विनयावली
विनयावली
७१
ऐसेहू साहबकी सेवा सों होत चोरु रे।
आपनी न बुझ, न कहै को राँडरोरु रे ॥ १ ॥
मुनि-मन-अगम,सुगम माइ-बापु सों।
कृपासिंधु,सहज सखा, सनेही आपु सों ॥ २ ॥
लोक-बेद-बिदित बड़ो न रघुनाथ सों।
सब दिन दब देस, सबहिके साथ सों ॥ ३ ॥
स्वामी सरबग्य सों चलै न चोरी चारकी।
प्रीति पहिचानि यह रीति दरबारकी ॥ ४ ॥
काय न कलेस-लेस, लेत मान मनकी।
सुमिरे सकुचि रुचि जोगवत जनकी ॥ ५ ॥
रीझे बस होत,खीझे देत निज धाम रे।
फलत सकल फल कामतरु नाम रे ॥ ६ ॥
बेंचे खोटो दाम न मिलै, न राखे काम रे।
सोऊ तुलसी निवाज्यो ऐसो राजाराम रे ॥ ७ ॥
७२
मेरो भलो कियो राम आपनी भलाई।
हौं तो साई-द्रोही पै सेवक-हित साई ॥ १ ॥
रामसों बड़ो है कौन, मोसों कौन छोटो।
राम सो खरो है कौन, मोसों कौन खोटो ॥ २ ॥
लोक कहै रामको गुलाम हौं कहावौं।
एतो बड़ो अपराध भौ न मन बावौं ॥ ३ ॥
पाथ माथे चढ़े तृन तुलसी ज्यों नीचो।
बोरत न बारि ताहि जानि आपु सीचो ॥ ४ ॥
७३
जागु,जागु,जीव जड़! जोहै जग-जामिनी।
देह-गेह-नेह जानि जैसे घन-दामिनी ॥ १ ॥
सोवत सपनेहूँ सहै संसृति-संताप रे।
बूड्यो मृग-बारि खायो जेवरीको साँप रे ॥ २ ॥
कहैं बेद-बुध,तू तो बूझि मनमाहिं रे।
दोष-दुख सपनेके जागे ही पै जाहिं रे ॥ ३ ॥
तुलसी जागेते जाय ताप तिहुँ ताय रे।
राम-नाम सुचि रुचि सहज सुभाय रे ॥ ४ ॥
राग विभास
७४
जानकीसकी कृपा जगावती सुजान जीव,
जागी त्यागि मूढ़ताऽनुरागु श्रीहरे।
करि बिचार,तजि बिकार,भजु उदार रामचंद्र,
भद्रसिंधु दीनबंधु, बेद बदत रे ॥ १ ॥
मोहमय कुहू-निसा बिसाल काल बिपुल सोयो,
खोयो सो अनूप रूप सुपन जू परे।
अब प्रभात प्रगट ग्यान-भानुके प्रकाश,
बासना,सराग मोह-द्वेष निबिड़ तम टरे ॥ २ ॥
भागे मद-मान चोर भोर जानि जातुधान,
काम-कोह-लोभ-छोभ-निकर अपडरे।
देखत रघुबर-प्रताप, बीते संताप-पाप,
ताप त्रिबिध प्रेम-आप दूर ही करे ॥ ३ ॥
श्रवन सुनि गिरा गँभीर, जागे अति धीर बीर,
बर बिराग-तोष सकल संत आदरे।
तुलसिदास प्रभुकृपालु, निरखि जीव जन बिहालु,
भंज्यो भव-जाल परम मंगलाचरे ॥ ४ ॥
राग ललित
७५
खोटो खरो रावरो हौं,रावरी सौं, रावरेसों झूठ क्यों कहौंगो,
जानो सब ही के मनकी।
करम-बचन-हिये,कहौं न कपट किये, ऐसी हठ जैसी गाँठि
पानी परे सनकी ॥ १ ॥
दूसरो,भरोसो नाहिं बासना उपासनाकी, बासव,बिरंचि
सुर-नर-मुनिगनकी।
स्वारथ के साथी मेरे,हाथी स्वान लेवा देई,काहू तो न पीर
रघुबीर! दीन जनकी ॥ २ ॥
साँप-सभा साबर लबार भये देव दिब्य,दुसह साँसति कीजै
आगे ही या तनकी।
साँचे परौं,पाँऊ पान,पंचमें पन प्रमान,तुलसी चातक आस
राम स्यामघनकी ॥ ३ ॥
७६
रामको गुलाम,नाम रामबोला राख्यौ राम,
काम यहै, नाम द्वै हौ कबहूँ कहत हौं।
रोटी-लूगा नीके राखै,आगेहूकी बेद भाखै,
भलो ह्वेहै तेरो,ताते आनँद लहत हौं ॥ १ ॥
बाँध्यौ हौं करम जड़ गरब गूढ़ निगड़,
सुनत दुसह हौं तौ साँसति सहत हौं।
आरत-अनाथ-नाथ,कौसलपाल कृपाल,
लीन्हौ छीन दीन देख्यो दुरित दहत हौं ॥ २ ॥
बूझ्यौ ज्यौं ही,कह्यो,मैं हूँ चेरो ह्वेहौ रावरो जू
मेरो कोऊ कहूँ नाहिं, चरन गहत हौं।
मींजो गुरु पीठ,अपनाइ गहि बाँह,बोलि
सेवक-सुखद,सदा बिरद बहत हौं ॥ ३ ॥
लोग कहै पोच,सो न सोच न सँकोच मेरे
ब्याह न बरेखी,जाति-पाँति न चहत हौं।
तुलसी अकाज-काज राम ही के रीझे-खीझे,
प्रीतिकी प्रतीति मन मुदित रहत हौं ॥ ४ ॥
७७
जानकी-जीवन,जग-जीवन,जगत-हित,
जगदीस,रघुनाथ,राजीवलोचन राम।
सरद-बिधु-बदन,सुखसील,श्रीसदन,
सहज सुंदर तनु,सोभा अगनित काम ॥ १ ॥
जग-सुपिता,सुमातु,सुगुरु,सुहित,सुमीत,
सबको दाहिनो,दीनबन्धु,काहुको न बाम।
आरतिहरन,सरनद,अतुलित दानि,
प्रनतपालु,कृपालु,पतित-पावन नाम ॥ २ ॥
सकल बिस्व-बंदित,सकल सुर-सेवित,
आगम-निगम कहैं रावरेई गुनग्राम।
इहै जानि तुलसी तिहारो जन भयो,
न्यारो कै गनिबो जहाँ गने गरीब गुलाम ॥ ३ ॥
राग टोडी
७८
देव-
दीनको दयालु दानि दूसरो न कोऊ।
जाहि दीनता कहौं हौं देखौं दीन सोऊ ॥ १ ॥
सुर,नर,मुनि,असुर,नाग,साहिब तौ घनेरे।
(पै) तौ लौं जौं लौं रावरे न नेकु नयन फेरे ॥ २ ॥
त्रिभुवन,तिहुँ काल बिदित,बेद बदति चारी।
आदि-अंत-मध्य राम! साहबी तिहारी ॥ ३ ॥
तोहि माँगि माँगनो न माँगनो कहायो।
सुनि सुभाव-सील-सुजसु जाचन जन आयो ॥ ४ ॥
पाहन-पसु, बिटप-बिहँग अपने करि लीन्हे।
महाराज दसरथके ! रंक राय कीन्हे ॥ ५ ॥
तू गरीबको निवाज, हौं गरीब तेरो।
बारक कहिये कृपालु! तुलसिदास मेरो ॥ ६ ॥
७९
देव-
तू दयालु ,दीन हौं तू दानि, हौं भिखारी।
हौं प्रसिद्ध पातकी, तू पाप-पुंज-हारी ॥ १ ॥
नाथ तू अनाथको, अनाथ कौन मोसो
मो समान आरत नहिं, आरतिहर तोसो ॥ २ ॥
ब्रह्म तू, हौं जीव, तू है ठाकुर,हौं चेरो।
तात-मात,गुरु-सखा, तू सब बिधि हितु मेरो ॥ ३ ॥
तोहिं मोहिं नाते अनेक, मानियै जो भावै।
ज्यों त्यों, तुलसी कृपालु ! चरन-सरन पावै ॥ ४ ॥
८०
देव–
और काहि माँगिये, को माँगिबो निवारै।
अभिमतदातार कौन, दुख-दरिद्र दारै ॥ १ ॥
धरमधाम राम काम-कोटि-रूप रूरो।
साहब सब बिधि सुजान, दान-खडग-सूरो ॥ २ ॥
सुसमय दिन द्वै निसान सबके द्रार बाजै।
कुसमय दसरथके ! दानि तैं गरीब निवाजै ॥ ३ ॥
सेवा बिनु गुनबिहीन दीनता सुनाये।
जे जे तैं निहाल किये फूले फिरत पाये ॥ ४ ॥
तुलसीदास जाचक-रुचि जानि दान दीजै।
रामचंद्र चंद्र तू, चकोर मोहिं कीजै ॥ ५ ॥
८१
दीनबंधु, सुखसिंधु, कृपाकर, कारुनीक रघुराई।
सुनहु नाथ ! मन जरत त्रिबिध जुर, करत फिरत बौराई ॥ १ ॥
कबहुँ जोगरत, भोग-निरत सठ हठ बियोग-बस होई।
कबहुँ मोहबस द्रोह करत बहु, कबहुँ दया अति सोई ॥ २ ॥
कबहुँ दीन,मतिहीन, रंकतर,कबहुँ भूप अभिमानी।
कबहुँ मूढ, पंडित बिडंबरत,कबहुँ धर्मरत ग्यानी ॥ ३ ॥
कबहुँ देव! जग धनमय रिपुमय कबहुँ नारिमय भासै।
संसृति-संनिपात दारुन दुख बिनु हरि-कृपा न नासै ॥ ४ ॥
संजम,जप,तप,नेम,धरम, ब्रत,बहु भेषज-समुदाई।
तुलसिदास भव-रोग रामपद-प्रेम-हीन नहिं जाई ॥ ५ ॥
८२
मोहजनित मल लाग बिबिध बिधि कोटिहु जतन न जाई।
जनम जनम अभ्यास-निरत चित, अधिक अधिक लपटाई ॥ १ ॥
नयन मलिन परनारि निरखि,मन मलिन बिषय सँग लागे।
हृदय मलिन बासना-मान मद, जीव सहज सुख त्यागे ॥ २ ॥
परनिंदा सुनि श्रवन मलिन भे, बचन दोष पर गाये।
सब प्रकार मलभार लाग निज नाथ-चरन बिसराये ॥ ३ ॥
तुलसिदास ब्रत-दान, ग्यान-तप, सुद्धिहेतु श्रुति गावै।
राम-चरन-अनुराग-नीर बिनु मल अति नास न पावै ॥ ४ ॥
राग जैतश्री
८३
कछु ह्वे न आई गयो जनम जाय।
अति दुरलभ तनु पाइ कपट तजि भजे न राम मन बचन- काय ॥ १ ॥
लरिकाई बीती अचेत चित, चंचलता चौगुने चाय।
जोबन-जुर जुबती कुपथ्य करि, भयो त्रिदोष भरि मदन बाय ॥ २ ॥
मध्य बयस धन हेतु गँवाई, कृषी बनिज नाना उपाय।
राम-बिमुख सुख लह्यो न सपनेहुँ, निसिबासर तयौ तिहूँ ताय ॥ ३ ॥
सेये नहिं सीतापति-सेवक, साधु सुमति भलि भगति भाय।
सुने न पुलकि तनु, कहे न मुदित मन किये जे चरित रघुबंसराय ॥ ४ ॥
अब सोचत मनि बिनु भुअंग ज्यो, बिकल अंग दले जरा धाय।
सिर धुनि-धुनि पछिताय मींजि कर कोउ न मीत हित दुसह दाय ॥ ५ ॥
जिन्ह लगि निज परलोक बिगार् यौ, ते लजात होत ठाढ़े ठाँय।
तुलसी अजहुँ सुमिरि रघुनाथहिं,तर् यौ गयँद जाके एक नाँय ॥ ६ ॥
८४
तौ तू पछितैहै मन मींजि हाथ।
भयो है सुगम तोको अमर-अगम तन,समुझिधौं कत खोवत अकाथ ॥ १ ॥
सुख-साधन हरिबिमुख बृथा जैसे श्रम फल घृतहित मथे पाथ।
यह बिचारि, तजि कुपथ-कुसंगति चलि सुपंथ मिलि भले साथ ॥ २ ॥
देखु-राम-सेवक, सुनि कीरति, रटहि नाम करि गान गाथ।
हृदय आनु धनुबान-पानि प्रभु,लसे मुनिपट, कटि कसे भाथ ॥ ३ ॥
तुलसिदास परिहरि प्रपंच सब, नाउ रामपद-कमल माथ।
जनि डरपहि तोसे अनेक खल, अपनाये जानकीनाथ ॥ ४ ॥
राग धनाश्री
८५
मन! माधवको नेकु निहारहि।
सुनु सठ, सदा रंकके धन ज्यो,छिन-छिन प्रभुहिं सँभारहि ॥ १ ॥
सोभा-सील-ग्यान-गुन-मंदिर, सुंदर परम उदारहि।
रंजन संत, अखिल अघ-गंजन, भंजन बिषय-बिकारहि ॥ २ ॥
जो बिनु जोग-जग्य-ब्रत-संयम गयो चहै भव-पारहि।
तौ जनि तुलसिदास निसि- बासर हरि-पद कमल बिसारहि ॥ ३ ॥
८६
इहै कह्यो सुत! बेद चहूँ।
श्रीरघुबीर-चरन-चिंतन तजि नाहिन ठौर कहूँ ॥ १ ॥
जाके चरन बिरंचि सेइ सिधि पाई संकरहूँ।
सुक-सनकादि मुकुत बिचरत तेउ भजन करत अजहूँ ॥ २ ॥
जद्यपि परम चपल श्री संतत, थिर न रहति कतहूँ।
हरि-पद-पंकज पाइ अचल भइ,करम-बचन-मनहूँ ॥ ३ ॥
करुनासिंधु,भगत-चिंतामनि,सोभा सेवतहूँ।
और सकल सुर,असुर-ईस सब खाये उरग छहूँ ॥ ४ ॥
सुरुचि कह्यो सोइ सत्य तात अति परुष बचन जबहूँ।
तुलसिदास रघुनाथ-बिमुख नहिं मिटइ बिपति कबहूँ ॥ ५ ॥
८७
सुनु मन मूढ सिखावन मेरो।
हरि-पद-बिमुख लह्यो न काहु सुख सठ ! यह समुझ सबेरो ॥ १ ॥
बिछुरे ससि-रबि मन-नैननितें, पावत दुख बहुतेरो।
भ्रमत श्रमित निसि-दिवस गगन महँ,तहँ रिपु राहु बडेरो ॥ २ ॥
जद्यपि अति पुनित सुरसरिता, तिहुँ पुर सुजस घनेरो।
तजे चरन अजहूँ न मिटत नित,बहिबो ताहू केरो ॥ ३ ॥
छुटै न बिपति भजे बिनु रघुपति, श्रुति संदेहु निबेरो।
तुलसिदास सब आस छाँडि करि, होहु रामको चेरो ॥ ४ ॥
८८
कबहूँ मन बिश्राम न मान्यो।
निसिदिन भ्रमत बिसारि सहज सुख, जहँ तहँ इंद्रिन तान्यो ॥ १ ॥
जदपि बिषय-सँग सह्यो दुसह दुख, बिषम जाल अरुझान्यो।
तदपि न तजत मूढ़ ममताबस,जानतहूँ नहिं जान्यो ॥ २ ॥
जनम अनेक किये नाना बिधि करम-कीच चित सान्यो।
होइ न बिमल बिबेक-नीर बिनु, बेद पुरान बखान्यो ॥ ३ ॥
निज हित नाथ पिता गुरु हरिसों हरषि हदै नहि आन्यो।
तुलसिदास कब तृषा जाय सर खनतहि जनम सिरान्यो ॥ ४ ॥
८९
मेरो मन हरिजू! हठ न तजै।
निसिदिन नाथ देउँ सिख बहु बिधि, करत सुभाउ निजै ॥ १ ॥
ज्यो जुवती अनुभवति प्रसव अति दारुन दुख उपजै।
ह्वे अनुकूल बिसारि सूल सठ पुनि खल पतिहिं भजै ॥ २ ॥
लोलुप भ्रम गृहपसु ज्यौं जहँ तहँ सिर पदत्रान बजै।
तदपि अधम बिचरत तेहि मारग कबहुँ न मूढ़ लजै ॥ ३ ॥
हौं हार् यौ करि जतन बिबिध बिधि अतिसै प्रबल अजै।
तुलसिदास बस होइ तबहिं जब प्रेरक प्रभु बरजै ॥ ४ ॥
९०
ऐसी मूढ़ता या मनकी।
परिहरि राम-भगति-सुरसरिता,आस करत ओसकनकी ॥ १ ॥
धूम-समूह निरखि चातक ज्यो, तृषित जानि मति घनकी।
नहिं तहँ सीतलता न बारि, पुनि हानि होति लोचनकी ॥ २ ॥
ज्यो गच-काँच बिलोकि सेन जड छाँह आपने तनकी।
टूटत अति आतुर अहार बस, छति बिसारि आननकी ॥ ३ ॥
कहँ लौं कहौं कुचाल कृपानिधि! जानत हौ गति जनकी।
तुलसिदास प्रभु हरहु दुसह दुख, करहु लाज निज पनकी ॥ ४ ॥
९१
नाचत ही निसि-दिवस मर् यो।
तब ही ते न भयो हरि थिर जबतें जिव नाम धर् यो ॥ १ ॥
