ब्रह्म जो ब्यापक बिरज अज अकल अनीह अभेद। सो कि देह धरि होइ नर जाहि न जानत बेद॥50॥
श्रीगणेशायनमः | Shri Ganeshay Namah
श्रीजानकीवल्लभो विजयते | Shri JanakiVallabho Vijayte
श्रीरामचरितमानस | Shri RamCharitManas
प्रथम सोपान | Descent First
श्री बालकाण्ड | Shri Bal-Kanda
दोहा 50 | Dohas 50
ब्रह्म जो ब्यापक बिरज अज अकल अनीह अभेद।
सो कि देह धरि होइ नर जाहि न जानत बेद॥50॥
भावार्थ:-जो ब्रह्म सर्वव्यापक, मायारहित, अजन्मा, अगोचर, इच्छारहित और भेदरहित है और जिसे वेद भी नहीं जानते, क्या वह देह धारण करके मनुष्य हो सकता है?॥50॥
brahma jō vyāpaka biraja aja akala anīha abhēda.
sō ki dēha dhari hōi nara jāhi na jānata vēda.. 50..
The Supreme Eternal, which is all-pervading, unbegotten, without parts, free from desire, beyond MŒyŒ and beyond all distinction and which not even the Vedas can comprehend—can It assume the shape of a man?