स्कन्ध 1 अध्याय 17
॥ ॐ तत्सत्॥
॥ श्रीगणेशायः नमः॥
श्रीमद्भागवतमहापुराणम्
प्रथमः स्कन्धः
अथ सप्तदशोऽध्यायः
महाराज परीक्षित्द्वारा कलियुगका दमन
सूत उवाच
तत्र गोमिथुनं राजा हन्यमानमनाथवत् ।
दण्डहस्तं च वृषलं ददृशे नृपलाञ्छनम् ।।१
वृषं मृणालधवलं मेहन्तमिव बिभ्यतम् ।
वेपमानं पदैकेन सीदन्तं शूद्रताडितम् 113
गां च धर्मदुघां दीनां भृशं शूद्रपदाहताम् ।
विवत्सां साश्रुवदनां क्षामां\ यवसमिच्छतीम् 113
पप्रच्छ रथमारूढः कार्तस्वरपरिच्छदम् |
मेघगम्भीरया वाचा समारोपितकार्मुकः ।।४
कस्त्वं मच्छरणे लोके बलाद्धंस्यबलान् बली |
नरदेवोऽसि वेषेण नटवत्कर्मणाद्विजः ।।५
यस्त्वं कृष्णे गते दूरं सह गाण्डीवधन्वना ।
शोच्योऽस्यशोच्यान् रहसि प्रहरन् वधमर्हसि ।।६
त्वं वा मृणालधवलः पादैर्न्यूनः पदा चरन् |
वृषरूपेण किं कश्चिद् देवो नः परिखेदयन् II
न जातु पौरवेन्द्राणां दोर्दण्डपरिरम्भिते ।
भूतलेऽनुपतन्त्यस्मिन् विना ते प्राणिनां शुचः ।।८
सूतजी कहते हैं-शौनकजी! वहाँ पहुँचकर राजा परीक्षितूने देखा कि एक राजवेषधारी शूद्र हाथमें डंडा लिये हुए है और गाय-बैलके एक जोडेको इस तरह पीटता जा रहा है, जैसे उनका कोई स्वामी ही न हो ।।१।। वह कमलतन्तुके समान श्वेत रंगका बैल एक पैरसे खड़ा काप रहा था तथा शूद्रकी ताड़नासे पीड़ित और भयभीत होकर मूत्र-त्याग कर रहा था ।।२।।
धर्मोपयोगी दूध, घी आदि हविष्य पदार्थोको देनेवाली वह गाय भी बार-बार शूद्रके पैरोंकी ठोकरें खाकर अत्यन्त दीन हो रही थी। एक तो वह स्वयं ही दुबली-पतली थी, दूसरे उसका बछड़ा भी उसके पास नहीं था। उसे भूख लगी हुई थी और उसकी आँखोंसे आँसू बहते जा रहे थे 11311 स्वर्णजटित रथपर चढ़े हुए राजा परीक्षितने अपना धनुष चढ़ाकर मेघके समान गम्भीर वाणीसे उसको ललकारा ।।४।। अरे! तू कौन है, जो बलवान् होकर भी मेरे राज्यके इन दुर्बल प्राणियोंको बलपूर्वक मार रहा है? तूने नटकी भाँति वेष तो राजाका-सा बना रखा है, परन्तु कर्मसे तू शूद्र जान पड़ता है ।।५।। हमारे दादा अर्जुनके साथ भगवान् श्रीकृष्णके परमधाम पधार जानेपर इस प्रकार निर्जन स्थानमें निरपराधोंपर प्रहार करनेवाला तू अपराधी है, अतः वधके योग्य है 11६।।
उन्होंने धर्मसे पूछा–कमल-नालके समान आपका श्वेतवर्ण है। तीन पैर न होनेपर भी आप एक ही पैरसे चलते-फिरते हैं। यह देखकर मुझे बड़ा कष्ट हो रहा है। बतलाइये, आप क्या बैलके रूपमें कोई देवता हैं? ।।७।। अभी यह भूमण्डल कुरुवंशी नरपतियोंके बाहुबलसे सुरक्षित है। इसमें आपके सिवा और किसी भी प्राणीकी आंखोंसे शोकके आँसू बहते मैंने नहीं देखे ।1८।।
मा सौरभेयानुशुचो व्येतु ते वृषलाद् भयम् |
मा रोदीरम्ब भद्रं ते खलानां मयि शास्तरि 119
यस्य राष्ट्रे प्रजा: सर्वास्त्रस्यन्ते’ साध्व्यसाधुभिः ।