बहु बासना बिबिध कंचुकि भूषन लोभादि भर् यो।
चर अरु अचर गगन जल थलमें,कौन न स्वाँग कर् यो ॥ २ ॥
देव-दनुज,मुनि,नाग,मनुज नहिं जाँचत कोउ उबर् यो।
मेरो दुसह दरिद्र, दोष,दुख काहू तौ न हर् यो ॥ ३ ॥
थके नयन, पद, पानि, सुमति, बल, संग सकल बिछुर् यो।
अब रघुनाथ सरन आयो जन,भव,भय बिकल डर् यो ॥ ४ ॥
जेहि गुनतें बस होहु रीझि करि, सो मोहि सब बिसर् यो।
तुलसिदास निज भवन-द्वार प्रभु दीजै रहन पर् यो ॥ ५ ॥
९२
माधवजू,मोसम मंद न कोऊ।
जद्यपि मीन-पतंग हीनमति, मोहि नहिं पूजैं ओऊ ॥ १ ॥
रुचिर रुप-आहार-बस्य उन्ह, पावक लोह न जान्यो।
देखत बिपति बिषय न तजत हौं, ताते अधिक अयान्यो ॥ २ ॥
महामोह-सरिता अपार महँ, संतत फिरत बह्यो।
श्रीहरि- चरन-कमल-नौका तजि,फिरि फिरि फेन गह्यो ॥ ३ ॥
अस्थि पुरातन छुधित स्वान अति ज्यौं भरि मुख पकरै।
निज तालूगत रुधिर पान करि,मन संतोष धरै ॥ ४ ॥
परम कठिन भव-ब्याल-ग्रसित भयो अति भारी।
चाहत अभय भेक सरनागत, खगपति-नाथ बिसारी ॥ ५ ॥
जलचर-बृंद जाल-अंतरगत होत सिमिटि इक पासा।
एकहि एक खात लालच-बस, नहिं देखत निज नासा ॥ ६ ॥
मेरे अघ सारद अनेक जुग, गनत पार नहिं पावै।
तुलसिदास पतित-पावन प्रभु यह भरोस जिय आवै ॥ ७ ॥
९३
कृपा सो धौं कहाँ बिसारी राम।
जेहि करुना सुनि श्रवन दीन-दुख, धावत हौ तजि धाम ॥ १ ॥
नागराज निज बल बिचारि हिय, हारि चरन चित दीन्हों।
आरत गिरा सुनत खगपति तजि, चलत बिलंब न कीन्हों ॥ २ ॥
दितिसुत-त्रास-त्रसित निसिदिन प्रहलाद-प्रतिग्या राखी।
अतुलित बल मृगराज-मनुज-तनु दनुज हत्यो श्रुति साखी ॥ ३ ॥
भूप-सदसि सब नृप बिलोकि प्रभु-राखु कह्यो नर- नारी।
बसन पूरि,अरि-दरप दूरि करि, भूरि कृपा दनुजारी ॥ ४ ॥
एक एक रिपुते त्रासित जन,तुम राखे रघुबीर।
अब मोहिं देत दुसह दुख बहु रिपु कस न हरहु भव-पीर ॥ ५ ॥
लोभ-ग्राह, दनुजेस-क्रोध, कुरुराज-बंधु खल मार।
तुलसिदास प्रभु यह दारुन दुख भंजहु राम उदार ॥ ६ ॥
९४
काहे ते हरि मोहिं बिसारो।
जानत निज महिमा मेरे अघ,तदपि न नाथ सँभारो ॥ १ ॥
पतित-पुनीत,दीनहित,असरन-सरन कहत श्रुति चारो।
हौं नहिं अधम,सभीत,दीन ? किधौं बेदन मृषा पुकारो ? ॥ २ ॥
खग-गनिका-गज-ब्याध-पाँति जहँ तहँ हौहूँ बैठारो।
अब केहि लाज कृपानिधान ! परसत पनवारो फारो ॥ ३ ॥
जो कलिकाल प्रबल अति होतो, तुव निदेसतें न्यारो।
तौ हरि रोष भरोस दोष गुन तेहि भजते तजि गारो ॥ ४ ॥
मसक बिरंचि,बिरंचि मसक सम, करहु प्रभाउ तुम्हारो।
यह सामरथ अछत मोहिं त्यागहु, नाथ तहाँ कछु चारो ॥ ५ ॥
नाहिन नरक परत मोकहँ डर,जद्यपि हौं अति हारो।
यह बडि त्रास दासतुलसी प्रभु,नामहु पाप न जारो ॥ ६ ॥
९५
तरु न मेरे अघ-अवगुन गनिहैं ।
जौ जमराज काज सब परिहरि, इहै ख्याल उर अनिहैं ॥ १ ॥
चलिहैं छूटि पुंज पापिनके, असमंजस जिय जनिहैं ।
देखि खलल अधिकार प्रभूसों (मेरी) भूरि भलाई भनिहैं ॥ २ ॥
हँसि करिहैं परतीति भगतकी भगत-सिरोमनि मनिहैं ।
ज्यों त्यों तुलसिदास कोसलपति अपनायेहि पर बनिहैं ॥ ३ ॥
९६
जौ पै जिय धरिहौ अवगुन जनके ।
तौ क्यों कटत सुकृत-नखते मो पै, बिपुल बृंद अघ-बनके ॥ १ ॥
कहिहै कौन कलुष मेरे कृत, करम बचन अरु मनके ।
हारहिं अमित सेष सारद श्रुति, गिनत एक-एक छनके ॥ २ ॥
जो चित चढ़ै नाम-महिमा निज, गुनगन पावन पनके ।
तो तुलसिहिं तारिहौ बिप्र ज्यों दसन तोरि जमगनके ॥ ३ ॥
९७
जौ पै हरि जनके औगुन गहते ।
तौ सुरपति कुरुराज बालिसों, कत हठि बैर बिसहते ॥ १ ॥
जौ जप जाग जोग ब्रत बरजित, केवल प्रेम न चहते ।
तौ कत सुर मुनिबर बिहाय ब्रज, गोप-गेह बसि रहते ॥ २ ॥
जौ जहँ-तहँ प्रन राखि भगतको, भजन-प्रभाउ न कहते ।
तौ कलि कठिन करम-मारग जड़ हम केहि भाँति निबहते ॥ ३ ॥
जौ सुतहित लिये नाम अजामिलके अघ अमित न दहते ।
तौ जमभट साँसति-हर हमसे बृषभ खोजि खोजि नहते ॥ ४ ॥
जौ जगबिदित पतितपावन, अति बाँकुर बिरद न बहते ।
तौ बहुकलप कुटिल तुलसीसे, सपनेहुँ सुगति न लहते ॥ ५ ॥
९८
ऐसी हरि करत दासपर प्रीति ।
निज प्रभुता बिसारि जनके बस, होत सदा यह रीति ॥ १ ॥
जिन बाँधे सुर-असुर, नाग-नर, प्रबल करमकी डोरी ।
सोइ अबिछिन्न ब्रह्म जसुमति हठि बाँध्यो सकत न छोरी ॥ २ ॥
जाकी मायाबस बिरंचि सिव, नाचत पार न पायो ।
करतल ताल बजाय ग्वाल-जुवतिन्ह सोइ नाच नचायो ॥ ३ ॥
बिस्वंभर, श्रीपति, त्रिभुवनपति,बेद-बिदित यह लीख ।
बलिसों कछु न चली प्रभुता बरु है द्विज माँगी भीख ॥ ४ ॥
जाको नाम लिये छूटत भव-जनम-मरन दुख-भार ।
अंबरीष-हित लागि कृपानिधि सोइ जनमे दस बार ॥ ५ ॥
जोग-बिराग, ध्यान-जप-तप करि, जेहि खोजत मुनि ग्यानी ।
बानर-भालु चपल पसु पामर, नाथ तहाँ रति मानी ॥ ६ ॥
लोकपाल,जम,काल,पवन,रबि,ससि सब आग्याकारी ।
तुलसिदास प्रभु उग्रसेनके द्वार बेंत कर धारी ॥ ७ ॥
९९
बिरद गरीबनिवाज रामको ।
गावत बेद-पुरान, संभु-सुक, प्रगट प्रभाउ नामको ॥ १ ॥
ध्रुव,प्रहलाद,बिभीषन,कपिपति,जड,पतंग,पाडंव,सुदामको ।
लोक सुजस परलोक सुगति,इन्हमें को है राम कामको ॥ २ ॥
गनिका, कोल,किरात,आदिकबि इन्हते अधिक बाम को।
बाजिमेध कब कियो अजामिल, गज गायो कब सामको ॥ ३।
छली,मलीन,हीन सब ही अँग, तुलसी सो छीन छामको।
नाम-नरेस-प्रताप प्रबल जग, जुग-जुग चालत चामको ॥ ४ ॥
१००
सुनि सीतापति-सील-सुभाउ।
मोद न मन,तन पुलक,नयन जल,सो नर खेहर खाउ ॥ १ ॥
सिसुपनतें पितु,मातु,बंधु,गुरु,सेवक,सचिव,सखाउ।
कहत राम-बिधु-बदन रिसोहैं सपनेहुँ लख्यो न काउ ॥ २ ॥
खेलत संग अनुज बालक नित, जोगवत अनट अपाउ।
जीति हारि चुचुकारि दुलारत, देत दिवावत दाउ ॥ ३ ॥
सिला साप-संताप-बिगत भइ परसत पावन पाउ।
दई सुगति सो न हेरि हरष हिय, चरन छुएको पछिताउ ॥ ४ ॥
भव-धनु भंजि निदरि भूपति भृगुनाथ खाइ गये ताउ।
छमि अपराध, छमाइ पाँय परि, इतौ न अनत समाउ ॥ ५ ॥
कह्यो राज, बन दियो नारिबस, गरि गलानि गयो राउ।
ता कुमातुको मन जोगवत ज्यों निज तन मरम कुघाउ ॥ ६ ॥
कपि-सेवा-बस भये कनौड़े, कह्यौ पवनसुत आउ।
देबेको न कछु रिनियाँ हौं धनिक तूँ पत्र लिखाउ ॥ ७ ॥
अपनाये सुग्रीव बिभीषन, तिन न तज्यो छल-छाउ।
भरत सभा सनमानि,सराहत, होत न हृदय अघाउ ॥ ८ ॥
निज करुना करतूति भगत पर चपत चलत चरचाउ।
सकृत प्रनाम प्रनत जल बरनत, सुनत कहत फिरि गाउ ॥ ९ ॥
समुझि समुझि गुनग्राम रामके, उर अनुराग बढ़ाउ।
तुलसिदास अनयास रामपद पाइहै प्रेम-पसाउ ॥ १० ॥
१०१
जाउँ कहाँ तजि चरन तुम्हारे।
काको नाम पतित-पावन जग, केहि अति दीन पियारे ॥ १ ॥
कौने देव बराइ बिरद-हित, हठि हठि अधम उधारे।
खग,मृग,ब्याध,पषान,बिटप जड़, जवन कवन सुर तारे ॥ २ ॥
देव,दनुज,मुनि,नाग,मनुज सब, माया-बिबस बिचारे।
तिनके हाथ दासतुलसी प्रभु, कहा अपनपौ हारे ॥ ३ ॥
१०२
हरि! तुम बहुत अनुग्रह कीन्हो।
साधन-धाम बिबुध दुरलभ तनु, मोहि कृपा करि दीन्हों ॥ १ ॥
कोटिहुँ मुख कहि जात न प्रभुके, एक एक उपकार।
तदपि नाथ कछु और माँगिहौं, दीजै परम उदार ॥ २ ॥
बिषय-बारि मन-मीन भिन्न नहिं होत कबहुँ पल एक।
ताते सहौं बिपति अति दारुन, जनमत जोनि अनेक ॥ ३ ॥
कृपा-डोरि बनसी पद अंकुस, परम प्रेम-मृदु-चारो।
एहि बिधि बेधि हरहु मेरो दुख, कौतुक राम तिहारो ॥ ४ ॥
हैं श्रुति-बिदित उपाय सकल सुर, केहि केहि दीन निहोरै।
तुलसिदास येहि जीव मोह-रजु, जेहि बाँध्यो सोइ छोरै ॥ ५ ॥
१०३
यह बिनती रघुबीर गुसाई।
और आस-बिस्वास-भरोसो, हरो जीव-जड़ताई ॥ १ ॥
चहौं न सुगति,सुमति,संपति कछु, रिधि-सिधि बिपुल बड़ाई।
हेतु-रहित अनुराग राम-पद बढ़ै अनुदिन अधिकाई ॥ २ ॥
कुटिल करम लै जाहिं मोहि जहँ जहँ अपनी बरिआई।
तहँ तहँ जनि छिन छोह छाँड़ियो, कमठ-अंडकी नाई ॥ ३ ॥
या जगमें जहँ लगि या तनुकी प्रीति प्रतीति सगाई।
ते सब तुलसिदास प्रभु ही सों होहिं सिमिटि इक ठाई ॥ ४ ॥
१०४
जानकी-जीवनकी बलि जैहौं।
चित कहै रामसीय-पद परिहरि अब न कहूँ चलि जैहौं ॥ १ ॥
उपजी उर प्रतीति सपनेहुँ सुख, प्रभु-पद-बिमुख न पैहौं।
मन समेत या तनके बासिन्ह, इहै सिखावन दैहौं ॥ २ ॥
श्रवननि और कथा नहिं सुनिहौं, रसना और न गैहौं।
रोकिहौं नयन बिलोकत औरहिं, सीस ईस ही नैहौं ॥ ३ ॥
नातो-नेह नाथसों करि सब नातो-नेह बहैहौं।
यह छर भार ताहि तुलसी जग जाको दास कहैहौं ॥ ४ ॥
१०५
अबलौ नसानी, अब न नसैहौं।
राम-कृपा भव-निसा सिरानी, जागे फिरि न डसैहौं ॥ १ ॥
पायेउँ नाम चारु चिंतामनि, उर कर तें न खसैहौं।
स्यामरूप सुचि रुचिर कसौटी, चित कंचनहिं कसैहौं ॥ २ ॥
परबस जानि हँस्यो इन इंद्रिन, निज बस ह्वे न हँसेहौं।
मन मधुकर पनकै तुलसी रघुपति-पद-कमल बसैहौं ॥ ३ ॥
राग रामकली
१०६
महाराज रामादर् यो धन्य सोई।
गरुअ,गुनरासि,सरबग्य,सुकृती,सूर,सील-निधि,साधु तेहि सम न कोई ॥ १ ॥
उपल,केवट,कीस,भालु,निसिचर,सबरि,गीध सम-दम-दया-दान-हीने।
नाम लिये राम किये परम पावन सकल, नर तरत तिनके गुनगान कीने ॥ २ ॥
ब्याध अपराधकी साध राखी कहा, पिंगलै कौन मति भगति भेई।
कौन धौं सोमजाजी अजामिल अधम, कौन गजराज धौं बाजपेयी ॥ ३ ॥
पांडु-सुत,गोपिका,बिदुर,कुबरी,सबरि,सुद्ध किये सुद्धता लेस कैसो।
प्रेम लखि कृस्न किये आपने तिनहुको, सुजस संसार हरिहरको जैसो ॥ ४ ॥
कोल,खस,भील,जवनादि खल राम कहि, नीच ह्वे ऊँच पद को न पायो।
दीन-दुख-दवन श्रीरवन करुना-भवन, पतित-पावन विरद बेद गायो ॥ ५ ॥
मंदमति,कुटिल,खल-तिलक तुलसी सरिस, भो न तिहुँ लोक तिहुँ काल कोऊ।
नामकी कानि पहिचानि पन आपनो, ग्रसित कलि-ब्याल राख्यो सरन सोऊ ॥ ६ ॥
बिहाग
राग ———
बिलावल
१०७
है नीको मेरो देवता कोसलपति राम।
सुभग सरोरुह लोचन, सुठि सुंदर स्याम ॥ १ ॥
सिय-समेत सोहत सदा छबि अमित अनंग।
भुज बिसाल सर धनु धरे, कटि चारु निषंग ॥ २ ॥
बलिलपूजा चाहत नहीं, चाहत एक प्रीति।
सुमिरत ही मानै भलो, पावन सब रीति ॥ ३ ॥
देहि सकल सुख,दुख दहै, आरत-जन-बंधु।
गुन गहि, अघ-औगुन हरै, अस करुनासिंधु ॥ ४ ॥
देस-काल-पूरन सदा बद बेद पुरान।
सबको प्रभु,सबमें बसै,सबकी गति जान ॥ ५ ॥
को करि कोटिक कामना, पूजै बहु देव।
तुलसिदास तेहि सेइये, संकर जेहि सेव ॥ ६ ॥
१०८
बीर महा अवराधिये, साधे सिधि होय।
सकल काम पूरन करै, जाने सब कोय ॥ १ ॥
बेगि,बिलंब न कीजिये लीजै उपदेस।
बीज महा मंत्र जपिये सोई, जो जपत महेस ॥ २ ॥
प्रेम-बारि-तरपन भलो, घृत सहज सनेहु।
संसय-समिध, अगिनि छमा, ममता-बलि देहु ॥ ३ ॥
अघ-उचाटि, मन बस करै, मारै मद मार।
आकरषै सुख-संपदा-संतोष-बिचार ॥ ४ ॥
जिन्ह यहि भाँति भजन कियो, मिले रघुपति ताहि।
तुलसिदास प्रभुपथ चढ् यौ, जौ लेहु निबाहि ॥ ५ ॥
१०९
कस न करहु करुना हरे! दुखहरन मुरारि!
