श्रीमद् भागवत महापुराण स्कन्ध 1 अध्याय 13: विदुरजी के उपदेश से धृतराष्ट्र और गान्धारी का वन में जाना
॥ ॐ तत्सत्॥
॥ श्रीगणेशायः नमः॥
श्रीमद्भागवतमहापुराणम्
प्रथमः स्कन्धः
अथ त्रयोदशोऽध्यायः (अध्याय 13) –
विदुरजी के उपदेश से धृतराष्ट्र और गान्धारी का वन में जाना
श्लोक-1
सूत उवाच
विदुरस्तीर्थयात्रायां मैत्रेयादात्मनो गतिम्।
ज्ञात्वागाद्धास्तिनपुरं तयावाप्तविवित्सितः॥
सूतजी कहते हैं-विदुरजी तीर्थयात्रामें महर्षि मैत्रेयसे आत्माका ज्ञान प्राप्त करके हस्तिनापुर लौट आये। उन्हें जो कुछ जाननेकी इच्छा थी वह पूर्ण हो गयी थी॥1॥
श्लोक-2
यावतः कृतवान् प्रश्नान्क्षत्ता कौषारवाग्रतः।
जातैकभक्तिर्गोविन्दे तेभ्यश्चोपरराम ह॥
विदुरजीने मैत्रेय ऋषिसे जितने प्रश्न किये थे, उनका उत्तर सुननेके पहले ही श्रीकृष्णमें अनन्य भक्ति हो जानेके कारण वे उत्तर सुननेसे उपराम हो गये॥2॥
श्लोक-3
तं बन्धुमागतं दृष्ट्वा धर्मपुत्रः सहानुजः।
धृतराष्ट्रो युयुत्सुश्च सूतः शारदतः पृथा॥
श्लोक-4
गान्धारी द्रौपदी ब्रह्मन् सुभद्रा चोत्तरा कृपी।
अन्याश्च जामयः पाण्डोतियः ससुताः स्त्रियः॥
श्लोक-5
प्रत्युज्जग्मुः प्रहर्षेण प्राणं तन्व इवागतम्।
अभिसंगम्य विधिवत् परिष्वङ्गाभिवादनैः॥
श्लोक-6
मुमुचुः प्रेमबाष्पौघं विरहौत्कण्ठ्यकातराः।
राजा तमर्हयाञ्चक्रे कृतासनपरिग्रहम्॥
शौनकजी! अपने चाचा विदुरजीको आया देख धर्मराज युधिष्ठिर, उनके चारों भाई, धृतराष्ट्र, युयुत्सु, संजय, कृपाचार्य, कुन्ती, गान्धारी, द्रौपदी, सुभद्रा, उत्तरा, कृपी तथा पाण्डवपरिवारके अन्य सभी नर-नारी और अपने पुत्रोंसहित दूसरी स्त्रियाँ सब-के-सब बड़ी प्रसन्नतासे, मानो मृत शरीरमें प्राण आ गया हो—ऐसा अनुभव करते हुए उनकी अगवानीके लिये सामने गये। यथायोग्य आलिंगन और प्रणामादिके द्वारा सब उनसे मिले और विरहजनित उत्कण्ठासे कातर होकर सबने प्रेमके आँसू बहाये। युधिष्ठिरने आसनपर बैठाकर उनका यथोचित सत्कार किया॥3-6॥
श्लोक-7
तं भुक्तवन्तं विश्रान्तमासीनं सुखमासने।
प्रश्रयावनतो राजा प्राह तेषां च शृण्वताम्॥
जब वे भोजन एवं विश्राम करके सुखपूर्वक आसनपर बैठे थे तब युधिष्ठिरने विनयसे झुककर सबके सामने ही उनसे कहा॥7॥
श्लोक-8
युधिष्ठिर उवाच
अपि स्मरथ नो युष्मत्पक्षच्छायासमेधितान्।
विपद्गणाद्विषाग्न्यादेर्मोचिता यत्समातृकाः॥
