श्रीमद् भागवत महापुराण माहात्म्य अध्याय 4: विप्रमोक्ष
श्रीमद्भागवतमाहात्म्यम्
कृष्णं नारायणं वन्दे कृष्णं वन्दे व्रजप्रियम्।
कृष्णं द्वैपायनं वन्दे कृष्णं वन्दे पृथासुतम्॥
अथ चतुर्थोऽध्यायः (अध्याय 4)
विप्रमोक्ष
अथ गोकर्णोपाख्यान
श्लोक-1
सूत उवाच अथ वैष्णवचित्तेषु दृष्ट्वा भक्तिमलौकिकीम्।
निजलोकं परित्यज्य भगवान् भक्तवत्सलः॥
सूतजी कहते हैं-मुनिवर! उस समय अपने भक्तोंके चित्तमें अलौकिक भक्तिका प्रादुर्भाव हुआ देख भक्तवत्सल श्रीभगवान् अपना धाम छोड़कर वहाँ पधारे॥1॥
श्लोक-2
वनमाली घनश्यामः पीतवासा मनोहरः।
काञ्चीकलापरुचिरो लसन्मुकुटकुण्डलः॥
उनके गलेमें वनमाला शोभा पा रही थी, श्रीअंग सजल जलधरके समान श्यामवर्ण था, उसपर मनोहर पीताम्बर सुशोभित था, कटिप्रदेश करधनीकी लड़ियोंसे सुसज्जित था, सिरपर मुकुटकी लटक और कानोंमें कुण्डलोंकी झलक देखते ही बनती थी॥2॥
श्लोक-3
त्रिभङ्गललितश्चारुकौस्तुभेन विराजितः।
कोटिमन्मथलावण्यो हरिचन्दनचर्चितः॥
वे त्रिभंगललित भावसे खड़े हुए चित्तको चुराये लेते थे। वक्षःस्थलपर कौस्तुभमणि दमक रही थी, सारा श्रीअंग हरिचन्दनसे चर्चित था। उस रूपकी शोभा क्या कहें, उसने तो मानो करोड़ों कामदेवोंकी रूपमाधुरी छीन ली थी॥3॥
श्लोक-4
परमानन्दचिन्मूर्तिर्मधुरो मुरलीधरः।
आविवेश स्वभक्तानां हृदयान्यमलानि च॥
वे परमानन्दचिन्मूर्ति मधुरातिमधुर मुरलीधर ऐसी अनुपम छबिसे अपने भक्तोंके निर्मल चित्तोंमें आविर्भूत हुए॥4॥
श्लोक-5
वैकुण्ठवासिनो ये च वैष्णवा उद्ववादयः।
तत्कथाश्रवणार्थं ते गूढरूपेण संस्थिताः॥
भगवान् के नित्य लोक-निवासी लीलापरिकर उद्धवादि वहाँ गुप्तरूपसे उस कथाको सुननेके लिये आये हुए थे॥5॥
श्लोक-6
तदा जयजयारावो रसपुष्टिरलौकिकी।
चूर्णप्रसूनवृष्टिश्च मुहुः शङ्खरवोऽप्यभूत्॥
प्रभुके प्रकट होते ही चारों ओर ‘जय हो! जय हो!!’ की ध्वनि होने लगी। उस समय भक्तिरसका अदभुत प्रवाह चला,
बार-बार अबीर-गुलाल और पुष्पोंकी वर्षा तथा शंखध्वनि होने लगी॥6॥
श्लोक-7
तत्सभासंस्थितानां च देहगेहात्मविस्मृतिः।
दृष्ट्वा च तन्मयावस्थां नारदो वाक्यमब्रवीत्॥
उस सभामें जो लोग बैठे थे, उन्हें अपने देह, गेह और आत्माकी भी कोई सुधि न रही। उनकी ऐसी तन्मयता देखकर नारदजी कहने लगे—॥7॥
श्लोक-8
अलौकिकोऽयं महिमा मुनीश्वराः सप्ताहजन्योऽद्य विलोकितो मया।
मूढाः शठा ये पशुपक्षिणोऽत्र सर्वेऽपि निष्पापतमा भवन्ति॥
मुनीश्वरगण! आज सप्ताहश्रवणकी मैंने यह बड़ी ही अलौकिक महिमा देखी। यहाँ तो जो बड़े मूर्ख, दुष्ट और पशुपक्षी भी हैं, वे सभी अत्यन्त निष्पाप हो गये हैं॥8॥
श्लोक-9
अतो नृलोके ननु नास्ति किंचिच्चित्तस्य शोधाय कलौ पवित्रम्।
अघौघविध्वंसकरं तथैव कथासमानं भुवि नास्ति चान्यत्॥
अतः इसमें संदेह नहीं कि कलिकालमें चित्तकी शुद्धिके लिये इस भागवतकथाके समान मर्त्यलोकमें पापपुंजका नाश करनेवाला कोई दूसरा पवित्र साधन नहीं है॥9॥
श्लोक-10
के के विशुद्ध्यन्ति वदन्तु मह्यं सप्ताहयज्ञेन कथामयेन।
कृपालुभिर्लोकहितं विचार्य प्रकाशितः कोऽपि नवीनमार्गः॥