त्रिबिधताप-संदेह-सोक-संसय-भय-हारि ॥ १ ॥
इक कलिकाल-जनित मल, मतिमंद, मलिन-मन।
तेहिपर प्रभु नहिं कर सँभार, केहि भाँति जियै जन ॥ २ ॥
सब प्रकार समरथ प्रभो, मैं सब बिधि दीन।
यह जिय जानि द्रवौ नहीं, मै करम बिहीन ॥ ३ ॥
भ्रमत अनेक जोनि, रघुपति, पति आन न मोरे।
दुख-सुख सहौं, रहौं सदा सरनागत तोरे ॥ ४ ॥
तो सम देव न कोउ कृपालु, समुझौं मनमाहीं।
तुलसिदास हरि तोषिये, सो साधन नाहीं ॥ ५ ॥
११०
कहु केहि कहिय कृपानिधे! भव-जनित बिपति अति।
इंद्रिय सकल बिकल सदा, निज निज सुभाउ रति ॥ १ ॥
जे सुख-संपति, सरग-नरक संतत सँग लागी।
हरि! परिहरि सोइ जतन करत मन मोर अभागी ॥ २ ॥
मै अति दीन, दयालु देव सुनि मन अनुरागे।
जो न द्रवहु रघुबीर धीर, दुख काहे न लागे ॥ ३ ॥
जद्यपि मैं अपराध-भवन, दुख-समन मुरारे।
तुलसिदास कहँ आस यहै बहु पतित उधारे ॥ ४ ॥
१११
केसव! कहि न जाइ का कहिये।
देखत तव रचना बिचित्र हरि! समुझि मनहिं मन रहिये ॥ १ ॥
सून्य भीति पर चित्र, रंग नहिं, तनु बिनु लिखा चितेरे।
धोये मिटइ न मरइ भीति, दुख पाइय एहि तनु हेरे ॥ २ ॥
रबिकर-नीर बसै अति दारुन मकर रूप तेहि माहीं।
बदन-हीन सो ग्रसै चराचर, पान करन जे जाहीं ॥ ३ ॥
कोउ कह सत्य,झूठ कह कोऊ, जुगल प्रबल कोउ मानै।
ø
तुलसिदास परिहरै तीन भ्रम, सो आपन पहिचानै ॥ ४ ॥
११२
केसव! कारन कौन गुसाई।
जेहि अपराध असाध जानि मोहिं तजेउ अग्यकी नाई ॥ १ ॥
परम पुनीत संत कोमल-चित, तिनहिं तुमहिं बनि आई।
तौ कत बिप्र,ब्याध,गनिकहि तारेहु, कछु रही सगाई ? ॥ २ ॥
काल,करम,गति अगति जीवकी, सब हरि! हाथ तुम्हारे।
सोइ कछु करहु, हरहु ममता प्रभु! फिरउँ न तुमहिं बिसारे ॥ ३ ॥
जौ तुम तजहु, भजौं न आन प्रभु, यह प्रमान पन मोरे।
मन-बच-करम नरक-सुरपुर जहँ तहँ रघुबीर निहोरे ॥ ४ ॥
जद्यपि नाथ उचित न होत अस, प्रभु सों करौं ढिठाई।
तुलसिदास सीदत निसिदिन देखत तुम्हारि निठुराई ॥ ५ ॥ ý
११३
माधव! अब न द्रवहु केहि लेखे।
प्रनतपाल पन तोर, मोर पन जिअहुँ कमलपद देखे ॥ १ ॥
जब लगि मै न दीन,दयालु तैं, मैं न दास, तैं स्वामी।
तब लगि जो दुख सहेउँ कहेउँ नहिं, जद्यपि अंतरजामी ॥ २ ॥
तैं उदार, मैं कृपन, पतित मैं, तैं पुनीत, श्रुति गावै।
बहुत नात रघुनाथ! तोहि मोहि, अब न तजे बनि आवै ॥ ३ ॥
जनक-जननि,गुरुबंधु,सुहृदकल-पति, सब प्रकार हितकारी।
द्वैतरूप तम-कूप परौं नहिं, अस कछु जतन बिचारी ॥ ४ ॥ ø
सुनु अदभ्र करुना बारिजलोचन मोचन भय भारी।
तुलसिदास प्रभु! तव प्रकास बिनु, संसय टरै न टारी ॥ ५ ॥
ú ११४
माधव! मो समान जग माहीं।
सब बिधि हीन,मलीन,दीन अति, लीन-बिषय कोउ नाहीं ॥ १ ॥
तुम सम हेतुरहित कृपालु आरत-हित ईस न त्यागी।
मैं दुख-सोक-बिकल कृपालु! केहि कारन दया न लागी ॥ २ ॥
नाहिंन कछु औगुन तुम्हार, अपराध मोर मैं माना।
ग्यान-भवन तनु दियेहु नाथ, सोउ पाय न मैं प्रभु जाना ॥ ३ ॥
बेनु करील,श्रीखंड बसंतहि दूषन मृषा लगावै।
सार-रहित हत-भाग्य सुरभि, पल्लव सो कहु किमि पावै ॥ ४ ॥
सब प्रकार मैं कठिन,मृदुल हरि,दृढ़ बिचार जिय मोरे।
तुलसिदास प्रभु मोह-सृंखला, छुटिहि तुम्हारे छोरे ॥ ५ ॥
११५
माधव! मोह-फाँस क्यों टूटै।
बाहिर कोटि उपाय करिय, अभ्यंतर ग्रन्थि न छूटै ॥ १ ॥
घृतपूरन कराह अंतरगत ससि-प्रतिबिंब दिखावै।
ईंधन अनल लगाय कलपसत, औटत नास न पावै ॥ २ ॥
तरु-कोटर महँ बस बिहंग तरु काटे मरै न जैसे।
साधन करिय बिचार-हीन मन सुद्ध होइ नहिं तैसे ॥ ३ ॥
अंतर मलिन बिषय मन अति, तन पावन करिय पखारे।
मरइ न उरग अनेक जतन बलमीकि बिबिध बिधि मारे ॥ ४ ॥
तुलसिदास हरि-गुरु-करुना बिनु बिमल बिबेक न होई।
बिनु बिबेक संसार-घोर-निधि पार न पावै कोई ॥ ५ ॥
११६
माधव! असि तुम्हारि यह माया ।
करि उपाय पचि मरिय, तरिय नहिं जब लगि करहु न दाया ॥ १ ॥
सुनिय,गुनिय,समुझिय,समुझाइय,दसा हृदय नहिं आवै ।
जेहि अनुभव बिनु मोहजनित भव दारुन बिपति सतावै ॥ २ ॥
ब्रह्म-पियूष मधुर सीतल जो पै मन सो रस पावै ।
तौ कत मृगजल-रूप बिषय कारन निसि-बासर धावै ॥ ३ ॥
जेहिके भवन बिमल चिंतामनि,सो कत काँच बटोरै ।
सपने परबस परै, जागि देखत केहि जाइ निहोरै ॥ ४ ॥
ग्यान-भगति साधन अनेक, सब सत्य,झूँठ कछु नाही ।
तुलसिदास हरि-कृपा मिटै भ्रम, यह भरोस मनमाहीं ॥ ५ ॥
११७
हे हरि! कवन दोष तोहिं दीजै ।
जेहि उपाय सपनेहुँ दुरलभ गति, सोइ निसि-बासर कीजै ॥ १ ॥
जानत अर्थ अनर्थ-रूप, तमकूप परब यहि लागे ।
तदपि न तजत स्वान अज खर ज्यो, फिरत बिषय अनुरागे ॥ २ ॥
भूत-द्रोह कृत मोह-बस्य हित आपन मै न बिचारो ।
मद-मत्सर-अभिमान ग्यान-रिपु, इन महँ रहनि अपारो ॥ ३ ॥
बेद-पुरान सुनत समुझत रघुनाथ सकल जगब्यापी ।
बेधत नहिं श्रीखंड बेनु इव, सारहीन मन पापी ॥ ४ ॥
मैं अपराध-सिंधु करुनाकर ! जानत अंतरजामी ।
तुलसिदास भव-ब्याल-ग्रसित तव सरन उरग-रिपु-गामी ॥ ५ ॥
११८
हे हरि ! कवन जतन सुख मानहु ।
ज्यों गज-दसन तथा मम करनी, सब प्रकार तुम जानहु ॥ १ ॥
जो कछु कहिय करिय भवसागर तरिय बच्छपद जैसे ।
रहनि आन बिधि, कहिय आन, हरिपद-सुख पाइय कैसे ॥ २ ॥
देखत चारु मयूर बयन सुभ बोलि सुधा इव सानी ।
सबिष उरग-आहार,निठुर अस,यह करनी वह बानी ॥ ३ ॥
अखिल-जीव-वत्सल, निरमत्सर,दरन-कमल-अनुरागी ।
ते तव प्रिय रघुबीर धीरमति, अतिसय निज-पर-त्यागी ॥ ४ ॥
जद्यपि मम औगुन अपार संसार-जोग्य रघुराया ।
तुलसिदास निज गुन बिचारि करुनानिधान करु दाया ॥ ५ ॥
११९
हे हरि ! कवन जतन भ्रम भागै ।
देखत,सुनत,बिचारत यह मन, निज सुभाउ नहिं त्यागै ॥ १ ॥
भगति-ग्यान-बैराग्य सकल साधन यहि लागि उपाई ।
कोउ भल कहउ,देउ कछु, असि बासना न उरते जाई ॥ २ ॥
जेहि निसि सकल जीव सूतहिं तव कृपापात्र जन जागै ।
निज करनी बिपरीत देखि मोहिं समुझि महा भय लागै ॥ ३ ॥
जद्यपि भग्न-मनोरथ बिधिबस, सुख इच्छत, दुख पावै ।
चित्रकार करहीन जथा स्वारथ बिनु चित्र बनावै ॥ ४ ॥
हृषीकेश सुनि नाउँ जाउँ बलि, अति भरोस जिय मोरे ।
तुलसिदास इंद्रिय-संभव दुख, हरे बनिहिं प्रभु तोरे ॥ ५ ॥
१२०
हे हरि ! कस न हरहु भ्रम भारी ।
जद्यपि मृषा सत्य भासै जबलगि नहिं कृपा तुम्हारी ॥ १ ॥
अर्थ अबिद्यमान जानिय संसृति नहिं जाइ गोसाई ।
बिन बाँधे निज हठ सठ परबस पर् यो कीरकी नाई ॥ २ ॥
सपने ब्याधि बिबिध बाधा जनु मृत्यु उपस्थित आई ।
बैद अनेक उपाय करै जागे बिनु पीर न जाई ॥ ३ ॥
श्रुति-गुरु-साधु-समृति-संमत यह दृश्य असत दुखकारी ।
तेहि बिनु तजे, भजे बिनु रघुपति, बिपति सकै को टारी ॥ ४ ॥
बहु उपाय संसार-तरन कहँ, बिमल गिरा श्रुति गावै ।
तुलसिदास मैं-मोर गये बिनु जिउ सुख कबहुँ न पावै ॥ ५ ॥
१२१
हे हरि ! यह भ्रमकी अधिकाई ।
देखत, सुनत, कहत, समुझत संसय-संदेह न जाई ॥ १ ॥
जो जग मृषा ताप-त्रय-अनुभव होइ कहहु केहि लेखे ।
कहि न जाय मृगबारि सत्य,भ्रम ते दुख होइ बिसेखे ॥ २ ॥
सुभग सेज सोवत सपने, बारिधि बूड़त भय लागै ।
कोटिहुँ नाव न पार पाव सो, जब लगि आपु न जागै ॥ ३ ॥
अनबिचार रमनीय सदा, संसार भयंकर भारी ।
सम-संतोष-दया-बिबेक तें, व्यवहारी सुखकारी ॥ ४ ॥
तुलसिदास सब बिधि प्रपञ्च जग, जदपि झूठ श्रुति गावै ।
रघुपति-भगति, संत-संगति बिनु, को भव-त्रास नसावै ॥ ५ ॥
१२२
मै हरि, साधन करइ न जानी ।
जस आमय भेषज न कीन्ह तस,दोष कहा दिरमानी ॥ १ ॥
सपने नृप कहँ घटै बिप्र-बध, बिकल फिरै अघ लागे ।
बाजिमेध सत कोटि करै नहिं सुद्ध होइ बिनु जागे ॥ २ ॥
स्त्रग महँ सर्प बिपुल भयदायक, प्रगट होइ अबिचारे ।
बहु आयुध धरि, बल अनेक करि हारहिं, मरइ न मारे ॥ ३ ॥
निज भ्रम ते रबिकर-सम्भव सागर अति भय उपजावै ।
अवगाहत बोहोत नौका चढ़ि कबहुँ पार न पावै ॥ ४ ॥
तुलसिदास जग आपु सहित जब लगि निरमूल न जाई ।
तब लगि कोटि कलप उपाय करि मरिय, तरिय नहिं भाई ॥ ५ ॥
१२३
अस कछु समुझि परत रघुराया !
बिनु तव कृपा दयालु ! दास-हित ! मोह न छूटै माया ॥ १ ॥
बाक्य-ग्यान अत्यंत निपुन भव-पार न पावै कोई ।
निसि गृहमध्य दीपकी बातन्ह, तम निबृत नहिं होई ॥ २ ॥
जैसे कोइ इक दीन दुखित अति असन-हीन दुख पावै ।
चित्र कलपतरु कामधेनु गृह लिखे न बिपति नसावै ॥ ३ ॥
षटरस बहुप्रकार भोजन कोउ, दिन अरु रैनि बखानै ।
बिनु बोले संतोष-जनित सुख खाइ सोइ पै जानै ॥ ४ ॥
जबलगि नहिं निज हृदि प्रकास, अरु बिषय-आस मनमाहीं ।
तुलसिदास तबलगि जग-जोनि भ्रमत सपनेहुँ सुख नाहीं ॥ ५ ॥
१२४
जौ निज मन परिहरै बिकारा।
तौ कत द्वैत-जनित संसृति-दुख,संसय,सोक अपारा ॥ १ ॥
सत्रु,मित्र,मध्यस्थ,तीनि ये, मन कीन्हे बरिआई।
त्यागन,गहन,उपेच्छनीय,अहि हाटक तृनकी नाई ॥ २ ॥
असन,बसन,पसु बस्तु बिबिध बिधिसब मनि महँ रह जैसे।
सरग,नरक,चर-अचर लोक बहु, बसत मध्य मन तैसे ॥ ३ ॥
बिटप-मध्य पुतरिका,सूत महँ कंचुकि बिनहिं बनाये।
मन महँ तथा लीन नाना तनु, प्रगटत अवसर पाये ॥ ४ ॥
रघुपति-भगति-बारि-छालित-चित, बिनु प्रयास ही सूझै।
तुलसिदास कह चिद-बिलास जग बूझत बूझत बूझै ॥ ५ ॥
१२५
मै केहि कहौं बिपति अति भारी। श्रीरघुबीर धीर हितकारी ॥ १ ॥
मम हृदय भवन प्रभु तोरा। तहँ बसे आइ बहु चोरा ॥ २ ॥
अति कठिन करहिं बरजोरा। मानहिं नहिं बिनय निहोरा ॥ ३ ॥
तम,मोह,लोभ,अहँकारा। मद,क्रोध,बोध-रिपु मारा ॥ ४ ॥
अति करहिं उपद्रव नाथा। मरदहिं मोहि जानि अनाथा ॥ ५ ॥
मैं एक,अमित बटपारा। कोउ सुनै न मोर पुकारा ॥ ६ ॥
भागेहु नहिं नाथ! उबारा। रघुनायक, करहुँ सँभारा ॥ ७ ॥
कह तुलसिदास सुनु रामा। लूटहिं तसकर तव धामा ॥ ८ ॥
चिंता यह मोहिं अपारा। अपजस नहिं होइ तुम्हारा ॥ ९ ॥
१२६
मन मेरे,मानहि सिख मेरी। जो निजु भगति चहै हरि केरी ॥ १ ॥
उर आनहि प्रभु-कृत हित जेते। सेवहि ते जे अपनपौ चेते ॥ २ ॥
दुख-सुख अरु अपमान-बड़ाई। सब सम लेखहि बिपति बिहाई ॥ ३ ॥
सुनु सठ काल-ग्रसित यह देही। जनि तेहि लागि बिदूषहि केही ॥ ४ ॥
तुलसिदास बिनु असि मति आयै। मिलहिं न राम कपट-लौ लाये ॥ ५ ॥
१२७
मै जानी,हरिपद-रति नाहीं। सपनेहुँ नहिं बिराग मन माहीं ॥ १ ॥
जे रघुबीर चरन अनुरागे। तिन्ह सब भोग रोगसम त्यागे ॥ २ ॥
काम-भुजंग डसत जब जाहीं। बिषय-नींब कटु लगत न ताही ॥ ३ ॥
असमंजस अस हृदय बिचारी। बढ़त सोच नित नूतन भारी ॥ ४ ॥
जब कब राम-कृपा दुख जाई। तुलसिदास नहिं आन उपाई ॥ ५ ॥
१२८
सुमिरु सनेह-सहित सीतापति। रामचरन तजि नहिंन आनि गति ॥ १ ॥
जप,तप,तीरथ,जोग समाधी। कलिमत बिकल,न कछु निरुपाधी ॥ २ ॥
करतहुँ सुकृत न पाप सिराहीं। रकतबीज जिमि बाढ़त जाहीं ॥ ३ ॥
हरति एक अघ-असुर-जालिका। तुलसिदास प्रभु-कृपा-कालिका ॥ ४ ॥
१२९
रुचिर रसना तू राम राम राम क्यों न रटत।
सुमिरत सुख-सुकृत बढ़त, अघ-अमंगल घटत ॥ १ ॥
बिनु श्रम कलि-कलुषजाल कटु कराल कटत।
दिनकरके उदय जैसे तिमिर-तोम फटत ॥ २ ॥
जोग,जाग,जप,बिराग,तप सुतीरथ-अटत।
बाँधिबेको भव-गयंद रेनुकी रजु बटत ॥ ३ ॥
परिहरि सुर-मनि सुनाम, गुंजा लखि लटत।
लालच लघु तेरो लखि, तुलसि तोहि हटत ॥ ४ ॥
१३०
राम राम,राम राम,राम राम, जपत।
मंगल-मुद उदित होत, कलि-मल-छल छपत ॥ १ ॥
कहु के लहे फल रसाल, बबुर बीज बपत।
हाहरि जनि जनम जाय गाल गूल गपत ॥ २ ॥
काल,करम,गुन,सुभाउ सबके सीस तपत।
राम-नाम-महिमाकी चरचा चले चपत ॥ ३ ॥
साधन बिनु सिद्धि सकल बिकल लोग लपत।
कलिजुग बर बनिज बिपुल, नाम-नगर खपत ॥ ४ ॥
नाम सों प्रतीति-प्रीति हृदय सुथिर थपत।
पावन किये रावन-रिपु तुलसिहु-से अपत ॥ ५ ॥
१३१
पावन प्रेम राम-चरन-कमल जनम लाहु परम।
रामनाम लेत होत, सुलभ सकल धरम ॥ १ ॥
जोग,मख,बिबेक,बिरत,बेद-बिदित करम।
करिबे कहँ कटु कठोर, सुनत मधुर,नरम ॥ २ ॥
तुलसी सुनि, जानि-बूझि, भूलहि जनि भरम।
तेहि प्रभुको होहि, जाहि सब ही की सरम ॥ ३ ॥
१३२
राम-से प्रीतमकी प्रीति-रहित जीव जाय जियत।
जेहि सुख सुख मानि लेत, सुख सो समुझ कियत ॥ १ ॥
जहँ जहँ जेहि जोनि जनम महि, पताल,बियत।
तहँ-तहँ तू बिषय-सुखहिं, चहत लहत नियत ॥ २ ॥
कत बिमोह लट्यो,फट्यो गगन मगन सियत।
तुलसी प्रभु-सुजस गाइ, क्यों न सुधा पियत ॥ ३ ॥
१३३
तोसो हौं फिरि फिरि हित,प्रिय, पुनीत सत्य बचन कहत।
सुनि मन,गुनि,समुझि, क्यों न सुगम सुमग गहत ॥ १ ॥
छोटो बड़ो,खोटो खरो, जग जो जहँ रहत।
अपनो अपनेको भलो कहहु, को न चहत ॥ २ ॥
बिधि लगि लघु कीट अवधि सुख सुखी, दुख दहत।
पसु लौं पसुपाल ईस बाँधत छोरत नहत ॥ ३ ॥
बिषय मुद निहार भार सिर काँधे ज्यों बहत।
योहीं जिय जानि,मानि सठ! तू साँसति सहत ॥ ४ ॥
पायो केहि घृत बिचारु, हरिन-बारि महत।
तुलसी तकु ताहि सरन, जाते सब लहत ॥ ५ ॥
१३४
ताते हौं बार बार देव! द्वार परि पुकार करत।
आरति,नति,दीनता कहें प्रभु संकट हरत ॥ १ ॥
लोकपाल सोक-बिकल रावन-डर डरत।
का सुनि सकुचे कृपालु नर-सरीर धरत ॥ २ ॥
कौसिक,मुनि-तीय, जनक सोच-अनल जरत।
साधन केहि सीतल भये, सो न समुझि परत ॥ ३ ॥
केवट,खग,सबरि सहज चरनकमल न रत।
सनमुख तोहिं होत नाथ! कुतरुíसुफरु फरत ॥ ४ ॥
बंधु-बैर कपि-बिभीषन गुरु गलानि गरत।
सेवा केहि रीझि राम, किये सरिस भरत ॥ ५ ॥
सेवक भयो पवनपूत साहिब अनुहरत।
ताको लिये नाम राम सबको सुढर ढरत ॥ ६ ॥
जाने बिनु राम-रीति पचि पचि जग मरत।
परिहरि छल सरन गये तुलसिहु-से तरत ॥ ७ ॥
राग सुहो बिलावल
१३५
राम सनेही सों तैं न सनेह कियो।
अगम जो अमरनि हूँ सो तनु तोहिं दियो ॥
दियो सुकुल जनम,सरीर सुंदर, हेतु जो फल चारिको।
जो पाइ पंडित परमपद, पावत पुरारि-मुरारिको ॥
यह भरतखंड,समीप सुरसरि,थल भलो,संगति भली।
तेरी कुमति कायर! कलप-बल्ली चहति है बिष फल फली ॥ १ ॥
! ! ! !
अजहूँ समुझि चित दै सुनु परमारथ।û
है हित सो जगहूँ जाहिते स्वारथ ॥
स्वारथहि प्रिय,स्वारथ सो का ते कौन बेद बखानई।
देखु खल,अहि-खेल परिहरि,सो प्रभुहि पहिचानाई ॥
पितु-मातु,गुरु,स्वामी,अपनपौ,तिय,तनय,सेवक,सखा।
प्रिय लगत जाके प्रेमसों,बिनु हेतु हित तैं नहि लखा ॥ २ ॥
! ! ! !
