श्रीमद् भागवत महापुराण स्कन्ध 1 अध्याय 7: अश्वत्थामा द्वारा द्रौपदी पुत्रों का मारा जाना व अर्जुन द्वारा अश्वत्थामा का मानमर्दन
॥ ॐ तत्सत्॥
॥ श्रीगणेशायः नमः॥
श्रीमद्भागवतमहापुराणम्
प्रथमः स्कन्धः
अथ सप्तमोऽध्यायः (अध्याय 7): द्रौणिनिग्रह
अश्वत्थामा द्वारा द्रौपदी पुत्रों का मारा जाना व अर्जुन द्वारा अश्वत्थामा का मानमर्दन
श्लोक-1
शौनक उवाच
निर्गते नारदे सूत भगवान् बादरायणः।।
श्रुतवांस्तदभिप्रेतं ततः किमकरोद्विभुः॥
श्रीशौनकजी ने पूछा-सूतजी! सर्वज्ञ एवं सर्वशक्तिमान् व्यास भगवान्ने नारदजी का अभिप्राय सुन लिया। फिर उनके चले जानेपर उन्होंने क्या किया?॥1॥
श्लोक-2
सूत उवाच
ब्रह्मनद्यां सरस्वत्यामाश्रमः पश्चिमे तटे।
शम्याप्रास इति प्रोक्त ऋषीणां सत्रवर्धनः॥
श्रीसूतजीने कहा-ब्रह्मनदी सरस्वतीके पश्चिम तटपर शम्याप्रास नामका एक आश्रम है। वहाँ ऋषियोंके यज्ञ चलते ही रहते हैं॥2॥
श्लोक-3
तस्मिन् स्व आश्रमे व्यासो बदरीषण्डमण्डिते।
आसीनोऽप उपस्पृश्य प्रणिदध्यौ मनः स्वयम्॥
वहीं व्यासजीका अपना आश्रम है। उसके चारों ओर बेरका सुन्दर वन है। उस आश्रममें बैठकर उन्होंने आचमन किया और स्वयं अपने मनको समाहित किया॥3॥
श्लोक-4
भक्तियोगेन मनसि सम्यक् प्रणिहितेऽमले।
अपश्यत्पुरुषं पूर्वं मायां च तदपाश्रयाम्॥
उन्होंने भक्तियोगके द्वारा अपने मनको पूर्णतया एकाग्र और निर्मल करके आदिपुरुष परमात्मा और उनके आश्रयसे रहनेवाली मायाको देखा॥4॥
श्लोक-5
यया सम्मोहितो जीव आत्मानं त्रिगुणात्मकम्।
परोऽपि मनुतेऽनर्थं तत्कृतं चाभिपद्यते॥
इसी मायासे मोहित होकर यह जीव तीनों गुणोंसे अतीत होनेपर भी अपनेको त्रिगुणात्मक मान लेता है और इस मान्यताके कारण होनेवाले अनर्थोंको भोगता है॥5॥
श्लोक-6
अनर्थोपशमं साक्षाद्भक्तियोगमधोक्षजे।
लोकस्याजानतो विद्वांश्चक्रे सात्वतसंहिताम्॥
इन अनर्थोंकी शान्तिका साक्षात् साधन है—केवल भगवान्का भक्तियोग। परन्तु संसारके लोग इस बातको नहीं जानते। यही समझकर उन्होंने इस परमहंसोंकी संहिता श्रीमद्भागवतकी रचना की॥6॥
श्लोक-7
यस्यां वै श्रूयमाणायां कृष्णे परमपूरुषे।
भक्तिरुत्पद्यते पुंसः शोकमोहभयापहा॥
इसके श्रवणमात्रसे पुरुषोत्तम भगवान् श्रीकृष्णके प्रति परम प्रेममयी भक्ति हो जाती है, जिससे जीवके शोक, मोह और भय नष्ट हो जाते हैं॥7॥
श्लोक-8
स संहितां भागवतीं कृत्वानुक्रम्य चात्मजम्।
शुकमध्यापयामास निवृत्तिनिरतं मुनिः॥
उन्होंने इस भागवत-संहिताका निर्माण और पुनरावृत्ति करके इसे अपने निवृत्तिपरायण पुत्र श्रीशुकदेवजीको पढ़ाया॥8॥
श्लोक-9
शौनक उवाच
स वै निवृत्तिनिरतः सर्वत्रोपेक्षको मुनिः।
कस्य वा बृहतीमेतामात्मारामः समभ्यसत्॥