युधिष्ठिरने कहा-चाचाजी! जैसे पक्षी अपने अंडोंको पंखोंकी छायाके नीचे रखकर उन्हें सेते और बढ़ाते हैं, वैसे ही आपने अत्यन्त वात्सल्यसे अपने करकमलोंकी छत्रछायामें हमलोगोंको पाला-पोसा है। बार-बार आपने हमें और हमारी माताको विषदान और लाक्षागृहके दाह आदि विपत्तियोंसे बचाया है। क्या आप कभी हम लोगोंकी भी याद करते रहे हैं?॥8॥
श्लोक-9
कया वृत्त्या वर्तितं वश्चद्भिः क्षितिमण्डलम्।
तीर्थानि क्षेत्रमुख्यानि सेवितानीह भूतले॥
आपने पृथ्वीपर विचरण करते समय किस वृत्तिसे जीवननिर्वाह किया? आपने पृथ्वीतलपर किन-किन तीर्थों और मुख्य क्षेत्रोंका सेवन किया?॥9॥
श्लोक-10
भवद्विधा भागवतास्तीर्थभूताः स्वयं विभो।
तीर्थीकुर्वन्ति तीर्थानि स्वान्तःस्थेन गदाभृता॥
प्रभो! आप-जैसे भगवान्के प्यारे भक्त स्वयं ही तीर्थस्वरूप होते हैं। आपलोग अपने हृदयमें विराजमान भगवान्के द्वारा
तीर्थों को भी महातीर्थ बनाते हए विचरण करते हैं॥10॥
श्लोक-11
अपि नः सृहृदस्तात बान्धवाः कृष्णदेवताः।
दृष्टाः श्रुता वा यदवः स्वपुर्यां सुखमासते॥
चाचाजी! आप तीर्थयात्रा करते हुए द्वारका भी अवश्य ही गये होंगे। वहाँ हमारे सुहृद् एवं भाई-बन्धु यादवलोग, जिनके एकमात्र आराध्यदेव श्रीकृष्ण हैं, अपनी नगरीमें सुखसे तो हैं न? आपने यदि जाकर देखा नहीं होगा तो सुना तो अवश्य ही होगा॥11॥
श्लोक-12
इत्युक्तो धर्मराजेन सर्वं तत् समवर्णयत्।
यथानुभूतं क्रमशो विना यदुकुलक्षयम्॥
युधिष्ठिरके इस प्रकार पूछनेपर विदुरजीने तीर्थों और यदुवंशियोंके सम्बन्धमें जो कुछ देखा, सुना और अनुभव किया था, सब क्रमसे बतला दिया, केवल यदुवंशके विनाशकी बात नहीं कही॥12॥
श्लोक-13
नन्वप्रियं दुर्विषहं नृणां स्वयमुपस्थितम्।
नावेदयत् सकरुणो दुःखितान् द्रष्टुमक्षमः॥
करुणहृदय विदुरजी पाण्डवोंको दुःखी नहीं देख सकते थे। इसलिये उन्होंने यह अप्रिय एवं असह्य घटना पाण्डवोंको नहीं सुनायी; क्योंकि वह तो स्वयं ही प्रकट होनेवाली थी॥13॥
श्लोक-14
कञ्चित्कालमथावात्सीत्सत्कृतो देववत्सुखम्।
भ्रातुर्येष्ठस्य श्रेयस्कृत्सर्वेषां प्रीतिमावहन्॥
पाण्डव विदुरजीका देवताके समान सेवा-सत्कार करते थे। वे कुछ दिनोंतक अपने बड़े भाई धृतराष्ट्रकी कल्याणकामनासे सब लोगोंको प्रसन्न करते हुए सुखपूर्वक हस्तिनापुरमें ही रहे ॥14॥
श्लोक-15
अबिभ्रदर्यमा दण्डं यथावदघकारिषु।
यावद्दधार शूद्रत्वं शापाद्वर्षशतं यमः॥
विदुरजी तो साक्षात् धर्मराज थे, माण्डव्य ऋषिके शापसे ये सौ वर्षके लिये शूद्र बन गये थे। इतने दिनोंतक यमराजके पदपर अर्यमा थे और वही पापियोंको उचित दण्ड देते थे। 15॥
