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इंटरनेट पर श्रीरामजी का सबसे बड़ा विश्वकोश | RamCharitManas Ramayana in Hindi English | रामचरितमानस रामायण हिंदी अनुवाद अर्थ सहित

श्रीमद् भागवत महापुराण प्रथम स्कन्ध हिंदी अर्थ सहित

श्रीमद् भागवत महापुराण स्कन्ध 1 अध्याय 14: महाराज युधिष्ठिर का शंका करना और अर्जुन का द्वारका से लौटना

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॥ ॐ तत्सत्॥
॥ श्रीगणेशायः नमः॥
श्रीमद्भागवतमहापुराणम्

अथ चतुर्दशोऽध्यायः (अध्याय 14) युधिष्ठिरवितर्क

अपशकुन देखकर महाराज युधिष्ठिर का शंका करना और अर्जुन का द्वारका से लौटना

श्लोक-1
सम्प्रस्थिते द्वारकायां जिष्णौ बन्धुदिदृक्षया।
ज्ञातुं च पुण्यश्लोकस्य कृष्णस्य च विचेष्टितम्॥

सूतजी कहते हैं-स्वजनोंसे मिलने और पुण्यश्लोक भगवान् श्रीकृष्ण अब क्या करना चाहते हैं यह जाननेके लिये अर्जुन द्वारका गये हुए थे॥1॥

श्लोक-2
व्यतीताः कतिचिन्मासास्तदा नायात्ततोऽर्जुनः।
ददर्श घोररूपाणि निमित्तानि कुरूद्वहः॥

कई महीने बीत जानेपर भी अर्जुन वहाँसे लौटकर नहीं आये। धर्मराज युधिष्ठिरको बड़े भयंकर अपशकुन दीखने लगे॥2॥

श्लोक-3
कालस्य च गतिं रौद्रां विपर्यस्तर्तुधर्मिणः।
पापीयसीं नृणां वार्ता क्रोधलोभानृतात्मनाम्॥

उन्होंने देखा, कालकी गति बड़ी विकट हो गयी है। जिस समय जो ऋतु होनी चाहिये, उस समय वह नहीं होती और उनकी क्रियाएँ भी उलटी ही होती हैं। लोग बड़े क्रोधी, लोभी और असत्यपरायण हो गये हैं। अपने जीवन निर्वाहके लिये लोग पापपूर्ण व्यापार करने लगे हैं॥3॥

श्लोक-4
जिह्मप्रायं व्यवहृतं शाठ्यमिश्रं च सौहृदम्।
पितृमातृसुहृद्भातृदम्पतीनां च कल्कनम्॥

सारा व्यवहार कपटसे भरा हुआ होता है, यहाँतक कि मित्रतामें भी छल मिला रहता है; पिता-माता, सगे-सम्बन्धी, भाई और पति-पत्नीमें भी झगडा-टंटा रहने लगा है॥4॥

श्लोक-5
निमित्तान्यत्यरिष्टानि काले त्वनुगते नृणाम्।
लोभाद्यधर्मप्रकृतिं दृष्ट्वोवाचानुजं नृपः॥

कलिकालके आ जानेसे लोगोंका स्वभाव ही लोभ, दम्भ आदि अधर्मसे अभिभूत हो गया है और प्रकृतिमें भी अत्यन्त अरिष्टसूचक अपशकुन होने लगे हैं, यह सब देखकर युधिष्ठिरने अपने छोटे भाई भीमसेनसे कहा॥5॥

श्लोक-6
युधिष्ठिर उवाच
सम्प्रेषितो द्वारकायां जिष्णुर्बन्धुदिदृक्षया।
ज्ञातुं च पुण्यश्लोकस्य कृष्णस्य च विचेष्टितम्॥