श्रीशौनकजीने पूछा-श्रीशुकदेवजी तो अत्यन्त निवृत्तिपरायण हैं, उन्हें किसी भी वस्तुकी अपेक्षा नहीं है। वे सदा आत्मामें ही रमण करते हैं। फिर उन्होंने किसलिये इस विशाल ग्रन्थका अध्ययन किया?॥9॥
श्लोक-10
सूत उवाच
आत्मारामाश्च मुनयो निर्ग्रन्था अप्युरुक्रमे।
कुर्वन्त्यहैतुकी भक्तिमित्थम्भूतगुणो हरिः॥
श्रीसूतजीने कहा-जो लोग ज्ञानी हैं, जिनकी अविद्याकी गाँठ खुल गयी है और जो सदा आत्मामें ही रमण करनेवाले हैं, वे भी भगवान्की हेतुरहित भक्ति किया करते हैं; क्योंकि भगवान्के गुण ही ऐसे मधुर हैं, जो सबको अपनी ओर खींच लेते हैं॥10॥
श्लोक-11
हरेर्गुणाक्षिप्तमतिर्भगवान् बादरायणिः।
अध्यगान्महदाख्यानं नित्यं विष्णुजनप्रियः॥
फिर श्रीशुकदेवजी तो भगवान्के भक्तोंके अत्यन्त प्रिय और स्वयं भगवान् वेदव्यासके पुत्र हैं। भगवान्के गुणोंने उनके हृदयको अपनी ओर खींच लिया और उन्होंने उससे विवश होकर ही इस विशाल ग्रन्थका अध्ययन किया॥11॥
श्लोक-12
परीक्षितोऽथ राजर्षेर्जन्मकर्मविलापनम्।
संस्थां च पाण्डुपुत्राणां वक्ष्ये कृष्णकथोदयम्॥
शौनकजी! अब मैं राजर्षि परीक्षित् के जन्म, कर्म और मोक्षकी तथा पाण्डवोंके स्वर्गारोहणकी कथा कहता हूँ; क्योंकि इन्हींसे भगवान श्रीकृष्णकी अनेकों कथाओंका उदय होता है। 12॥
श्लोक-13
यदा मृधे कौरवसृञ्जयानां वीरेष्वथो वीरगतिं गतेषु।
वृकोदराविद्धगदाभिमर्शभग्नोरुदण्डे धृतराष्ट्रपुत्रे॥
श्लोक-14
भर्तुः प्रियं द्रौणिरिति स्म पश्यन् कृष्णासुतानां स्वपतां शिरांसि।
उपाहरद् विप्रियमेव तस्य जुगुप्सितं कर्म विगर्हयन्ति॥
जिस समय महाभारतयुद्धमें कौरव और पाण्डव दोनों पक्षोंके बहुत-से वीर वीरगतिको प्राप्त हो चुके थे और भीमसेनकी
गदाके प्रहारसे दुर्योधनकी जाँघ टूट चुकी थी, तब अश्वत्थामाने अपने स्वामी दुर्योधनका प्रिय कार्य समझकर द्रौपदीके सोते हुए पुत्रोंके सिर काटकर उसे भेंट किये, यह घटना दुर्योधनको भी अप्रिय ही लगी; क्योंकि ऐसे नीच कर्मकी सभी निन्दा करते हैं। 13-14॥
श्लोक-15
माता शिशूनां निधनं सुतानां निशम्य घोरं परितप्यमाना।
तदारुदबाष्पकलाकुलाक्षी तां सान्त्वयन्नाह किरीटमाली॥
उन बालकोंकी माता द्रौपदी अपने पुत्रोंका निधन सुनकर अत्यन्त दुःखी हो गयी। उसकी आँखोंमें आँसू छलछला आये –वह रोने लगी। अर्जुनने उसे सान्त्वना देते हुए कहा॥ 15 ॥
श्लोक-16
तदा शुचस्ते प्रमृजामि भद्रे यद्ब्रह्मबन्धोः शिर आततायिनः।
गाण्डीवमुक्तैर्विशिखैरुपाहरे त्वाऽऽक्रम्य यत्स्नास्यसि दग्धपुत्रा॥
‘कल्याणि! मैं तुम्हारे आँसू तब पोलूंगा, जब उस आततायी ब्राह्मणाधमका सिर गाण्डीव धनुषके बाणोंसे काटकर तुम्हें भेंट करूँगा और पुत्रोंकी अन्त्येष्टि क्रियाके बाद तुम उसपर पैर रखकर स्नान करोगी’ ॥16॥