* एक समय किसी राजाके अनुचरोंने कुछ चोरोंको माण्डव्य ऋषिके आश्रमपर पकड़ा। उन्होंने समझा कि ऋषि भी चोरों में शामिल होंगे। अतः वे भी पकड़ लिये गये और राजाज्ञा से सबके साथ उनको भी शूलीपर चढ़ा दिया गया। राजा को यह पता लगते ही कि ये महात्मा हैं ऋषि को शूली से उतरवा दिया और हाथ जोड़कर उनसे अपना अपराध क्षमा कराया। माण्डव्यजीने यमराज के पास जाकर पूछा—’मुझे किस पाप के फलस्वरूप यह दण्ड मिला?’ यमराजने बताया कि ‘आपने लड़कपनमें एक टिड्डी को कुश की नोक से छेद दिया था, इसीलिये ऐसा हुआ।’ इसपर मुनि ने कहा—’मैंने अज्ञानवश ऐसा किया होगा, उस छोटे से अपराध के लिये तुमने मुझे बड़ा कठोर दण्ड दिया। इसलिये तुम सौ वर्षतक शूद्रयोनिमें रहोगे।’ माण्डव्यजी के इस शाप से ही यमराज ने विदुरके रूपमें अवतार लिया था।
श्लोक-16
युधिष्ठिरो लब्धराज्यो दृष्ट्वा पौत्रं कुलंधरम्।
भ्रातभिर्लोकपालाभैर्मुमुदे परया श्रिया॥
राज्य प्राप्त हो जानेपर अपने लोकपालों-सरीखे भाइयोंके साथ राजा युधिष्ठिर वंशधर परीक्षित् को देखकर अपनी अतुल सम्पत्तिसे आनन्दित रहने लगे॥16॥
श्लोक-17
एवं गृहेषु सक्तानां प्रमत्तानां तदीहया।
अत्यकामदविज्ञातः कालः परमदुस्तरः॥
इस प्रकार पाण्डव गृहस्थके काम-धंधोंमें रम गये और उन्हींके पीछे एक प्रकारसे यह बात भूल गये कि अनजानमें ही
हमारा जीवन मृत्युकी ओर जा रहा है। अब देखते-देखते उनके सामने वह समय आ पहुँचा जिसे कोई टाल नहीं सकता॥17॥
श्लोक-18
विदुरस्तदभिप्रेत्य धृतराष्ट्रमभाषत।
राजन्निर्गम्यतां शीघ्रं पश्येदं भयमागतम्॥
परन्तु विदुरजीने कालकी गति जानकर अपने बड़े भाई धृतराष्ट्रसे कहा—’महाराज! देखिये, अब बड़ा भयंकर समय आ गया है, झटपट यहाँसे निकल चलिये॥18॥
श्लोक-19
प्रतिक्रिया न यस्येह कुतश्चित्कर्हिचित्प्रभो।
स एव भगवान् कालः सर्वेषां नः समागतः॥
हम सब लोगोंके सिरपर वह सर्वसमर्थ काल मँडराने लगा है, जिसके टालनेका कहीं भी कोई उपाय नहीं है॥19॥
श्लोक-20
येन चैवाभिपन्नोऽयं प्राणैः प्रियतमैरपि।
जनः सद्यो वियुज्येत किमुतान्यैर्धनादिभिः॥
कालके वशीभूत होकर जीवका अपने प्रियतम प्राणोंसे भी। बात-की बातमें वियोग हो जाता है; फिर धन, जन आदि दूसरी वस्तुओंकी तो बात ही क्या है॥20॥
श्लोक-21
पितृभ्रातृसुहृत्पुत्रा हतास्ते विगतं वयः।
आत्मा च जरया ग्रस्तः परगेहमुपाससे॥
आपके चाचा, ताऊ, भाई, सगे-सम्बन्धी और पुत्र—सभी मारे गये, आपकी उम्र भी ढल चुकी, शरीर बुढ़ापेका शिकार हो गया, आप पराये घरमें पड़े हुए हैं॥21॥
श्लोक-22
अहो महीयसी जन्तोर्जीविताशा यया भवान्।