मुनिवर! आपलोग बड़े कृपालु हैं, आपने संसारके कल्याणका विचार करके यह बिलकल निराला ही मार्ग निकाला है। आप कृपया यह तो बताइये कि इस कथारूप सप्ताहयज्ञके द्वारा संसारमें कौन-कौन लोग पवित्र हो जाते हैं। 10॥
श्लोक-11
कुमारा ऊचुः ये मानवाः पापकृतस्तु सर्वदा सदा दराचाररता विमार्गगाः।
क्रोधाग्निदग्धाः कुटिलाश्च कामिनः सप्ताहयज्ञेन कलौ पुनन्ति ते॥
सनकादिने कहा- जो लोग सदा तरह-तरहके पाप किया करते हैं, निरन्तर दुराचारमें ही तत्पर रहते हैं और उलटे मार्गोंसे चलते हैं तथा जो क्रोधाग्निसे जलते रहनेवाले कुटिल और कामपरायण हैं, वे सभी इस कलियुगमें सप्ताहयज्ञसे पवित्र हो जाते हैं॥11॥
श्लोक-12
सत्येन हीनाः पितृमातृदूषकास्तृष्णाकुलाश्चाश्रमधर्मवर्जिताः।
ये दाम्भिका मत्सरिणोऽपि हिंसकाः सप्ताहयज्ञेन कलौ पुनन्ति ते॥
जो सत्यसे च्युत, माता-पिताकी निन्दा करनेवाले, तृष्णाके मारे व्याकुल, आश्रमधर्मसे रहित, दम्भी, दूसरोंकी उन्नति
देखकर कुढ़नेवाले और दूसरोंको दुःख देनेवाले हैं, वे भी कलियुगमें सप्ताहयज्ञसे पवित्र हो जाते हैं॥ 12॥
श्लोक-13
पञ्चोग्रपापाश्छलछद्मकारिणः क्रूराः पिशाचा इव निर्दयाश्च ये।
ब्रह्मस्वपुष्टा व्यभिचारकारिणः सप्ताहयज्ञेन कलौ पुनन्ति ते॥
जो मदिरापान, ब्रह्महत्या, सुवर्णकी चोरी, गुरुस्त्रीगमन और विश्वासघात—ये पाँच महापाप करनेवाले, छल-छद्मपरायण, क्रूर, पिशाचोंके समान निर्दयी, ब्राह्मणोंके धनसे पुष्ट होनेवाले और व्यभिचारी हैं, वे भी कलियुगमें सप्ताहयज्ञसे पवित्र हो जाते हैं॥13॥
श्लोक-14
कायेन वाचा मनसापि पातकं नित्यं प्रकुर्वन्ति शठा हठेन ये।
परस्वपुष्टा मलिना दुराशयाः सप्ताहयज्ञेन कलौ पुनन्ति ते॥
जो दुष्ट आग्रहपूर्वक सर्वदा मन, वाणी या शरीरसे पाप करते रहते हैं, दूसरेके धनसे ही पुष्ट होते हैं तथा मलिन मन और दुष्ट हृदयवाले हैं, वे भी कलियुगमें सप्ताहयज्ञसे पवित्र हो जाते हैं। 14॥
श्लोक-15
अत्र ते कीर्तयिष्याम इतिहासं पुरातनम्।
यस्य श्रवणमात्रेण पापहानिः प्रजायते॥
नारदजी! अब हम तुम्हें इस विषयमें एक प्राचीन इतिहास सुनाते हैं, उसके सुननेसे ही सब पाप नष्ट हो जाते हैं॥ 15॥
श्लोक-16
तुङ्गभद्रातटे पूर्वमभूत्पत्तनमुत्तमम्।
यत्र वर्णाः स्वधर्मेण सत्यसत्कर्मतत्पराः॥
पूर्वकालमें तुंगभद्रा नदीके तटपर एक अनुपम नगर बसा हुआ था। वहाँ सभी वर्गों के लोग अपने-अपने धर्मोंका आचरण करते हुए सत्य और सत्कर्मोंमें तत्पर रहते थे॥16॥
श्लोक-17
आत्मदेवः पुरे तस्मिन् सर्ववेदविशारदः।
श्रौतस्मार्तेषु निष्णातो द्वितीय इव भास्करः॥
उस नगरमें समस्त वेदोंका विशेषज्ञ और श्रौत-स्मार्त कर्मोंमें निपुण एक आत्मदेव नामक ब्राह्मण रहता था, वह साक्षात् दूसरे सूर्यके समान तेजस्वी था॥17॥
श्लोक-18
भिक्षुको वित्तवाँल्लोके तत्प्रिया धुन्धुली स्मृता।
स्ववाक्यस्थापिका नित्यं सुन्दरी सुकुलोद्भवा॥
वह धनी होनेपर भी भिक्षाजीवी था। उसकी प्यारी पत्नी धुन्धुली कुलीन एवं सुन्दरी होनेपर भी सदा अपनी बातपर अड़ जानेवाली थी॥18॥
श्लोक-19
लोकवार्तारता क्रूरा प्रायशो बहुजल्पिका।
शूरा च गृहकृत्येषु कृपणा कलहप्रिया॥