* आग लगानेवाला, जहर देनेवाला, बुरी नीयतसे हाथमें शस्त्र ग्रहण करनेवाला, धन लूटनेवाला, खेत और स्त्रीको छीननेवाला—ये छ: ‘आततायी’ कहलाते हैं।
श्लोक-17
इति प्रियां वल्गुविचित्रजल्पैः स सान्त्वयित्वाच्युतमित्रसूतः।
अन्वाद्रवदंशित उग्रधन्वाकपिध्वजो गुरुपुत्रं रथेन॥
अर्जुनने इन मीठी और विचित्र बातोंसे द्रौपदीको सान्त्वना दी और अपने मित्र भगवान् श्रीकृष्णकी सलाहसे उन्हें सारथि बनाकर कवच धारणकर और अपने भयानक गाण्डीव धनुषको लेकर वे रथपर सवार हए तथा गरुपत्र अश्वत्थामाके पीछे दौड पड़े॥17॥
श्लोक-18
तमापतन्तं स विलक्ष्य दुरात् कुमारहोद्विग्नमना रथेन।
पराद्रवत्प्राणपरीप्सुरु| यावद्गमं रुद्रभयाद्यथार्कः॥
बच्चोंकी हत्यासे अश्वत्थामाका भी मन उद्विग्न हो गया था। जब उसने दूरसे ही देखा कि अर्जुन मेरी ओर झपटे हुए आ रहे हैं, तब वह अपने प्राणोंकी रक्षाके लिये पृथ्वीपर जहाँतक भाग सकता था, रुद्रसे भयभीत सूर्यकी भाँति भागता रहा॥18॥
* शिवभक्त विद्युन्माली दैत्यको जब सूर्यने हरा दिया तब सूर्यपर क्रोधित हो भगवान् रुद्र त्रिशूल हाथमें लेकर उनकी ओर दौड़े। उस समय सूर्य भागतेभागते पृथ्वीपर काशीमें आकर गिरे, इसीसे वहाँ उनका ‘लोलार्क’ नाम पड़ा
है।
श्लोक-19
यदाशरणमात्मानमैक्षत श्रान्तवाजिनम्।
अस्त्रं ब्रह्मशिरो मेने आत्मत्राणं द्विजात्मजः॥
जब उसने देखा कि मेरे रथके घोड़े थक गये हैं और मैं बिलकुल अकेला हूँ, तब उसने अपनेको बचानेका एकमात्र साधन ब्रह्मास्त्र ही समझा ॥ 19॥
श्लोक-20
अथोपस्पृश्य सलिलं संदधे तत्समाहितः।
अजानन्नुपसंहारं प्राणकृच्छ्र उपस्थिते॥
यद्यपि उसे ब्रह्मास्त्रको लौटानेकी विधि मालूम न थी, फिर भी प्राणसंकट देखकर उसने आचमन किया और ध्यानस्थ होकर ब्रह्मास्त्रका सन्धान किया॥20॥
श्लोक-21
ततः प्रादुष्कृतं तेजः प्रचण्डं सर्वतोदिशम्।
प्राणापदमभिप्रेक्ष्य विष्णुं जिष्णुरुवाच ह॥
उस अस्त्रसे सब दिशाओंमें एक बड़ा प्रचण्ड तेज फैल गया। अर्जुनने देखा कि अब तो मेरे प्राणोंपर ही आ बनी है, तब उन्होंने श्रीकृष्णसे प्रार्थना की॥21॥
श्लोक-22
अर्जुन उवाच
कृष्ण कृष्ण महाबाहो भक्तानामभयंकर।
त्वमेको दह्यमानानामपवर्गोऽसि संसृतेः॥
अर्जुनने कहा- श्रीकृष्ण! तुम सच्चिदानन्द स्वरूप परमात्मा हो। तुम्हारी शक्ति अनन्त है। तुम्हीं भक्तोंको अभय देनेवाले हो। जो संसारकी धधकती हुई आगमें जल रहे हैं, उन जीवोंको उससे उबारनेवाले एकमात्र तुम्हीं हो॥22॥
श्लोक-23
त्वमाद्यः पुरुषःसाक्षादीश्वरः प्रकृतेः परः।
मायां व्युदस्य चिच्छक्त्या कैवल्ये स्थित आत्मनि॥