युधिष्ठिरने कहा- भीमसेन ! अर्जुनको हमने द्वारका इसलिये भेजा था कि वह वहाँ जाकर, पुण्यश्लोक भगवान् श्रीकृष्ण क्या कर रहे हैं इसका पता लगा आये और सम्बन्धियोंसे मिल भी आये॥6॥

श्लोक-7
गताः सप्ताधुना मासा भीमसेन तवानुजः।
नायाति कस्य वा हेतो हं वेदेदमञ्जसा॥

तबसे सात महीने बीत गये; किन्तु तुम्हारे छोटे भाई अबतक नहीं लौट रहे हैं। मैं ठीक-ठीक यह नहीं समझ पाता हूँ कि उनके न आनेका क्या कारण है॥7॥

श्लोक-8
अपि देवर्षिणाऽऽदिष्टः स कालोऽयमुपस्थितः।
यदाऽऽत्मनोऽङ्गमाक्रीडं भगवानुत्सिसृक्षति॥

कहीं देवर्षि नारदके द्वारा बतलाया हुआ वह समय तो नहीं आ पहुँचा है, जिसमें भगवान् श्रीकृष्ण अपने लीला-विग्रहका संवरण करना चाहते हैं?॥8॥

श्लोक-9
यस्मान्नः सम्पदो राज्यं दाराः प्राणाः कुलं प्रजाः।
आसन् सपत्नविजयो लोकाश्च यदनुग्रहात्॥

उन्हीं भगवान्की कृपासे हमें यह सम्पत्ति, राज्य, स्त्री, प्राण, कुल, संतान, शत्रुओंपर विजय और स्वर्गादि लोकोंका अधिकार प्राप्त हुआ है॥9॥

श्लोक-10
पश्योत्पातान्नरव्याघ्र दिव्यान् भौमान् सदैहिकान्।
दारुणान् शंसतोऽदूराद्भयं नो बुद्धिमोहनम्॥

भीमसेन ! तुम तो मनुष्योंमें व्याघ्रके समान बलवान् हो; देखो तो सही आकाशमें उल्कापातादि, पृथ्वीमें भूकम्पादि और
शरीरोंमें रोगादि कितने भयंकर अपशकुन हो रहे हैं! इनसे इस बातकी सूचना मिलती है कि शीघ्र ही हमारी बुद्धिको मोहमें डालनेवाला कोई उत्पात होनेवाला है॥10॥

श्लोक-11
ऊर्वक्षिबाहवो मह्यं स्फुरन्त्यङ्ग पुनः पुनः।
वेपथुश्चापि हृदये आराद्दास्यन्ति विप्रियम्॥

प्यारे भीमसेन! मेरी बायीं जाँघ, आँख और भुजा बार बार फड़क रही हैं। हृदय जोरसे धड़क रहा है। अवश्य ही बहुत जल्दी कोई अनिष्ट होनेवाला है॥11॥

श्लोक-12
शिवैषोद्यन्तमादित्यमभिरौत्यनलानना।
मामङ्ग सारमेयोऽयमभिरेभत्यभीरुवत्॥

देखो, यह सियारिन उदय होते हुए सूर्यकी ओर मुँह करके रो रही है। अरे! उसके मुँहसे तो आग भी निकल रही है ! यह कुत्ता बिलकल निर्भय-सा होकर मेरी ओर देखकर चिल्ला रहा है। 12॥

श्लोक-13
शस्ताः कुर्वन्ति मां सव्यं दक्षिणं पशवोऽपरे।
वाहांश्च पुरुषव्याघ्र लक्षये रुदतो मम॥

भीमसेन ! गौ आदि अच्छे पशु मुझे अपने बायें करके जाते हैं और गधे आदि बुरे पशु मुझे अपने दाहिने कर देते हैं। मेरे घोड़े आदि वाहन मुझे रोते हुए दिखायी देते हैं ॥13॥

श्लोक-14
मृत्युदूतः कपोतोऽयमुलूकः कम्पयन् मनः।
प्रत्युलूकश्च कुह्वानरनिद्रौ शून्यमिच्छतः॥