तस्य मत्तस्य नश्यन्ति कीर्तिरायुर्भगो गतिः 1130
एष राज्ञां? परो धर्मो ह्यार्तानामार्तिनिग्रहः ।
अत एनं वधिष्यामि भूतद्रुहमसत्तमम् 1138
कोऽवृश्चत् तव पादांस्त्रीन् सौरभेय चतुष्पदः |
मा भूवंस्त्वादृशा राष्ट्रे राज्ञां कृष्णानुवर्तिनाम् 1133
आख्याहि वृष भद्रं व: साधूनामकृतागसाम् |
आत्मवैरूप्यकर्तारं पार्थानां कीर्तिदूषणम् 1133
जनेऽनागस्यघं युञ्जन् सर्वतोऽस्य च मद्भयम् ।
साधूनां भद्रमेव स्यादसाधुदमने कृते ।।१४
अनागस्स्विह भूतेषु य आगस्कृन्निरङ्कुशः |
आहर्तास्मि भुजं साक्षादमर्त्यस्यापि साङ्गदम् 113%
राज्ञो हि परमो धर्म: स्वधर्मस्थानुपालनम् |
शासतोऽन्यान् यथाशास्त्रमनापद्युत्पथानिह ।।१६
धर्म उवाच
एतद् वः पाण्डवेयानां युक्तमार्ताभयं वचः |
येषां गुणगणैः कृष्णो दौत्यादौ भगवान् कृतः 11१७
न वयं क्लेशबीजानि यतः स्युः पुरुषर्षभ ।
पुरुषं तं विजानीमो वाक्यभेदविमोहिताः ।।१८
धेनुपुत्र! अब आप शोक न करें। इस शूद्रसे निर्भय हो जायँ। गोमाता! मैं दुष्टोंको दण्ड देनेवाला EI अब आप रोयें नहीं। आपका कल्याण हो ।।९।। देवि! जिस राजाके राज्यमें दुष्टोंके उपद्रवसे सारी प्रजा त्रस्त रहती है उस मतवाले राजाकी कीर्ति, आयु, ऐश्वर्य और परलोक नष्ट हो जाते हैं ।।१०।।
राजाओंका परम धर्म यही है कि वे दुःखियोंका दुःख दूर करें। यह महादुष्ट और प्राणियोंको पीड़ित करनेवाला है। अतः मैं अभी इसे मार डालूँगा ।।११।।
सुरभिनन्दन! आप तो चार पैरवाले जीव हैं। आपके तीन पैर किसने काट डाले? श्रीकृष्णके अनुयायी राजाओंके राज्यमें कभी कोई भी आपकी तरह दुःखी न हो ।।१२।।
वृषभ! आपका कल्याण हो। बताइये, आप-जैसे निरपराध साधुओंका अंग-भंग करके किस दुष्टने पाण्डवोंकी कीर्तिमें कलंक लगाया है? 113311 जो किसी निरपराध प्राणीको सताता है, उसे चाहे वह कहीं भी रहे, मेरा भय अवश्य होगा। दुष्टोंका दमन करनेसे साधुओंका कल्याण ही होता है ।।१४।। जो उद्दण्ड व्यक्ति निरपराध प्राणियोंको दुःख देता है वह चाहे साक्षात् देवता ही क्यों न हो, मैं उसकी बाजूबंदसे विभूषित भुजाको काट डालूँगा ।।१५।। बिना आपत्तिकालके मर्यादाका उल्लंघन करनेवालोंको शास्त्रानुसार दण्ड देते हुए अपने धर्ममें स्थित लोगोंका पालन करना राजाओंका परम धर्म है ।।१६।।
धर्मने कहा—राजन्! आप महाराज पाण्डुके वंशज हैं। आपका इस प्रकार दुःखियोंको आश्वासन देना आपके योग्य ही है; क्योंकि आपके पूर्वजोके श्रेष्ठ गुणोंने भगवान् श्रीकृष्णको उनका सारथि और दूत आदि बना दिया था ।।१७।। नरेन्द्र! शास्त्रोंके विभिन्न वचनोंसे मोहित
होनेके कारण हम उस पुरुषको नहीं जानते, जिससे क्लेशोंके कारण उत्पन्न होते हैं ।1१८।।
केचिद् विकल्पवसना आहुरात्मानमात्मनः |
दैवमन्ये परे कर्म स्वभावमपरे प्रभुम् ।।१९
अप्रतर्क्यादनिर्देश्यादिति केष्वपि निश्चयः ।