उसे लोगोंकी बात करनेमें सुख मिलता था। स्वभाव था क्रूर। प्रायः कुछ-न-कुछ बकवाद करती रहती थी। गृहकार्यमें निपुण थी, कृपण थी और थी झगड़ालू भी॥ 19॥
श्लोक-20
एवं निवसतोः प्रेम्णा दम्पत्यो रममाणयोः।
अर्थाः कामास्तयोरासन्न सुखाय गृहादिकम्॥
इस प्रकार ब्राह्मण दम्पति प्रेमसे अपने घरमें रहते और विहार करते थे। उनके पास अर्थ और भोग-विलासकी सामग्री बहुत थी। घर-द्वार भी सुन्दर थे, परन्तु उससे उन्हें सुख नहीं था। 20॥
श्लोक-21
पश्चाद्धर्माः समारब्धास्ताभ्यां संतानहेतवे।
गोभूहिरण्यवासांसि दीनेभ्यो यच्छतः सदा॥
जब अवस्था बहुत ढल गयी, तब उन्होंने सन्तानके लिये तरह-तरहके पुण्यकर्म आरम्भ किये और वे दीन दुःखियोंको गौ, पृथ्वी, सुवर्ण और वस्त्रादि दान करने लगे॥21॥
श्लोक-22
धनार्धं धर्ममार्गेण ताभ्यां नीतं तथापि च।
न पुत्रो नापि वा पुत्री ततश्चिन्तातुरो भृशम्॥
इस प्रकार धर्ममार्गमें उन्होंने अपना आधा धन समाप्त कर दिया, तो भी उन्हें पुत्र या पुत्री किसीका भी मुख देखनेको न मिला। इसलिये अब वह ब्राह्मण बहत ही चिन्तातर रहने लगा। 22॥
श्लोक-23
एकदा स द्विजो दुःखाद् गृहं त्यक्त्वा वनं गतः।
मध्याह्ने तृषितो जातस्तडागं समुपेयिवान्॥
एक दिन वह ब्राह्मणदेवता बहुत दुःखी होकर घरसे निकलकर वनको चल दिया। दोपहरके समय उसे प्यास लगी, इसलिये वह एक तालाबपर आया॥23॥
श्लोक-24
पीत्वा जलं निषण्णस्तु प्रजादुःखेन कर्शितः।
मुहूर्तादपि तत्रैव संन्यासी कश्चिदागतः॥
सन्तानके अभावके दुःखने उसके शरीरको बहुत सुखा दिया था, इसलिये थक जानेके कारण जल पीकर वह वहीं बैठ गया। दो घड़ी बीतनेपर वहाँ एक संन्यासी महात्मा आये॥24॥
श्लोक-25
दृष्ट्वा पीतजलं तं तु विप्रो यातस्तदन्तिकम्।
नत्वा च पादयोस्तस्य निःश्वसन् संस्थितः पुरः॥
जब ब्राह्मणदेवताने देखा कि वे जल पी चुके हैं, तब वह उनके पास गया और चरणोंमें नमस्कार करनेके बाद सामने खड़े होकर लंबी-लंबी साँसें लेने लगा॥ 25 ॥
श्लोक-26
यतिरुवाच
कथं रोदिषि विप्र त्वं का ते चिन्ता बलीयसी।
वद त्वं सत्वरं मह्यं स्वस्य दुःखस्य कारणम्॥
संन्यासीने पूछा-कहो, ब्राह्मणदेवता! रोते क्यों हो? ऐसी तुम्हें क्या भारी चिन्ता है? तुम जल्दी ही मुझे अपने दुःखका कारण बताओ॥26॥
श्लोक-27
ब्राह्मण उवाच
किं ब्रवीमि ऋषे दुःखं पूर्वपापेन संचितम्।
मदीयाः पूर्वजास्तोयं कवोष्णमुपभुञ्जते॥
ब्राह्मणने कहा-महाराज! मैं अपने पूर्वजन्मके पापोंसे संचित दुःखका क्या वर्णन करूँ? अब मेरे पितर मेरे द्वारा दी हुई जलांजलिके जलको अपनी चिन्ताजनित साँससे कुछ गरम करके पीते हैं॥27॥
श्लोक-28
मद्दत्तं नैव गृह्णन्ति प्रीत्या देवा द्विजातयः।
प्रजादुःखेन शून्योऽहं प्राणांस्त्यक्तुमिहागतः॥
देवता और ब्राह्मण मेरा दिया हुआ प्रसन्न मनसे स्वीकार नहीं करते। सन्तानके लिये मैं इतना दुःखी हो गया हूँ कि मुझे सब सूना ही सूना दिखायी देता है। मैं प्राण त्यागनेके लिये यहाँ आया हूँ॥28॥
श्लोक-29
धिग्जीवितं प्रजाहीनं धिग्गृहं च प्रजां विना।
धिग्धनं चानपत्यस्य धिक्कुलं संततिं विना॥
सन्तानहीन जीवनको धिक्कार है, सन्तानहीन गृहको धिक्कार है! सन्तानहीन धनको धिक्कार है और सन्तानहीन कुलको धिक्कार है!!॥29॥