दूरि न सो हितू हेरि हिये ही है।
छलहि छाँड़ि सुमिरे छोहु किये ही है।
किये छोहु छाया कमल करकी भगतपर भजतहि भजै।
जगदीश,जीवन जीवको, जो साज सब सबको सजै ॥
हरिहि हरिता,बिधिहि बिधिता,सिवहि सिवता जो दई।
सोइ जानकी-पति मधुर मूरति,मोदमय मंगल मई ॥ ३ ॥
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ठाकुर अतिहि बड़ो,सील,सरल,सुठि।
ध्यान अगम सिवहूँ,भेट्यो केवट उठि ॥
भरि अंक भेट्यो सजल नयन, सनेह सिथिल सरीर सो।
सुर,सिद्ध,मुनि,कबि कहत कोउ न प्रेमप्रिय रघुबीर सो।
खग,सबरि,निसिचर,भालु,कपि किये आपु ते बंदित बड़े।
तापर तिन्ह कि सेवा सुमिरि जिय जात जनु सकुचनि गड़े ॥ ४ ॥
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स्वामीको सुभाव कह्यो सो जब उर आनिहै।
सोच सकल मिटिहै, राम भलो मन मानिहैं ॥
भलो मानिहै रघुनाथ जोरि जो हाथ माथो नाइहै।
ततकाल तुलसीदास जीवन-जनमको फल पाइहै ॥
जपि नाम करहि प्रनाम,कहि गुन-ग्राम,रामहिं धरि हिये।
बिचरहि अवनि अवनीस-चरनसरोज मन-मधुकर किये ॥ ५ ॥
१३६
(१)
जिव जबते हरितें बिलगान्यो। तबतें देह गेह निज जान्यो ॥
मायाबस स्वरुप बिसरायो। तेहि भ्रमतें दारुन दुख पायो ॥
पायो जो दारुन दुसह दुख, सुख-लेस सपनेहुँ नहिं मिल्यो।
भव-सूल,सोक अनेक जेहि, तेहि पंथ तू हठि हठि चल्यो ॥
बहु जोनि जनम,जरा,बिपति, मतिमंद! हरि जान्यो नहीं।
श्रीराम बिनु बिश्राम मूढ़! बिचारु, लखि पायो कहीं ॥
(२)
आनँद-सिंधु-मध्य तव बासा। बिनु जाने कस मरसि पियासा ॥
मृग-भ्रम-बारि सत्य जिय जानी। तहँ तू मगन भयो सुख मानी ॥
तहँ मगन मज्जसि,पान करि,त्रयकाल जल नाहीं जहाँ।
निज सहज अनुभव रूप तव खल! भूलि अब आयो तहाँ ॥
निरमल,निरंजन,निरबिकार,उदार,सुख तैं परिहर् यो।
निःकाज राज बिहाय नृप इव सपन कारागृह पर् यो ॥
(३)
तैं निज करम-डोरि दृढ़ कीन्हीं। अपने करनि गाँठि गहि दीन्हीं ॥
ताते परबस पर् यो अभागे। ता फल गरभ-बास-दुख आगे ॥
आगे अनेक समूह संसृत उदरगत जान्यो सोऊ।
सिर हेठ,ऊपर चरन, संकट बात नहिं पूछै कोऊ ॥
सोनित-पुरीष जो मूत्र-मल कृमि-कर्दमावृत सोवई।
कोमल सरीर,गँभीर बेदन, सीस धुनि-धुनि रोवई ॥
(४)
तू निज करम-जालल जहँ घेरो। श्रीहरि संग तज्यो नहिं तेरो ॥
बहुबिधि प्रतिपालन प्रभु कीन्हों। परम कृपालु ग्यान तोहि दीन्हों ॥
तोहि दियो ग्यान-बिबेक,जनम अनेककी तब सुधि भई।
तेहि ईसकी हौं सरन, जाकी बिषम माया गुनमई ॥
जेहि किये जीव-निकाय बस,रसहीन,दिन-दिन अति नई।
सो करौ बेगि सँभारि श्रीपति,बिपति, महँ जेहि मति दई ॥
(५)
पुनि बहुबिधि गलानि जिय मानी। अब जग जाइ भजौं चक्रपानी ॥
ऐसेहि करि बिचार चुप साधी। प्रसव-पवन प्रेरेउ अपराधी ॥
प्रेर् यो जो परम प्रचंड मारुत,कष्ट नाना तैं सह्यो।
सो ग्यान,ध्यान,बिराग,अनुभव जातना-पावक दह्यो ॥
अति खेद ब्याकुल,अलप बल,छिन एक बोलि न आवई।
तव तीव्र कष्ट न जान कोउ, सब लोग हरषित गावई ॥
(६)
बाल दसा जेते दुख पाये। अति असीम, नहिं जाहिं गनाये ॥
छुधा-ब्याधि-बाधा भइ भारी। बेदन नहिं जानै महतारी ॥
जननी न जानै पीर सो,केहि हेतु सिसु रोदन करै।
सोइ करै बिबिध उपाय, जातें अधिक तुव छाती जरै ॥
कौमार,सैसव अरु किसोर अपार अघ को कहि सकै।
ब्यतिरेक तोहि निरदय! महाखल! आन कहु को सहि सकै ॥
(७)
जोबन जुवती सँग रँग रात्यो। तब तू महा मोह-मद मात्यो ॥
ताते तजी धरम-मरजादा। बिसरे तब सब प्रथम बिषादा ॥
बिसरे बिषाद,निकाय-संकट समुझि नहिं फाटत हियो।
फिरि गर्भगत-आवर्त सृंसतिचक्र जेहि होइ सोइ कियो ॥
कृमि-भस्म-बिट-परिनाम तनु, तेहि लागि जग बैरी भयो।
परदार,परधन,द्रोहपर,संसार बाढ़ै नित नयो ॥
(८)
देखत ही आई बिरुधाई। जो तैं सपनेहुँ नाहिं बुलाई ॥
ताके गुन कछु कहे न जाहीं। सो अब प्रगट देखु तनु माहीं ॥
सो प्रगट तनु जरजर जराबस,ब्याधि,सूल सतावई।
सिर-कंप,इन्द्रिय-सक्ति प्रतिहत,बचन काहु न भावई ॥
गृहपालहूतें अति निरादर,खान-पान न पावई।
ऐसिहु दसा न बिराग तहँ,तृष्णा-तरंग बढ़ावई ॥
(९)
कहि को सकै महाभव तेरे। जनम एकके कछुक गनेरे ॥
चारि खानि संतत अवगाहीं। अजहुँ न करु बिचार मन माहीं ॥
अजहुँ बिचारु,बिकार तजि, भजु राम जन-सुखदायकं।
भवसिंधु दुस्तर जलरथं, भजु चक्रधर सुरनायकं ॥
बिनु हेतु करुनाकर,उदारे, अपार-माया-तारनं।
कैवल्य-पति,जगपति,रमापति,प्रानपति,गतिकारनं ॥
(१०)
रघुपति-भगति सुलभ,सुखकारी। सो त्रयताप-सोक-भय-हारी ॥
बिनु सतसंग भगति नहिं होई। ते तब मिलै द्रवै जब सोई ॥
जब द्रवै दीनदलयालु राघव, साधु-संगति पाइये।
जेहि दरस-परस-समागमादिक पापरासि नसाइये ॥
जिनके मिले दुख-सुख समान, अमानतादिक गुन भये।
मद-मोह लोभ-बिषाद-क्रोध सुबोधतें सहजहिं गये ॥
(११)
सेवत साधु द्वैत-भय भागै। श्रीरघुबीर-चरन लय लागै ॥
देह-जनित विकार सब त्यागै। तब फिरि निज स्वरूप अनुरागै ॥
अनुराग सो निज रूप जो जगतें बिलच्छन देखिये।
सन्तोष,सम,सीतल,सदा दम, देहवंत न लेखिये ॥
निरमल,निरामय,एकरस,तेहि हरष-सोक न ब्यापई।
त्रैलोक-पावन सो सदा जाकी दसा ऐसी भई ॥
(१२)
जो तेहि पंथ चलै मन लाई। तौ हरि काहे न होहिं सहाई।
जो मारग श्रुति-साधु दिखावै। तेहि पथ चलत सबै सुख पावै ॥
पावै सदा सुख हरि-कृपा,संसार-आसा तजि रहै।
सपनेहुँ नहीं सुख द्वैत-दरसन, बात कोटिक को कहै ॥
द्विज,देव,गुरु,हरि,संत बिनु संसार-पार न पाइये।
यह जानि तुलसीदास त्रासहरन रमापति गाइये ॥
१३७
जो पै कृपा रघुपति कृपालुकी, बैर औरके कहा सरै।
होइ न बाँको बार भगतको, जो कोउ कोटि उपाय करै ॥ १ ॥
तकै नीचु जो मीचु साधुकी, सो पामर तेहि मीचू मरै ॥ ñ
बेद-बिदित प्रहलाद-कथा सुनि, को न भगति-पथ पाउँ धरै ? ॥ २ ॥
गज उधारि हरि थप्यो बिभीषन, ध्रुव अबिचल कबहूँ न टरै।
अंबरीष की साप सुरति करि, अजहुँ महामुनि ग्लानि गरै ॥ ३ ॥
सों धौं कहा जु न कियो सुजोधन, अबुध आपने मान जरै।
प्रभु-प्रसाद सौभाग्य बिजय-जस, पांडवनै बरिआइ बरै ॥ ४ ॥
जोइ जोइ कूप खनैगो परकहँ, सो सठ फिरि तेहि कूप परै।
सपनेहुँ सुख न संतद्रोहीकहँ, सुरतरु सोउ बिष-फरनि फरै ॥ ५ ॥
है काके द्वै सीस ईसके जौ हठि जनकी सीवँ चरै।
तुलसिदास रघुबीर-बाहुबल सदा अभय काहु न डरै ॥ ६ ॥
१३८
कबहुँ सो कर-सरोज रघुनायक! धरिहौ नाथ सीस मेरे।
जेहि कर अभय किये जन आरे, बारकल बिबस नाम टेरे ॥ १ ॥
जेहि कर-कमल कठोर संभुधन भंजि जनक-संसय मेट्यो।
जेहि कर-कमल उठाइ बंधु ज्यों, परम प्रीती केवट भेंट्यो ॥ २ ॥
जेहि कर-कमल कृपालु गीधकहँ, पिंड देइ निजधाम दियो।
जेहि कर बालि बिदारि दास-हित, कपिकुल-पति सुग्रीव कियो ॥ ३ ॥
आयो सरन सभीत बिभीषन जेहि कर-कमल तिलक कीन्हों।
जेहि कर गहि सर चाप असुर हति, अभयदान देवन्ह दीन्हों ॥ ४ ॥
सीतल सुखद छाँह जेहि करकी, मेटति पापो,ताप,माया।
निसि-बासर तेहि कर सरोजकी, चाहत तुलसिदास छाया ॥ ५ ॥
१३९
दीनदयालु,दुरित दारिद दुख दुनी दुसह तिहुँ ताप तई है।
देव दुवार पुकारत आरत, सबकी सब सुख हानि भई है ॥ १ ॥
प्रभुके बचन,बेद-बुध-सम्मत,’मम मूरति महिदेवमई है’।
तिनकी मति रिस-राग-मोह-मद,लोभ लालची लीलि लई है ॥ २ ॥
राज-समाज कुसाज कोटि कटु कलपित कलुष कुचाल नई है।
नीति,प्रतीति,प्रीति परमित पति हेतुबाद हठि हेरि हई है ॥ ३ ॥
आश्रम-बरन-धरम-बिरहित जग, लोक-बेद-मरजाद गई है।
प्रजा पतित,पाखंड-पापरत, अपने अपने रंग रई है ॥ ४ ॥
सांति,सत्य,सुभ,रीति गई घटि,बढ़ी कुरीति,कपट-कलई है।
सीदत साधु,साधुता सोचति,खल बिलसत,हुलसति खलई है ॥ ५ ॥
परमारथ स्वारथ,साधन भये अफल,सफल नहिं सिद्धि सई है।
कामधेनु-धरनी कलि-गोमर-बिबस बिकल जामति न बई है ॥ ६ ॥
कलि-करनी बरनिय कहाँ लौं,करत फिरत बिनु टहल टई है।
तापर दाँत पीसि कर मींजत, को जानै चित कहा ठई है ॥ ७ ॥
त्यों त्यों नीच चढ़त सिर ऊपर, ज्यों ज्यों सीलबस ढील दई है।
सरुष बरजि तरजिये तरजनी, कुम्हिलैहै कुम्हड़ेकी जई है ॥ ८ ॥
दीजै दादि देखि ना तौ बलि, महि मोद-मंगल रितई है।
भरे भाग अनुराग लोग कहैं, राम कृपा-चितवनि चितई है ॥ ९ ॥
बिनती सुनि सानंद हेरि हँसि, करुना-बारिñ भूमि भिजई है।
राम-राज भयो काज,सगुन सुभ, राजा राम जगत-बिजई है ॥ १० ॥
समरथ बड़ो,सुजान सुसाहब, सुकृत-सैन हारत जितई है।
सुजन सुभाव सराहत सादर, अनायास साँसति बितई है ॥ ११ ॥
उथपे थपन,उजारि बसावन, गई बहोरि बिरद सदई है।
तुलसी प्रभु आरत-आरतिहर, अभयबाँह केहि केहि न दई है ॥ १२ ॥
१४०
ते नर नरकरूप जीवत जग भव-भंजन-पद-बिमुख अभागी।
निसिबासर रुचिपाप असुचिमन,खलमति-मलिन,निगमापथ-त्यागी ॥ १ ॥
नहिं सतसंग भजन नहिं हरिको,स्त्रवन न राम-कथा-अनुरागी।
सुत-बित-दार-भवन-ममता-निसि सोवत अति, न कबहुँ मति जागी ॥ २ ॥
तुलसिदास हरिनाम-सुधा तजि, सठ हठि पियत बिषय-बिष माँगी।
सूकर-स्वान-सृगाल,सरिस जन, जनमत जगत जननि-दुख लागी ॥ ३ ॥
१४१
रामचंद्र! रघुनायक तुमसों हौं बिनती केहि भाँति करौं।
अघ अनेक अवलोकि आपने, अनघ नाम अनुमानि डरौं ॥ १ ॥
पर-दुख दुखी सुखी पर-सुख ते, संत-सील नहिं हृदय धरौं।
देखि आनकी बिपति परम सुख, सुनि संपति बिनु आगि जरौं ॥ २ ॥
भगति-बिराग-ग्यान साधन कहि बहु बिधि डहकत लोग फिरों।
सिव-सरबस सुखधाम नाम तव, बेचि नरकप्रद उदर भरौं ॥ ३ ॥
जानत हौं निज पाप जलधि जिय, जल-सीकर सम सुनत लरौं।
रज-सम-पर अवगुन सुमेरु करि, गुन गिरि-सम रजतें निदरौं ॥ ४ ॥
नाना बेष बनाय दिवस-निसि, पर-बित जेहि तेहि जुगुति हरौं।
एकौ पल न कबहुँ अलोल चित हित दै पद-सरोज सुमिरौं ॥ ५ ॥
जो आचरन बिचारहु मेरो,कलप कोटि लगि औटि मरौं।
तुलसिदास प्रभु कृपा-बिलोकनि,गोपद-ज्यों भवसिंधु तरौं ॥ ६ ॥
१४२
सकुचत हौं अति राम कृपानिधि! क्यों करि बिनय सुनावौं।
सकल धरम बिपरीत करत,केहि भाँति नाथ! मन भावौ ॥ १ ॥
जानत हौं हरि रूप चराचर, मैं हठि नयन न लावौं।
अंजन-केस-सिखा जुवती, तहँ लोचन-सलभ पठावौं ॥ २ ॥
स्त्रवननिको फल कथा तुम्हारी, यह समुझौं,समुझावौं।
तिन्ह स्त्रवननि परदोष निरंतर सुनि सुनि भरि भरि तावौं ॥ ३ ॥
जेहि रसना गुन गाइ तिहारे, बिनु प्रयास सुख पावौं।
तेहि मुख पर-अपवाद भेक ज्यों रटि-रटि जनम नसावौं ॥ ४ ॥
‘करहु हृदय अति बिमल बसहिं हरि’, कहि कहि सबहिं सिखावौं।
हौं निज उर अभिमान-मोह-मद खल-मंडली बसावौं ॥ ५ ॥
जो तनु धरि हरिपद साधहिं जन, सो बिनु काज गँवावौं।
हाटक-घट भरि धर् यो सुधा गृह, तजि नभ कूप खनावौं ॥ ६ ॥
मन-क्रम-बचन लाइ कीन्हे अघ, ते करि जतन दुरावौं।
पर-प्रेरित इरषा बस कबहुँक किय कछु सुभ,सो जनावौं ॥ ७ ॥
बिप्र-द्रोह जनु बाँट पर् यो, हठि सबसों बैर बढ़ावौ।
ताहूपर निज मति-बिलास सब संतन माँझ गनावौं ॥ ८ ॥
निगम सेस सारद निहोरि जो अपने दोष कहावौं।
तौ न सिराहिं कलप सत लगि प्रभु, कहा एक मुख गावौं ॥ ९ ॥
जो करनी आपनी बिचारौं, तौं कि सरन हौं आवौं।
मृदुल सुभाउ सील रघुपतिको, सो बल मनहिं दिखावौं ॥ १० ॥
तुलसिदास प्रभु सो गुन नहिं, जेहि सपनेहुँ तुमहिं रिझावौं।
नाथ-कृपा भवसिंधु धेनुपद सम जो जानि सिरावौं ॥ ११ ॥
१४३
सुनहु राम रघुबीर गुसाई, मन अनीति-रत मेरो।
चरन-सरोज बिसारि तिहारे, निसिदिन फिरत अनेरो ॥ १ ॥
मानत नाहिं निगम-अनुसासन, त्रास न काहू केरो।
भूल्यो सूल करम-कोलुन्ह तिल ज्यों बहु बारनि पेरो ॥ २ ॥
जहँ सतसंग कथा माधवकी, सपनेहुँ करत न फेरो।
लोभ-मोह-मद-काम-कोह-रत, तिन्हसों प्रेम घनेरो ॥ ३ ॥
पर-गुन सुनत दाह, पर-दूषन सुनत हरख बहुतेरो।
आप पापको नगर बसावत, सहि न सकत पर खेरो ॥ ४ ॥
साधन-फल,श्रुति-सार नाम तव, भव-सरिता कहँ बेरो।
सो पर-कर काँकिनी लागि सठ, बेंचि होत हठि चेरो ॥ ५ ॥
कबहुँक हौं संगति-प्रभावतें,जाँउ सुमारग नेरो।
तब करि क्रोध संग कुमनोरथ देत कठिन भटभेरो ॥ ६ ॥
इक हौं दीन,मलीन,हीनमति,बिपतिजाल अति घेरो।
तापर सहि न जाय करुनानिधि, मनको दुसह दरेरो ॥ ७ ॥
हारि पर् यो करि जतन बहुत बिधि, तातें कहत सबेरो।
तुलसिदास यह त्रास मिटै जब हृदय करहु तुम डेरो ॥ ८ ॥
१४४
सो धौ को जो नाम-लाज ते, नहिं राख्यो रघुबीर।
कारुनीक बिनु कारन ही हरि हरी सकल भव-भीर ॥ १ ॥
बेद-बिदित,जग-बिदित अजामिल बिप्रबंधु अघ-धाम।
घोर जमालय जात निवार् यो सुत-हित सुमिरत नाम ॥ २ ॥
पसु पामर अभिमान-सिंधु गज ग्रस्यो आइ जब ग्राह।
सुमिरत सकृत सपदि आये प्रभु, हर् यो दुसह उर दाह ॥ ३ ॥
ब्याध,निषाद,गीध,गनिकादिक, अगनित औगुन-मूल।
नाम-औटतें राम सबनिकी दूरि करी सब सूल ॥ ४ ॥
केहि आचरन घाटि हौं तिनतें, रघुकुल-भूषन भूप।
सीदत तुलसिदास निसिबासर पर् यो भीम तम-कूप ॥ ५ ॥
१४५
कृपासिंधु! जन दीन दुवारे दादि न पावत काहे।
जब जहँ तुमहिं पुकारत आरत, तहँ तिन्हके दुख दाहे ॥ १ ॥
गज,प्रहलाद,पांडुसुत,कपि सबको रिपु-संकट मेट्यो।
प्रनत,बंधु-भय-बिकल,बिभीषन,उठि सो भरत ज्यों भेट्यो ॥ २ ॥
मैं तुम्हरो लेइ नाम ग्राम इक उर आपने बसावों।
भजन,बिबेक,बिराग,लोग भले, मैं क्रम-क्रम करि ल्यावों ॥ ३ ॥
सुनि रिस भरे कुटिल कामादिक, करहिं जोर बरिआई।
तिन्हहिं उजारि नारि-अरि-धन पुर राखहिं राम गुसाईं ॥ ४ ॥
सम-सेवा-छल-दान-दंड हौं, रचि उपाय पचि हार् यो।
बिनु कारनको कलह बड़ो दुख, प्रभुसों प्रगटि पुकार् यो ॥ ५ ॥
सुर स्वारथी,अनीस,अलायक,निठुर,दया चित नाहीं।
जाउँ कहाँ, को बिपति-निवारक, भवतारक जग माही ॥ ६ ॥
तुलसी जदपि पोच,तउ तुम्हरो, और न काहु केरो।
दीजै भगति-बाँह बारक, ज्यों सुबस बसै अब खेरो ॥ ७ ॥
१४६
हौं सब बिधि राम, रावरो चाहत भयो चेरो।
ठौर ठौर साहबी होत है, ख्याल काल कलि केरो ॥ १ ॥
काल-करम-इंद्रिय,बिषय गाहकगन घेरो।
हौं न कबूलत, बाँधि कै मोल करत करेरो ॥ २ ॥
बंदि-छोर तेरो नाम है, बिरुदैत बड़ेरो।
मैं कह्यो, तब छल-प्रीति कै माँगे उर डेरो ॥ ३ ॥
नाम-ओट अब लगि बच्यो मलजुग जग जेरो।
अब गरीब जन पोषिये पाइबो न हेरो ॥ ४ ॥
जेहि कौतुक बक/खग स्वानको प्रभु न्याव निबेरो।
तेहि कौतुक कहिये कृपालु! ‘तुलसी है मेरो’ ॥ ५ ॥
१४७
कृपासिंधु ताते रहौं निसिदिन मन मारे।
महाराज! लाज आपुही निज जाँघ उघारे ॥ १ ॥
मिले रहैं, मार् यौ चहै कामादि संघाती।
मो बिनु रहै न, मेरियै जारैं छल छाती ॥ २ ॥
बसत हिये हित जानि मैं सबकी रुचि पाली।
कियो कथकको दंड हौं जड़ करम कुचाली ॥ ३ ॥
देखी सुनी न आजु लौं अपनायति ऐसी।
करहिं सबै सिर मेरे ही फिरि परै अनैसी ॥ ४ ॥
बड़े अलेखी लखि परै, परिहरै न जाहीं।
असमंजसमें मगन हौं, लीजै गहि बाहीं ॥ ५ ॥
बारक बलि अवलोकिये, कौतुक जन जी को।
अनायास मिटि जाइगो संकट तुलसीको ॥ ६ ॥
१४८
कहौ कौन मुहँ लाइ कै रघुबीर गुसाई।
सकुचत समुझत आपनी सब साइँ दुहाई ॥ १ ॥
सेवत बस,सुमिरत सखा, सरनागत सो हौं।
गुनगन सीतानाथके चित करत न हौं हौं ॥ २ ॥
कृपासिंधु बंधु दीनके आरत-हितकारी।
प्रनत-पाल बिरुदावली सुनि जानि बिसारी ॥ ३ ॥
सेइ न धेइ न सुमिरि कै पद-प्रीति सुधारी।
पाइ सुसाहिब राम सों, भरि पेट बिगारी ॥ ४ ॥
नाथ गरीबनिवाज हैं,मैं गही न गरीबी।
तुलसी प्रभु निज ओर तें बनि परै सो कीबी ॥ ५ ॥
१४९
कहाँ जाउँ, कासों कहौं, और ठौर न मेरे।
जनम गँवायो तेरे ही द्वार किंकर तेरे ॥ १ ॥
मै तौ बिगारी नाथ सों आरतिके लीन्हें।
तोहि कृपानिधि क्यों बनै मेरी-सी कीन्हें ॥ २ ॥
दिन-दुरदिन दिन-दुरदसा, दिन-दुख दिन-दूषन।
जब लौं तू न बिलोकिहै रघुबंस-बिभूषन ॥ ३ ॥
दई पीठ बिनु डीठ मैं तुम बिस्व बिलोचन।
तो सों तुही न दूसरो नत-सोच-बिमोचन ॥ ४ ॥
पराधीन देव दीन हौं,स्वाधीन गुसाईं।
बोलनिहारे सों करै बलि बिनयकी झाई ॥ ५ ॥
आपु देखि मोहि देखिये जन मानिय साँचो।
बड़ी ओट रामनामकी जेहि लई सो बाँचो ॥ ६ ॥
रहनि रीति राम रावरी नित हिय हुलसी है।
ज्यों भावै त्यों करु कृपा तेरो तुलसी है ॥ ७ ॥
१५०
रामभद्र! मोहिं आपनो सोच है अरु नाहीं।
जीव सकल संतापके भाजन जग माहीं ॥ १ ॥
नातो बड़े समर्थ सों इक ओर किधौं हूँ।
तोको मोसे अति घने मोको एकै तूँ ॥ २ ॥
बड़ी गलानि हिय हानि है सरबग्य गुसाईं।
कूर कुसेवक कहत हौं सेवककी नाई ॥ ३ ॥
भलो पोच रामको कहैं मोहि सब नरनारी।
बिगरे सेवक स्वान ज्यों साहिब-सिर गारी ॥ ४ ॥
असमंजस मनको मिटै सो उपाय न सूझै।
दीनबंधु! कीजै सोई बनि परै जो बूझै ॥ ५ ॥
बिरुदावली बिलोकिये तिन्हमें कोउ हौं हौं।
तुलसी प्रभुको परिहर् यो सरनागत सो हौं ॥ ६ ॥
१५१
जो पै चेराई रामकी करतो न लजातो।
तौ तू दाम कुदाम ज्यों कर-कर न बिकातो ॥ १ ॥
जपत जीह रघुनाथको नाम नहिं अलसातो।
बाजीगरके सूम ज्यों खल खेह न खातो ॥ २ ॥
जौ तू मन! मेरे कहे राम-नाम कमातो।
सीतापति सनमुख सुखी सब ठाँव समातो ॥ ३ ॥
राम सोहाते तोहिं जौ तू सबहिं सोहातो।
काल करम कुल कारनी कोऊ न कोहातो ॥ ४ ॥
राम-नाम अनुरागही जिय जो रतिआतो।
स्वारथ-परमारथ-पथी तोहिं सब पतिआतो ॥ ५ ॥
सेइ साधु सुनि समुझि कै पर-पीर पिरातो।
जनम कोटिको काँदले हृद-हृदय थिरातो ॥ ६ ॥
भव-मग अगम अनंत है, बिनु श्रमहि सिरातो।
महिमा उलटे नामकी मुनि कियो किरातो ॥ ७ ॥
अमर-अगम तनु पाइ सो जड़ जाय न जातो।
होतो मंगल-मूल तू, अनुकूल बिधातो ॥ ८ ॥
जो मन-प्रीति-प्रतीतिसों राम-नामहिं रातो।
नसातो
तुलसी रामप्रसादसों तिहुँताप ——- ॥ ९ ॥
नसातो
१५२
राम भलाई आपनी भल कियो न काको।
जुग जुग जानकीनाथको जग जागत साको ॥ १ ॥
ब्रह्मादिक बिनती करी कहि दुख बसुधाको।
रबिकुल-कैरव-चंद भो आनंद-सुधाको ॥ २ ॥
कौसिक गरत तुषार ज्यों तकि तेज तियाको।
प्रभु अनहित हित को दियो फल कोप कृपाको ॥ ३ ॥
हर् यो पाप आप जाइकै संताप सिलाको।
सोच-मगन काढ्यो सही साहिब मिथिलाको ॥ ४ ॥
रोष-रासि भृगुपति धनी अहमिति ममताको।
चितवत भाजन करि लियो उपसम समताको ॥ ५ ॥
मुदित मानि आयसु चले बन मातु-पिताको।
धरम-धुरंधर धीरधुर गुन-सील-जिता को ? ॥ ६ ॥
गुह गरीब गतग्याति हू जेहि जिउ न भखा को ?
