श्रीमद् भागवत महापुराण माहात्म्य अध्याय 5: धुन्धुकारी को प्रेतयोनि की प्राप्ति और उससे उद्धार
श्रीमद्भागवतमाहात्म्यम्
कृष्णं नारायणं वन्दे कृष्णं वन्दे व्रजप्रियम्।
कृष्णं द्वैपायनं वन्दे कृष्णं वन्दे पृथासुतम्॥
अथ पञ्चमोऽध्यायः (अध्याय 4)
धुन्धुकारी को प्रेतयोनि की प्राप्ति और उससे उद्धार
श्लोक-1
सूत उवाच पितर्युपरते तेन जननी ताडिता भृशम्।
क्व वित्तं तिष्ठति ब्रूहि हनिष्ये लत्तया न चेत्॥
सूतजी कहते हैं- शौनकजी! पिता के वन चले जानेपर एक दिन धुन्धुकारी ने अपनी माता को बहुत पीटा और कहा—’बता, धन कहाँ रखा है? नहीं तो अभी तेरी लुआठी (जलती लकड़ी) से खबर लूँगा॥1॥
श्लोक-2
इति तद्वाक्यसंत्रासाज्जनन्या पुत्रदुःखतः।
कूपे पातः कृतो रात्रौ तेन सा निधनं गता॥
उसकी इस धमकीसे डरकर और पुत्रके उपद्रवोंसे दुःखी होकर वह रात्रिके समय कुएँमें जा गिरी और इसीसे उसकी मृत्यु हो गयी॥2॥
श्लोक-3
गोकर्णस्तीर्थयात्रार्थं निर्गतो योगसंस्थितः।
न दुःखं न सुखं तस्य न वैरी नापि बान्धवः॥
योगनिष्ठ गोकर्णजी तीर्थयात्राके लिये निकल गये। उन्हें इन घटनाओंसे कोई सुख या दुःख नहीं होता था; क्योंकि उनका न कोई मित्र था न शत्रु॥3॥
श्लोक-4
धुन्धुकारी गृहेऽतिष्ठत्पञ्चपण्यवधूवृतः।
अत्युग्रकर्मकर्ता च तत्पोषणविमूढधीः॥
धुन्धुकारी पाँच वेश्याओंके साथ घरमें रहने लगा। उनके लिये भोग-सामग्री जुटानेकी चिन्ताने उसकी बुद्धि नष्ट कर दी और वह नाना प्रकारके अत्यन्त क्रूर कर्म करने लगा॥4॥
श्लोक-5
एकदा कुलटास्तास्तु भूषणान्यभिलिप्सवः।
तदर्थं निर्गतो गेहात्कामान्धो मृत्युमस्मरन्॥
एक दिन उन कुलटाओंने उससे बहुत से गहने माँगे। वह तो कामसे अंधा हो रहा था, मौतकी उसे कभी याद नहीं आती थी। बस, उन्हें जुटानेके लिये वह घरसे निकल पड़ा॥5॥
श्लोक-6
यतस्ततश्च संहृत्य वित्तं वेश्म पुनर्गतः।
ताभ्योऽयच्छत्सुवस्त्राणि भूषणानि कियन्ति च॥
वह जहाँ तहाँसे बहुत-सा धन चुराकर घर लौट आया तथा उन्हें कुछ सुन्दर वस्त्र और आभूषण लाकर दिये॥6॥
श्लोक-7
बहुवित्तचयं दृष्ट्वा रात्रौ नार्यो व्यचारयन्।
चौर्यं करोत्यसौ नित्यमतो राजा ग्रहीष्यति॥
चोरीका बहुत माल देखकर रात्रिके समय स्त्रियोंने विचार किया कि ‘यह नित्य ही चोरी करता है, इसलिये इसे किसी दिन अवश्य राजा पकड़ लेगा॥7॥
श्लोक-8
वित्तं हृत्वा पुनश्चैनं मारयिष्यति निश्चितम्।
अतोऽर्थगुप्तये गूढमस्माभिः किं न हन्यते॥
राजा यह सारा धन छीनकर इसे निश्चय ही प्राणदण्ड देगा। जब एक दिन इसे मरना ही है, तब हम ही धनकी रक्षाके लिये गुप्तरूपसे इसको क्यों न मार डालें॥8॥
श्लोक-9
निहत्यैनं गृहीत्वार्थं यास्यामो यत्र कुत्रचित्।
इति ता निश्चयं कृत्वा सुप्तं सम्बद्ध्य रश्मिभिः॥
श्लोक-10
पाशं कण्ठे निधायास्य तन्मृत्युमुपचक्रमुः।
त्वरितं न ममारासौ चिन्तायुक्तास्तदाभवन्॥
इसे मारकर हम इसका माल-मता लेकर जहाँ-कहीं चली जायँगी।’ ऐसा निश्चय कर उन्होंने सोये हुए धुन्धुकारीको रस्सियोंसे कस दिया और उसके गलेमें फाँसी लगाकर उसे मारनेका प्रयत्न किया। इससे जब वह जल्दी न मरा तो उन्हें बड़ी चिन्ता हुई॥9-10॥
श्लोक-11
तप्ताङ्गारसमूहांश्च तन्मुखे हि विचिक्षिपुः।
अग्निज्वालातिदुःखेन व्याकुलो निधनं गतः॥
तब उन्होंने उसके मुखपर बहुत-से दहकते अंगारे डाले; इससे वह अग्निकी लपटोंसे बहुत छटपटाकर मर गया॥ 11॥
श्लोक-12
तं देहं मुमुचुर्गर्ते प्रायः साहसिकाः स्त्रियः।
न ज्ञातं तद्रहस्यं तु केनापीदं तथैव च॥
उन्होंने उसके शरीरको एक गड्ढेमें डालकर गाड़ दिया। सच है, स्त्रियाँ प्रायः बड़ी दुःसाहसी होती हैं। उनके इस कृत्यका किसीको भी पता न चला॥ 12॥
