार करूँ। कामदेव आकर उन्हें (अपने) पुष्पबाण से बींधता रहता है’॥ ४० ॥
सरद चाँदनी सँचरत चहुँ दिसि आनि।
बिधुहि जोरि कर बिनवति कुलगुरू जानि॥४१॥
“जब शरदू-ऋतु के चन्द्रमा की चाँदनी प्रकट होकर चारों दिशाओं में (सब ओर) फैल जाती है, तब (वह श्रीजानकीजी को सूर्य की धूप के समान ऐसी उष्ण लगती है कि) चन्द्रमा को अपने कुल-(सूर्यवंश) का प्रवर्तक (सूर्य/ समझकर हाथ जोड़कर (उससे) प्रार्थना करती है’॥४१॥
(बरवै रामायण लंकाकाण्ड)
बिबिध बाहिनी बिलसति सहित अनंद।
जलधि सरिस को कहै राम भगवंत॥४२॥
श्रीलक्ष्मणजी के साथ (वानर-भालुओं की ) नाना प्रकार की सेना शोभा पा रही है। (वह इतनी विशाल है कि दूसरें समुद्र के समान प्रतीत होती
है।) किंतु (जिसमें लक्ष्मण के रूप में साक्षात् भगवान् अनन्त विराजमान थे और जो स्वयं भगवान् श्रीराम की सेना थी) उसे (प्राकृत) समुद्र के समान कौन कहे। (समुद्र तो ससीम है, असीम भगवान् की सेना भी असीम ही होनी चाहिये।) ॥ ४२॥
(बरवै रामायण उत्तरकाण्ड)
चित्रकूट पय तीर सो सुरतरू बास ।
लखन राम सिय सुकतरहु तुलसीदास॥४३॥
चित्रकूट में पयस्विनी नदी के किनारे (किसी वृक्ष के नीचे) रहना कल्पवृक्ष के नीचे (स्वर्गमें) रहने के समान है। तुलसीदासजी (अपने मन से) कहते हैं- अरे मन! यहाँ श्रीराम-लक्ष्मण एवं जानकीजी का स्मरण करो॥४३॥
पय नहाय फल खाहु परिहरिय आस ।
सीय राम पद सुमिरहु तुलसीदास॥४४॥
तुलसीदासजी कहते हैं– अरे मन! पयस्विनी नदी में स्नान करके फल खाकर रहो, सब प्रकार की आशाओं को छोड़ दो और (केवल) श्रीसीतारामजी के चरणों का स्मरण करो॥ ४४॥
सवारथ परमारथ हित एक उपाय।
सीय राम पद तुलसी प्रेम बढ़ाय॥४५॥
तुलसीदासजी कहते हैं–अरे मन! स्वार्थ (लौकिक हित) तथा परमार्थ-(आत्मकल्याण) के लिये एक ही उपाय है कि श्रीसीतारामजी के चरणों में प्रेम बढ़ाओ॥ ४५ ॥
काल कराल बिलोकहु होइ सचेत।
राम नाम जपु तुलसी प्रीति समेत॥४६॥
तुलसीदासजी कहते हैं– अरे मन! सावधान होकर भयंकर काल-(मृत्यु) को (समीप) देखो और प्रेमपूर्वक श्रीराम-नाम का जप करो ॥ ४६॥
संकट सोच बिमोचन मंगल गेह।
तुलसी राम नाम पर करिय सनेह॥४७॥
तुलसीदासजी कहते हैं–अरे मन! सब प्रकार के संकट एवं शोक को नष्ट करने वाले तथा सम्पूर्ण मंगलों के निकेतन श्रीराम-नाम से प्रेम करना चाहिये॥४७॥
कलि नहिं ग्यान बिराग न जोग समाधि ।
राम नाम जपु तुलसी नित निरूपाधि॥४८॥
तुलसीदासजी कहते हैं– अरे मन! कलियुग में न ज्ञान सम्भव है न वैराग्य, न योग ही सध सकता है, फिर समाधि की तो कौन कहे। (अतः इस युगमें) नित्य (सर्वदा) विघ्न रहित राम-नाम का जप करो॥ ४८॥
राम नाम दुइ आखर हियँ हितु जानु।
राम लखन सम तुलसी सिखब न आनु॥४९॥