पायो पावन प्रेम ते सनमान सखाको ॥ ७ ॥
सदगति सबरी गीधकी सादर करता को ?
सोच-सींव सुग्रीवके संकट-हरता को ? ॥ ८ ॥
अस काल-गहा
राखि बिभीषनको सकै ———– को ?
तेहि काल कहाँ
आज बिराजत राज है दसकंठ जहाँको ॥ ९ ॥
बालिस बासी अवधको बूझिये न खाको।
सो पाँवर पहुँचो तहाँ जहँ मुनि-मन थाको ॥ १० ॥
गति न लहै राम-नामसों बिधि सो सिरिजा को ?
सुमिरत कहत प्रचारि कै बल्लभ गिरिजाको ॥ ११ ॥
अकनि अजामिलकी कथा सानंद न भा को ?
नाम लेत कलिकालहू हरिपुरहिं न गा को ? ॥ १२ ॥
राम-नाम-महिमा करै काम-भुरुह आको।
साखी बेद पुरान है तुलसी-तन ताको ॥ १३ ॥
१५३
मेरे रावरियै गति है रघुपति बलि जाउँ ।
निलज नीच निरधन निरगुन कहँ, जग दूसरो न ठाकुर ठाउँ ॥ १ ॥
है घर-घर बहु भरे सुसाहिब, सूझत सबनि आपनो दाउँ ।
बानर-बंधु बिभीषन-हितु बिनु, कोसलपाल कहूँ न समाउँ ॥ २ ॥
प्रनतारति- भंजन जन-रंजन, सरनागत पबि-पंजर नाउँ ।
कीजै दास दासतुलसी अब, कृपासिंधु बिनु मोल बिकाउँ ॥ ३ ॥
१५४
देव ! दूसरो कौन दीनको दयालु ।
सीलनिधान सुजान-सिरोमनि, सरनागत-प्रिय प्रनत-पालु ॥ १ ॥
को समरथ सरबग्य सकल प्रभु, सिव-सनेह-मानस मरालु ।
को साहिब किये मीत प्रीतिबस खग निसिचर कपि भील भालु ॥ २ ॥
नाथ हाथ माया-प्रपंच सब,जीव-दोष-गुन-करम-कालु ।
तुलसिदास भलो पोच रावरो, नेकु निरखि कीजिये निहालु ॥ ३ ॥
१५५
बिस्वास एक राम-नामको ।
मानत नहि परतीति अनत ऐसोइ सुभाव मन बामको ॥ १ ॥
पढिबो पर् यो न छठी छ मत रिगु जजुर अथर्वन सामको ।
ब्रत तीरथ तप सुनि सहमत पचि मरै करै तन छाम को ? ॥ २ ॥
करम-जाल कलिकाल कठिन आधीन सुसाधित दामको ।
ग्यान बिराग जोग जप तप, भय लोभ मोह कोह कामको ॥ ३ ॥
सब दिन सब लायक भव गायक रघुनायक गुन-ग्रामको ।
बैठे नाम-कामतरु-तर डर कौन घोर घन घामको ॥ ४ ॥
को जानै को जैहै जमपुर को सुरपुर पर धामको ।
तुलसिहिं बहुत भलो लागत जग जीवन रामगुलामको ॥ ५ ॥
१५६
कलि नाम कामतरु रामको ।
दलनिहार दारिद दुकाल दुख, दोष घोर घन घामको ॥ १ ॥
नाम लेत दाहिनो होत मन,बाम बिधाता बामको ।
कहत मुनीस महेस महातम,उलटे सूधे नामको ॥ २ ॥
भलो लोक-परलोक तासु जाके बल ललित-ललामको ।
तुलसी जग जानियत नामते सोच न कूच मुकामको ॥ ३ ॥
१५७
सेइये सुसाहिब राम सो ।
सुखद सुसील सुजान सूर सुचि, सुंदर कोटिक काम सो ॥ १ ॥
सारद सेस साधु महिमा कहैं, गुनगन-गायक साम सो ।
सुमिरि सप्रेम नाम जासों रति चाहत चंद्र-ललाम सो ॥ २ ॥
गमन बिदेस न लेस कलेसको,सकुचत सकृत प्रनाम सो ।
साखी ताको बिदित बिभीषन, बैठो है अबिचल धाम सो ॥ ३ ॥
टहल सहल जन महल-महल,जागत चारो जुग जाम सो ।
देखत दोष न रीझत ,रीझत सुनि सेवक गुन-ग्राम सो ॥ ४ ॥
जाके भजे तिलोक-तिलक भये,त्रिजग जोनि तनु तामसो ।
तुलसी ऐसे प्रभुहिं भजै जो न ताहि बिधाता बाम सो ॥ ५ ॥
राग नट
१५८
कैसे देउँ नाथहिं खोरि ।
काम-लोलुप भ्रमत मन हरि भगति परिहरि तोरि ॥ १ ॥
बहुत प्रीति पुजाइबे पर, पूजिबे पर थोरि।
देत सिख सिखयो न मानत,मूढ़ता असि मोरि ॥ २ ॥
किये सहित सनेह जे अघ हृदय राखे चोरि ।
संग-बस किये सुभ सुनाये सकल लोक निहोरि ॥ ३ ॥
करौं जो कछु धरौं सचि-पचि सुकृत-सिला बटोरि ।
पैठि उर बरबस दयानिधि दंभ लेत अँजोरि ॥ ४ ॥
लोभ मनहिं नचाव कपि ज्यों, गरे आसा-डोरि ।
बात कहौं बनाइ बुध ज्यों, बर बिराग निचोरि ॥ ५ ॥
एतेहुँ पर तुम्हरो कहावत,लाज अँचई घोरि ।
निलजता पर रीझि रघुबर, देहु तुलसिहिं छोरि ॥ ६ ॥
१५९
है प्रभु ! मेरोई सब दोसु ।
सीलसींधु कृपालु नाथ अनाथ आरत-पोसु ॥ १ ॥
बेष बचन बिराग मन अघ अवगुननिको कोसु ।
राम प्रीती प्रतीति पोली, कपट-करतब ठोसु ॥ २ ॥
राग-रंग कुसंग ही सों, साधु-संगति रोसु ।
चहत केहरि-जसहिं सेइ सृगाल ज्यों खरगोसु ॥ ३ ॥
संभु-सिखवन रसन हूँ नित राम-नामहिं घोसु ।
दंभहू कलि नाम कुंभज सोच-सागर-सोसु ॥ ४ ॥
मोद-मंगल-मूल अति अनुकूल निज निरजोसु ।
रामनाम प्रभाव सुनि तुलसिहुँ परम परितोसु ॥ ५ ॥
१६०
मैं हरि पतित-पावन सुने ।
मैं पतित तुम पतित-पावन दोउ बानक बने ॥ १ ॥
ब्याध गनिका गज अजामिल साखि निगमनि भने ।
और अधम अनेक तारे जात कापै गने ॥ २ ॥
जानि नाम अजानि लीन्हें नरक सुरपुर मने ।
दासतुलसी सरन आयो, राखिये आपने ॥ ३ ॥
राग मलार
१६१
तों सों प्रभु जो पै कहुँ कोउ होतो ।
तो सहि निपट निरादर निसिदिन, रटि लटि ऐसो घटि को तो ॥ १ ॥
कृपा-सुधा-जलदान माँगिबो कहाँ सो साँच निसोतो ।
स्वाति-सनेह-सलिल-सुख चाहत चित-चातक सो पोतो ॥ २ ॥
काल-करम-बस मन कुमनोरथ कबहुँ कबहुँ कुछ भो तो ।
ज्यों मुदमय बसि मीन बारि तजि उछरि भभरि लेत गोतो ॥ ३ ॥
जितो दुराव दासतुलसी उर क्यों कहि आवत ओतो ।
तेरे राज राय दसरथके, लयो बयो बिनु जोतो ॥ ४ ॥
रागसोरठ
१६२
ऐसो को उदार जग माहीं ।
बिनु सेवा जो द्रवै दीनपर राम सरिस कोउ नाहीं ॥ १ ॥
जो गति जोग बिराग जतन करि नहिं पावत मुनि ग्यानी ।
सो गति देत गीध सबरी कहँ प्रभु न बहुत जिय जानी ॥ २ ॥
जो संपति दस सीस अरप करि रावन सिव पहँ लीन्हीं ।
सो संपदा बिभीषन कहँ अति सकुच-सहित हरि दीन्ही ॥ ३ ॥
तुलसिदास सब भाँति सकल सुख जो चाहसि मन मेरो ।
तौ भजु राम, काम सब पूरन करै कृपानिधि तेरो ॥ ४ ॥
१६३
एकै दानि-सिरोमनि साँचो।
जोइ जाच्यो सोइ जाचकताबस, फिरि बहु नाच न नाचो ॥ १ ॥
सब स्वारथी असुर सुर नर मुनि कोउ न देत बिनु पाये।
कोसलपालु कृपालु कलपतरु,द्रवत सकृत सिर नाये ॥ २ ॥
हरिहु और अवतार आपने, राखी बेद-बड़ाई।
लै चिउरा निधि दई सुदामहिं जद्यपि बाल मिताई ॥ ३ ॥
कपि सबरी सुग्रीव बिभीषन, को नहिं कियो अजाची।
अब तुलसिहि दुख देति दयानिधि दारून आस-पिसाची ॥ ४ ॥
१६४
जानत प्रीति-रीति रघुराई।
नाते सब हाते करी राखत राम सनेह-सगाई ॥ १ ॥
नेह निबाहि देह तजि दसरथ, कीरति अचल चलाई।
ऐसेहु पितु तें अधिक गीधपर ममता गुन गरुआई ॥ २ ॥
तिय-बिरही सुग्रीव सखा लखि प्रानप्रिया बिसराई।
रन पर् यो बंधु बिभीषन ही को, सोच हृदय अधिकाई ॥ ३ ॥
घर गुरुगृह प्रिय सदन सासुरे,भइ जब जहँ पहुनाई।
तब तहँ कहि सबरीके फलनिकी रुचि माधुरी न पाई ॥ ४ ॥
सहज सरूप कथा मुनि बरनत रहत सकुचि सिर नाई।
केवट मीत कहे सुख मानत बानर बंधु बड़ाई ॥ ५ ॥
प्रेम-कनौड़ो रामसो प्रभु त्रिभुवन तिहुँकाल न भाई।
तेरो रिनी हौं कह्यो कपि सों ऐसी मानही को सेवकाई ॥ ६ ॥
तुलसी राम-सनेह-सील लखि, जो न भगति उर आई।
तौ तोहिं जनमि जाय जननी जड़ तनु-तरुनता गवाँई ॥ ७ ॥
१६५
रघुबर! रावरि यहै बड़ाई।
निदरि गनी आदर गरीबपर ,करत कृपा अधिकाई ॥ १ ॥
थके देव साधन करि सब, सपनेहु नहिं देत दिखाई।
केवट कुटिल भालु कपि कौनप, कियो सकल संग भाई ॥ २ ॥
मिलि मुनिबृंद फिरत दंडक बन, सो चरचौ न चलाई।
बारहि बार गीध सबरीकी बरनत प्रीति सुहाई ॥ ३ ॥
स्वान कहे तें कियो पुर बाहिर, जती गयंद चढ़ाई।
तिय-निंदक मतिमंद प्रजा रज निज नय नगर बसाई ॥ ४ ॥
यहि दरबार दीनको आदर, रीति सदा चलि आई।
दीनदयालु दीन तुलसीकी काहु न सुरति कराई ॥ ५ ॥
१६६
ऐसे राम दीन-हितकारी।
अतिकोमल करुनानिधान बिनु कारन पर-उपकारी ॥ १ ॥
साधन-हीन दीन निज अघ-बस, सिला भई मुनि-नारी।
गृहतें गवनि परसि पद पावन घोर सापतें तारीं।२ ॥
हिंसारत निषाद तामस बपु, पसु-समान बनचारी।
भेंट्यो हृदय लगाइ प्रेमबस, नहिं कुल जाति बिचारी ॥ ३ ॥
जद्यपि द्रोह कियो सुरपति-सुत, कह न जाय अति भारी।
सकल लोक अवलोकि सोकहत, सरन गये भय टारी ॥ ४ ॥
बिहँग जोनि आमिष अहार पर, गीध कौन ब्रतधारी।
जनक-समान क्रिया ताकी निज कर सब भाँति सँवारी ॥ ५ ॥
अधम जाति सबरी जोषित जड़, लोक-बेद तें न्यारी।
जानि प्रीति, दै दरस कृपानिधि, सोउ रघुनात उधारी ॥ ६ ॥
कपि सुग्रीव बंधु-भय-ब्याकुल आयो सरन पुकारी।
सहि न सके दारुन दुख जनके, हत्यो बालि,सहि गारी ॥ ७ ॥
रिपुको अनुज बिभीषन निशिचर, कौन भजन अधिकारी।
सरन गये आगे ह्वे लीन्हौं भेट्यो भुजा पसारी ॥ ८ ॥
असुभ होइ जिनके सुमिरे ते बानर रीछ बिकारी।
बेद-बिदित पावन किये ते सब, महिमा नाथ! तुम्हारी ॥ ९ ॥
कहँ लगि कहौं दीन अगनित जिन्हकी तुम बिपति निवारी।
कलिमल-ग्रसित दासतुलसीपर, काहे कृपा बिसारी ? ॥ १० ॥
१६७
रघुपति-भगति करत कठिनाई।
कहत सुगम करनी अपार जानै सोइ जेहि बनि आई ॥ १ ॥
जो जेहि कला कुसल ताकहँ सोइ सुलभ सदा सुखकारी।
सफरी सनमुख जल-प्रवाह सुरसरी बहै गज भारी ॥ २ ॥
ज्यों सर्करा मिलै सिकता महँ, बलतें न कोउ बिलगावै।
अति रसस्य सूच्छम पिपीलिका, बिनु प्रयास ही पावै ॥ ३ ॥
सकल दृश्य निज उदर मेलि, सोवे निद्रा तजि जोगी।
सोइ हरिपद अनुभवै परम सुख, अतिसय द्वैत-बियोगी ॥ ४ ॥
सोक मोह भय हरष दिवस-निसि देस-काल तहँ नाहीं।
तुलसिदास यहि दसाहीन संसय निरमूल न जाहीं ॥ ५ ॥
१६८
जो पै राम-चरन-रति होती।
तौ कत त्रिबिध सूल निसिबासर सहते बिपति निसोती ॥ १ ॥
जो संतोष-सुधा निसिबासर सपनेहुँ कबहुकँ पावै।
तौ कत बिषय बिलोकि झूँठ जल मन-कुरंग ज्यों धावै ॥ २ ॥
जो श्रीपति-महिमा बिचारि उर भजते भाव बढ़ाए।
तौ कत द्वार-द्वार कूकर ज्यों फिरते पेट खलाए ॥ ३ ॥
जे लोलुप भये दास आसके ते सबहीके चेरे।
प्रभु-बिस्वास आस जीती जिन्ह, ते सेवक हरि केरे ॥ ४ ॥
नहिं एकौ आचरन भजनको, बिनय करत हौं ताते।
कीजै कृपा दासतुलसी पर, नाथ नामके नाते ॥ ५ ॥
१६९
जो मोही राम लागते मीठे।
तौ नवरस षटरस-रस अनरस ह्वे जाते सब सीठे ॥ १ ॥
बंचक बिषय बिबिध तनु धरि अनुभवे सुने अरु डीठे।
यह जानत हौं हृदय आपने सपने न अघाइ उबीठे ॥ २ ॥
तुलसिदास प्रभु सों एहि बल बचन कहत अति ढीठे।
नामकी लाज राम करुनाकर केहि न दिये कर चीठे ॥ ३ ॥
१७०
यों मन कबहूँ तुमहिं न लाग्यो।
ज्यों छल छाँड़ि सुभाव निरंतर रहत बिषय अनुराग्यो ॥ १ ॥
ज्यों चितई परनारि, सुने पातक-प्रपंच घर-घरके।
त्यों न साधु, सुरसरि-तरंग-निरमल गुनगन रघुबरके ॥ २ ॥
ज्यों नासा सुगंधरस-बस, रसना षटरस-रति मानी।
राम-प्रसाद-माल जूठन लगि त्यों न ललकि ललचानी ॥ ३ ॥
चंदन-चंदबदनि-भूषन-पट ज्यों चह पाँवर परस्यो।
त्यों रघुपति-पद-पदुम-परस को तनु पातकी न तरस्यो ॥ ४ ॥
ज्यों सब भाँती कुदेव कुठाकुर सेये बपु बचन हिये हूँ।
त्यों न राम सुकृतग्य जे सकुचत सकृत प्रनाम किये हूँ ॥ ५ ॥
चंचल चरन लोभ लगि लोलुप द्वार-द्वार जग बागे।
राम-सीय-आस्रमनि चलत त्यों भये न स्रमित अभागे ॥ ६ ॥
सकल अंग पद-बिमुख नाथ मुख नामकी ओट लई है।
है तुलसिहिं परतीति एक प्रभु-मूरति कृपामई है ॥ ७ ॥
१७१
कीजै मोको जमजातनामई।
राम! तुमसे सुचि सुहृद साहिबहिं ,मैं सठ पीठि दई ॥ १ ॥
गरभबास दस मास पालि पितु-मातु-रूप हित कीन्हों।
जड़हि बिबेक,सुसील खलहिं, अपराधहिं आदर दीन्हों ॥ २ ॥
कपट करौं अंतरजामिहुँ सों, अघ ब्यापकहिं दुरावौं।
ऐसेहु कुमति कुसेवक पर रघुपति न कियो मन बावौं ॥ ३ ॥
उदर भरौं कोंकर कहाइ बेंच्यौं बिषयनि हाथ हियो है।
मोसे बंचकको कृपालु छल छाँड़ि कै छोह कियो है ॥ ४ ॥
पल-पलके उपकार रावरे जानि बूझी सुनि नीके।
भिद्यो न कुलिसहुँ ते कठोर चित कबहुँ प्रेम सिय-पीके ॥ ५ ॥
स्वामीकी सेवक-हितता सब, कछु निज साँई-द्रोहाई।
मैं मति-तुला तौलि देखी भइ मेरेहि दिसि गरूआई ॥ ६ ॥
एतेहु पर हित करत नाथ मेरो, करि आये, अरु करिहैं।
तुलसी अपनी ओर जानियत प्रभुहि कनौड़ो भरिहैं ॥ ७ ॥
१७२
कबहुँक हौं यहि रहनि रहौंगो।
श्रीरघुनाथ-कृपालु-कृपातें संत-सुभाव गहौंगो ॥ १ ॥
जथालाभसंतोष सदा, काहू सों कछु न चहौंगो।