श्लोक-13
लोकैः पृष्टा वदन्ति स्म दूरं यातः प्रियो हि नः।
आगमिष्यति वर्षेऽस्मिन् वित्तलोभविकर्षितः॥
लोगोंके पूछनेपर कह देती थीं कि ‘हमारे प्रियतम पैसेके लोभसे अबकी बार कहीं दूर चले गये हैं, इसी वर्षके अन्दर लौट आयेंगे’॥13॥
श्लोक-14
स्त्रीणां नैव तु विश्वासं दुष्टानां कारयेद् बुधः।
विश्वासे यः स्थितो मूढः स दुःखैः परिभूयते॥
बुद्धिमान् पुरुषको दुष्टा स्त्रियोंका कभी विश्वास न करना चाहिये। जो मूर्ख इनका विश्वास करता है, उसे दुःखी होना पड़ता है॥14॥
श्लोक-15
सुधामयं वचो यासां कामिनां रसवर्धनम्।
हृदयं क्षुरधाराभं प्रियः को नाम योषिताम्॥
इनकी वाणी तो अमृतके समान कामियोंके हृदयमें रसका संचार करती है; किन्तु हृदय छूरेकी धारके समान तीक्ष्ण होता है। भला, इन स्त्रियोंका कौन प्यारा है ? ॥ 15॥
श्लोक-16
संहृत्य वित्तं ता याताः कुलटा बहुभर्तृकाः।
धुन्धुकारी बभूवाथ महान् प्रेतः कुकर्मतः॥
वे कुलटाएँ धुन्धुकारीकी सारी सम्पत्ति समेटकर वहाँसे चंपत हो गयीं; उनके ऐसे न जाने कितने पति थे। और धुन्धुकारी अपने कुकर्मोके कारण भयंकर प्रेत हुआ॥16॥
श्लोक-17
वात्यारूपधरो नित्यं धावन्दशदिशोऽन्तरम्।
शीतातपपरिक्लिष्टो निराहारः पिपासितः॥
श्लोक-18
न लेभे शरणं क्वापि हा दैवेति मुहुर्वदन्।
कियत्कालेन गोकर्णो मृतं लोकादबुध्यत॥
वह बवंडरके रूपमें सर्वदा दसों दिशाओंमें भटकता रहता था तथा शीत घामसे सन्तप्त और भूख-प्याससे व्याकुल होनेके कारण ‘हा दैव! हा दैव!’ चिल्लाता रहता था। परन्तु उसे कहीं भी कोई आश्रय न मिला। कुछ काल बीतनेपर गोकर्णने भी लोगोंके मुखसे धुन्धुकारीकी मृत्युका समाचार सुना॥17-18॥
श्लोक-19
अनाथं तं विदित्वैव गयाश्राद्धमचीकरत्।
यस्मिंस्तीर्थे तु संयाति तत्र श्राद्धमवर्तयत्॥
तब उसे अनाथ समझकर उन्होंने उसका गयाजीमें श्राद्ध किया; और भी जहाँ जहाँ वे जाते थे, उसका श्राद्ध अवश्य करते थे॥ 19॥
श्लोक-20
एवं भ्रमन् स गोकर्णः स्वपुरं समुपेयिवान्।
रात्रौ गृहाङ्गणे स्वप्तुमागतोऽलक्षितः परैः॥
इस प्रकार घूमते-घूमते गोकर्णजी अपने नगरमें आये और रात्रिके समय दूसरोंकी दृष्टिसे बचकर सीधे अपने घरके आँगनमें सोनेके लिये पहुँचे॥20॥
श्लोक-21
तत्र सुप्तं स विज्ञाय धुन्धुकारी स्वबान्धवम्।
निशीथे दर्शयामास महारौद्रतरं वपुः॥
वहाँ अपने भाईको सोया देख आधी रातके समय धुन्धुकारीने अपना बड़ा विकट रूप दिखाया॥21॥
श्लोक-22
सकृन्मेषः सकृद्धस्ती सकृच्च महिषोऽभवत्।
सकृदिन्द्रः सकृच्चाग्निः पुनश्च पुरुषोऽभवत्॥
वह कभी भेड़ा, कभी हाथी, कभी भैंसा, कभी इन्द्र और कभी अग्निका रूप धारण करता। अन्तमें वह मनुष्यके आकारमें प्रकट हुआ॥22॥
श्लोक-23
वैपरीत्यमिदं दृष्ट्वा गोकर्णो धैर्यसंयुतः।
अयं दुर्गतिकः कोऽपि निश्चित्याथ तमब्रवीत्॥
ये विपरीत अवस्थाएँ देखकर गोकर्णने निश्चय किया कि यह कोई दुर्गतिको प्राप्त हुआ जीव है। तब उन्होंने उससे धैर्यपूर्वक पूछा॥23॥
श्लोक-24
गोकर्ण उवाच कस्त्वमुग्रतरो रात्रौ कुतो यातो दशामिमाम्।
किं वा प्रेतः पिशाचो वा राक्षसोऽसीति शंस नः॥
गोकर्णने कहा-तू कौन है? रात्रिके समय ऐसे भयानक रूप क्यों दिखा रहा है? तेरी यह दशा कैसे हुई? हमें बता तो सही-तू प्रेत है, पिशाच है अथवा कोई राक्षस है ? ॥ 24॥
श्लोक-25
सूत उवाच एवं पृष्टस्तदा तेन रुरोदोच्चैः पुनः पुनः।
अशक्तो वचनोच्चारे संज्ञामानं चकार ह॥
सूतजी कहते हैं- गोकर्णके इस प्रकार पूछनेपर वह बारबार जोर-जोरसे रोने लगा। उसमें बोलनेकी शक्ति नहीं थी.