भीमापवर्जितं पिण्डमादत्ते गृहपालवत्॥
ओह ! इस प्राणीको जीवित रहनेकी कितनी प्रबल इच्छा होती है! इसीके कारण तो आप भीम का दिया हुआ टुकड़ा खाकर कुत्तेका-सा जीवन बिता रहे हैं॥ 22॥
श्लोक-23
अग्निर्निसृष्टो दत्तश्च गरो दाराश्च दूषिताः।
हृतं क्षेत्रं धनं येषां तद्दत्तैरसुभिः कियत्॥
जिनको आपने आगमें जलानेकी चेष्टा की, विष देकर मार डालना चाहा, भरी सभामें जिनकी विवाहिता पत्नीको अपमानित किया, जिनकी भूमि और धन छीन लिये, उन्हींके अन्नसे पले हुए प्राणोंको रखनेमें क्या गौरव है॥23॥
श्लोक-24
तस्यापि तव देहोऽयं कृपणस्य जिजीविषोः।
परैत्यनिच्छतो जीर्णो जरया वाससी इव॥
आपके अज्ञानकी हद हो गयी कि अब भी आप जीना चाहते हैं! परन्तु आपके चाहनेसे क्या होगा; पुराने वस्त्रकी तरह बुढ़ापेसे गला हुआ आपका शरीर आपके न चाहनेपर भी क्षीण हुआ जा रहा है॥24॥
श्लोक-25
गतस्वार्थमिमं देहं विरक्तो मुक्तबन्धनः।
अविज्ञातगतिर्जह्यात् स वै धीर उदाहृतः॥
अब इस शरीरसे आपका कोई स्वार्थ सधनेवाला नहीं है; इसमें फँसिये मत, इसकी ममताका बन्धन काट डालिये। जो संसारके सम्बन्धियोंसे अलग रहकर उनके अनजानमें अपने शरीरका त्याग करता है, वही धीर कहा गया है॥25॥
श्लोक-26
यः स्वकात्परतो वेह जातनिर्वेद आत्मवान्।
हृदि कृत्वा हरिं गेहात्प्रव्रजेत्स नरोत्तमः॥
चाहे अपनी समझसे हो या दूसरेके समझानेसे—जो इस संसारको दुःखरूप समझकर इससे विरक्त हो जाता है और अपने अन्तःकरणको वशमें करके हृदयमें भगवान्को धारणकर संन्यासके लिये घरसे निकल पड़ता है, वही उत्तम मनुष्य है॥ 26॥
श्लोक-27
अथोदीची दिशं यातु स्वैरज्ञातगतिर्भवान्।
इतोऽर्वाक्प्रायशः कालः पुंसां गुणविकर्षणः॥
इसके आगे जो समय आनेवाला है, वह प्रायः मनुष्योंके गुणोंको घटानेवाला होगा; इसलिये आप अपने कुटुम्बियोंसे छिपकर उत्तराखण्डमें चले जाइये’ ॥27॥
श्लोक-28
एवं राजा विदुरेणानुजेन प्रज्ञाचक्षुर्बोधित आजमीढः।
श्लोक छित्त्वा स्वेषु स्नेहपाशान्द्रढिम्नो निश्चक्राम भ्रातृसंदर्शिताध्वा॥
जब छोटे भाई विदुरने अंधे राजा धृतराष्ट्रको इस प्रकार समझाया, तब उनकी प्रज्ञाके नेत्र खुल गये; वे भाई-बन्धुओंके सुदृढ़ स्नेह-पाशोंको काटकर अपने छोटे भाई विदुरके दिखलाये हुए मार्गसे निकल पड़े॥28॥
श्लोक-29
पतिं प्रयान्तं सुबलस्य पुत्री पतिव्रता चानुजगाम साध्वी।
हिमालयं न्यस्तदण्डप्रहर्षं मनस्विनामिव सत्सम्प्रहारः॥
जब परम पतिव्रता सुबलनन्दिनी गान्धारीने देखा कि मेरे पतिदेव तो उस हिमालयकी यात्रा कर रहे हैं जो संन्यासियोंको