पर-हित-निरत निरंतर, मन क्रम बचन नेम निबहौंगो ॥ २ ॥
परुष बचन अति दुसह श्रवन सुनि तेहि पावक न दहौंगो।
बिगत मान, सम शीतल मन, परगुन नहिं दोष कहौंगो ॥ ३ ॥
परहरि देह-जनित चिंता, दुख-सुख समबुद्धि सहौंगो।
तुलसिदास प्रभु यहि पथ रहि अबिचल हरि-भगति लहौंगो ॥ ४ ॥
१७३
नाहिंन आवत आन भरोसो।
यहि कलिकाल सकल साधनतरु है स्रम-फलनि फरो सो ॥ १ ॥
तप,तीरथ,उपवास,दान,मख जेहि जो रुचै करो सो।
पायेहि पै जानिबो करम-फल भरि-भरि बेद परोसो ॥ २ ॥
आगम-बिधि जप-जग करत नर सरत न काज खरो सो।
सुख सपनेहु न जोग-सिधि-साधन, रोग बियोग धरो सो ॥ ३ ॥
काम, क्रोध,मद,लोभ,मोह मिलि ग्यान बिराग हरो सो।
बिगरत मन संन्यास लेत जल नावत आम घरो सो ॥ ४ ॥
बहु मत मुनि बहु पंथ पुराननि जहाँ-तहाँ झगरो सो।
गुरु कह्यो राम-भजन नीको मोंहि लगत राज-डगरो सो ॥ ५ ॥
तुलसी बिनु परतीती प्रीति फिरि-फिरि पचि मरै मरो सो।
रामनाम-बोहित भव-सागर चाहै तरन तरो सो ॥ ६ ॥
१७४
जाके प्रिय न राम-बैदेही।
तजिये ताहि
——– कोटि बैरी सम, जद्यपि परम सनेही ॥ १ ॥
सो छाँड़िये
तज्यो पिता प्रहलाद, बिभीषन बंधु, भरत महतारी।
बलि गुरु तज्यो कंत ब्रज-बनितन्हि, भये मुद-मंगलकारी ॥ २ ॥
नाते नेह रामके मनियत सुहृद सुसेब्य जहाँ लों।
अंजन कहा आँखि जेहि फूटै, बहुतक कहौं कहाँ लौं ॥ ३ ॥
तुलसि सो सब भाँति परम हित पूज्य प्रानते प्यारो।
जासों होय सनेह राम-पद, एतो मतो हमारो ॥ ४ ॥
१७५
रहनि
जो पै —–रामसों नाहीं।
लगन
तौ नर खर कूकर सूकर सम बृथा जियत जग माहीं ॥ १ ॥
काम,क्रोध,मद,लोभ,नींद,भय,भूख,प्यास सबहीके।
मनुज देह सुर-साधु सराहत, सो सनेह सिय-पीके ॥ २ ॥
सूर,सुजान,सुपूत सुलच्छन गनियत गुन गरुआई।
बिनु हरिभजन इँदारुनके फल तजत नहीं करुआई ॥ ३ ॥
कीरति, कुल करतूति, भूति भलि, सील, सरूप सलोने।
तुलसी प्रभु-अनुराग-रहित जस सालन साग अलोने ॥ ४ ॥
१७६
राख्यो राम सुस्वामी सों नीच नेह न नातो। एते अनादर हूँ तोहि ते न हातो ॥ १ ॥
जोरे नये नाते नेह फोकट फीके। देहके दाहक, गाहक जीके ॥ २ ॥
अपने अपनेको सब चाहत नीको। मूल दुहुँको दयालु दूलह सीको ॥ ३ ॥
जीवको जीवन प्रानको प्यारो। सुखहूको सूख रामसो बिसारो ॥ ४ ॥
कियो करैगो तोसे खलको भलो। ऐसे सुसाहब सों तू कुचाल क्यौं चलो ॥ ५ ॥
तुलसी तेरी भलाई अजहूँ बूझै। राढ़उ राउत होत फिरिकै जूझै ॥ ६ ॥
१७७
जो तुम त्यागों राम हौं तौं नहीं त्यागो। परिहरि पाँय काहि अनुरागों ॥ १ ॥
सुखद सुप्रभु तुम सो जगमाहीं। श्रवन-नयन मन गोचर नाहीं ॥ २ ॥
हौं जड़ जीव,ईस रघुराया। तुम मायापति,हौं बस माया ॥ ३ ॥
हौं तो कुजाचक,स्वामी सुदाता। हौं कुपूत, तुम हितु पितु-माता ॥ ४ ॥
जो पै कहुँ कोउ बूझत बातो। तौ तुलसी बिनु मोल बिकातो ॥ ५ ॥
१७८
भयेहूँ उदास राम, मेरे आस रावरी।
आरत स्वारथी सब कहैं बात बावरी ॥ १ ॥
जीवनको दानी घन कहा ताहि चाहिये।
प्रेम नेमके निबाहे चातक सराहिये ॥ २ ॥
मीनतें न लाभ-लेस पानी पुन्य पीनको।
जल बिनु थल कहा मीचु बिनु मीनको ॥ ३ ॥
बड़े ही की ओट बलि बाँचि आये छोटे हैं।
चलत खरेके संग जहाँ-तहाँ खोटे हैं ॥ ४ ॥
यहि दरबार भलो दाहिनेहु-बामको।
मोको सुभदायक भरोसो राम-नामको ॥ ५ ॥
कहत नसानी ह्वे ह्वे हिये नाथ नीकी है।
जानत कृपानिधान तुलसीके जीकी है ॥ ६ ॥
राग बिलावल
१७९
कहाँ जाउँ, कासों कहौ, कौन सुनै दीनकी।
त्रिभुवन तुही गति सब अंगहीनकी ॥ १ ॥
जग जगदीस घर घरनि घनेरे हैं।
निराधारके अधार गुनगन तेरे हैं ॥ २ ॥
गजराज-काज खगराज तजि धायो को।
मोसे दोस-कोस पोसे, तोसे माय जायो को ॥ ३ ॥
मोसे कूर कायर कुपूत कौड़ी आधके।
किये बहुमोल तैं करैया गीध-श्राधके ॥ ४ ॥
तुलसीकी तेरे ही बनाये,बलि,बनैगी।
प्रभुकी बिलंब-अंब दोष-दुख जनैगी ॥ ५ ॥
१८०
बारक बिलोकि बलि कीजै मोहिं आपनो।
राय दशरथके तू उथपन-थापनो ॥ १ ॥
साहिब सरनपाल सबल न दूसरो।
तेरो नाम लेत ही सुखेत होत ऊसरो ॥ २ ॥
बचन करम तेरे मेरे मन गड़े हैं।
देखे सुने जाने मैं जहान जेते बड़े हैं ॥ ३ ॥
कौन कियो समाधान सनमान सीलाको।
भृगुनाथ सो रिषी जितैया कौन लीलाको ॥ ४ ॥
मातु-पितु-बन्धु-हितु, लोक-बेदपाल को।
बोलको अचल, नत करत निहाल को ॥ ५ ॥
संग्रही सनेहबस अधम असाधुको।
गीध सबरीको कहौ करिहै सराधु को ॥ ६ ॥
निराधारको अधार, दीनको दयालु को।
मीत कपि-केवट-रजनिचर-भालु को ॥ ७ ॥
रंक,निरगुनी,नीच जितने निवाजे हैं।
महाराज! सुजन -समाज ते बिराजे हैं ॥ ८ ॥
साँची बिरुदावली न बढ़ि कहि गई है।
सीलसिंधु! ढील तुलसीकी बेर भई है ॥ ९ ॥
१८१
केहू भाँति कृपासिंधु मेरी ओर हेरिये।
मोको और ठौर न, सुटेक एक तेरिये ॥ १ ॥
सहस सिलातें अति जड़ मति भई है।
कासों कहौं कौन गति पाहनिहिं दई है ॥ २ ॥
पद-राग-जाग चहौं कौसिक ज्यों कियो हौं।
कलि-मल खल देखि भारी भीति भियो हौं ॥ ३ ॥
करम-कपीस बालि-बली, त्रास-त्रस्यो हौं।
चाहत अनाथ-नाथ! तेरी बाँह बस्यो हौं ॥ ४ ॥
महा मोह-रावन बिभीषन ज्यों हयो हौं।
त्राहि, तुलसीस! त्राहि तिहूँ ताप तयो हौं ॥ ५ ॥
१८२
नाथ ! गुननाथ सुनि होत चित चाउ सो।
राम रीझिबेको जानौं भगति न भाउ सो ॥ १ ॥
करम,सुभाउ,काल, ठाकुर न ठाउँ सो।
सुधन न, सुतन न,सुमन, सुआउ सो ॥ २ ॥
जाँचौं जल जाहि कहै अमिय पियाउ सो।
कासों कहौं काहू सों न बढ़त हियाउ सो ॥ ३ ॥
बाप! बलि जाऊँ, आप करिये उपाउ सो।
तेरे ही निहारे परै हारेहू सुदाउ सो ॥ ४ ॥
तेरे ही सुझाये सूझै असुझ सुझाउ सो।
तेरे ही बुझाये बूझै अबुझ बुझाउ सो ॥ ५ ॥
नाम अवलंबु-अंबु दीन मीन-राउ सो।
प्रभुसों बनाइ कहौं जीह जरि जाउ सो ॥ ६ ॥
सब भाँति बिगरी है एक सुबनाउ-सो।
तुलसी सुसाहिबहिं दियो है जनाउ सो ॥ ७ ॥
राग आसावरी
१८३
राम! प्रीतिकी रीति आप नीके जनियत है।
बड़े की बड़ाई, छोटे की छोटाई दूरि करै,
ऐसी बिरुदावली, बलि, बेद मनियत है ॥ १ ॥
गीधको कियो सराध, भीलनीको खायो फल,
सोऊ साधु-सभा भलीभाँति भनियत है।
रावरे आदरे लोक बेद हूँ आदरियत,
जोग ग्यान हूँ तें गरू गनियत है ॥ २ ॥
प्रभुकी कृपा कृपालु! कठिन कलि हूँ काल,
महिमा समुझि उर अनियत है।
तुलसी पराये बस भये रस अनरस,
दीनबंधु! द्वारे हठ ठनियत है ॥ ३ ॥
१८४
राम-नामके जपे जाइ जियकी जरनि।
कलिकाल अपर उपाय ते अपाय भये,
जैसे तम नासिबेको चित्रके तरनि ॥ १ ॥
करम-कलाप परिताप पाप-साने सब,
ज्यों सुफूल फूले तरु फोकट फरनि।
दंभ,लोभ,लालच,उपासना बिनासि नीके,
सुगति साधन भई उदर भरनि ॥ २ ॥
जोग न समाधि निरुपाधि न बिराग-ग्यान,
बचन बिशेष बेष, कहूँ न करनि।
कपट कुपथ कोटि, कहनि-रहनि खोटि,
सकल सराहैं निज निज आचरनि ॥ ३ ॥
मरत महेस उपदेस हैं कहा करत,
सुरसरि-तीर कासी धरम-धरनि।
राम-नामको प्रताप हर कहैं, जपैं आप,
जुग जुग जानैं जग, बेदहूँ बरनि ॥ ४ ॥
मति राम-नाम ही सों, रति राम-नाम ही सों,
गति राम नाम ही की बिपति-हरनि।
राम-नामसों प्रतीति प्रीति राखे कबहुँक,
तुलसी ढरैंगे राम आपनी ढरनि ॥ ५ ॥
१८५
लाज न लागत दास कहावत।
सो आचरन बिसारि सोच तजि, जो हरि तुम कहँ भावत ॥ १ ॥
सकल संग तजि भजत जाहि मुनि, जप तप जाग बनावत।
मो-सम मंद महाखल पाँवर, कौन जतन तेहि पावत ॥ २ ॥
हरि निरमल, मलग्रसित हृदय, असमंजस मोहि जनावत।
जेहि सर काक कंक बक सूकर, क्यों मराल तहँ आवत ॥ ३ ॥
जाकी सरन जाइ कोबिद दारुन त्रयताप बुझावत।
तहूँ गये मद मोह लोभ अति, सरगहुँ मिटत न सावत ॥ ४ ॥
भव-सरिता कहँ नाउ संत, यह कहि औरनि समुझावत।
हौं तिनसों हरि! परम बैर करि ,तुम सों भलो मनावत ॥ ५ ॥
नाहिंन और ठौर मो कहँ, ताते हठि नातो लावत।
राखु सरन उदार-चूड़ामनि! तुलसिदास गुन गावत ॥ ६ ॥
१८६
कौन जतन बिनती करिये।
निज आचरन बिचारि हारि हिय मानि जानि डरिये ॥ १ ॥
जेहि साधन हरि! द्रवहु जानि जन सो हठि परिहरिये।
जाते बिपति-जाल निसिदिन दुख,तेहि पथ अनसरिये ॥ २ ॥
जानत हूँ मन बचन करम पर-हित कीन्हें तरिये।
सो बिपरीत देखि पर-सुख, बिनु कारन ही जरिये ॥ ३ ॥
श्रुति पुरान सबको मत यह सतसंग सुदृढ़ धरिये।
निज अभिमान मोह इरिषा बस तिनहिं न आदरिये ॥ ४ ॥
संतत सोइ प्रिय मोहिं सदा जातें भवनिधि परिये।
कहौं अब नाथ, कौन बलतें संसार-सोग हरिये ॥ ५ ॥
जब कब निज करुना-सुभावतें, द्रवहु तौ निस्तरिये।
तुलसिदास बिस्वास आनि नहिं, कत पचि-पचि मरिये ॥ ६ ॥
१८७
ताहि तें आयो सरन सबेरें।
ग्यान बिराग भगति साधन कछु सपनेहुँ नाथ! न मेरें ॥ १ ॥
लोभ-मोह-मद-काम-क्रोध रिपु फिरत रैनि-दिन घेरें।
तिनहिं मिले मन भयो कुपथ-रत, फिरै तिहारेहि फेरें ॥ २ ॥
दोष-निलय यह बिषय सोक-प्रद कहत संत श्रुति टेरें।
जानत हूँ अनुराग तहाँ अति सो, हरि तुम्हरेहि प्रेरें ? ॥ ३ ॥
बिष पियूष सम करहु अगिनि हिम, तारि सकहु बिनु बेरें।
तुम सम ईस कृपालु परम हित पुनि न पाइहौं हेरें ॥ ४ ॥
यह जिय जानि रहौं सब तजि रघुबीर भरोसे तेरें।
तुलसिदास यह बिपति बागुरौ तुम्हहिं सों बनै निबेरें ॥ ५ ॥
१८८
मैं तोहिं अब जान्यो संसार।
बाँधि न सकहिं मोहि हरिके बल,प्रगट कपट-आगार ॥ १ ॥
देखत ही कमनीय, कछू नाहिंन पुनि किये बिचार।
ज्यों कदलीतरु-मध्य निहारत, कबहुँ न निकसत सार ॥ २।
तेरे लिये जनम अनेक मैं फिरत न पायों पार।
महामोह-मृगजल-सरिता महँ बोर् यो हौं बारहिं बार ॥ ३ ॥
सुनु खल! छल बल कोटि किये बस होहिं न भगत उदार।
सहित सहाय तहाँ बसि अब ,जेहि हृदय न नंदकुमार ॥ ४ ॥
तासों करहु चातुरी जो नहिं जानै मरम तुम्हार।
सो परि डरै मरै रजु-अहि तें, बूझै नहिं ब्यवहार ॥ ५ ॥
निज हित सुनु सठ!हठ न करहि,जो चहहि कुसल परिवार।
तुलसिदास प्रभुके दासनि तजि भजहि जहाँ मद मार ॥ ६ ॥
राग गौरी
१८९
राम कहत चलु, राम कहत चलु, राम कहत चलु भाई रे।
नाहिं तौ भव-बेगारि महँ परिहै, छूटत अति कठिनाई रे ॥ १ ॥
बाँस पुरान साज-सब अठकठ, सरल तिकोन खटोला रे।
हमहिं दिहल करि कुटिल करमचँद मंद मोल बिनु डोला रे ॥ २ ॥
बिषम कहार मार-मद-माते चलहिं न पाउँ बटोरा रे।
मंद बिलंद अभेरा दलकन पाइय दुख झकझौरा रे ॥ ३ ॥
काँट कुराय लपेटन लोटन ठावहिं ठाउँ बझाऊ रे।
जस जस चलिय दूरि तस तस निज बास न भेंट लगाऊ रे ॥ ४ ॥
मारग अगम, संग नहिं संबल,नाउँ गाउँकर भूला रे।
तुलसिदास भव त्रास हरहु अब ,होहु राम अनुकूला रे ॥ ५ ॥
१९०
सहज सनेही रामसों तैं कियो न सहज सनेह।
तातें भव-भाजन भयो,सुनु अजहुँ सिखावन एह ॥ १ ॥
ज्यों मुख मुकुर बिलोकिये अरु चित न रहै अनुहारि।
त्यों सेवतहुँ न आपने, ये मातु-पिता, सुत-नारि ॥ २ ॥
दै दै सुमन तिल बासिकै, अरु खरि परिहरि रस लेत।
स्वारथ हित भूतल भरे, मन मेचक, तन सेत ॥ ३ ॥
करि बीत्यो, अब करतु है करिबे हित मीत अपार।
कबहुँ न कोउ रघुबीर सो नेह निबाहनिहार ॥ ४ ॥
जासों सब नातों फुरै, तासों न करी पहिचानि।
तातें कछू समझ् यो नहीं, कहा लाभ कह हानि ॥ ५ ॥
साँचो जान्यो झूठको,झूठे कहँ साँचो जानि।
को न गयो, को जात है,को न जैहै करि हितहानि ॥ ६ ॥
बेद कह्यो, बुध कहत हैं, अरु हौहुँ कहत हौं टेरि।
तुलसी प्रभु साँचो हितू, तू हियकी आँखिन हेरि ॥ ७ ॥
१९१
एक सनेही साचिलो केवल कोसलपालु।
प्रेम-कनोड़ो रामसो नहिं दूसरो दयालु ॥ १ ॥
तन-साथी सब स्वारथी, सुर ब्यवहार-सुजान।
आरत-अधम-अनाथ हित को रघुबीर समान ॥ २ ॥
नाद निठूर, समचर सिखी, सलिल सनेह न सूर।
ससि सरोग, दिनकरुबड़े, पयद प्रेम-पथ कूर ॥ ३ ॥
जाको मन जासों बँध्यो, ताको सुखदायक सोइ।