तुम प्रकृतिसे परे रहनेवाले आदिपुरुष साक्षात् परमेश्वर हो। अपनी चित् शक्ति (स्वरूप-शक्ति)- से बहिरंग एवं त्रिगुणमयी मायाको दूर भगाकर अपने अद्वितीय स्वरूपमें स्थित हो॥ 23॥
श्लोक-24
स एव जीवलोकस्य मायामोहितचेतसः।
विधत्से स्वेन वीर्येण श्रेयो धर्मादिलक्षणम्॥
वही तुम अपने प्रभावसे माया-मोहित जीवोंके लिये धर्मादिरूप कल्याणका विधान करते हो॥24॥
श्लोक-25
तथायं चावतारस्ते भुवो भारजिहीर्षया।
स्वानां चानन्यभावानामनुध्यानाय चासकृत्॥
तुम्हारा यह अवतार पृथ्वीका भार हरण करनेके लिये और तुम्हारे अनन्य प्रेमी भक्तजनोंके निरन्तर स्मरण-ध्यान करनेके लिये है॥25॥
श्लोक-26
किमिदं स्वित्कुतो वेति देवदेव न वेम्यहम्।
सर्वतोमुखमायाति तेजः परमदारुणम्॥
स्वयम्प्रकाशस्वरूप श्रीकृष्ण! यह भयंकर तेज सब ओरसे मेरी ओर आ रहा है। यह क्या है, कहाँसे, क्यों आ रहा है इसका मुझे बिलकुल पता नहीं है!॥26॥
श्लोक-27
श्रीभगवानुवाच
वेत्थेदं द्रोणपुत्रस्य ब्राह्ममस्त्रं प्रदर्शितम्।
नैवासौ वेद संहारं प्राणबाध उपस्थिते॥
भगवान्ने कहा- अर्जुन ! यह अश्वत्थामाका चलाया हुआ ब्रह्मास्त्र है। यह बात समझ लो कि प्राणसंकट उपस्थित होनेसे उसने इसका प्रयोग तो कर दिया है, परन्तु वह इस अस्त्रको लौटाना नहीं जानता ॥27॥
श्लोक-28
न ह्यस्यान्यतमं किञ्चिदस्त्रं प्रत्यवकर्शनम्।
जास्त्रतेज उन्नद्धमस्त्रज्ञो शस्त्रतेजसा॥
किसी भी दूसरे अस्त्रमें इसको दबा देनेकी शक्ति नहीं है। तुम शस्त्रास्त्रविद्याको भलीभाँति जानते ही हो, ब्रह्मास्त्रके तेजसे ही इस ब्रह्मास्त्रकी प्रचण्ड आगको बुझा दो॥28॥
श्लोक-29
सूत उवाच
श्रुत्वा भगवता प्रोक्तं फाल्गुनः परवीरहा।
स्पृष्ट्वापस्तं परिक्रम्य ब्राह्मं ब्राह्माय संदधे॥
सूतजी कहते हैं- अर्जुन विपक्षी वीरोंको मारनेमें बड़े प्रवीण थे। भगवान्की बात सुनकर उन्होंने आचमन किया और भगवान्की परिक्रमा करके ब्रह्मास्त्रके निवारणके लिये ब्रह्मास्त्रका ही सन्धान किया॥29॥
श्लोक-30
संहत्यान्योन्यमुभयोस्तेजसी शरसंवृते।
आवृत्य रोदसी खं च ववृधातेऽर्कवह्निवत्॥
बाणोंसे वेष्टित उन दोनों ब्रह्मास्त्रोंके तेज प्रलयकालीन सूर्य एवं अग्निके समान आपसमें टकराकर सारे आकाश और दिशाओंमें फैल गये और बढ़ने लगे॥30॥
श्लोक-31
दृष्ट्वास्त्रतेजस्तु तयोस्त्रील्लोकान् प्रदहन्महत्।
दह्यमानाः प्रजाः सर्वाः सांवर्तकममंसत॥
तीनों लोकोंको जलानेवाली उन दोनों अस्त्रोंकी बढ़ी हुई लपटोंसे प्रजा जलने लगी और उसे देखकर सबने यही समझा कि यह प्रलयकालकी सांवर्तक अग्नि है॥31॥
श्लोक-32
प्रजोपप्लवमालक्ष्य लोकव्यतिकरं च तम्।
मतं च वासुदेवस्य संजहारार्जुनो द्वयम्॥