अत्रानुरूपं राजर्षे विमृश स्वमनीषया ।।२०
सूत उवाच
एवं धर्मे प्रवदति स सम्राड् द्विजसत्तम |
समाहितेन मनसा विखेदः पर्यचष्ट तम् ।।२१
राजोवाच
धर्म ब्रवीषि धर्मज्ञ धर्मोऽसि वृषरूपधृक् ।
यदधर्मकृतः स्थानं सूचकस्यापि तद्भवेत् ।।२२
अथवा देवमायाया नूनं गतिरगोचरा |
चेतसो वचसश्चापि भूतानामिति निश्चयः 1123
तपः शौचं दया सत्यमिति पादाः कृते कृताः ।
अधर्माशैस्त्रयो भग्नाः स्मयसङ्गमदैस्तव 11२४
इदानीं धर्म पादस्ते सत्यं निर्वर्तयेद्यतः ।
तं जिघुक्षत्यधर्मोऽयमनृतेनेधितः कलिः 112%
इयं च भूर्भगवता न्यासितोरुभरा सती |
श्रीमद्भिस्तत्पदन्यासैः सर्वतः कृतकौतुका ।।२६
शोचत्यश्रुकला साध्वी दुर्भगेवोज्झिताधुना |
अब्रह्मण्या नृपव्याजाः शूद्रा भोक्ष्यन्ति मामिति ।।२७
जो लोग किसी भी प्रकारके द्वैतको स्वीकार नहीं करते, वे अपने-आपको ही अपने दुःखका कारण बतलाते हैं। कोई प्रारब्धको कारण बतलाते हैं, तो कोई कर्मको। कुछ लोग स्वभावको, तो कुछ लोग ईश्वरको दुःखका कारण मानते हैं ।1१९।। किन्हीं-किन्हींका ऐसा भी निश्चय है कि दुःखका कारण न तो तर्कके द्वारा जाना जा सकता है और न वाणीके द्वारा बतलाया जा सकता है। राजर्षे! अब इनमें कोन-सा मत ठीक है, यह आप अपनी बुद्धिसे ही विचार लीजिये 112011
सूतजी कहते हैं-ऋषिश्रेष्ठ शौनकजी! धर्मका यह प्रवचन सुनकर सम्राट् परीक्षित् बहुत प्रसन्न हुए, उनका खेद मिट गया। उन्होंने शान्तचित्त होकर उनसे कहा– IR II परीक्षितने कहा–धर्मका तत्त्व जाननेवाले वृषभदेव! आप धर्मका उपदेश कर रहे हैं।
अवश्य ही आप वृषभके रूपमें स्वयं धर्म हैं। (आपने अपनेको दुःख देनेवालेका नाम इसलिये नहीं बताया है कि) अधर्म करनेवालेको जो नरकादि प्राप्त होते हैं, वे ही चुगली करनेवालेको भी मिलते हैं ।1२२।। अथवा यही सिद्धान्त निश्चित है कि प्राणियोंक मन और वाणीसे परमेश्वरकी मायाके स्वरूपका निरूपण नहीं किया जा सकता 11331 धर्मदेव! सत्ययुगमें आपके चार चरण थे–तप, पवित्रता, दया और सत्य। इस समय अधर्मके अंश गर्व, आसक्ति और मदसे तीन चरण नष्ट हो चुके हैं ।1२४।। अब आपका चौथा चरण केवल ‘सत्य’ ही बच रहा है। उसीके बलपर आप जी रहे हैं। असत्यसे पुष्ट हुआ यह अधर्मरूप कलियुग उसे भी ग्रास कर लेना चाहता है ।।२५।। ये गी माता साक्षात् पृथ्वी हैं। भगवानूने इनका भारी बोझ उतार दिया था और ये उनके राशि-राशि सौन्दर्य बिखेरनेवाले चरणचिह्वोंसे सर्वत्र उत्सवमयी हो गयी थीं ।।२६।। अब ये उनसे बिछुड़ गयी हैं। वे साध्वी अभागिनीके समान नेत्रोंमें जल भरकर यह चिन्ता कर रही हैं कि अब राजाका स्वाँग बनाकर ब्राह्मणद्रोही शूद्र मुझे
भोगेंगे ।1२७।।
इति धर्म महीं चैव सान्त्वयित्वा महारथः ।
निशातमाददे खड्गं कलयेऽधर्महेतवे ।।२८