सरल सील साहिब सदा सीतापति सरिस न कोइ ॥ ४ ॥
सुनि सेवा सही को करै, परिहरै को दूषन देखि।
केहि दिवान दिन दीन को आदर-अनुराग बिसेखि ॥ ५ ॥
खग-सबरी पितु-मातु ज्यों माने, कपि को किये मीत।
केवट भेंट्यों भरत ज्यो, ऐसो को कहु पतित-पुनीत ॥ ६ ॥
देह अभागहिं भागु को, को राखै सरन सभीत।
बेद-बिदित विरुदावली, कबि-कोबिद गावत गीत ॥ ७ ॥
कैसेउ पाँवर पातकी, जेहि लई नामकी ओट।
गाँठी बाँध्यो दाम तो, परख्यो न फेरि खर-खोट ॥ ८ ॥
मन मलीन, कलि किलबिषी होत सुनत जासु कृत-काज।
सो तुलसी कियो आपुनो रघुबीर गरीब-निवाज ॥ ९ ॥
१९२
जो पै जानकिनाथ सों नातो नेहु न नीच।
स्वारथ-परमारथ कहा, कलि कुटिल बिगोयो बीच ॥ १ ॥
धरम बरन आश्रमनिके पैयत पोथिही पुरान।
करतब बिनु बेष देखिये, ज्यों सरीर बिनु प्रान ॥ २ ॥
बिहित
बेद—–साधन सबै, सुनियत दायक फल चारि।
बिदित
राम प्रेम बिनु जानिबो जैसे सर-सरिता बिनु बारि ॥ ३ ॥
नाना पथ निरबानके, नाना बिधान बहु भाँति।
तुलसी तू मेरे कहे जपु राम-नाम दिन-राति ॥ ४ ॥
१९३
अजहुँ आपने रामके करतब समुझत हित होइ।
कहँ तू,कहँ कोसलधनी, तोको कहा कहत सब कोइ ॥ १ ॥
रीझि निवाज्यो कबहिं तू, कब खीझि दई तोहिं गारि।
दरपन बदन निहारिकै, सुबिचारि मान हिय हारि ॥ २ ॥
बिगरी जनम अनेककी सुधरत पल लगै न आधु।
‘पाहि कृपानिधि’ प्रेमसों कहे को न राम कियो साधु ॥ ३ ॥
बालमीकि-केवट-कथा, कपि-भील-भालु-सनमान।
सुनि सनमुख जो न रामसों, तिहि को उपदेसहि ग्यान ॥ ४ ॥
का सेवा सुग्रीवकी, का प्रीति-रीति-निरबाहु।
जासु बंधु बध्यो ब्याध ज्यों, सो सुनत सोहात न काहु ॥ ५ ॥
भजन बिभीषनको कहा, फल कहा दियो रघुराज।
राम गरीब-निवाजके बड़ी बाँह-बोलकी लाज ॥ ६ ॥
जपहि नाम रघुनाथको, चरचा दूसरी न चालु।
सुमुख,सुखद,साहिब,सुधी,समरथ,कृपालु,नतपालु ॥ ७ ॥
सजल नयन,गदगदगिरा, गहबर मन,पुलक सरीर।
गावत गुनगन रामके केहिकी न मिटी भव-भीर ॥ ८ ॥
प्रभु कृतग्य सरबस्य हैं,परिहरु पाछिली गलानि।
तुलसी तोसों रामसों कछु नई न जान-पहिचानि ॥ ९ ॥
१९४
जो अनुराग न राम सनेही सों।
तौ लह्यो लाहु कहा नर-देही सों ॥ १ ॥
जो तनु धरि, परिहरि सब सुख, भये सुमति राम-अनुरागी।
सो तनु पाइ अघाइ किये अघ, अवगुन-उदधि अभागी ॥ २ ॥
ग्यान-बिराग,जोग-जप,तप-मख,जग मुद-मग नहिं थोरे।
राम-प्रेम बिनु नेम जाय जैसे मृग-जल-जलधि-हिलोरे ॥ ३ ॥
लोक-बिलोकि, पुरान-बेदि सुनि, समुझि-बूझि गुरु-ग्यानी।
प्रीति-प्रतीति राम-पद-पंकज सकल-सुमंगल-खानी ॥ ४ ॥
अजहुँ जानि जिय, मानि हारि हिय, होइ पलक महँ नीको।
सुमिरु सनेहसहित हित रामहिं, मानु मतो तुलसीको ॥ ५ ॥
१९५
बलि जाउँ हौं राम गुसाईं।कीजे कृपा आपनी नाईं ॥ १ ॥
परमारथ सुरपुर-साधन सब स्वारथ सुखद भलाई।
कलि सकोप लोपी सुचाल, निज कठिन कुचाल चलाई ॥ २ ॥
जहँ जहँ चित चितवत हित, तहँ नित नव बिषाद अधिकाई।
रुचि-भावती भभरि भागहि, समुहाहिं अमित अनभाई ॥ ३ ॥
आधि-मगन मन, ब्याधि-बिकल तन,बचन मलीन झुठाई।
एतेहुँ पर तुमसों तुलसीकी प्रभु सकल सनेह सगाई ॥ ४ ॥
१९६
काहेको फिरत मन, करत बहु जतन,
मिटै न दुख बिमुख रघुकुल-बीर।
कीजै जो कोटि उपाइ,त्रिबिध ताप न जाइ,
कह्यो जो भुज उठाय मुनिबर कीर ॥ १ ॥
सहज टेव बिसारि तुही धौं देखु बिचारि,
मिलै न मथत बारि घृत बिनु छीर।
समुझि तजहि भ्रम, भजहि पद-जुगम,
सेवत सुगम, गुन गहन गंभीर ॥ २ ॥
आगम निगम ग्रंथ, रिषि-मुनि, सुर-संत,
सब ही को एक मत सुनु, मतिधीर।
तुलसिदास प्रभु बिनु पियास मरै पसु,
जद्यपि है निकट सुरसरि-तीर ॥ ३ ॥
१९७
नाहिन चरन-रति ताहि तें सहौं बिपति,
कहत श्रुति सकल मुनि मतिधीर।
बसै जो ससि-उछंग सुधा-स्वादित कुरंग,
ताहि क्यों भ्रम निरखि रबिकर-नीर ॥ १ ॥
सुनिय नाना पुरान, मिटत नाहिं अग्यान,
पढ़िय न समुझिय जिमि खग कीर।
बँधत बिनहिं पास सेमर-सुमन-आस,
करत चरत तेइ फल बिनु हीर ॥ २ ॥
कछु न साधन-सिधि, जानौं न निगम-बिधि,
नहिं जप-तप, बस मन, न समीर।
तुलसिदास भरोस परम करुना-कोस,
प्रभु हरिहैं बिषम भवभीर ॥ ३ ॥
राग भैरवी
१९८
मन पछितैहै अवसर बीते।
दुरलभ देह पाइ हरिपद भजु, करम, बचन अरु ही ते ॥ १ ॥
सहसबाहु दसबदन आदि नृप बचे न काल बलीते।
हम-हम करि धन-धाम सँवारे, अंत चले उठि रीते ॥ २ ॥
सुत बनितादि जानि स्वारथरत, न करु नेह सबही ते।
अंतहु तोहिं तजैंगे पामर! तू न तजै अबही ते ॥ ३ ॥
अब नाथहिं अनुरागु, जागु जड़, त्यागु दुरासा जी ते।
न
बुझे—-काम अगिनि तुलसी कहुँ, बिषय-भोग बहु घी ते ॥ ४ ॥
कि
१९९
काहे को फिरत मूढ़ मन धायो।
तजि हरि-चरन-सरोज सुधारस, रबिकर-जल लय लायो ॥ १ ॥
त्रिजग देव नर असुर अपर जग जोनि सकल भ्रमि आयो।
गृह बनिता, सुत, बंधु भये बहु, मातु-पिता जिन्ह जायो ॥ २ ॥
जाते निरय-निकाय निरंतर, सोइ इन्ह तोहि सिखायो।
तुव हित होइ, कटै भव-बंधन, सो मगु तोहि न बतायो ॥ ३ ॥
अजहुँ बिषय कहँ जतन करत, जद्यपि बहुबिधि डहँकायो।
पावक-काम भोग-घृत तें सठ, कैसे परत बुझायौ ॥ ४ ॥
बिषयहीन दुख, मिले बिपति अति, सुख सपनेहुँ नहिं पायो।
उभय प्रकार प्रेत-पावक ज्यों धन दुखप्रद श्रुति गायो ॥ ५ ॥
छिन-छिन छीन होत जीवन, दुरलभ तनु बृथा गँवायो।
तुलसिदास हरि भजहि आस तजि, काल -उरग जग खायो ॥ ६ ॥
२००
ताँबे सो पीठि मनहुँ तन पायो।
नीच,मीच जानत न सीस पर, ईस निपट बिसरायो ॥ १ ॥
अवनि रवनि, धन-धाम, सुहृद-सुत, को न इन्हहिं अपनायो ?
काके भये, गये सँग काके, सब सनेह छल-छायो ॥ २ ॥
जिन्ह भूपनि जग-जीति, बाँधि जम, अपनी बाँह बसायो।
तेऊ काल कलेऊ कीन्हे, तू गिनती कब आयो ॥ ३ ॥
देखु बिचारि, सार का साँचो,कहा निगम निजु गायो।
भजिहिं न अजहुँ समुझि तुलसी तेहि,जेहि महेस मन लायो ॥ ४ ॥
२०१
लाभ कहा मानुष-तनु पाये।
काय-बचन-मन सपनेहुँ कबहुँक घटत न काज पराये ॥ १ ॥
जो सुख सुरपुर-नरक, गेह-बन आवत बिनहिं बुलाये।
तेहि सुख कहँ बहु जतन करत मन, समुझत नहिं समुझाये ॥ २ ॥
पर-दारा, परद्रोह, मोहबस किये मूढ़ मन भाये।
गरभबास दुखरासि जातना तीब्र बिपति बिसराये ॥ ३ ॥
भय-निद्रा, मैथुन-अहार, सबके समान जग जाये।
सुर-दुरलभ तनु धरि न भजे हरि मद अभिमान गवाँये ॥ ४ ॥
गई न निज-पर-बुद्धि सुद्ध ह्वे रहे न राम-लय लाये।
तुलसिदास यह अवसर बीते का पुनि के पछिताये ॥ ५ ॥
२०२
काजु कहा नरतनु धरि सार् यो।
पर-उपकार सार श्रुतिको जो, सो धोखेहु न बिचार् यो ॥ १ ॥
द्वैत मूल, भय-सूल, सोक-फल, भवतरु टरै न टार् यौ।
रामभजन-तीछन कुठार लै सो नहिं काटि निवार् यो ॥ २ ॥
संसय-सिंधु नाम बोहित भजि निज आतमा न तार् यो।
जनम अनेक विवेकहीन बहु जोनि भ्रमत नहिं हार् यो ॥ ३ ॥
देखि आनकि सहज संपदा द्वेष-अनल मन-जार् यो।
सम,दम,दया,दीन-पालन, सीतल हिय हरि न सँभार् यो ॥ ४ ॥
प्रभु गुरु पिता सखा रघुपति तैं मन क्रम बचन बिसार् यो।
तुलसिदास यहि आस, सरन राखिहि जेहि गीध उधार् यो ॥ ५ ॥
२०३
श्रीहरि-गुरु-पद-कमल भजहु मन तजि अभिमान।
जेहि सेवत पाइय हरि सुख-निधान भगवान ॥ १ ॥
परिवा प्रथम प्रेम बिनु राम-मिलन अति दूरि।
जद्यपि निकट हृदय निज रहे सकल भरिपूरि ॥ २ ॥
दुइज द्वेत-मति छाड़ि चरहि महि-मंडल धीर।
बिगत मोह-माया-मद हृदय बसत रघुबीर ॥ ३ ॥
तीज त्रिगुन-पर परम पुरुष श्रीरमन मुकुंद।
गुन सुभाव त्यागे बिनु दुरलभ परमानंद ॥ ४ ॥
चौथि चारि परिहरहु बुद्धि-मन-चित-अहंकार।
बिमल बिचार परमपद निज सुख सहज उदार ॥ ५ ॥
पाँचइ पाँच परस,रस,सब्द,गंध अरु रूप।
इन्ह कर कहा न कीजिये, बहुरि परब भव-कूप ॥ ६ ॥
छठ षटबरग करिय जय जनकसुता-पति लागि।
रघुपति-कृपा-बारि बिनु नहीं बुताइ लोभागि ॥ ७ ॥
सातैं सप्तधातु-निरमित तनु करिय बिचार।
तेहि तनु केर एक फल, कीजै पर-उपकार ॥ ८ ॥
आठइँ आठ प्रकृति-पर निरबिकार श्रीराम।
केहि प्रकार पाइय हरि, हृदय बसहिं बहु काम ॥ ९ ॥
नवमी नवद्वार-पुर बसि जेहि न आपु भल कीन्ह।
ते नर जोनि अनेक भ्रमत दारून दुख लीन्ह ॥ १० ॥
दसइँ दसहु कर संजम जो न करिय जिय जानि।
साधन बृथा होइ सब मिलहिं न सारंगपानि।११ ॥
एकादसी एक मन बस कै सेवहु जाइ।
सोइ ब्रत कर फल पावै आवागमन नसाइ ॥ १२ ॥
द्वादसि दान देहु अस, अभय होइ त्रेलोक।
परहित-निरत सो पारन बहुरि न ब्यापत सोक ॥ १३ ॥
तेरसि तीन अवस्था तजहु, भजहु भगवंत।
मन-क्रम-बचन-अगोचर, ब्यापक, ब्याप्य, अनंत ॥ १४ ॥
चौदसि चौदह भुवन अचर-चर-रूप गोपाल।
भेद गये बिनु रघुपति अति न हरहिं जग-जाल ॥ १५ ॥
पूनों प्रेम-भगति-रस हरि-रस जानहिं दास।
सम, सीतल, गत-मान, ग्यानरत, बिषय-उदास ॥ १६ ॥
त्रिबिध सूल होलिय जरे, खेलिय अब फागु।
जो जिय चहसि परमसुख, तौ यहि मारग लागु ॥ १७ ॥
श्रुति-पुरान-बुध-संमत चाँचरि चरित मुरारि।
करि बिचार भव तरिय, परिय न कबहुँ जमधारि ॥ १८ ॥
संसय-समन, दमन दुख, सुखनिधान हरि एक।
साधु-कृपा बिनु मिलहिं न, करिय उपाय अनेक ॥ १९ ॥
भव सागर कहँ नाव सुद्ध संतनके चरन।
तुलसिदास प्रयास बिनु मिलहिं राम दुखहरन ॥ २० ॥
राग कान्हरा
२०४
जो मन लागै रामचरन अस।
देह-गेह-सुत-बित-कलत्र महँ मगन होत बिनु जतन किये जस ॥ १ ॥
द्वंद्वरहित, गतमान, ग्यानरत, बिषय-बिरत खटाइ नाना कस।
सुखनिधान सुजान कोसलपति ह्वे प्रसन्न, कहु, क्यों न होंहि बस ॥ २ ॥
सर्वभूत-हित, निर्ब्यलीक चित, भगति-प्रेम दृढ़ नेम, एकरस।
तुलसिदास यह होइ तबहिं जब द्रवै ईस, जेहि हतो सीसदस ॥ ३ ॥
२०५
जो मन भज्यो चहै हरि-सुरतरु।
तौ तज बिषय-बिकार, सार भज, अजहूँ जो मैं कहौं सोइ करु ॥ १ ॥
सम,संतोष, बिचार बिमल अति, सतसंगति,यर चारि दृढ़ करि धरु।
काम- क्रोध अरु लोभ-मोह-मद, राग-द्वेष निसेष करि परिहरु ॥ २ ॥
श्रवन कथा, मुख नाम, हृदय हरि, सिर प्रनाम, सेवा कर अनुसरु।
नयननि निरखि कृपा-समुद्र हरि अग-जग-रूप भूप सीताबरु ॥ ३ ॥
इहै भगति, बैराग्य-ग्यान यह, हरि-तोषन यह सुभ ब्रत आचरु।
तुलसिदास सिव-मत मारग यहि चलत सदा सपनेहुँ नाहिंन डरु ॥ ४ ॥
२०६
नाहिन और कोउ सरन लायक दूजो श्रीरघुपति-सम बिपति-निवारन।
काको सहज सुभाउ सेवकबस, काहि प्रनत परप्रीति अकारन ॥ १ ॥
जन-गुन अलप गनत सुमेरु करि, अवगुन कोटि बिलोकि बिसारन।
परम कृपालु, भगत-चिंतामनि,बिरद पुनीत, पतितजन-तारन ॥ २ ॥
सुमिरत सुलभ,दास-दुख हरि चलत तुरत, पटपीत सँभार न।
साखि पुरान-निगम-अगम सब, जानत द्रुपद-सुता अरु बारन ॥ ३ ॥
जाको जस गावत कबि-कोबिद, जिन्हके लोभ-मोह,मद-मार न।
तुलसिदास तजि आस सकल भजु, कोसलपति मुनिबधू-उधारन ॥ ४ ॥
२०७
भजिबे लायक, सुखदायक रघुनायक सरिस सरनप्रद दूजो नाहिन।
आनँदभवन, दुखदवन, सोकसमन रमारमन गुन गनत सिराहिं न ॥ १ ॥
आरत, अधम, कुजाति, कुटिल, खल, पतित, सभीत कहुँ जे समाहिं न।
सुमिरत नाम बिबसहूँ बारक पावत सो पद, जहाँ सुर जाहिं न ॥ २ ॥
जाके पद-कमल लुब्ध मुनि-मधुकर, बिरत जे परम सुगतिहु लुभाहिं न।
तुलसिदास सठ तेहि न भजसि कस, कारुनिक जो अनाथहिं दाहिन ॥ ३ ॥
राग कल्याण
२०८
नाथ सों कौन बिनती कहि सुनावौं।
त्रिबिध बिधि अमित अवलोकि अघ आपने,
सरन सनमुख होत सकुचि सिर नावौं ॥ १ ॥
बिरचि हरिभगतिको बेष बर टाटिका,
कपट-दल हरित पल्लवनि छावौं।
नामलगि लाइ लासा ललित-बचन कहि,
ब्याध ज्यों बिषय-बिहँगनि बझावौं ॥ २ ॥
कुटिल सतकोटि मेरे रोमपर वारियहि,
साधु गनतीमें पहलेहि गनावौं।
परम बर्बर खर्ब गर्ब-पर्बत चढ्यो,
अग्य सर्बग्य,जन-मनि जनावौं ॥ ३।
साँच किधौं झूठ मोको कहत कोउ-
कोउ राम! रावरो, हौं तुम्हरो कहावौं।
बिरदकी लाज करि दास तुलसिहिं देव!