श्लोक-30
पाल्यते या मया धेनुः सा वन्ध्या सर्वथा भवेत्।
यो मया रोपितो वृक्षः सोऽपि वन्ध्यत्वमाश्रयेत्॥
मैं जिस गायको पालता हूँ, वह भी सर्वथा बाँझ हो जाती है; जो पेड़ लगाता हूँ, उसपर भी फल-फूल नहीं लगते॥30॥
श्लोक-31
यत्फलं मद्गृहायातं तच्च शीघ्रं विनश्यति।
निर्भाग्यस्यानपत्यस्य किमतो जीवितेन मे॥
मेरे घरमें जो फल आता है, वह भी बहुत जल्दी सड़ जाता है। जब मैं ऐसा अभागा और पुत्रहीन हूँ, तब फिर इस जीवनको ही रखकर मुझे क्या करना है॥ 31॥
श्लोक-32
इत्युक्त्वा स रुरोदोच्चैस्तत्पाश्र्वं दुःखपीडितः।
तदा तस्य यतेश्चित्ते करुणाभूद्गरीयसी॥ यों
कहकर वह ब्राह्मण दुःखसे व्याकुल हो उन संन्यासी महात्माके पास फूट-फूटकर रोने लगा। तब उन यतिवरके हृदयमें बड़ी करुणा उत्पन्न हुई॥32॥
श्लोक-33
तद्भालाक्षरमालां च वाचयामास योगवान्।
सर्वं ज्ञात्वा यतिः पश्चाद्विप्रमूचे सविस्तरम्॥
वे योगनिष्ठ थे; उन्होंने उसके ललाटकी रेखाएँ देखकर सारा वृत्तान्त जान लिया और फिर उसे विस्तारपूर्वक कहने लगे। 33॥
श्लोक-34
यतिरुवाच
मुञ्चाज्ञानं प्रजारूपं बलिष्ठा कर्मणो गतिः।
विवेकं तु समासाद्य त्यज संसारवासनाम्॥
संन्यासीने कहा ब्राह्मणदेवता! इस प्रजा प्राप्तिका मोह त्याग दो। कर्मकी गति प्रबल है. विवेकका आश्रय लेकर संसारकी वासना छोड दो॥ 34॥
श्लोक-35
शृणु विप्र मया तेऽद्य प्रारब्धं तु विलोकितम्।
सप्तजन्मावधि तव पुत्रो नैव च नैव च॥
विप्रवर! सुनो; मैंने इस समय तुम्हारा प्रारब्ध देखकर निश्चय किया है कि सात जन्मतक तुम्हारे कोई सन्तान किसी प्रकार नहीं हो सकती॥35॥
श्लोक-36
संततेः सगरो दुःखमवापाङ्गः पुरा तथा।
रे मुञ्चाद्य कुटुम्बाशां संन्यासे सर्वथा सुखम्॥
पूर्वकालमें राजा सगर एवं अंगको सन्तानके कारण दुःख भोगना पड़ा था। ब्राह्मण! अब तुम कुटुम्बकी आशा छोड़ दो। संन्यासमें ही सब प्रकारका सुख है॥36॥
श्लोक-37
ब्राह्मण उवाच
विवेकेन भवेत्किं मे पुत्रं देहि बलादपि।
नो चेत्त्यजाम्यहं प्राणांस्त्वदग्रे शोकमूर्च्छितः॥
ब्राह्मणने कहा- महात्माजी! विवेकसे मेरा क्या होगा। मुझे तो बलपूर्वक पुत्र दीजिये; नहीं तो मैं आपके सामने ही शोकमूर्च्छित होकर अपने प्राण त्यागता हूँ॥ 37॥
श्लोक-38
पुत्रादिसुखहीनोऽयं संन्यासः शुष्क एव हि।
गृहस्थः सरसो लोके पुत्रपौत्रसमन्वितः॥
जिसमें पुत्र-स्त्री आदिका सुख नहीं है, ऐसा संन्यास तो सर्वथा नीरस ही है। लोकमें सरस तो पुत्र-पौत्रादिसे भरा-पूरा गृहस्थाश्रम ही है॥ 38॥
श्लोक-39
इति विप्राग्रहं दृष्ट्वा प्राब्रवीत्स तपोधनः।
चित्रकेतुर्गतः कष्टं विधिलेखविमार्जनात्॥
ब्राह्मणका ऐसा आग्रह देखकर उन तपोधनने कहा, ‘विधाताके लेखको मिटानेका हठ करनेसे राजा चित्रकेतुको बड़ा कष्ट उठाना पड़ा था॥39॥
श्लोक-40
न यास्यसि सुखं पुत्राद्यथा दैवहतोद्यमः।
अतो हठेन युक्तोऽसि ह्यर्थिनं किं वदाम्यहम्॥
इसलिये दैव जिसके उद्योगको कुचल देता है, उस पुरुषके समान तुम्हें भी पुत्रसे सुख नहीं मिल सकेगा। तुमने तो बड़ा हठ पकड़ रखा है और अर्थीके रूपमें तुम मेरे सामने उपस्थित हो; ऐसी दशामें मैं तुमसे क्या कहूँ’॥ 40॥