यह मृत्युका दूत पेड़खी, उल्लू और उसका प्रतिपक्षी कौआ रातको अपने कर्ण कठोर शब्दोंसे मेरे मनको कँपाते हुए विश्वको सूना कर देना चाहते हैं॥14॥

श्लोक-15
धूम्रा दिशः परिधयः कम्पते भूः सहाद्रिभिः।
निर्घातश्च महांस्तात साकं च स्तनयित्नुभिः॥

दिशाएँ धुंधली हो गयी हैं, सूर्य और चन्द्रमाके चारों ओर बार-बार मण्डल बैठते हैं। यह पृथ्वी पहाड़ोंके साथ काँप उठती है, बादल बड़े जोर-जोरसे गरजते हैं और जहाँ तहाँ बिजली भी गिरती ही रहती है॥ 15॥

श्लोक-16
वायुर्वाति खरस्पर्शो रजसा विसृजंस्तमः।
असृग् वर्षन्ति जलदा बीभत्समिव सर्वतः॥

शरीरको छेदनेवाली एवं धूलिवर्षासे अंधकार फैलानेवाली आँधी चलने लगी है। बादल बड़ा डरावना दृश्य उपस्थित करके सब ओर खून बरसाते हैं॥16॥

श्लोक-17
सूर्यं हतप्रभं पश्य ग्रहमद मिथो दिवि।
ससंकुलैर्भूतगणैर्ध्वलिते इव रोदसी॥

देखो! सूर्यकी प्रभा मन्द पड़ गयी है। आकाशमें ग्रह परस्पर टकराया करते हैं। भूतोंकी घनी भीड़में पृथ्वी और अन्तरिक्षमें आग-सी लगी हुई है॥ 17॥

श्लोक-18
नद्यो नदाश्च क्षुभिताः सरांसि च मनांसि च।
न ज्वलत्यग्निराज्येन कालोऽयं किं विधास्यति॥

नदी, नद, तालाब और लोगोंके मन क्षुब्ध हो रहे हैं। घी से आग नहीं जलती। यह भयंकर काल न जाने क्या करेगा॥18॥

श्लोक-19
न पिबन्ति स्तनं वत्सा न दुह्यन्ति च मातरः।
रुदन्त्यश्रुमुखा गावो न हृष्यन्त्यषभा व्रजे॥

बछड़े दूध नहीं पीते, गौएँ दुहने नहीं देतीं, गोशालामें गौएँ आँसू बहा बहाकर रो रही हैं। बैल भी उदास हो रहे हैं ॥19॥

श्लोक-20
दैवतानि रुदन्तीव स्विद्यन्ति ह्युच्चलन्ति च।
इमे जनपदा ग्रामाः पुरोद्यानाकराश्रमाः।
भ्रष्टश्रियो निरानन्दाः किमघं दर्शयन्ति नः॥

देवताओंकी मूर्तियाँ रो-सी रही हैं, उनमेंसे पसीना चूने लगता है और वे हिलती-डोलती भी हैं। भाई! ये देश, गाँव, शहर, बगीचे, खानें और आश्रम श्रीहीन और आनन्दरहित हो गये हैं। पता नहीं ये हमारे किस दुःखकी सूचना दे रहे हैं॥20॥

श्लोक-21
मन्य एतैर्महोत्पातैनूनं भगवतः पदैः।
अनन्यपुरुषश्रीभिर्हीना भूर्हतसौभगा॥

इन बड़े-बड़े उत्पातोंको देखकर मैं तो ऐसा समझता हूँ कि निश्चय ही यह भाग्यहीना भूमि भगवान्के उन चरण-कमलोंसे, जिनका सौन्दर्य तथा जिनके ध्वजा, वज्र अंकुशादि-विलक्षण चिह्न और किसीमें भी कहीं भी नहीं हैं, रहित हो गयी है॥21॥