वैसा ही सुख देता है जैसा वीर पुरुषोंको लड़ाईके मैदानमें अपने शत्रुके द्वारा किये हुए न्यायोचित प्रहारसे होता है। तब वे भी उनके पीछे-पीछे चल पड़ीं॥29॥
श्लोक-30
अजातशत्रुः कृतमैत्रो हुताग्निविप्रान् नत्वा तिलगोभूमिरुक्मैः।
गृहं प्रविष्टो गुरुवन्दनाय न चापश्यत्पितरौ सौबली च॥
अजातशत्रु युधिष्ठिरने प्रातःकाल सन्ध्या वन्दन तथा अग्निहोत्र करके ब्राह्मणोंको नमस्कार किया और उन्हें तिल, गौ, भूमि और सुवर्णका दान दिया। इसके बाद जब वे गुरुजनोंकी चरणवन्दनाके लिये राजमहलमें गये, तब उन्हें धृतराष्ट्र, विदुर तथा गान्धारीके दर्शन नहीं हुए॥30॥
श्लोक-31
तत्र सञ्जयमासीनं पप्रच्छोद्विग्नमानसः।
गावल्गणे क्व नस्तातो वृद्धो हीनश्च नेत्रयोः॥
युधिष्ठिरने उद्विग्नचित्त होकर वहीं बैठे हुए संजयसे पूछा —’संजय! मेरे वे वृद्ध और नेत्रहीन पिता धृतराष्ट्र कहाँ हैं? ॥
31॥
श्लोक-32
अम्बा च हतपुत्राऽऽर्ता पितृव्यः क्व गतः सुहृत्।
अपि मय्यकृतप्रज्ञे हतबन्धुः स भार्यया।
आशंसमानः शमलं गङ्गायां दुःखितोऽपतत्॥
पुत्रशोकसे पीड़ित दुखिया माता गान्धारी और मेरे परम हितैषी चाचा विदुरजी कहाँ चले गये? ताऊजी अपने पुत्रों और बन्धुबान्धवोंके मारे जानेसे दुःखी थे। मैं बड़ा मन्दबुद्धि हूँ-कहीं मझसे किसी अपराधकी आशंका करके वे माता गान्धारीसहित गंगाजीमें तो नहीं कूद पड़े॥ 32॥
श्लोक-33
पितर्युपरते पाण्डौ सर्वान्नः सुहृदः शिशून्।
अरक्षतां व्यसनतः पितृव्यौ क्व गतावितः॥
जब हमारे पिता पाण्डुकी मृत्यु हो गयी थी और हमलोग नन्हे नन्हे बच्चे थे, तब इन्हीं दोनों चाचाओंने बड़े-बड़े दुःखोंसे हमें बचाया था। वे हमपर बड़ा ही प्रेम रखते थे। हाय! वे यहाँसे कहाँ चले गये?’॥ 33॥
श्लोक-34
सूत उवाच
कृपया स्नेहवैक्लव्यात्सूतो विरहकर्शितः।
आत्मेश्वरमचक्षाणो न प्रत्याहातिपीडितः॥
सूतजी कहते हैं-संजय अपने स्वामी धृतराष्ट्रको न पाकर कृपा और स्नेहकी विकलतासे अत्यन्त पीड़ित और विरहातुर हो रहे थे। वे युधिष्ठिरको कुछ उत्तर न दे सके॥34॥
श्लोक-35
विमृज्याश्रूणि पाणिभ्यां विष्टभ्यात्मानमात्मना।
अजातशत्रु प्रत्यूचे प्रभोः पादावनुस्मरन्॥
फिर धीरे-धीरे बुद्धिके द्वारा उन्होंने अपने चित्तको स्थिर किया, हाथोंसे आँखोंके आसूं पोंछे और अपने स्वामी धृतराष्ट्रके चरणोंका स्मरण करते हुए युधिष्ठिरसे कहा॥ 35॥
श्लोक-36
सञ्जय उवाच
नाहं वेद व्यवसितं पित्रोर्वः कुलनन्दन।
गान्धार्या वा महाबाहो मुषितोऽस्मि महात्मभिः॥