उस आगसे प्रजाका और लोकोंका नाश होते देखकर भगवान्की अनुमतिसे अर्जुनने उन दोनोंको ही लौटा लिया। 32॥
श्लोक-33
तत आसाद्य तरसा दारुणं गौतमीसुतम्।
बबन्धामर्षताम्राक्षः पशुं रशनया यथा॥
अर्जुनकी आँखें क्रोधसे लाल-लाल हो रही थीं। उन्होंने झपटकर उस क्रूर अश्वत्थामाको पकड़ लिया और जैसे कोई रस्सीसे पशुको बाँध ले, वैसे ही बाँध लिया॥33॥
श्लोक-34
शिबिराय निनीषन्तं दाम्ना बद्ध्वा रिपुं बलात्।
प्राहार्जुनं प्रकुपितो भगवानम्बुजेक्षणः॥
अश्वत्थामाको बलपूर्वक बाँधकर अर्जुनने जब शिविरकी ओर ले जाना चाहा, तब उनसे कमलनयन भगवान् श्रीकृष्णने कपित होकर कहा-॥34॥
श्लोक-35
मैनं पार्थार्हसि त्रातुं ब्रह्मबन्धुमिमं जहि।
योऽसावनागसः सुप्तानवधीन्निशि बालकान्॥
‘अर्जुन! इस ब्राह्मणाधमको छोड़ना ठीक नहीं है, इसको तो मार ही डालो। इसने रातमें सोये हुए निरपराध बालकोंकी हत्या की है॥35॥
श्लोक-36
मत्तं प्रमत्तमुन्मत्तं सुप्तं बालं स्त्रियं जडम्।
प्रपन्नं विरथं भीतं न रिपुं हन्ति धर्मवित्॥
धर्मवेत्ता पुरुष असावधान, मतवाले, पागल, सोये हुए , बालक, स्त्री, विवेकज्ञानशून्य, शरणागत, रथहीन और भयभीत शत्रुको कभी नहीं मारते॥36॥
श्लोक-37
स्वप्राणान् यः परप्राणैः प्रपुष्णात्यघृणः खलः।
तद्धस्तस्य हि श्रेयो यद्दोषाद्यात्यधः पुमान्॥
परन्तु जो दुष्ट और क्रूर पुरुष दूसरोंको मारकर अपने प्राणोंका पोषण करता है, उसका तो वध ही उसके लिये कल्याणकारी है; क्योंकि वैसी आदतको लेकर यदि वह जीता है तो और भी पाप करता है और उन पापोंके कारण नरकगामी होता है॥ 37॥
श्लोक-38
प्रतिश्रुतं च भवता पाञ्चाल्यै शृण्वतो मम।
आहरिष्ये शिरस्तस्य यस्ते मानिनि पुत्रहा॥
फिर मेरे सामने ही तुमने द्रौपदीसे प्रतिज्ञा की थी कि ‘मानवती! जिसने तुम्हारे पुत्रोंका वध किया है, उसका सिर मैं उतार लाऊँगा’॥38॥
श्लोक-39
तदसौ वध्यतां पाप आतताय्यात्मबन्धुहा।
भर्तुश्च विप्रियं वीर कृतवान् कुलपांसनः॥
इस पापी कुलांगार आततायीने तुम्हारे पुत्रोंका वध किया है और अपने स्वामी दुर्योधनको भी दुःख पहुँचाया है। इसलिये अर्जुन! इसे मार ही डालो॥ 39॥
श्लोक-40
एवं परीक्षता धर्मं पार्थः कृष्णेन चोदितः।
नैच्छद्वन्तुं गुरुसुतं यद्यप्यात्महनं महान्॥
भगवान् श्रीकृष्णने अर्जुनके धर्मकी परीक्षा लेनेके लिये इस प्रकार प्रेरणा की, परन्तु अर्जुनका हृदय महान् था। यद्यपि अश्वत्थामाने उनके पुत्रोंकी हत्या की थी, फिर भी अर्जुनके मनमें गुरुपुत्रको मारनेकी इच्छा नहीं हुई॥40॥
श्लोक-41
अथोपेत्य स्वशिबिरं गोविन्दप्रियसारथिः।
न्यवेदयत्तं प्रियायै शोचन्त्या आत्मजान् हतान्॥