तुलसीदासजी कहते हैं–अरे मन! राम-नाम के दो अक्षरों को राम-लक्ष्मण के समान हृदय से (अपना) हितकारी समझो और किसी शिक्षा को मन में स्थान मत दो॥४९॥
माय बाप गुरू स्वामि राम कर नाम।
तुलसी जेहि न सोहाइ ताहि बिधि बाम॥५०॥
तुलसीदासजी कहते हैं- अरे मन! राम का नाम ही (तुम्हारे लिये) माता, पिता, गुरु और स्वामी है। जिसे यह अच्छा न लगे, उसके लिये
विधाता प्रतिकूल है (जन्म-मरण के चक्र में भटकना ही उसके भाग्य में बदा है।)॥५०॥
राम नाम जपु तुलसी होइ बिसोक।
लोक सकल कल्यान नीक परलोक॥५१॥
तुलसीदासजी कहते हैं–अरे मन! शोक (चिन्ता) रहित होकर राम-नाम का जप करो। इससे इस लोक में सब प्रकार से कल्याण और
परलोक में भी भला होगा॥५१॥
तप तीरथ मख दान नेम उपबास।
सब तेअधिक राम जपु तुलसीदास ॥५२॥
तुलसीदासजी कहते हैं– अरे मन! जो तपस्या, तीर्थयात्रा, यज्ञ, दान, नियम-पालन, उपवास आदि सबसे अधिक (फलदाता) हैं, उस राम-नाम का जप करो॥ ५२॥
महिमा राम नाम कै जान महेस।
देत परम पद कासीं करि उपदेस॥५३॥
श्रीराम-नामकी महिमा शङ्करजी जानते हैं, जो काशी में (मरते हुए प्राणी को) उसका उपदेश करके परम पद (मोक्ष) देते हैं॥५३॥
जान आदि कबि तुलसी नाम प्रभाउ ।
उलटा जपत कोल ते भए रिषि राउ॥५४॥
तुलसीदासजी कहते हैं कि आदिकवि वाल्मीकिजीने राम-नाम का प्रभाव जाना था, जिसका उलटा जप करके वे कोल-(ब्याध) से ऋषिराज हो गये॥ ५४॥
कलसजोनि जियँ जानेउ नाम प्रतापु।
कौतुक सागर सोखेउ करि जियँ जापु॥५५॥
महर्षि अगस्त्य ने हृदय से (राम) नाम का प्रताप जाना, जिन्होंने मन में ही उसका जप करके खेल-ही-खेल में समुद्र को सोख लिया॥ ५५॥
तुलसी सुमिरत राम सुलभ फल चारि ।
बेद पुरान पुकारत कहत पुरारि॥५६॥
तुलसीदासंजी कहते हैं कि श्रीराम का स्मरण करने से ही (अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष- ) चारों फल सुलभ हो जाते हैं| (यह बात) वेद-पुराण पुकारकर
कहते हैं और शङ्करजी भी कहते हैं ॥ ५६॥
राम नाम पर तुलसी नेह निबाहु।
एहि ते अधिक न एहि सम जीवन लाहु॥५७॥
तुलसीदासजी कहते हैं-अरे मन! राम-नाम से प्रेम का निर्वाह करो। इससे अधिक तो क्या इसके बराबर भी जीवन का कोई (दूसरा) लाभ नहीं है॥५७॥
दोस दुरित दुख दारिद दाहक नाम।
सकल सुमंगल दायक तुलसी राम॥५८॥
तुलसीदासजी कहते हैं–अरे मन! राम-नाम समस्त दोषों, पापों, दुःखों और दरिद्रता को जला डालने वाला तथा सम्पूर्ण श्रेष्ठ मङ्गलों को देने वाला है॥५८॥
केहि गिनती मह गिनती जस बन घास ।
राम जपत भए तुलसी तुलसीदास॥५९॥
तुलसीदासजी कहते हैं कि मैं किस गिनती में था, मेरी तो वह दशा थी जो वन की घास की होती है, किंतु राम-नाम का जप करने से वही मैं तुलसी (के समान पवित्र एवं आदरणीय) हो गया!॥५९॥