संजय बोले-कुलनन्दन! मुझे आपके दोनों चाचा और गान्धारीके संकल्पका कुछ भी पता नहीं है। महाबाहो! मुझे तो उन महात्माओंने ठग लिया॥36॥
श्लोक-37
अथाजगाम भगवान् नारदः सहतुम्बुरुः।
प्रत्युत्थायाभिवाद्याह सानुजोऽभ्यर्चयन्निव॥
संजय इस प्रकार कह ही रहे थे कि तुम्बुरुके साथ देवर्षि नारदजी वहाँ आ पहुँचे। महाराज युधिष्ठिरने भाइयोंसहित उठकर उन्हें प्रणाम किया और उनका सम्मान करते हुए बोले-॥ 37॥
श्लोक-38
युधिष्ठिर उवाच
नाहं वेद गतिं पित्रोर्भगवन् क्व गतावितः।
अम्बा वा हतपुत्राऽऽर्ता क्व गता च तपस्विनी॥
युधिष्ठिरने कहा- ‘भगवन्! मुझे अपने दोनों चाचाओंका पता नहीं लग रहा है; न जाने वे दोनों और पुत्र-शोकसे व्याकुल तपस्विनी माता गान्धारी यहाँसे कहाँ चले गये॥ 38॥
श्लोक-39
कर्णधार इवापारे भगवान् पारदर्शकः।
अथाबभाषे भगवान् नारदो मुनिसत्तमः॥
भगवन्! अपार समुद्रमें कर्णधारके समान आप ही हमारे पारदर्शक हैं।’ तब भगवानके परमभक्त भगवन्मय देवर्षि नारदने कहा-॥39॥
श्लोक-40
मा कंचन शुचो राजन् यदीश्वरवशं जगत्।
लोकाः सपाला यस्येमे वहन्ति बलिमीशितुः।
स संयुनक्ति भूतानि स एव वियुनक्ति च॥
‘धर्मराज! तुम किसीके लिये शोक मत करो; क्योंकि यह सारा जगत् ईश्वरके वशमें है। सारे लोक और लोकपाल विवश होकर ईश्वरकी ही आज्ञाका पालन कर रहे हैं। वही एक प्राणीको दूसरेसे मिलाता है और वही उन्हें अलग करता है। 40॥
श्लोक-41
यथा गावो नसि प्रोतास्तन्त्यां बद्धाः स्वदामभिः।
वाक्तन्त्यां नामभिर्बद्धा वहन्ति बलिमीशितुः॥
जैसे बैल बड़ी रस्सीमें बँधे और छोटी रस्सीसे नथे रहकर अपने स्वामीका भार ढोते हैं, उसी प्रकार मनुष्य भी वर्णाश्रमादि अनेक प्रकारके नामोंसे वेदरूप रस्सीमें बँधकर ईश्वरकी ही आज्ञाका अनुसरण करते हैं॥41॥
श्लोक-42
यथा क्रीडोपस्कराणां संयोगविगमाविह।
इच्छया क्रीडितुः स्यातां तथैवेशेच्छया नृणाम्॥
जैसे संसारमें खिलाड़ीकी इच्छासे ही खिलौनोंका संयोग और वियोग होता है, वैसे ही भगवान्की इच्छासे ही मनुष्योंका मिलना-बिछुड़ना होता है॥42॥
श्लोक-43
यन्मन्यसे ध्रुवं लोकमध्रुवं वा न चोभयम्।
सर्वथा न हि शोच्यास्ते स्नेहादन्यत्र मोहजात्॥
तुम लोगों को जीवरूप से नित्य मानो या देहरूप से अनित्य अथवा जडरूप से अनित्य और चेतनरूप से नित्य अथवा शुद्धब्रह्मरूप में नित्य-अनित्य कुछ भी न मानो किसी भी अवस्था में मोहजन्य आसक्ति के अतिरिक्त वे शोक करने योग्य नहीं हैं॥43॥
श्लोक-44
तस्माज्जह्यङ्ग वैक्लव्यमज्ञानकृतमात्मनः।
कथं त्वनाथाः कृपणा वर्तेरस्ते च मां विना॥