तं जिघांसुमभिप्रेत्यः विहाय नृपलाञ्छनम् |
तत्पादमूलं शिरसा समगाद् भयविह्वलः 1139
पतितं पादयोर्वीक्ष्य कृपया दीनवत्सलः |
शरण्यो नावधीच्छ्लोक्य आह चेदं हसन्निव ।।३०
राजोवाच
न ते गुडाकेशयशोधराणां
बद्धाञ्जलेर्वैः भयमस्ति किञ्चित् |
न वर्तितव्यं भवता कथञ्चन
क्षेत्रे मदीये त्वमधर्मबन्धुः 1138
त्वां वर्तमानं नरदेवदेहे-
ष्वनु प्रवृत्तोऽयमधर्मपूगः |
लोभोऽनृतं चौर्यमनार्यमंहो
ज्येष्ठा च माया कलहश्च दम्भः 1132
न वर्तितव्यं तदधर्मबन्धो
धर्मेण सत्येन च वर्तितव्ये ।
ब्रह्मावर्ते यत्र यजन्ति यज्जै-
यज्चेश्वरं यज्ञवितानविज्ञाः 1133
यस्मिन् हरिर्भगवानिज्यमान
इज्यामूर्तिर्यजतांर शं तनोति ।
कामानमोघान् स्थिरजङ्गमाना-
मन्तर्बहिर्वायुरिवैष आत्मा ।।३४
सूत उवाच
परीक्षितैवमादिष्टः स कलिर्जातवेपथुः ।
तमुद्यतासिमाहेदं दण्डपाणिमिवोद्यतम् 113%
महारथी परीक्षितूने इस प्रकार धर्म और पृथ्वीको सान्त्वना दी। फिर उन्होंने अधर्मके कारणरूप कलियुगको मारनेके लिये तीक्ष्ण तलवार उठायी ।।२८।। कलियुग ars गया कि ये तो अब मुझे मार ही डालना चाहते हैं; अतः झटपट उसने अपने राजचिल्ल उतार डाले और भयविह्णल होकर उनके चरणोंमें अपना सिर रख दिया ।1२९।।
परीक्षित् बड़े यशस्वी, दीनवत्सल और शरणागतरक्षक थे। उन्होंने जब कलियुगको अपने पैरोंपर पड़े देखा तो कृपा करके उसको मारा नहीं, अपितु हँसते हुए-से उससे कहा ।।३०।।
परीक्षित् बोले-जब तू हाथ जोड़कर शरण आ गया, तब अर्जुनके यशस्वी वंशमें उत्पन्न हुए किसी भी वीरसे तुझे कोई भय नहीं है। परन्तु तू अधर्मका सहायक है, इसलिये तुझे मेरे राज्यमें बिलकुल नहीं रहना चाहिये ।।३१।। तेरे राजाओंके शरीरमें रहनेसे ही लोभ, झूठ, चोरी, दुष्टता, स्वधर्म-त्याग, दरिद्रता, कपट, कलह, दम्भ और दूसरे पापोंकी बढ़ती हो रही है ।।३२।। अतः अधर्मके साथी! इस ब्रह्मावर्तमें तू एक क्षणके लिये भी न ठहरना; क्योंकि यह धर्म और सत्यका निवासस्थान है। इस क्षेत्रमें यज्ञविधिके जाननेवाले महात्मा यज्ञोंके द्वारा यज्ञपुरुष-भगवान्की आराधना करते रहते हैं ।1३३।।
इस देशमें भगवान् श्रीहरि यज्ञोंके रूपमें निवास करते हैं, यज्ञोंके द्वारा उनकी पूजा होती है और वे यज्ञ करनेवालोंका कल्याण करते हैं। वे सर्वात्मा भगवान् वायुकी भाँति समस्त चराचर जीवोंके भीतर और बाहर एकरस स्थित रहते हुए उनकी कामनाओंको पूर्ण करते रहते हैं ।।३४।।
सूतजी कहते है-परीक्षित्की यह आज्ञा सुनकर कलियुग सिहर उठा। यमराजके समान मारनेके लिये उद्यत, हाथमें तलवार लिये हुए परीक्षित्से वह बोला ।।३५।।
कलिरुवाच
यत्र क्वचन* वत्स्यामि सार्वभौम तवाज्ञया |
लक्षये तत्र तत्रापि त्वामात्तेषुशरासनम् ।।३६
तन्मे धर्मभृतां श्रेष्ठ स्थानं निर्देष्टुमर्हसि |
यत्रैव नियतो वत्स्य आतिष्ठंस्तेऽनुशासनम् 1130