श्लोक-22
इति चिन्तयतस्तस्य दृष्टारिष्टेन चेतसा।
राज्ञः प्रत्यागमद् ब्रह्मन् यदुपुर्याः कपिध्वजः॥

शौनकजी! राजा युधिष्ठिर इन भयंकर उत्पातोंको देखकर मनही मन चिन्तित हो रहे थे कि द्वारकासे लौटकर अर्जुन आये॥ 22॥

श्लोक-23
तं पादयोर्निपतितमयथापूर्वमातुरम्।
अधोवदनमबिन्दून् सृजन्तं नयनाब्जयोः॥
श्लोक-24
विलोक्योद्विग्नहृदयो विच्छायमनुजं नृपः।
पृच्छति स्म सुहृन्मध्ये संस्मरन्नारदेरितम्॥

युधिष्ठिरने देखा, अर्जुन इतने आतुर हो रहे हैं जितने पहले कभी नहीं देखे गये थे। मुँह लटका हुआ है, कमल सरीखे नेत्रोंसे आँसू बह रहे हैं और शरीरमें बिलकुल कान्ति नहीं है। उनको इस रूपमें अपने चरणोंमें पड़ा देखकर युधिष्ठिर घबरा गये। देवर्षि नारदकी बातें याद करके उन्होंने सुहृदोंके सामने ही अर्जुनसे पूछा ॥ 23-24॥

श्लोक-25
युधिष्ठिर उवाच
कच्चिदानर्तपर्यां नः स्वजनाः सखमासते
मधुभोजदशार्हिसात्वतान्धकवृष्णयः॥

युधिष्ठिरने कहा-‘भाई! द्वारकापुरीमें हमारे स्वजनसम्बन्धी मधु, भोज, दशार्ह, आर्ह, सात्वत, अन्धक और वृष्णिवंशी यादव कुशलसे तो हैं? ॥25॥

श्लोक-26
शूरो मातामहः कच्चित्स्वस्त्यास्ते वाथ मारिषः।
मातुलः सानुजः कच्चित्कुशल्यानकदुन्दुभिः॥

हमारे माननीय नाना शूरसेनजी प्रसन्न हैं? अपने छोटे भाईसहित मामा वसुदेवजी तो कुशलपूर्वक हैं? ॥26॥

श्लोक-27
सप्तस्वसारस्तत्पत्न्यो मातुलान्यः सहात्मजाः।
आसते सस्नुषः क्षेमं देवकीप्रमुखाः स्वयम्॥

उनकी पत्नियाँ हमारी मामी देवकी आदि सातों बहिनें अपने पुत्रों और बहुओंके साथ आनन्दसे तो हैं? ॥27॥

श्लोक-28
कच्चिद्राजाऽऽहुको जीवत्यसत्पुत्रोऽस्य चानुजः।
हृदीकः ससुतोऽक्रूरो जयन्तगदसारणाः॥

श्लोक-29
आसते कुशलं कच्चिद्ये च शत्रुजिदादयः।
कच्चिदास्ते सुखं रामो भगवान् सात्वतां प्रभुः॥

जिनका पुत्र कंस बड़ा ही दुष्ट था, वे राजा उग्रसेन अपने छोटे भाई देवकके साथ जीवित तो हैं न? हृदीक, उनके पुत्र कृतवर्मा, अक्रूर, जयन्त, गद, सारण तथा शत्रुजित् आदि यादववीर सकुशल हैं न? यादवोंके प्रभु बलरामजी तो आनन्दसे हैं?॥ 28-29॥

श्लोक-30
प्रद्युम्नः सर्ववृष्णीनां सुखमास्ते महारथः।
गम्भीररयोऽनिरुद्धो वर्धते भगवानुत॥