इसलिये धर्मराज! वे दीन-दुःखी चाचा-चाची असहाय अवस्थामें मेरे बिना कैसे रहेंगे, इस अज्ञानजन्य मनकी विकलताको छोड़ दो॥44॥
श्लोक-45
कालकर्मगुणाधीनो देहोऽयं पाञ्चभौतिकः।
कथमन्यांस्तु गोपायेत्सर्पग्रस्तो यथा परम्॥
यह पांचभौतिक शरीर काल, कर्म और गुणोंके वशमें है। अजगरके मुँहमें पड़े हुए पुरुषके समान यह पराधीन शरीर दूसरोंकी रक्षा ही क्या कर सकता है॥45॥
श्लोक-46
अहस्तानि सहस्तानामपदानि चतुष्पदाम्।
फल्गनि तत्र महतां जीवो जीवस्य जीवनम्॥
हाथवालोंके बिना हाथवाले, चार पैरवाले पशुओंके बिना पैरवाले (तृणादि) और उनमें भी बड़े जीवोंके छोटे जीव आहार हैं। इस प्रकार एक जीव दूसरे जीवके जीवनका कारण हो रहा है॥ 46॥
श्लोक-47
तदिदं भगवान् राजन्नेक आत्माऽऽत्मनां स्वदृक्।
अन्तरोऽनन्तरो भाति पश्य तं माययोरुधा॥
इन समस्त रूपोंमें जीवोंके बाहर और भीतर वही एक स्वयंप्रकाश भगवान्, जो सम्पूर्ण आत्माओंके आत्मा हैं, मायाके द्वारा अनेकों प्रकारसे प्रकट हो रहे हैं; तुम केवल उन्हींको देखो॥47॥
श्लोक-48
सोऽयमद्य महाराज भगवान् भूतभावनः।
कालरूपोऽवतीर्णोऽस्यामभावाय सुरद्विषाम्॥
महाराज! समस्त प्राणियोंको जीवनदान देनेवाले वे ही भगवान् इस समय इस पृथ्वीतलपर देवद्रोहियोंका नाश करनेके लिये कालरूपसे अवतीर्ण हुए हैं॥48॥
श्लोक-49
निष्पादितं देवकृत्यमवशेषं प्रतीक्षते।
तावद् यूयमवेक्षध्वं भवेद् यावदिहेश्वरः॥
अब वे देवताओंका कार्य पूरा कर चुके हैं। थोड़ा सा काम और शेष है, उसीके लिये वे रुके हुए हैं। जबतक वे प्रभु यहाँ हैं तबतक तुमलोग भी उनकी प्रतीक्षा करते रहो॥49॥
श्लोक-50
धृतराष्ट्रः सह भ्रात्रा गान्धार्या च स्वभार्यया।
दक्षिणेन हिमवत ऋषीणामाश्रमं गतः॥
श्लोक-51
स्रोतोभिः सप्तभिर्या वै स्वधुनी सप्तधा व्यधात्।
सप्तानां प्रीतये नाना सप्तस्रोतः प्रचक्षते॥
धर्मराज! हिमालयके दक्षिण भागमें, जहाँ सप्तर्षियोंकी प्रसन्नताके लिये गंगाजीने अलग-अलग सात धाराओंके रूपमें अपनेको सात भागोंमें विभक्त कर दिया है, जिसे ‘सप्तस्रोत’ कहते हैं, वहीं ऋषियोंके आश्रमपर धृतराष्ट्र अपनी पत्नी गान्धारी और विदुरके साथ गये हैं॥ 50-51॥
श्लोक-52
स्नात्वानुसवनं तस्मिन्हुत्वा चाग्नीन्यथाविधि।
अब्भक्ष उपशान्तात्मा स आस्ते विगतैषणः॥
वहाँ वे त्रिकाल स्नान और विधिपूर्वक अग्निहोत्र करते हैं। अब उनके चित्तमें किसी प्रकारकी कामना नहीं है, वे केवल जल पीकर शान्तचित्तसे निवास करते हैं॥52॥
श्लोक-53
जितासनो जितश्वासः प्रत्याहृतषडिन्द्रियः।