इसके बाद अपने मित्र और सारथि श्रीकृष्णके साथ वे अपने युद्ध-शिविरमें पहुंचे। वहाँ अपने मृत पुत्रोंके लिये शोक करती हुई द्रौपदीको उसे सौंप दिया॥41॥
श्लोक-42
तथाऽऽहृतं पशुवत् पाशबद्धमवाङ्मुखं कर्मजुगुप्सितेन।
निरीक्ष्य कृष्णापकृतं गुरोः सुतंवामस्वभावा कृपया ननाम च॥
द्रौपदीने देखा कि अश्वत्थामा पशुकी तरह बाँधकर लाया गया है। निन्दित कर्म करनेके कारण उसका मुख नीचेकी ओर झुका हुआ है। अपना अनिष्ट करनेवाले गुरुपुत्र अश्वत्थामाको इस प्रकार अपमानित देखकर द्रौपदीका कोमल हृदय कृपासे भर आया और उसने अश्वत्थामाको नमस्कार किया॥42॥
श्लोक-43
उवाच चासहन्त्यस्य बन्धनानयनं सती।
मुच्यतां मुच्यतामेष ब्राह्मणो नितरां गुरुः॥
गुरुपुत्रका इस प्रकार बाँधकर लाया जाना सती द्रौपदीको सहन नहीं हुआ। उसने कहा–’छोड़ दो इन्हें, छोड़ दो। ये ब्राह्मण हैं, हमलोगोंके अत्यन्त पूजनीय हैं॥43॥
श्लोक-44
सरहस्यो धनुर्वेदः सविसर्गोपसंयमः।
अस्त्रग्रामश्च भवता शिक्षितो यदनुग्रहात्॥
श्लोक-45
स एष भगवान् द्रोणः प्रजारूपेण वर्तते।
तस्यात्मनोऽर्धं पत्न्यास्ते नान्वगाडीरसूः कृपी॥
जिनकी कृपासे आपने रहस्यके साथ सारे धनुर्वेद और प्रयोग तथा उपसंहारके साथ सम्पूर्ण शस्त्रास्त्रोंका ज्ञान प्राप्त किया है, वे आपके आचार्य द्रोण ही पुत्रके रूपमें आपके सामने खड़े हैं। उनकी अर्धांगिनी कृपी अपने वीर पुत्रकी ममतासे ही अपने पतिका अनुगमन नहीं कर सकीं, वे अभी जीवित हैं॥ 44-45॥
श्लोक-46
तद् धर्मज्ञ महाभागभवद्भिर्गौरवं कुलम्।
वृजिनं नार्हति प्राप्तुं पूज्यं वन्द्यमभीक्ष्णशः॥
महाभाग्यवान् आर्यपुत्र! आप तो बड़े धर्मज्ञ हैं। जिस गुरुवंशकी नित्य पूजा और वन्दना करनी चाहिये उसीको व्यथा पहुँचाना आपके योग्य कार्य नहीं है॥ 46॥
श्लोक-47
मा रोदीदस्य जननी गौतमी पतिदेवता।
यथाहं मृतवत्साऽऽर्ता रोदिम्यश्रुमुखी मुहुः॥
जैसे अपने बच्चोंके मर जानेसे मैं दुःखी होकर रो रही हूँ और मेरी आँखोंसे बार-बार आँसू निकल रहे हैं, वैसे ही इनकी माता पतिव्रता गौतमी न रोयें॥47॥
श्लोक-48
यैः कोपितं ब्रह्मकुलं राजन्यैरजितात्मभिः।
तत् कुलं प्रदहत्याशु सानुबन्धं शुचार्पितम्॥
जो उच्छ्खल राजा अपने कुकृत्योंसे ब्राह्मणकुलको कुपित कर देते हैं, वह कुपित ब्राह्मणकुल उन राजाओंको सपरिवार शोकाग्निमें डालकर शीघ्र ही भस्म कर देता है’॥48॥
श्लोक-49
सूत उवाच
धर्म्यं न्याय्यं सकरुणं निळलीकं समं महत्।
राजा धर्मसुतो राश्याः प्रत्यनन्ददचो द्विजाः॥
सूतजीने कहा- शौनकादि ऋषियो! द्रौपदीकी बात धर्म और न्यायके अनुकूल थी। उसमें कपट नहीं था, करुणा और समता थी। अतएव राजा युधिष्ठिरने रानीके इन हितभरे श्रेष्ठ वचनोंका अभिनन्दन किया॥49॥
श्लोक-50
नकुलः सहदेवश्च युयुधानो धनञ्जयः।