वृष्णिवंशके सर्वश्रेष्ठ महारथी प्रद्युम्न सुखसे तो हैं? युद्धमें बड़ी फुर्ती दिखलानेवाले भगवान् अनिरुद्ध आनन्दसे हैं न?॥ 30॥

श्लोक-31
सुषेणश्चारुदेष्णश्च साम्बो जाम्बवतीसुतः।
अन्ये च कार्ष्णिप्रवराः सपुत्रा ऋषभादयः॥

सुषेण, चारुदेष्ण, जाम्बवतीनन्दन साम्ब और अपने पुत्रोंके सहित ऋषभ आदि भगवान् श्रीकृष्णके अन्य सब पुत्र भी प्रसन्न हैं न?॥31॥

श्लोक-32
तथैवानुचराः शौरेः श्रुतदेवोद्धवादयः।
सुनन्दनन्दशीर्षण्या ये चान्ये सात्वतर्षभाः॥

श्लोक-33
अपि स्वस्त्यासते सर्वे रामकृष्णभुजाश्रयाः।
अपि स्मरन्ति कुशलमस्माकं बद्धसौहृदाः॥

भगवान् श्रीकृष्णके सेवक श्रुतदेव, उद्धव आदि और दूसरे सुनन्द नन्द आदि प्रधान यदुवंशी, जो भगवान् श्रीकृष्ण और बलरामके बाहुबलसे सुरक्षित हैं, सब-के-सब सकुशल हैं न? हमसे अत्यन्त प्रेम करनेवाले वे लोग कभी हमारा कुशल-मंगल भी पूछते हैं?॥ 32-33॥

श्लोक-34
भगवानपि गोविन्दो ब्रह्मण्यो भक्तवत्सलः।
कच्चित्पुरे सुधर्मायां सुखमास्ते सुहृद्वृतः॥

भक्तवत्सल ब्राह्मणभक्त भगवान् श्रीकृष्ण अपने स्वजनोंके साथ द्वारकाकी सुधर्मा सभामें सुखपूर्वक विराजते हैं न?॥ 34 ॥

श्लोक-35
मङ्गलाय च लोकानां क्षेमाय च भवाय च।
आस्ते यदुकुलाम्भोधावाद्योऽनन्तसखः पुमान्॥

श्लोक-36
यद्बाहुदण्डगुप्तायां स्वपुर्यां यदवोऽर्चिताः।
क्रीडन्ति परमानन्दं महापौरुषिका इव॥

वे आदिपुरुष बलरामजीके साथ संसारके परम मंगल, परम कल्याण और उन्नतिके लिये यदुवंशरूप क्षीरसागरमें विराजमान हैं। उन्हींके बाहुबलसे सुरक्षित द्वारकापुरीमें यदुवंशीलोग सारे संसारके द्वारा सम्मानित होकर बड़े आनन्दसे विष्णुभगवान्के पार्षदोंके समान विहार कर रहे हैं॥ 35-36॥

श्लोक-37
यत्पादशुश्रूषणमुख्यकर्मणा सत्यादयो व्यष्टसहस्रयोषितः।
निर्जित्य संख्ये त्रिदशांस्तदाशिषो हरन्ति वज्रायुधवल्लभोचिताः॥

सत्यभामा आदि सोलह हजार रानियाँ प्रधानरूप से उनके चरणकमलों की सेवा में ही रत रहकर उनके द्वारा युद्धमें इन्द्रादि देवताओंको भी हराकर इन्द्राणी के भोगयोग्य तथा उन्हीं की अभीष्ट पारिजातादि वस्तुओं का उपभोग करती हैं॥ 37॥

श्लोक-38
यद्बाहुदण्डाभ्युदयानुजीविनो यदुप्रवीरा ह्यकुतोभया मुहुः।
अधिक्रमन्त्यविभिराहृतां बलात् सभां सुधर्मां सुरसत्तमोचिताम्॥