श्लोक-41
तस्याग्रहं समालोक्य फलमेकं स दत्तवान्।
इदं भक्षय पल्या त्वं ततः पुत्रो भविष्यति॥
जब महात्माजीने देखा कि यह किसी प्रकार अपना आग्रह नहीं छोड़ता, तब उन्होंने उसे एक फल देकर कहा—’इसे तुम अपनी पत्नीको खिला देना, इससे उसके एक पुत्र होगा॥41॥
श्लोक-42
सत्यं शौचं दया दानमेकभक्तं तु भोजनम्।
वर्षावधि स्त्रिया कार्यं तेन पुत्रोऽतिनिर्मलः॥
तुम्हारी स्त्रीको एक सालतक सत्य, शौच, दया, दान और एक समय एक ही अन्न खानेका नियम रखना चाहिये। यदि वह ऐसा करेगी तो बालक बहुत शुद्ध स्वभाववाला होगा’। 42॥
श्लोक-43
एवमुक्त्वा ययौ योगी विप्रस्तु गृहमागतः।
पत्न्याः पाणौ फलं दत्त्वा स्वयं यातस्तु कुत्रचित्॥
यों कहकर वे योगिराज चले गये और ब्राह्मण अपने घर लौट आया। वहाँ आकर उसने वह फल अपनी स्त्रीके हाथमें दे दिया और स्वयं कहीं चला गया॥43॥
श्लोक-44
तरुणी कुटिला तस्य सख्यग्रे च रुरोद ह।
अहो चिन्ता ममोत्पन्ना फलं चाहं न भक्षये॥
उसकी स्त्री तो कुटिल स्वभावकी थी ही, वह रो-रोकर अपनी एक सखीसे कहने लगी—’सखी! मुझे तो बड़ी चिन्ता हो गयी, मैं तो यह फल नहीं खाऊँगी॥44॥
श्लोक-45
फलभक्षेण गर्भः स्याद्गर्भेणोदरवृद्धिता।
स्वल्पभक्षं ततोऽशक्तिर्गृहकार्यं कथं भवेत्॥
फल खाने से गर्भ रहेगा और गर्भ से पेट बढ़ जायगा। फिर कुछ खाया-पीया जायगा नहीं, इससे मेरी शक्ति क्षीण हो जायगी; तब बता, घरका धंधा कैसे होगा? ॥ 45 ॥
श्लोक-46
दैवाद् धाटी व्रजेद्ग्रामे पलायेद्गर्भिणी कथम्।
शुकवन्निवसेद्गर्भस्तं कुक्षेः कथमुत्सृजेत्॥
और–दैववश यदि कहीं गाँवमें डाकुओंका आक्रमण हो गया तो गर्भिणी स्त्री कैसे भागेगी। यदि शुकदेवजीकी तरह यह गर्भ भी पेटमें ही रह गया तो इसे बाहर कैसे निकाला जायगा। 46॥
श्लोक-47
तिर्यक्चेदागतो गर्भस्तदा मे मरणं भवेत्।
प्रसूतौ दारुणं दुःखं सुकुमारी कथं सहे॥
और कहीं प्रसवकालके समय वह टेढ़ा हो गया तो फिर प्राणोंसे ही हाथ धोना पड़ेगा। यों भी प्रसवके समय बड़ी भयंकर पीड़ा होती है; मैं सुकुमारी भला, यह सब कैसे सह सकूँगी? ॥ 47॥
श्लोक-48
मन्दायां मयि सर्वस्वं ननान्दा संहरेत्तदा।
सत्यशौचादिनियमो दुराराध्यः स दृश्यते॥
मैं जब दुर्बल पड़ जाऊँगी, तब ननदरानी आकर घरका सब माल-मता समेट ले जायँगी। और मुझसे तो सत्य-शौचादि नियमोंका पालन होना भी कठिन ही जान पड़ता है॥48॥
श्लोक-49
लालने पालने दुःखं प्रसूतायाश्च वर्तते।
वन्ध्या वा विधवा नारी सुखिनी चेति मे मतिः॥
जो स्त्री बच्चा जनती है, उसे उस बच्चेके लालन-पालनमें भी बड़ा कष्ट होता है। मेरे विचारसे तो वन्ध्या या विधवा स्त्रियाँ ही सुखी हैं ॥49॥
श्लोक-50
एवं कुतर्कयोगेन तत्फलं नैव भक्षितम्।
पत्या पृष्टं फलं भुक्तं भुक्तं चेति तयेरितम्॥
मनमें ऐसे ही तरह-तरहके कुतर्क उठनेसे उसने वह फल नहीं खाया और जब उसके पतिने पूछा—’फल खा लिया?’ तब उसने कह दिया—’हाँ, खा लिया’॥50॥
श्लोक-51
एकदा भगिनी तस्यास्तद्गृहं स्वेच्छयाऽऽगता।
तदने कथितं सर्वं चिन्तेयं महती हि मे॥
एक दिन उसकी बहिन अपने-आप ही उसके घर आयी; तब उसने अपनी बहिनको सारा वृत्तान्त सुनाकर कहा कि ‘मेरे मन में इसकी बड़ी चिन्ता है॥51॥