भगवान् देवकीपुत्रो ये चान्ये याश्च योषितः॥
साथ ही नकुल, सहदेव, सात्यकि, अर्जुन, स्वयं भगवान् श्रीकृष्ण और वहाँपर उपस्थित सभी नर-नारियोंने द्रौपदीकी बातका समर्थन किया॥50॥
श्लोक-51
तत्राहामर्षितो भीमस्तस्य श्रेयान्वधः स्मृतः।
न भर्तुर्नात्मनश्चार्थे योऽहन् सुप्ताशिशून् वृथा॥
उस समय क्रोधित होकर भीमसेनने कहा, ‘जिसने सोते हुए बच्चोंको न अपने लिये और न अपने स्वामीके लिये, बल्कि व्यर्थ ही मार डाला, उसका तो वध ही उत्तम है’॥51॥
श्लोक-52
निशम्य भीमगदितं द्रौपद्याश्च चतुर्भुजः।
आलोक्य वदनं सख्युरिदमाह हसन्निव॥
भगवान् श्रीकृष्णने द्रौपदी और भीमसेनकी बात सुनकर और अर्जुनकी ओर देखकर कुछ हँसते हुए-से कहा॥52॥
श्लोक-53
श्रीकृष्ण उवाच
ब्रह्मबन्धुर्न हन्तव्य आततायी वधार्हणः।
मयैवोभयमाम्नातं परिपाह्यनुशासनम्॥
भगवान् श्रीकृष्ण बोले-‘पतित ब्राह्मणका भी वध नहीं करना चाहिये और आततायीको मार ही डालना चाहिये’शास्त्रोंमें मैंने ही ये दोनों बातें कही हैं। इसलिये मेरी दोनों आज्ञाओंका पालन करो॥53॥
श्लोक-54
कुरु प्रतिश्रुतं सत्यं यत्तत्सान्त्वयता प्रियाम्।
प्रियं च भीमसेनस्य पाञ्चाल्या मह्यमेव च॥
तुमने द्रौपदीको सान्त्वना देते समय जो प्रतिज्ञा की थी उसे भी सत्य करो; साथ ही भीमसेन, द्रौपदी और मुझे जो प्रिय हो, वह भी करो॥54॥
श्लोक-55
सूत उवाच
अर्जुनः सहसाऽऽज्ञाय हरेर्हार्दमथासिना।
मणिं जहार मूर्धन्यं द्विजस्य सहमूर्धजम्॥
सूतजी कहते हैं- अर्जुन भगवान्के हृदयकी बात तुरंत ताड़ गये और उन्होंने अपनी तलवारसे अश्वत्थामाके सिरकी मणि उसके बालोंके साथ उतार ली॥55॥
श्लोक-56
विमुच्य रशनाबद्धं बालहत्याहतप्रभम्।
तेजसा मणिना हीनं शिबिरान्निरयापयत्॥
बालकोंकी हत्या करनेसे वह श्रीहीन तो पहले ही हो गया था, अब मणि और ब्रह्मतेजसे भी रहित हो गया। इसके बाद उन्होंने रस्सीका बन्धन खोलकर उसे शिविरसे निकाल दिया॥56॥
श्लोक-57
वपनं द्रविणादानं स्थानान्निर्यापणं तथा।
एष हि ब्रह्मबन्धूनां वधो नान्योऽस्ति दैहिकः॥
मूंड देना, धन छीन लेना और स्थानसे बाहर निकाल देनायही ब्राह्मणाधमोंका वध है। उनके लिये इससे भिन्न शारीरिक वधका विधान नहीं है॥57॥
श्लोक-58
पुत्रशोकातुराः सर्वे पाण्डवाः सह कृष्णया।
स्वानां मृतानां यत्कृत्यं चक्रुर्निर्हरणादिकम्॥
पुत्रोंकी मृत्युसे द्रौपदी और पाण्डव सभी शोकातुर हो रहे थे। अब उन्होंने अपने मरे हुए भाई बन्धुओंकी दाहादि अन्त्येष्टि क्रिया की॥58॥
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां प्रथमस्कन्धे द्रौणिनिग्रहो नाम सप्तमोऽध्यायः॥7॥
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