इसलिये उसने केवल संकेतमात्र किया॥25॥
श्लोक-26
ततोऽञ्जलौ जलं कृत्वा गोकर्णस्तमुदैरयत्।
तत्सेकहतपापोऽसौ प्रवक्तुमुपचक्रमे॥
तब गोकर्णने अंजलिमें जल लेकर उसे अभिमन्त्रित करके उसपर छिड़का। इससे उसके पापोंका कुछ शमन हुआ और वह इस प्रकार कहने लगा॥26॥
श्लोक-27
प्रेत उवाच अहं भ्राता त्वदीयोऽस्मि धुन्धुकारीति नामतः।
स्वकीयेनैव दोषेण ब्रह्मत्वं नाशितं मया॥
प्रेत बोला—’मैं तुम्हारा भाई हूँ। मेरा नाम है धुन्धुकारी। मैंने अपने ही दोष से अपना ब्राह्मणत्व नष्ट कर दिया॥ 27॥
श्लोक-28
कर्मणो नास्ति संख्या मे महाज्ञाने विवर्तिनः।
लोकानां हिंसकः सोऽहं स्त्रीभिर्दुःखेन मारितः॥ मे
रे कुकर्मोंकी गिनती नहीं की जा सकती। मैं तो महान् अज्ञानमें चक्कर काट रहा था। इसीसे मैंने लोगोंकी बड़ी हिंसा की। अन्तमें कुलटा स्त्रियोंने मुझे तड़पा-तड़पाकर मार डाला॥ 28॥
श्लोक-29
अतः प्रेतत्वमापन्नो दुर्दशां च वहाम्यहम्।
वाताहारेण जीवामि दैवाधीनफलोदयात्॥
इसीसे अब प्रेतयोनिमें पड़कर यह दुर्दशा भोग रहा हूँ। अब दैववश कर्मफलका उदय होनेसे मैं केवल वायुभक्षण करके जी रहा हूँ॥29॥
श्लोक-30
अहो बन्धो कृपासिन्धो भ्रातर्मामाशु मोचय।
गोकर्णो वचनं श्रुत्वा तस्मै वाक्यमथाब्रवीत्॥
भाई! तुम दयाके समुद्र हो; अब किसी प्रकार जल्दी ही मुझे इस योनिसे छुड़ाओ।’ गोकर्णने धुन्धुकारीकी सारी बातें सुनीं और तब उससे बोले॥30॥
श्लोक-31
गोकर्ण उवाच त्वदर्थं तु गयापिण्डो मया दत्तो विधानतः।
तत्कथं नैव मुक्तोऽसि ममाश्चर्यमिदं महत्॥
गोकर्णने कहा-भाई! मुझे इस बातका बड़ा आश्चर्य है मैंने तुम्हारे लिये विधिपूर्वक गयाजीमें पिण्डदान किया, फिर भी तुम प्रेतयोनिसे मुक्त कैसे नहीं हुए? ॥ 31॥
श्लोक-32
गयाश्राद्धान्न मुक्तिश्चेदुपायो नापरस्त्विह।
किं विधेयं मया प्रेत तत्त्वं वद सविस्तरम्॥
यदि गया-श्राद्धसे भी तुम्हारी मुक्ति नहीं हुई, तब इसका और कोई उपाय ही नहीं है। अच्छा, तुम सब बात खोलकर कहोमुझे अब क्या करना चाहिये?॥ 32॥
श्लोक-33
प्रेत उवाच
गयाश्राद्धशतेनापि मुक्तिर्मे न भविष्यति।
उपायमपरं कंचित्त्वं विचारय साम्प्रतम्॥
प्रेतने कहा- मेरी मुक्ति सैकड़ों गया श्राद्ध करनेसे भी नहीं हो सकती। अब तो तुम इसका कोई और उपाय सोचो॥33॥
श्लोक-34
इति तदाक्यमाकर्ण्य गोकर्णो विस्मयं गतः।
शतश्राद्धैर्न मुक्तिश्चेदसाध्यं मोचनं तव॥
प्रेतकी यह बात सुनकर गोकर्णको बड़ा आश्चर्य हुआ। वे कहने लगे—’यदि सैकड़ों गया श्राद्धोंसे भी तुम्हारी मुक्ति नहीं
हो सकती, तब तो तुम्हारी मुक्ति असम्भव ही है॥34॥
श्लोक-35
इदानीं तु निजं स्थानमातिष्ठ प्रेत निर्भयः।
त्वन्मुक्तिसाधकं किंचिदाचरिष्ये विचार्य च॥
अच्छा, अभी तो तुम निर्भय होकर अपने स्थानपर रहो; मैं विचार करके तुम्हारी मुक्तिके लिये कोई दूसरा उपाय करूँगा’। 35॥
श्लोक-36
धुन्धुकारी निजस्थानं तेनादिष्टस्ततो गतः।
गोकर्णश्चिन्तयामास तां रात्रिं न तदध्यगात्॥
गोकर्णकी आज्ञा पाकर धुन्धुकारी वहाँसे अपने स्थानपर चला आया। इधर गोकर्णने रातभर विचार किया, तब भी उन्हें कोई उपाय नहीं सूझा॥ 36॥
श्लोक-37