श्लोक-52
दुर्बला तेन दुःखेन ह्यनुजे करवाणि किम्।
साब्रवीन्मम गर्भोऽस्ति तं दास्यामि प्रसूतितः॥
मैं इस दुःखके कारण दिनोंदिन दुबली हो रही हूँ। बहिन! मैं क्या करूँ?’ बहिनने कहा, ‘मेरे पेटमें बच्चा है, प्रसव होनेपर वह बालक मैं तुझे दे दूंगी॥52॥
श्लोक-53
तावत्कालं सगर्भेव गुप्ता तिष्ठ गृहे सुखम्।
वित्तं त्वं मत्पतेर्यच्छ स ते दास्यति बालकम्॥
तबतक तू गर्भवतीके समान घरमें गुप्तरूपसे सुखसे रह। तू मेरे पतिको कुछ धन दे देगी तो वे तुझे अपना बालक दे देंगे॥
श्लोक-54
षाण्मासिको मृतो बाल इति लोको वदिष्यति।
तं बालं पोषयिष्यामि नित्यमागत्य ते गृहे॥
(हम ऐसी युक्ति करेंगी) कि जिसमें सब लोग यही कहें कि ‘इसका बालक छः महीनेका होकर मर गया’ और मैं नित्यप्रति तेरे घर आकर उस बालकका पालन-पोषण करती रहूँगी॥ 54॥
श्लोक-55
फलमर्पय धेन्वै त्वं परीक्षार्थं तु साम्प्रतम्।
तत्तदाचरितं सर्वं तथैव स्त्रीस्वभावतः॥ तू इस समय इसकी जाँच करनेके लिये यह फल गौको खिला दे।’ ब्राह्मणीने स्त्रीस्वभाववश जो-जो उसकी बहिनने कहा था, वैसे ही सब किया॥55॥
श्लोक-56
अथ कालेन सा नारी प्रसूता बालकं तदा।
आनीय जनको बालं रहस्ये धुन्धुलीं ददौ॥
इसके पश्चात् समयानुसार जब उस स्त्रीके पुत्र हुआ, तब उसके पिताने चुपचाप लाकर उसे धुन्धुलीको दे दिया॥56॥
श्लोक-57
तया च कथितं भर्त्रे प्रसूतः सुखमर्भकः।
लोकस्य सुखमुत्पन्नमात्मदेवप्रजोदयात्॥
और उसने आत्मदेवको सूचना दे दी कि मेरे सुखपूर्वक बालक हो गया है। इस प्रकार आत्मदेवके पुत्र हुआ सुनकर सब लोगोंको बड़ा आनन्द हुआ॥57॥
श्लोक-58
ददौ दानं द्विजातिभ्यो जातकर्म विधाय च।
गीतवादित्रघोषोऽभूत्तबारे मङ्गलं बहु॥
ब्राह्मणने उसका जातकर्म-संस्कार करके ब्राह्मणोंको दान दिया और उसके द्वारपर गाना-बजाना तथा अनेक प्रकारके मांगलिक कृत्य होने लगे॥58॥
श्लोक-59
भर्तुरग्रेऽब्रवीद्वाक्यं स्तन्यं नास्ति कुचे मम।
अन्यस्तन्येन निर्दुग्धा कथं पुष्णामि बालकम्॥
धुन्धुलीने अपने पतिसे कहा, ‘मेरे स्तनोंमें तो दूध ही नहीं है; फिर गौ आदि किसी अन्य जीवके दूधसे मैं इस बालकका किस प्रकार पालन करूँगी?॥ 59॥
श्लोक-60
मत्स्वसुश्च प्रसूताया मृतो बालस्तु वर्तते।
तामाकार्य गृहे रक्ष सा तेऽर्भं पोषयिष्यति॥
मेरी बहिनके अभी बालक हुआ था, वह मर गया है; उसे बुलाकर अपने यहाँ रख लें तो वह आपके इस बच्चेका पालनपोषण कर लेगी॥60॥
श्लोक-61
पतिना तत्कृतं सर्वं पुत्ररक्षणहेतवे।
पुत्रस्य धुन्धुकारीति नाम मात्रा प्रतिष्ठितम्॥
तब पुत्रकी रक्षाके लिये आत्मदेवने वैसा ही किया तथा माता धुन्धुलीने उस बालकका नाम धुन्धुकारी रखा॥61॥
श्लोक-62
त्रिमासे निर्गते चाथ सा धेनुः सुषुवेऽर्भकम्।
सर्वाङ्गसुन्दरं दिव्यं निर्मलं कनकप्रभम्॥
इसके बाद तीन महीने बीतनेपर उस गौके भी एक मनुष्याकार बच्चा हुआ। वह सर्वांगसुन्दर, दिव्य, निर्मल तथा सुवर्णकी-सी कान्तिवाला था॥62॥
श्लोक-63
दृष्ट्वा प्रसन्नो विप्रस्तु संस्कारान् स्वयमादधे।
मत्वाऽऽश्चर्यं जनाः सर्वे दिदृक्षार्थं समागताः॥