सूत उवाच
अभ्यर्थितस्तदा तस्मै स्थानानि कलये ददौ ।
यूतं पानं स्त्रियः सूना यत्राधर्मश्चतुर्विधः 11३८
पुनश्च याचमानाय जातरूपमदात्प्रभुः |
ततोऽनृतं मर्द कामं रजो वैरं च पञ्चमम् ।।३९
अमूनि पञ्च स्थानानि ह्यधर्मप्रभवः कलिः |
औत्तरेयेण दत्तानि न्यवसत् तन्निदेशकृत् ।।४०
अथैतानि न सेवेत बुभूषुः पुरुषः क्वचित् |
विशेषतो धर्मशीलो राजा लोकपतिर्गुरुः 11४१
वृषस्य नष्टांस्त्रीन् पादान् तपः शौचं दयामिति ।
प्रतिसंदध आश्वास्य? महीं च समवर्धयत् ।।४२
स एष एतर्हाध्यास्त* आसनं पार्थिवोचितम् ।
पितामहेनोपन्यस्तं राज्ञारण्यं विविक्षता ।।४३
आस्तेऽधुना स राजर्षिः कौरवेन्द्रश्रियोल्लसन् |
गजाह्वये महाभागश्चक्रवर्ती बृहच्छ्रवाः ।।४४
कलिने कहा-सार्वभौम! आपकी आज्ञासे जहाँ कहीं भी मैं रहनेका विचार करता हूँ,
वहीं देखता हूँ कि आप धनुषपर बाण चढ़ाये खड़े हैं ।।३६।। धार्मिकशिरोमणे! आप मुझे वह
स्थान बतलाइये, जहाँ मैं आपकी आज्ञाका पालन करता हुआ स्थिर होकर रह सकूँ ।।३७।।
सूतजी कहते हैं–कलियुगकी प्रार्थना स्वीकार करके राजा परीक्षितूने उसे चार स्थान
दिये–द्यूत, मद्यपान, स्त्री-संग और हिंसा। इन स्थानोंमें क्रमशः असत्य, मद, आसक्ति और
निर्दयता–ये चार प्रकारके अधर्म निवास करते हैं ।1३८।।
उसने और भी स्थान माँगे। तब समर्थ परीक्षित्ने उसे रहनेके लिये एक और स्थान
—’सुवर्ण’ (धन)-दिया। इस प्रकार कलियुगके पाँच स्थान हो गये-झूठ, मद, काम, वैर
और रजोगुण ।।३९।।
परीक्षितके दिये हुए इन्हीं पाँच स्थानोंमें अधर्मका मूल कारण कलि उनकी आज्ञाओंका
पालन करता हुआ निवास करने लगा ।।४०।।
इसलिये आत्मकल्याणकामी पुरुषको इन पाँचों स्थानोंका सेवन कभी नहीं करना
चाहिये। धार्मिक राजा, प्रजावर्गके लौकिक नेता और धर्मोपदेष्टा गुरुओंको तो बड़ी
सावधानीसे इनका त्याग करना चाहिये ।।४१।।
राजा परीक्षितूने इसके बाद वृषभरूप धर्मके तीनों चरण-तपस्या, शौच और दया
जोड़ दिये और आश्वासन देकर पृथ्वीका संवर्धन किया ।।४२।।
वे ही महाराजा परीक्षित् इस समय अपने राजसिंहासनपर, जिसे उनके पितामह
महाराज युधिष्ठिरने वनमें जाते समय उन्हें दिया था, विराजमान हैं। ।1४३।।
वे परम यशस्वी सौभाग्यभाजन चक्रवर्ती सम्राट् राजर्षि परीक्षित् इस समय हस्तिनापुरमें
कौरव-कुलकी राज्यलक्ष्मीसे शोभायमान हैं ।।४४।।
इत्थम्भूतानुभावोऽयमभिमन्युसुतो नृपः ।
यस्य पालयतः क्षोणीं यूयं सत्राय दीक्षिताः 118%
अभिमन्युनन्दन राजा परीक्षित् वास्तवमें ऐसे ही प्रभावशाली हैं, जिनके शासनकालमें
आपलोग इस दीर्घकालीन यज्ञके लिये दीक्षित हुए हैं. ।।४५।।
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां प्रथमस्कन्धे कलिनिग्रहो नाम
सप्तदशोऽध्यायः 113011
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