प्रातस्तमागतं दृष्ट्वा लोकाः प्रीत्या समागताः।
तत्सर्वं कथितं तेन यज्जातं च यथा निशि॥
प्रातःकाल उनको आया देख लोग प्रेमसे उनसे मिलने आये। तब गोकर्णने रातमें जो कुछ जिस प्रकार हुआ था, वह सब उन्हें सुना दिया॥37॥
श्लोक-38
विद्वांसो योगनिष्ठाश्च ज्ञानिनो ब्रह्मवादिनः।
तन्मुक्तिं नैव तेऽपश्यन् पश्यन्तः शास्त्रसंचयान्॥
उनमें जो लोग विद्वान्, योगनिष्ठ, ज्ञानी और वेदज्ञ थे, उन्होंने भी अनेकों शास्त्रोंको उलट-पलटकर देखा; तो भी उसकी मुक्तिका कोई उपाय न मिला॥ 38॥
श्लोक-39
ततः सर्वैः सूर्यवाक्यं तन्मुक्तौ स्थापितं परम्।
गोकर्णः स्तम्भनं चक्रे सूर्यवेगस्य वै तदा॥
तब सबने यही निश्चय किया कि इस विषयमें सूर्यनारायण जो आज्ञा करें, वही करना चाहिये। अतः गोकर्णने अपने तपोबलसे सूर्यकी गतिको रोक दिया॥39॥
श्लोक-40
तुभ्यं नमो जगत्साक्षिन् ब्रूहि मे मुक्तिहेतुकम्।
तच्छ्रुत्वा दूरतः सूर्यः स्फुटमित्यभ्यभाषत॥
श्लोक-41
श्रीमद्भागवतान्मुक्तिः सप्ताहं वाचनं कुरु।
इति सूर्यवचः सर्वैर्धर्मरूपं तु विश्रुतम्॥
उन्होंने स्तुति की—’भगवन्! आप सारे संसारके साक्षी हैं, मैं आपको नमस्कार करता हूँ। आप मुझे कृपा करके धुन्धुकारीकी मुक्तिका साधन बताइये।’ गोकर्णकी यह प्रार्थना सुनकर सूर्यदेवने दूरसे ही स्पष्ट शब्दोंमें कहा—’श्रीमद्भागवतसे मुक्ति हो सकती है, इसलिये तुम उसका सप्ताह पारायण करो।’ सूर्यका यह धर्ममय वचन वहाँ सभीने सुना॥ 40-41॥
श्लोक-42
सर्वेऽब्रुवन् प्रयत्नेन कर्तव्यं सुकरं त्विदम्।
गोकर्णो निश्चयं कृत्वा वाचनार्थं प्रवर्तितः॥
तब सबने यही कहा कि ‘प्रयत्नपूर्वक यही करो, है भी यह साधन बहुत सरल।’ अतः गोकर्णजी भी तदनुसार निश्चय करके कथा सुनानेके लिये तैयार हो गये॥42॥
श्लोक-43
तत्र संश्रवणार्थाय देशग्रामाज्जना ययुः।
पङ्ग्वन्धवृद्धमन्दाश्च तेऽपि पापक्षयाय वै॥
देश और गाँवोंसे अनेकों लोग कथा सुननेके लिये आये। बहुत से लँगड़े लूले, अंधे, बूढ़े और मन्दबुद्धि पुरुष भी अपने पापोंकी निवृत्तिके उद्देश्यसे वहाँ आ पहुँचे॥ 43॥
श्लोक-44
समाजस्तु महाजातो देवविस्मयकारकः।
यदैवासनमास्थाय गोकर्णोऽकथयत्कथाम्॥
श्लोक-45
स प्रेतोऽपि तदाऽऽयातः स्थानं पश्यन्नितस्ततः।
सप्तग्रन्थियुतं तत्रापश्यत्कीचकमुच्छ्रितम्॥
इस प्रकार वहाँ इतनी भीड़ हो गयी कि उसे देखकर देवताओंको भी आश्चर्य होता था। जब गोकर्णजी व्यासगद्दीपर बैठकर कथा कहने लगे, तब वह प्रेत भी वहाँ आ पहुँचा और इधर-उधर बैठनेके लिये स्थान ढूँढ़ने लगा। इतनेमें ही उसकी दृष्टि एक सीधे रखे हुए सात गाँठके बाँसपर पड़ी॥ 44-45 ॥
श्लोक-46
तन्मूलच्छिद्रमाविश्य श्रवणार्थं स्थितो ह्यसौ।
वातरूपी स्थितिं कर्तुमशक्तो वंशमाविशत्॥
उसीके नीचेके छिद्रमें घुसकर वह कथा सुननेके लिये बैठ गया। वायुरूप होनेके कारण वह बाहर कहीं बैठ नहीं सकता था, इसलिये बाँसमें घुस गया॥ 46॥
श्लोक-47
वैष्णवं ब्राह्मणं मुख्यं श्रोतारं परिकल्प्य सः।
प्रथमस्कन्धतः स्पष्टमाख्यानं धेनुजोऽकरोत्॥
गोकर्णजीने एक वैष्णव ब्राह्मणको मुख्य श्रोता बनाया और प्रथमस्कन्धसे ही स्पष्ट स्वरमें कथा सुनानी आरम्भ कर दी। 47॥