यदुवंशी वीर श्रीकृष्णके बाहुदण्डके प्रभावसे सुरक्षित रहकर निर्भय रहते हैं और बलपूर्वक लायी हुई बड़े-बड़े देवताओंके बैठने योग्य सुधर्मा सभाको अपने चरणोंसे आक्रान्त करते हैं। 38॥

श्लोक-39
कच्चित्तेऽनामयं तात भ्रष्टतेजा विभासि मे।
अलब्धमानोऽवज्ञातः किं वा तात चिरोषितः॥

भाई अर्जुन! यह भी बताओ कि तुम स्वयं तो कुशलसे हो न? मुझे तुम श्रीहीन-से दीख रहे हो; वहाँ बहुत दिनोंतक रहे, कहीं तुम्हारे सम्मानमें तो किसी प्रकारकी कमी नहीं हुई? किसीने तुम्हारा अपमान तो नहीं कर दिया? ॥39॥

श्लोक-40
कच्चिन्नाभिहतोऽभावैः शब्दादिभिरमङ्गलैः।
न दत्तमुक्तमर्थिभ्य आशया यत्प्रतिश्रुतम्॥

कहीं किसीने दुर्भावपूर्ण अमंगल शब्द आदिके द्वारा तुम्हारा चित्त तो नहीं दुखाया? अथवा किसी आशासे तुम्हारे पास आये हुए याचकोंको उनकी माँगी हुई वस्तु अथवा अपनी ओरसे कुछ देनेकी प्रतिज्ञा करके भी तुम नहीं दे सके?॥ 40॥

श्लोक-41
कच्चित्त्वं ब्राह्मणं बालं गां वृद्धं रोगिणं स्त्रियम्।
शरणोपसृतं सत्त्वं नात्याक्षीः शरणप्रदः॥

तुम सदा शरणागतोंकी रक्षा करते आये हो; कहीं किसी भी ब्राह्मण, बालक, गौ, बूढ़े, रोगी, अबला अथवा अन्य किसी प्राणीका, जो तुम्हारी शरणमें आया हो, तुमने त्याग तो नहीं कर दिया?॥41॥

श्लोक-42
कच्चित्त्वं नागमोऽगम्यां गम्यां वासत्कृतां स्त्रियम्।
पराजितो वाथ भवान्नोत्तमैर्नासमैः पथि॥

कहीं तुमने अगम्या स्त्रीसे समागम तो नहीं किया? अथवा गमन करनेयोग्य स्त्रीके साथ असत्कारपूर्वक समागम तो नहीं किया? कहीं मार्गमें अपनेसे छोटे अथवा बराबरीवालोंसे हार तो नहीं गये?॥42॥

श्लोक-43
अपि स्वित्पर्यभुक्थास्त्वं सम्भोज्यान् वृद्धबालकान्।
जुगुप्सितं कर्म किंचित्कृतवान्न यदक्षमम्॥

अथवा भोजन करानेयोग्य बालक और बूढ़ोंको छोड़कर तुमने अकेले ही तो भोजन नहीं कर लिया? मेरा विश्वास है कि तुमने ऐसा कोई निन्दित काम तो नहीं किया होगा, जो तुम्हारे योग्य न हो॥43॥

श्लोक-44
कच्चित् प्रेष्ठतमेनाथ हृदयेनात्मबन्धुना।
शून्योऽस्मि रहितो नित्यं मन्यसे तेऽन्यथा न रुक्॥

हो न हो अपने परम प्रियतम अभिन्नहृदय परम सुहृद् भगवान् श्रीकृष्णसे तुम रहित हो गये हो। इसीसे अपनेको शून्य मान रहे हो। इसके सिवा दूसरा कोई कारण नहीं हो सकता, जिससे तुमको इतनी मानसिक पीड़ा हो॥44॥

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां प्रथमस्कन्धे युधिष्ठिरवितर्को नाम चतुर्दशोऽध्यायः ॥14॥


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Shiv

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