आगम निगम पुरान कहत करि लीक ।
तुलसी राम नाम कह सुमिरन नीक॥६०॥
तुलसीदासजी कहते हैं–तन्त्रशास्त्र, वेद तथा पुराण रेखा खींचकर (निश्चयपूर्वक कहते हैं कि) राम-नाम-स्मरण (सबसे) उत्तम है॥ ६० ॥
सुमिरहु नाम राम कर सेवहु साधु।
तुलसी उतरि जाहु भव उदधि अगाधु॥६१॥
तुलसीदासजी कहते हैं–अरे मन! राम-नाम का स्मरण करो और सत्पुरुषों की सेवा करो। (इस प्रकार) अपार संसार-सागरके पार उत्तर
जाओ॥ ६१॥
कामधेनु हरि नाम कामतरू राम।
तुलसी सुलभ चारि फल सुमिरत नाम॥६२॥
तुलसीदासजी कहते हैं कि श्रीरामका नाम कामधेनु है और उनका रूप कल्पवृक्ष के समान है। श्रीराम-नाम का स्मरण करने से ही चारों फल
सुलभ हो जाते (सरलता से मिल जाते) हैं ॥ ६२॥
तुलसी कहत सुनत सब समुझत कोय।
बड़े भाग अनुराग राम सन होय॥६३॥
तुलसीदासजी कहते हैं कि (श्रीरामसे प्रेम करने की बात) कहते-सुनते तो सब हैं, किंतु समझता (आचरण में लाता) कोई ही है। बड़ा सौभाग्य (उदय) होने पर श्रीराम से प्रेम होता है ॥ ६३ ॥
एकहि एक सिखावत जपत न आप।
तुलसी राम प्रेम कर बाधक पाप॥६४॥
(लोग) एक-दूसरे कों (नाम-जप की) शिक्षा तो देते हैं, किंतु स्वयं जप नहीं करते। तुलसीदासजी कहते हैं कि श्रीराम के प्रेम में बाधा देने वाला उनका पाप ही है॥६४॥
मरत कहत सब सब कहँ सुमिरहु राम।
तुलसी अब नहिं जपत समुझि परिनाम॥६५॥
तुलसीदासजी कहते हैं कि सब लोग सभी मरणासन्न व्यक्तियों से कहते हैं–‘रामका स्मरण करो’, किंतु सबका परिणाम (निश्चित मृत्यु है,
यह) समझकर अभी (जीवनकाल में ही नामका) जप नहीं करते॥ ६५॥
तुलसी राम नाम जपु आलस छाँडु।
राम बिमुख कलि काल को भयो न भाँडु॥६६॥
तुलसीदासजी कहते हैं कि आलस्य को छोड़ दो और राम-नाम का जप करो। राम से विमुख होकर इस कलियुग में कौन भाँड़ (नाना रूप
बनाकर बहुरूपिये के समान घूमने को विवश) नहीं हुआ॥ ६६॥
तुलसी राम नाम सम मित्र न आन।
जो पहुँचाव राम पुर तनु अवसान॥६७॥
तुलसीदासजी कहते हैं कि राम-नाम के समान दूसरा कोई मित्र नहीं है, जो शरीर का अन्त होने पर (जीव को) श्रीराम के धाम में पहुँचा देता है॥६७॥
राम भरोस नाम बल नाम सनेहु।
जनम जनम रघुनंदन तुलसी देहु॥६८॥
(प्रार्थना करते हुए गोस्वामी जी कहते हैं- ) हे रघुनाथजी ! इस तुलसीदास को तो जन्म-जन्म में अपना भरोसा, अपने नाम का बल और अपने नाम में प्रेम दीजिये॥६८॥
जनम जनत जहँ जहँ तनु तुलसिहि देहु।
तहँ तहँ राम निबाहिब नाथ सनेहहु॥ ६९॥
आप जन्म-जन्म में जहाँ-जहाँ (जिस-जिस योनि में) तुलसीदास को शरीर-धारण करायें, वहाँ-वहाँ हे मेरे स्वामी श्रीराम! मेरे साथ स्नेह का निर्वाह करें (मुझ पर स्नेह रखें।)॥ ६९॥