श्लोक-48
दिनान्ते रक्षिता गाथा तदा चित्रं बभूव ह।
वंशैकग्रन्थिभेदोऽभूत्सशब्दं पश्यतां सताम्॥
सायंकालमें जब कथाको विश्राम दिया गया, तब एक बड़ी विचित्र बात हुई। वहाँ सभासदोंके देखते-देखते उस बाँसकी
एक गाँठ तड़-तड़ शब्द करती फट गयी॥48॥
श्लोक-49
द्वितीयेऽह्नि तथा सायं द्वितीयग्रन्थिभेदनम्।
तृतीयेऽह्नि तथा सायं तृतीयग्रन्थिभेदनम्॥
इसी प्रकार दूसरे दिन सायंकालमें दूसरी गाँठ फटी और तीसरे दिन उसी समय तीसरी॥49॥
श्लोक-50
एवं सप्तदिनैश्चैव सप्तग्रन्थिविभेदनम्।
कृत्वा स द्वादशस्कन्धश्रवणात्प्रेततां जहौ॥
श्लोक-51
दिव्यरूपधरो जातस्तुलसीदाममण्डितः।
पीतवासा घनश्यामो मुकुटी कुण्डलान्वितः॥
इस प्रकार सात दिनोंमें सातों गाँठोंको फोड़कर धुन्धुकारी बारहों स्कन्धोंके सुननेसे पवित्र होकर प्रेतयोनिसे मुक्त हो गया और दिव्यरूप धारण करके सबके सामने प्रकट हुआ। उसका मेघके समान श्याम शरीर पीताम्बर और तुलसीकी मालाओंसे सुशोभित था तथा सिरपर मनोहर मुकुट और कानोंमें कमनीय कुण्डल झिलमिला रहे थे॥50-51॥
श्लोक-52
ननाम भ्रातरं सद्यो गोकर्णमिति चाब्रवीत्।
त्वयाहं मोचितो बन्धो कृपया प्रेतकश्मलात्॥
उसने तुरन्त अपने भाई गोकर्णको प्रणाम करके कहा—’भाई! तुमने कृपा करके मुझे प्रेतयोनिकी यातनाओंसे मुक्त कर दिया॥ 52॥
श्लोक-53
धन्या भागवती वार्ता प्रेतपीडाविनाशिनी।
सप्ताहोऽपि तथा धन्यः कृष्णलोकफलप्रदः॥
यह प्रेतपीड़ाका नाश करनेवाली श्रीमद्भागवतकी कथा धन्य है तथा श्रीकृष्णचन्द्रके धामकी प्राप्ति करानेवाला इसका सप्ताह-पारायण भी धन्य है!॥53॥
श्लोक-54
कम्पन्ते सर्वपापानि सप्ताहश्रवणे स्थिते।
अस्माकं प्रलयं सद्यः कथा चेयं करिष्यति॥
जब सप्ताहश्रवणका योग लगता है, तब सब पाप थर्रा उठते हैं कि अब यह भागवतकी कथा जल्दी ही हमारा अन्त कर देगी॥54॥
श्लोक-55
आर्द्र शुष्कं लघु स्थूलं वाङ्मनःकर्मभिः कृतम्।
श्रवणं विदहेत्पापं पावकः समिधो यथा॥
जिस प्रकार आग गीली-सूखी, छोटी बड़ी-सब तरहकी लकड़ियोंको जला डालती है, उसी प्रकार यह सप्ताहश्रवण मन, वचन और कर्मद्वारा किये हुए नये-पुराने, छोटे बड़े सभी प्रकारके पापोंको भस्म कर देता है॥55॥
श्लोक-56
अस्मिन् वै भारते वर्षे सूरिभिर्देवसंसदि।
अकथाश्राविणां पुंसां निष्फलं जन्म कीर्तितम्॥
विद्वानोंने देवताओंकी सभामें कहा है कि जो लोग इस भारतवर्षमें श्रीमद्भागवतकी कथा नहीं सुनते, उनका जन्म वृथा ही है॥56॥
श्लोक-57
किं मोहतो रक्षितेन सुपुष्टेन बलीयसा।
अध्रुवेण शरीरेण शुकशास्त्रकथां विना॥
भला, मोहपूर्वक लालन-पालन करके यदि इस अनित्य शरीरको हृष्ट-पुष्ट और बलवान् भी बना लिया तो भी
श्रीमद्भागवतकी कथा सुने बिना इससे क्या लाभ हुआ?॥ 57॥
श्लोक-58
अस्थिस्तम्भं स्नायुबद्धं मांसशोणितलेपितम्।
चर्मावनद्धं दुर्गन्धं पात्रं मूत्रपुरीषयोः॥
अस्थियाँ ही इस शरीरके आधारस्तम्भ हैं, नस-नाडीरूप रस्सियोंसे यह बँधा हुआ है, ऊपरसे इसपर मांस और रक्त थोपकर इसे चर्मसे मँढ़ दिया गया है। इसके प्रत्येक अंगमें दुर्गन्ध आती है; क्योंकि है तो यह मल-मूत्रका भाण्ड ही॥58॥