उसे देखकर ब्राह्मणदेवताको बड़ा आनन्द हुआ और उसने स्वयं ही उसके सब संस्कार किये। इस समाचारसे और सब लोगोंको भी बड़ा आश्चर्य हुआ और वे बालकको देखनेके लिये आये॥63॥
श्लोक-64
भाग्योदयोऽधुना जात आत्मदेवस्य पश्यत।
धेन्वा बालः प्रसूतस्तु देवरूपीति कौतुकम्॥
तथा आपसमें कहने लगे, ‘देखो, भाई! अब आत्मदेवका कैसा भाग्य उदय हुआ है! कैसे आश्चर्यकी बात है कि गौके भी ऐसा दिव्यरूप बालक उत्पन्न हुआ है॥ 64॥
श्लोक-65
न ज्ञातं तद्रहस्यं तु केनापि विधियोगतः।
गोकर्णं तं सुतं दृष्ट्वा गोकर्णं नाम चाकरोत्॥
दैवयोगसे इस गुप्त रहस्यका किसीको भी पता न लगा। आत्मदेवने उस बालकके गौके-से कान देखकर उसका नाम ‘गोकर्ण’ रखा॥65॥
श्लोक-66
कियत्कालेन तौ जातौ तरुणौ तनयावुभौ।
गोकर्णः पण्डितो ज्ञानी धुन्धुकारी महाखलः॥
कुछ काल बीतनेपर वे दोनों बालक जवान हो गये। उनमें गोकर्ण तो बड़ा पण्डित और ज्ञानी हुआ, किन्तु धुन्धुकारी बड़ा ही दृष्ट निकला॥66॥
श्लोक-67
स्नानशौचक्रियाहीनो दुर्भक्षी क्रोधवर्धितः।
दुष्परिग्रहकर्ता च शवहस्तेन भोजनम्॥
स्नान शौचादि ब्राह्मणोचित आचारोंका उसमें नाम भी न था और न खान-पानका ही कोई परहेज था। क्रोध उसमें बहुत बढ़ा-चढ़ा था। वह बुरी-बुरी वस्तुओंका संग्रह किया करता था। मुर्देके हाथसे छुआया हुआ अन्न भी खा लेता था॥67॥
श्लोक-68
चौरः सर्वजनद्वेषी परवेश्मप्रदीपकः।
लालनायाभकान्धृत्वा सद्यः कूपे न्यपातयत्॥
दूसरोंकी चोरी करना और सब लोगोंसे द्वेष बढ़ाना उसका स्वभाव बन गया था। छिपे-छिपे वह दूसरोंके घरोंमें आग लगा देता था। दूसरोंके बालकोंको खेलानेके लिये गोदमें लेता और उन्हें चट कुएँमें डाल देता॥ 68॥
श्लोक-69
हिंसकः शस्त्रधारी च दीनान्धानां प्रपीडकः।
चाण्डालाभिरतो नित्यं पाशहस्तः श्वसंगतः॥
हिंसाका उसे व्यसन-सा हो गया था। हर समय वह अस्त्रशस्त्र धारण किये रहता और बेचारे अंधे और दीन दुःखियोंको व्यर्थ तंग करता। चाण्डालोंसे उसका विशेष प्रेम था; बस, हाथमें फंदा लिये कुत्तोंकी टोलीके साथ शिकारकी टोहमें घूमता रहता॥69॥
श्लोक-70
तेन वेश्याकुसङ्केन पित्र्यं वित्तं तु नाशितम्।
एकदा पितरौ ताड्य पात्राणि स्वयमाहरत्॥
वेश्याओंके जालमें फँसकर उसने अपने पिताकी सारी सम्पत्ति नष्ट कर दी। एक दिन माता-पिताको मार-पीटकर घरके सब बर्तन भाँड़े उठा ले गया॥ 70 ॥
श्लोक-71
तत्पिता कृपणः प्रोच्चैर्धनहीनो रुरोद ह।
वन्ध्यत्वं तु समीचीनं कुपुत्रो दुःखदायकः॥
इस प्रकार जब सारी सम्पत्ति स्वाहा हो गयी, तब उसका कृपण पिता फूट-फूटकर रोने लगा और बोला—’इससे तो इसकी माँका बाँझ रहना ही अच्छा था; कुपुत्र तो बड़ा ही दुःखदायी होता है॥71॥
श्लोक-72
क्व तिष्ठामि क्व गच्छामि को मे दुःखं व्यपोहयेत्।
प्राणांस्त्यजामि दुःखेन हा कष्टं मम संस्थितम्॥
अब मैं कहाँ रहूँ? कहाँ जाऊँ? मेरे इस संकटको कौन काटेगा? हाय! मेरे ऊपर तो बड़ी विपत्ति आ पड़ी है, इस दुःखके कारण अवश्य मुझे एक दिन प्राण छोड़ने पड़ेंगे॥72॥
श्लोक-73
तदानीं तु समागत्य गोकर्णो ज्ञानसंयुतः।
बोधयामास जनकं वैराग्यं परिदर्शयन्॥ उसी समय परम ज्ञानी गोकर्णजी वहाँ आये और उन्होंने पिताको वैराग्यका उपदेश करते हुए बहुत समझाया॥73॥