हरिभावनया ध्वस्तरजःसत्त्वतमोमलः॥
आसन जीतकर प्राणोंको वशमें करके उन्होंने अपनी छहों इन्द्रियोंको विषयोंसे लौटा लिया है। भगवान्की धारणासे उनके तमोगुण, रजोगुण और सत्त्वगुणके मल नष्ट हो चुके हैं॥53॥
श्लोक-54
विज्ञानात्मनि संयोज्य क्षेत्रज्ञे प्रविलाप्य तम्।
ब्रह्मण्यात्मानमाधारे घटाम्बरमिवाम्बरे॥
श्लोक-55
ध्वस्तमायागुणोदर्को निरुद्धकरणाशयः।
निवर्तिताखिलाहार आस्ते स्थाणुरिवाचलः।
तस्यान्तरायो मैवाभूः संन्यस्ताखिलकर्मणः॥
उन्होंने अहंकारको बुद्धिके साथ जोड़कर और उसे क्षेत्रज्ञ आत्मामें लीन करके उसे भी महाकाशमें घटाकाशके समान सर्वाधिष्ठान ब्रह्ममें एक कर दिया है। उन्होंने अपनी समस्त इन्द्रियों और मनको रोककर समस्त विषयोंको बाहरसे ही लौटा दिया है और मायाके गुणोंसे होनेवाले परिणामोंको सर्वथा मिटा दिया है। समस्त कर्मोंका संन्यास करके वे इस समय ढूँठकी तरह स्थिर होकर बैठे हुए हैं, अतः तुम उनके मार्गमें विघ्नरूप मत बनना ॥54-55॥
* देवर्षि नारदजी त्रिकालदर्शी हैं। वे धृतराष्ट्रके भविष्य-जीवनको वर्तमानकी भाँति प्रत्यक्ष देखते हुए उसी रूपमें वर्णन कर रहे हैं। धृतराष्ट्र पिछली रातको ही हस्तिनापुरसे गये हैं, अतः यह वर्णन भविष्यका ही समझना चाहिये।
श्लोक-56
स वा अद्यतनाद् राजन्परतः पञ्चमेऽहनि।
कलेवरं हास्यति स्वं तच्च भस्मीभविष्यति॥
धर्मराज! आजसे पाँचवें दिन वे अपने शरीरका परित्याग कर देंगे और वह जलकर भस्म हो जायगा॥56॥
श्लोक-57
दह्यमानेऽग्निभिर्देहे पत्युः पत्नी सहोटजे।
बहिः स्थिता पतिं साध्वी तमग्निमनु वेक्ष्यति॥
गार्हपत्यादि अग्नियोंके द्वारा पर्णकुटीके साथ अपने पतिके मृतदेहको जलते देखकर बाहर खड़ी हुई साध्वी गान्धारी भी पतिका अनुगमन करती हुई उसी आगमें प्रवेश कर जायँगी॥ 57॥
श्लोक-58
विदुरस्तु तदाश्चर्यं निशाम्य कुरुनन्दन।
हर्षशोकयुतस्तस्माद् गन्ता तीर्थनिषेवकः॥
धर्मराज! विदुरजी अपने भाईका आश्चर्यमय मोक्ष देखकर हर्षित और वियोग देखकर दुःखित होते हुए वहाँसे तीर्थ सेवनके लिये चले जायेंगे॥58॥
श्लोक-59
इत्युक्त्वाथारुहत् स्वर्गं नारदः सहतुम्बुरुः।
युधिष्ठिरो वचस्तस्य हृदि कृत्वाजहाच्छुचः॥
देवर्षि नारद यों कहकर तुम्बुरु के साथ स्वर्ग को चले गये। धर्मराज युधिष्ठिर ने उनके उपदेशों को हृदय में धारण करके शोक को त्याग दिया॥ 59॥
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां प्रथमस्कन्धे नैमिषीयोपाख्याने त्रयोदशोऽध्यायः॥13॥
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