श्लोक-59
जराशोकविपाकार्तं रोगमन्दिरमातुरम्।
दुष्पूरं दुर्धरं दुष्टं सदोषं क्षणभङ्गरम्॥
वृद्धावस्था और शोकके कारण यह परिणाममें दुःखमय ही है, रोगोंका तो घर ही ठहरा। यह निरन्तर किसी-न-किसी कामनासे पीड़ित रहता है, कभी इसकी तृप्ति नहीं होती। इसे धारण किये रहना भी एक भार ही है; इसके रोम-रोममें दोष भरे हुए हैं और नष्ट होनेमें इसे एक क्षण भी नहीं लगता॥ 59॥
श्लोक-60
कृमिविड्भस्मसंज्ञान्तं शरीरमिति वर्णितम्।
अस्थिरेण स्थिरं कर्म कुतोऽयं साधयेन्न हि॥
अन्तमें यदि इसे गाड़ दिया जाता है तो इसके कीड़े बन जाते हैं; कोई पशु खा जाता है तो यह विष्ठा हो जाता है और अग्निमें जला दिया जाता है तो भस्मकी ढेरी हो जाता है। ये तीन ही इसकी गतियाँ बतायी गयी हैं। ऐसे अस्थिर शरीरसे मनुष्य अविनाशी फल देनेवाला काम क्यों नहीं बना लेता?॥60॥
श्लोक-61
यत्प्रातः संस्कृतं चान्नं सायं तच्च विनश्यति।
तदीयरससम्पुष्टे काये का नाम नित्यता॥
जो अन्न प्रातःकाल पकाया जाता है, वह सायंकालतक बिगड़ जाता है; फिर उसीके रससे पुष्ट हुए शरीरकी नित्यता कैसी॥6॥
श्लोक-62
सप्ताहश्रवणाल्लोके प्राप्यते निकटे हरिः।
अतो दोषनिवृत्त्यर्थमेतदेव हि साधनम्॥
इस लोकमें सप्ताहश्रवण करनेसे भगवान् की शीघ्र ही प्राप्ति हो सकती है। अतः सब प्रकारके दोषोंकी निवृत्तिके लिये एकमात्र यही साधन है॥62॥
श्लोक-63
बुद्बुदा इव तोयेषु मशका इव जन्तुषु।
जायन्ते मरणायैव कथाश्रवणवर्जिताः॥
जो लोग भागवतकी कथासे वंचित हैं, वे तो जलमें बुबुदे और जीवोंमें मच्छरोंके समान केवल मरनेके लिये ही पैदा होते हैं॥63॥
श्लोक-64
जडस्य शुष्कवंशस्य यत्र ग्रन्थिविभेदनम्।
चित्रं किमु तदा चित्तग्रन्थिभेदः कथाश्रवात्॥
भला, जिसके प्रभावसे जड़ और सूखे हुए बाँसकी गाँठे फट सकती हैं, उस भागवतकथाका श्रवण करनेसे चित्तकी गाँठोंका खुल जाना कौन बड़ी बात है॥64॥
श्लोक-65
भिद्यते हृदयग्रन्थिश्छिद्यन्ते सर्वसंशयाः।
क्षीयन्ते चास्य कर्माणि सप्ताहश्रवणे कृते॥
सप्ताहश्रवण करनेसे मनुष्यके हृदयकी गाँठ खुल जाती है, उसके समस्त संशय छिन्न-भिन्न हो जाते हैं और सारे कर्म क्षीण हो जाते हैं॥65॥
श्लोक-66
संसारकर्दमालेपप्रक्षालनपटीयसि।
कथातीर्थे स्थिते चित्ते मुक्तिरेव बुधैः स्मृता॥
यह भागवतकथारूप तीर्थ संसारके कीचड़को धोने में बड़ा ही पटु है। विद्वानोंका कथन है कि जब यह हृदयमें स्थित हो जाता है, तब मनुष्यकी मुक्ति निश्चित ही समझनी चाहिये॥66॥
श्लोक-67
एवं ब्रुवति वै तस्मिन् विमानमागमत्तदा।
वैकुण्ठवासिभिर्युक्तं प्रस्फुरद्दीप्तिमण्डलम्॥
जिस समय धुन्धुकारी ये सब बातें कह रहा था, जिसके लिये वैकुण्ठवासी पार्षदोंके सहित एक विमान उतरा; उससे सब ओर मण्डलाकार प्रकाश फैल रहा था॥67॥
श्लोक-68
सर्वेषां पश्यतां भेजे विमानं धुन्धुलीसुतः।
विमाने वैष्णवान् वीक्ष्य गोकर्णो वाक्यमब्रवीत्॥
सब लोगोंके सामने ही धुन्धुकारी उस विमानपर चढ़ गया। तब उस विमानपर आये हुए पार्षदोंको देखकर उनसे गोकर्णने यह बात कही॥68॥
श्लोक-69
गोकर्ण उवाच
अत्रैव बहवः सन्ति श्रोतारो मम निर्मलाः।