श्लोक-74
असारः खलु संसारो दुःखरूपी विमोहकः।
सुतः कस्य धनं कस्य स्नेहवाञ्चलतेऽनिशम्॥
वे बोले, पिताजी! यह संसार असार है। यह अत्यन्त दुःखरूप और मोहमें डालनेवाला है। पुत्र किसका? धन किसका? स्नेहवान् पुरुष रात-दिन दीपकके समान जलता रहता है॥74॥
श्लोक-75
न चेन्द्रस्य सुखं किंचिन्न सुखं चक्रवर्तिनः।
सुखमस्ति विरक्तस्य मुनेरेकान्तजीविनः॥
सुख न तो इन्द्रको है और न चक्रवर्ती राजाको ही; सुख है तो केवल विरक्त, एकान्तजीवी मनिको॥75 ॥
श्लोक-76
मुञ्चाज्ञानं प्रजारूपं मोहतो नरके गतिः।
निपतिष्यति देहोऽयं सर्वं त्यक्त्वा वनं व्रज॥
‘यह मेरा पुत्र है’ इस अज्ञानको छोड़ दीजिये। मोहसे नरककी प्राप्ति होती है। यह शरीर तो नष्ट होगा ही। इसलिये सब कुछ छोड़कर वनमें चले जाइये॥76॥
श्लोक-77
तद्वाक्यं तु समाकर्ण्य गन्तुकामः पिताब्रवीत्।
किं कर्तव्यं वने तात तत्त्वं वद सविस्तरम्॥
गोकर्णके वचन सुनकर आत्मदेव वनमें जानेके लिये तैयार हो गया और उनसे कहने लगा, ‘बेटा! वनमें रहकर मुझे क्या करना चाहिये, यह मुझसे विस्तारपूर्वक कहो॥77॥
श्लोक-78
अन्धकूपे स्नेहपाशे बद्धः पङ्गुरहं शठः।
कर्मणा पतितो नूनं मामुद्धर दयानिधे॥
मैं बड़ा मूर्ख हूँ, अबतक कर्मवश स्नेहपाशमें बँधा हुआ अपंगकी भाँति इस घररूप अँधेरे कुएँमें ही पड़ा रहा हूँ। तुम बड़े दयालु हो, इससे मेरा उद्धार करो’ ॥ 78॥
श्लोक-79
गोकर्ण उवाच देहेऽस्थिमांसरुधिरेऽभिमतिं त्यज त्वं जायासुतादिषु सदा ममतां विमुञ्च।
पश्यानिशं जगदिदं क्षणभङ्गनिष्ठं वैराग्यरागरसिको भव भक्तिनिष्ठः॥
गोकर्णने कहा—पिताजी! यह शरीर हड्डी, मांस और रुधिरका पिण्ड है; इसे आप ‘मैं’ मानना छोड़ दें और स्त्रीपुत्रादिको ‘अपना’ कभी न मानें। इस संसारको रात-दिन क्षणभंगुर देखें, इसकी किसी भी वस्तुको स्थायी समझकर उसमें राग न करें। बस, एकमात्र वैराग्यरसके रसिक होकर भगवानकी भक्तिमें लगे रहें॥79॥
श्लोक-80
धर्मं भजस्व सततं त्यज लोकधर्मान् सेवस्व साधुपुरुषाञ्जहि कामतृष्णाम्।
अन्यस्य दोषगुणचिन्तनमाशु मुक्त्वा सेवाकथारसमहो नितरां पिब त्वम्॥
भगवद्भजन ही सबसे बड़ा धर्म है, निरन्तर उसीका आश्रय लिये रहें। अन्य सब प्रकारके लौकिक धर्मोंसे मुख मोड़ लें। सदा साधुजनोंकी सेवा करें। भोगोंकी लालसाको पास न फटकने दें तथा जल्दी-से-जल्दी दूसरोंके गुण-दोषोंका विचार करना छोड़कर एकमात्र भगवत्सेवा और भगवान् की कथाओंके रसका ही पान करें॥80॥
श्लोक-81
एवं सुतोक्तिवशतोऽपि गृहं विहाय यातो वनं स्थिरमतिर्गतषष्टिवर्षः।
युक्तो हरेरनुदिनं परिचर्ययासौ श्रीकृष्णमाप नियतं दशमस्य पाठात्॥
इस प्रकार पुत्रकी वाणीसे प्रभावित होकर आत्मदेवने घर छोड़ दिया और वनकी यात्रा की। यद्यपि उसकी आयु उस समय साठ वर्षकी हो चुकी थी, फिर भी बुद्धिमें पूरी दृढ़ता थी। वहाँ रात-दिन भगवान् की सेवा पूजा करनेसे और नियमपूर्वक भागवतके दशमस्कन्धका पाठ करनेसे उसने भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रको प्राप्त कर लिया॥ 81॥
इति श्रीपद्मपुराणे उत्तरखण्डे श्रीमद्भागवतमाहात्म्ये विप्रमोक्षो नाम चतुर्थोऽध्यायः ॥ 4॥