आनीतानि विमानानि न तेषां युगपत्कुतः॥
श्लोक-70
श्रवणं समभागेन सर्वेषामिह दृश्यते।
फलभेदः कुतो जातः प्रब्रुवन्तु हरिप्रियाः॥
गोकर्णने पूछा- भगवान् के प्रिय पार्षदो! यहाँ हमारे अनेकों शुद्धहृदय श्रोतागण हैं, उन सबके लिये आपलोग एक साथ बहुत से विमान क्यों नहीं लाये? हम देखते हैं कि यहाँ सभीने समानरूपसे कथा सुनी है, फिर फलमें इस प्रकारका भेद क्यों हुआ, यह बताइये॥69-70॥
श्लोक-71
हरिदासा ऊचुः
श्रवणस्य विभेदेन फलभेदोऽत्र संस्थितः।
श्रवणं तु कृतं सर्वैर्न तथा मननं कृतम्।
फलभेदस्ततो जातो भजनादपि मानद॥
भगवान् के सेवकोंने कहा हे मानद! इस फलभेदका कारण इनके श्रवणका भेद ही है। यह ठीक है कि श्रवण तो सबने समानरूपसे ही किया है, किन्तु इसके-जैसा मनन नहीं किया। इसीसे एक साथ भजन करनेपर भी उसके फलमें भेद रहा॥71॥
श्लोक-72
सप्तरात्रमुपोष्यैव प्रेतेन श्रवणं कृतम्।
मननादि तथा तेन स्थिरचित्ते कृतं भृशम्॥
इस प्रेतने सात दिनोंतक निराहार रहकर श्रवण किया था, तथा सुने हुए विषयका स्थिरचित्तसे यह खूब मनन-निदिध्यासन भी करता रहता था॥72॥
श्लोक-73
अदृढं च हतं ज्ञानं प्रमादेन हतं श्रुतम्।
संदिग्धो हि हतो मन्त्रो व्यग्रचित्तो हतो जपः॥
जो ज्ञान दृढ़ नहीं होता, वह व्यर्थ हो जाता है। इसी प्रकार ध्यान न देनेसे श्रवणका, संदेहसे मन्त्रका और चित्तके इधरउधर भटकते रहनेसे जपका भी कोई फल नहीं होता॥73॥
श्लोक-74
अवैष्णवो हतो देशो हतं श्राद्धमपात्रकम्।
हतमश्रोत्रिये दानमनाचारं हतं कुलम्॥
वैष्णवहीन देश, अपात्रको कराया हुआ श्राद्धका भोजन, अश्रोत्रियको दिया हुआ दान एवं आचारहीन कुल—इन सबका नाश हो जाता है॥74॥
श्लोक-75
विश्वासो गुरुवाक्येषु स्वस्मिन्दीनत्वभावना।
मनोदोषजयश्चैव कथायां निश्चला मतिः॥
श्लोक-76
एवमादि कृतं चेत्स्यात्तदा वै श्रवणे फलम्।
पुनः श्रवान्ते सर्वेषां वैकुण्ठे वसतिर्बुवम्॥
गुरुवचनोंमें विश्वास, दीनताका भाव, मनके दोषोंपर विजय और कथामें चित्तकी एकाग्रता इत्यादि नियमोंका यदि पालन किया जाय तो श्रवणका यथार्थ फल मिलता है। यदि ये श्रोता वैकुण्ठकी प्राप्ति होगी॥ 75-76 ॥
श्लोक-77
गोकर्ण तव गोविन्दो गोलोकं दास्यति स्वयम्।
एवमुक्त्वा ययुः सर्वे वैकुण्ठं हरिकीर्तनाः॥
और गोकर्णजी! आपको तो भगवान् स्वयं आकर गोलोकधाममें ले जायँगे। यों कहकर वे सब पार्षद हरिकीर्तन करते वैकुण्ठलोकको चले गये॥77॥
श्लोक-78
श्रावणे मासि गोकर्णः कथामूचे तथा पुनः।
सप्तरात्रवतीं भूयः श्रवणं तैः कृतं पुनः॥
श्रावण मासमें गोकर्णजीने फिर उसी प्रकार सप्ताहक्रमसे कथा कही और उन श्रोताओंने उसे फिर सुना॥ 78॥
श्लोक-79
कथासमाप्तौ यज्जातं श्रूयतां तच्च नारद॥
नारदजी! इस कथाकी समाप्तिपर जो कुछ हुआ, वह सुनिये॥ 79॥
श्लोक-80
विमानैः सह भक्तैश्च हरिराविर्बभूव ह।
जयशब्दा नमःशब्दास्तत्रासन् बहवस्तदा॥
वहाँ भक्तोंसे भरे हुए विमानोंके साथ भगवान् प्रकट हुए। सब ओरसे खूब जय-जयकार और नमस्कारकी ध्वनियाँ होने लगीं। 80॥
श्लोक-81
पाञ्चजन्यध्वनिं चक्रे हर्षात्तत्र स्वयं हरिः।
गोकर्णं तु समालिङ्ग्याकरोत्स्वसदृशं हरिः॥
भगवान् स्वयं हर्षित होकर अपने पांचजन्य शंखकी ध्वनि करने लगे और उन्होंने गोकर्णको हृदयसे लगाकर अपने ही समान बना लिया॥ 81॥
श्लोक-82
श्रोतृनन्यान् घनश्यामान् पीतकौशेयवाससः।
किरीटिनः कुण्डलिनस्तथा चक्रे हरिः क्षणात्॥
उन्होंने क्षणभरमें ही अन्य सब श्रोताओंको भी मेघके समान श्यामवर्ण, रेशमी पीताम्बरधारी तथा किरीट और कुण्डलादिसे विभूषित कर दिया॥ 82॥
श्लोक-83
तद्ग्रामे ये स्थिता जीवा आश्वचाण्डालजातयः।
विमाने स्थापितास्तेऽपि गोकर्णकृपया तदा॥
उस गाँवमें कुत्ते और चाण्डालपर्यन्त जितने भी जीव थे, वे सभी गोकर्णजीकी कृपासे विमानोंपर चढ़ा लिये गये॥ 83॥
श्लोक-84
प्रेषिता हरिलोके ते यत्र गच्छन्ति योगिनः।
गोकर्णेन स गोपालो गोलोकं गोपवल्लभम्।
कथाश्रवणतः प्रीतो निर्ययौ भक्तवत्सलः॥
तथा जहाँ योगिजन जाते हैं, उस भगवद्धाममें वे भेज दिये गये। इस प्रकार भक्तवत्सल भगवान् श्रीकृष्ण कथाश्रवणसे प्रसन्न होकर गोकर्णजीको साथ ले अपने ग्वालबालोंके प्रिय गोलोकधाममें चले गये॥ 84॥
श्लोक-85
अयोध्यावासिनः पूर्वं यथा रामेण संगताः।
तथा कृष्णेन ते नीता गोलोकं योगिदुर्लभम्॥
पूर्वकालमें जैसे अयोध्यावासी भगवान् श्रीराम के साथ साकेतधाम सिधारे थे, उसी प्रकार भगवान् श्रीकृष्ण उन सबको योगिदुर्लभ गोलोकधामको ले गये॥ 85॥
श्लोक-86
यत्र सूर्यस्य सोमस्य सिद्धानां न गतिः कदा।
तं लोकं हि गतास्ते तु श्रीमद्भागवतश्रवात्॥
जिस लोकमें सूर्य, चन्द्रमा और सिद्धोंकी भी कभी गति नहीं हो सकती, उसमें वे श्रीमद्भागवत श्रवण करनेसे चले गये॥ 86॥
श्लोक-87
ब्रूमोऽत्र ते किं फलवृन्दमुज्ज्वलं सप्ताहयज्ञेन कथासु संचितम्।
कर्णेन गोकर्णकथाक्षरो यैः पीतश्च ते गर्भगता न भूयः॥
नारदजी! सप्ताहयज्ञके द्वारा कथाश्रवण करनेसे जैसा उज्ज्वल फल संचित होता है, उसके विषयमें हम आपसे क्या कहें? अजी! जिन्होंने अपने कर्णपुटसे गोकर्णजीकी कथाके एक अक्षरका भी पान किया था, वे फिर माताके गर्भमें नहीं आये॥ 87॥
श्लोक-88
वाताम्बुपर्णाशनदेहशोषणैस्तपोभिरुग्रैश्चिरकालसंचितैः।
योगैश्च संयान्ति न तां गतिं वै सप्ताहगाथाश्रवणेन यान्ति याम्॥
जिस गतिको लोग वायु, जल या पत्ते खाकर शरीर सुखानेसे, बहत कालतक घोर तपस्या करनेसे और योगाभ्याससे भी नहीं पा सकते, उसे वे सप्ताहश्रवणसे सहजमें ही प्राप्त कर लेते हैं। 88॥
श्लोक-89
इतिहासमिमं पुण्यं शाण्डिल्योऽपि मुनीश्वरः।
पठते चित्रकूटस्थो ब्रह्मानन्दपरिप्लुतः॥ 89॥
इस परम पवित्र इतिहास का पाठ चित्रकूट पर विराजमान मुनीश्वर शाण्डिल्य भी ब्रह्मानन्द में मग्न होकर करते रहते हैं।
श्लोक-90
आख्यानमेतत्परमं पवित्रं श्रुतं सकृदै विदहेदघौघम्।
श्राद्धे प्रयुक्तं पितृतृप्तिमावहे न्नित्यं सुपाठादपुनर्भवं च॥
यह कथा बड़ी ही पवित्र है। एक बारके श्रवणसे ही समस्त पापराशिको भस्म कर देती है। यदि इसका श्राद्धके समय पाठ किया जाय, तो इससे पितृगणको बड़ी तृप्ति होती है और नित्य पाठ करनेसे मोक्षकी प्राप्ति होती है॥90॥
इति श्रीपद्मपुराणे उत्तरखण्डे श्रीमद्भागवतमाहात्म्ये गोकर्णमोक्षवर्णनं नाम पञ्चमोऽध्यायः॥5॥