लेहु अपनाइ अब देहु जनि बावौ ॥ ४ ॥
२०९
नाहिनै नाथ! अवलंब मोहि आनकी।
करम-मन-बचन पन सत्य करुनानिधे!
एक। गति राम! भवदीय पदत्रानकी ॥ १ ॥
कोह-मद-मोह-ममतायतन जानि मन,
बात नहि जाति कहि ग्यान-बिग्यानकी।
काम-संकलप उर निरखि बहु बासनहिं,
आस नहिं एकहू आँक निरबानकी ॥ २ ॥
बेद-बोधित करम धरम बिनु अगम अति,
जदपि जिय लालसा अमरपुर जानकी।
सिद्ध-सुर-मनुज दनुजादिसेवत कठिन,
द्रवहिं हठजोग दिये भोग बलि प्रानकी ॥ ३ ॥
भगति दुरलभ परम, संभु-सुक-मुनि-मधुप,
प्यास पदकंज-मकरंद-मधुपानकी।
पतित-पावन सुनत नाम बिस्रामकृत,
भ्रमित पुनि समझि चित ग्रंथि अभिमानकी ॥ ४ ॥
नरक-अधिकार मम घोर संसार-तम-
कूपकहीं, भूप! मोहि सक्ति आपानकी।
दासतुलसी सोउ त्रास नहि गनत मन,
सुमिरि गुह गीध गज ग्याति हनुमानकी ॥ ५ ॥
२१०
औरु कहँ ठौरु रघुबंस-मनि! मेरे।
पतित-पावन प्रनत-पाल असरन-सरन,
बाँकुरे बिरुद बिरुदैत केहि केरे ॥ १ ॥
समुझि जिय दोस अति रोस करि राम जो,
करत नहिं कान बिनती बदन फेरे।
तदपि ह्वे निडर हौं कहौं करुना-सिंधु,
क्योंऽब रहि जात सुनि बात बिनु हेरे ॥ २ ॥
मुख्य रुचि बसिबेकी पुर रावरे,
राम! तेहि रुचिहि कामादि गन घेरे।
अगम अपबरग, अरु सरग सुकृतैकफल,
नाम-बल क्यों बसौं जम-नगर नेरे ॥ ३ ॥
कतहुँ नहिं ठाउँ, कहँ जाउँ कोसलनाथ!
दीन बितहीन हौं, बिकल बिनु डेरे।
दास तुलसिहि बास देहु अब करि कृपा,
बसत गज गीध ब्याधादि जेहि खेरे ॥ ४ ॥
२११
कबहुँ रघुबंसमनि ! सो कृपा करहुगे।
जेहि कृपा ब्याध, गज, बिप्र, खल नर तरे,
तिन्हहि सम मानि मोहि नाथ उद्धरहुगे ॥ १ ॥
जोनि बहु जनमि किये करम खल बिबिध बिधि,
अधम आचरन कछु हृदय नहि धरहुगे।
दीनहित! अजित सरबग्य समरथ प्रनतपालि,
चित मृदुल निज गुननि अनुसरहुगे ॥ २ ॥
मोह-मद-मान-कामादि खलमंडली,
सकुल निरमूल करि दुसह दुख हरहुगे।
जोग-जप-जग्य-बिग्यान ते अधिक अति,
अमल दृढ़ भगति दै परम सुख भरहुगे ॥ ३ ॥
मंदजन-मौलिमनि सकल, साधनहीन,
कुटिल मन, मलिन जिय जानि जो डरहुगे।
दासतुलसी बेद-बिदित बिरुदावली,
बिमल जस नाथ! केहि भाँति बिस्तरहुगे ॥ ४ ॥
राग केदारा
२१२
रघुपति बिपति-दवन।
परम कृपालु, प्रनत-प्रतिपालक, पतित-पावन ॥ १ ॥
कूर, कुटिल, कुलहीन,दीन,अति मलिन जवन।
सुमिरत नाम राम पठये सब अपने भवन ॥ २ ॥
गज-पिंगला-अजामिल-से खल गनै धौं कवन।
तुलसिदास प्रभु केहि न दीन्हि गति जानकी-रवन ॥ ३ ॥
२१३
हरि-सम आपदा-हरन।
नहि कोउ सहज कृपालु दुसह दुख-सागर-तरन ॥ १ ॥
गज निज बल अवलोकि कमल गहि गयो सरन।
दीन बचन सुनि चले गरुड़ तजि सुनाभ-धरन ॥ २ ॥
द्रुपदसुताको लग्यो दुसासन नगन करन।
‘हा हरि पाहि’ कहत पूरे पट बिबिध बरन ॥ ३ ॥
इहे जानि सुर-नर-मुनि-कोबिद सेवत चरन।
तुलसिदास प्रभु को न अभय कियो नृग-उद्धरन ॥ ४ ॥
राग कल्यान
२१४
ऐसी कौन प्रभुकी रीति ?
बिरद हेतु पुनीत परिहरि पाँवरनि पर प्रीति ॥ १ ॥
गई मारन पूतना कुच कालकूट लगाई।
मातुकी गति दई ताहि कृपालु जादवराइ ॥ २ ॥
काममोहित गोपिकनिपर कृपा अतुलित कीन्ह।
जगत-पिता बिरंचि जिन्हके चरनकी रज लीन्ह ॥ ३ ॥
नेमतें सिसुपाल दिन प्रति देत गनि गनि गारि।
कियो लीन सु आपमें हरि राज-सभा मँझारि ॥ ४ ॥
ब्याध चित दै चरन मार् यो मूढ़मति मृग जानि।
सो सदेह स्वलोक पठयो प्रगट करि निज बानि ॥ ५ ॥
कौन तिन्हकी कहै जिन्हके सुकृत अरु अघ दोउ।
प्रगट पातकरूप तुलसी सरन राख्यो सोउ ॥ ६ ॥
२१५
श्रीरघुबीरकी यह बानि।
नीचहू सों करत नेह सुप्रीति मन अनुमानि ॥ १ ॥
परम अधम निषाद पाँवर, कौन ताकी कानि ?
लियो सो उर लाइ सुत ज्यौं प्रेमको पहिचानि ॥ २ ॥
गीध कौन दयालु, जो बिधि रच्यो हिंसा सानि ?
जनक ज्यों रघुनाथ ताकहँ दियो जल निज पानि ॥ ३ ॥
प्रकृति-मलिन कुजाति सबरी सकल अवगुन-खानि।
खात ताके दिये फल अति रुचि बखानि बखानि ॥ ४ ॥
रजनिचर अरु रिपु बिभीषन सरन आयो जानि।
भरत ज्यों उठि ताहि भैंटत देह-दसा भुलानि ॥ ५ ॥
कौन सुभग सुसील बानर, जिनहिं सुमिरत हानि।
किये ते सब सखा, पूजे भवन अपने आनि ॥ ६ ॥
राम सहज कृपालु कोमल दीनहित दिनदानि।
भजहि ऐसे प्षभुहि तुलसी कुटिल कपट न ठानि ॥ ७ ॥
२१६
हरि तज और भजिये काहि ?
नाहिनै कोउ राम सो ममता प्रनतपर जाहि ॥ १ ॥
कनककसिपु बिरंचिको जन करम मन अरु बात।
सुतहिं दुखवत बिधि न बरज्यो कालके घर जात ॥ २ ॥
संभु-सेवक जान जग, बहु बार दिये दस सीस।
करत राम-बिरोध सो सपनेहु न हटक्यो ईस ॥ ३ ॥
और देवनकी कहा कहौं, स्वारथहिके मीत।
कबहु काहु न राख लियो कोउ सरन गयउ सभीत ॥ ४ ॥
को न सेवत देत संपति लोकहू यह रीति।
दासतुलसी दीनपर एक राम ही की प्रीति ॥ ५ ॥
२१७
जो पै दूसरो कोउ होइ।
तौ हौं बारहि बार प्रभु कत दुख सुनावौं रोइ ॥ १ ॥
काहि ममता दीनपर, काको पतितपावन नाम।
पापमूल अजामिलहि केहि दियो अपनो धाम ॥ २ ॥
रहे संभु बिरंचि सुरपति लोकपाल अनेक।
सोक-सरि बूड़त करीसहि दई काहु न टेक ॥ ३ ॥
बिपुल-भूपति-सदहि महँ नर-नारि कह्यो ‘प्रभु पाहि’।
सकल समरथ रहे, काहु न बसन दीन्हों ताहि ॥ ४ ॥
एक मुख क्यों कहौं करुनासिंधुके गुन-गाथ ?
भक्तहित धरि देह काह न कियो कोसलनाथ! ॥ ५ ॥
आपसे कहुँ सौंपिये मोहि जो पै अतिहि घिनात।
दासतुलसी और बिधि क्यों चरन परिहरि जात ॥ ६ ॥
२१८
कबहि देखाइहौ हरि चरन।
समन सकल कलेस कलि-मल ,सकल मंगल- करन ॥ १ ॥
सरद-भव सुंदर तरुनतर अरुन-बारिज-बरन।
लच्छि-लालित-ललित करतल छबि अनूपम धरन ॥ २ ॥
गंग-जनक अनंग-अरि-प्रिय कपट-बटु बलि-छरन।
बिप्रतिय नृग बधिकके दुख-दोस दारुन दरन ॥ ३।
सिद्ध-सुर-मुनि-बृंद-बंदित सुखद सब कहँ सरन।
सकृत उर आनत जिनहिं जन होत तारन-तरन ॥ ४ ॥
कृपासिंधु सुजान रघुबर प्रनत-आरति-हरन।
दरस-आस-पियास तुलसीदास चाहत मरन ॥ ५ ॥
२१९
द्वार हौं भोर ही को आजु।
रटत रिरिहा आरि और न, कौर ही तें काजु ॥ १ ॥
कलि कराल दुकाल दारुन, सब कुभाँति कुसाजु।
नीच जन, मन ऊँच जैसी कोढँमेंकी खाजु ॥ २ ॥
हहरि हियमें सदय बूझ्यो जाइ साधु-समाजु।
मोहुसे कहुँ कतहुँ कोउ, तिन्ह कह्यो कोसलराजु ॥ ३ ॥
दीनता-दारिद दलै को कृपाबारिधि बाजु।
दानि दसरथरायके, तू बानइत सिरताजु ॥ ४ ॥
जनमको भूखो भिखारी हौं गरीबनिवाजु।
पेट भरि तुलसिहि जेंवाइय भगति-सुधा सुनाजु ॥ ५ ॥
२२०
करिय सँभार, कोसलराय!
और ठौर न और गति, अवलंब नाम बिहाय ॥ १ ॥
बूझि अपनी आपनो हितु आप बाप न माय।
राम! राउर नाम गुर,सुर,स्वामि,सखा,सहाय ॥ २ ॥
रामराज न चले मानस-मलिनके छल छाय।
कोप तेहि कलिकाल कायर मुएहि घालत घाय ॥ ३ ॥
लेत केहरिको बयर ज्यों भैक हनि गोमाय।
त्योंहि राम-गुलाम जानि निकाम देत कुदाय ॥ ४ ॥
अकनि याके कपट-करतब, अमित अनय-अपाय।
सुखि हरिपुर बसत होत परीछितहि पछिताय ॥ ५ ॥
कृपासिंधु! बिलोकिये, जन-मनकी साँसति साय।
सरन आयो, देव! दीनदयालु! देखन पाय ॥ ६ ॥
निकट बोलि न बरजिये, बलि जाउँ, हनिय न हाय।
देखिहैं हनुमान गोमुख नाहरनिके न्याय ॥ ७ ॥
अरुन मुख, भ्रू बिकट, पिंगल नयन रोष-कषाय।
बीर सुमिरि समीरको घटिहै चपल चित चाय ॥ ८ ॥
बिनय सुनि बिहँसे अनुजसों बचनके कहि भाय।
‘भली कही’ कह्यो लषन हूँ हँसि,बने सकल बनाय ॥ ९ ॥
दई दीनहिं दादि, सो सुनि सुजन-सदन बधाय।
मिटे संकट-सोच, पोच-प्रपंच, पाप-निकाय ॥ १० ॥
पेखि प्रीति-प्रतीति जनपर अगुन अनघ अमाय।
दासतुलसी कहत मुनिगन,’जयति जय उरुगाय’ ॥ ११ ॥
२२१
नाथ! कृपाहीको पंथ चितवत दीन हौं दिनराति।
होइ धौं केहि काल दीनदयालु! जानि न जाति ॥ १ ॥
सुगुन, ग्यान-बिराग-भगति, सु-साधननिकी पाँति।
भजे बिकल बिलोकि कलि अघ-अवगुननिकी थाति ॥ २ ॥
अति अनीति-कुरीति भइ भुइँ तरनि हू ते ताति।
जाउँ कहँ ? बलि जाउँ, कहूँ न ठाउँ, मति अकुलाति ॥ ३ ॥
आप सहित न आपनो कोउ, बाप! कठिन कुभाँति।
स्यामघन! सींचिये तुलसी, सालि सफल सुखाति ॥ ४ ॥
२२२
बलि जाउँ, और कासों कहौं ?
सदगुनसिंधु स्वामि सेवक-हित कहुँ न कृपानिधि-सो लहौं ॥ १ ॥
जहँ जहँ लोभ लोल लालचबस निजहित चित चाहनि चहौं।
तहँ तहँ तरनि तकत उलूक ज्यों भटकि कुतरु-कोटर गहौं ॥ २ ॥
काल-सुभाउ-करम बिचित्र फलदायक सुनि सिर धुनि रहौं।
मोको तौ सकल सदा एकहि रस दुसह दाह दारुन दहौं ॥ ३ ॥
उचित अनाथ होइ दुखभाजन भयो नाथ! किंकर न हौं।
अब रावरो कहाइ न बूझिये, सरनपाल! साँसति सहौं ॥ ४ ॥
महाराज! राजीवबिलोचन! मगन-पाप-संताप हौं।
तुलसी प्रभु!जब तब जेहि तेहि बिधि राम निरबहौं ॥ ५ ॥
२२३
आपनो कबहुँ करि जानिहौ।
राम गरीबनिवाज राजमनि, बिरद-लाज उर आनिहौ ॥ १ ॥
सील-सिंधु,सुंदर,सब लायक,समरथ, सदगुन-खानि हौ।
पाल्यो है,पालत,पालहुगे प्रभु, प्रनत-प्रेम पहिचानिहौ ॥ २ ॥
बेद-पुरान कहत,जग जानत, दीनदयालु दिन-दानि हौ।
कहि आवत, बलि जाऊँ,मनहुँ मेरी बार बिसारे बानि हौ ॥ ३ ॥
आरत-दीन-अनाथनिके हित मानत लौकिक कानि हौ।
है परिनाम भलो तुलसीको सरनागत-भय-भानि हौ ॥ ४ ॥
२२४
रघुबरहि कबहुँ मन लागिहै ?
कुपथ,कुचाल,कुमति,कुमनोरथ, कुटिल कपट कब त्यागिहै ॥ १ ॥
जानत गरल अमिय बिमोहबस, अमिय गनत करि आगिहै।
उलटी रीति-प्रीति अपनेकी तजि प्रभुपद अनुरागिहै ॥ २ ॥
आखर अरथ मंजु मृदु मोदक राम-प्रेम-पगि पागिहै।
ऐसे गुन गाइ रिझाइ स्वामिसों पाइहै जो मुँह माँगिहै ॥ ३ ॥
तू यहि बिधि सुख-सयन सोइहै,जियकी जरनि भूरि भागिहै।
राम-प्रसाद दासतुलसी उर राम-भगति-जोग जागिहै ॥ ४ ॥
२२५
भरोसो और आइहै उर ताके।
कै कहुँ लहै जो रामहि-सो साहिब, कै अपनो बल जाके ॥ १ ॥
के कलिकाल कराल न सूझत, मोह-मार-मद छाके।
कै सुनि स्वामि-सुभाउ न रह्यो चित, जो हित सब अँग थाके ॥ २ ॥
हौं जानत भलिभाँति अपनपौ, प्रभु-सो सुन्यो न साके।
उपल,भील,खग,मृग रजनीचर, भले भये करतब काके ॥ ३ ॥
मोको भलो राम-नाम सुरतरु-सो, रामप्रसाद कृपालु कृपाके।
तुलसी सुखी निसोच राज ज्यों बालक माय-बबाके ॥ ४ ॥
२२६
भरोसो जाहि दूसरो सो करो।
मोको तो रामको नाम कलपतरु कलि कल्यान फरो ॥ १ ॥
करम उपासन,ग्यान,बेदमत, सो सब भाँति खरो।
मोहि तो ‘सावनके अंधहि’ ज्यों सूझत रंग हरों ॥ २ ॥
चाटत रह्यो स्वान पातरि ज्यों कबहुँ न पेट भरो।
सो हौं सुमिरत नाम-सुधारस पेखत परुसि धरो ॥ ३ ॥
स्वारथ औ परमारथ हू को नहि कुंजरो-नरो।
सुनियत सेतु पयोध पषाननि करि कपि कटक-तरो ॥ ४ ॥
प्रीति-प्रतीति जहाँ जाकी, तहँ ताको काज सरो।
मेरे तो माय-बाप दोउ आखर हौं सिसु-अरनि अरो ॥ ५ ॥
संकर साखि जो राखि कहौं कछु तौ जरि जीह गरो।
अपनो भलो राम-नामहि ते तुलसिहि समुझि परो ॥ ६ ॥
२२७
नाम राम रावरोई हित मेरे।
स्वारथ-परमारथ साथिन्ह सों भुज उठाइ कहौं टेरे ॥ १ ॥
जननि-जनक तज्यो जनमि, करम बिनु बिधिहु सृज्यो अवडेरे।
मोहुँसो कोउ-कोउ कहत रामहि को, सो प्रसंग केहि केरे ॥ ३२ ॥
फिर् यौ ललात बिनु नाम उदर लगि, दुखउ दुखित मोहि हेरे।
नाम-प्रसाद लहत रसाल फल अब हौं बबुर बहेरे ॥ ३ ॥
साधत साधु लोक-परलोकहि,सुनि गुनि जतन घनेरे।
तुलसीके अवलंब नामको, एक गाँठि कइ फेरे ॥ ४ ॥
२२८
प्रिय रामनामतें जाहि न रामो।
ताको भलो कठिन कलिकालहुँ आदि-मध्य-परिनामो ॥ १ ॥
सकुचत समुझि नाम-महिमा मद-लोभ-मोह-कोह-कामो।
राम-नाम-जप-निरत सुजन पर करत छाँह घोर घामो ॥ २ ॥
नाम-प्रभाउ सही जो कहै कोउ सिला सरोरुह जामो।
जो सुनि सुमिरि भाग-भाजन भइ सुकृतसील भील-भामो ॥ ३ ॥
बालमीकि-अजामिलके कछु हुतो न साधन सामो।
उलटे पलटे नाम-महातम गुंजनि जितो ललामो ॥ ४ ॥
रामतें अधिक नाम-करतब, जेहि किये नगर-गत गामो।
भये बजाइ दाहिने जो जपि तुलसिदाससे बामो ॥ ५ ॥
२२९
गरैगी जीह जो कहौं औरको हौं।
जानकी-जीवन! जनम-जनम जग ज्यायो तिहारेहि कौरको हौं ॥ १ ॥
तीनि लोक, तिहुँ काल न देखत सुहृद रावरे जोरको हौं।
तुमसों कपट करि कलप-कलप कृमि ह्वेहौं नरक घोरको हौं ॥ २ ॥
कहा भयो जो मन मिलि कलिकालहिं कियो भौंतुवा भौंरको हौं।
तुलसिदास सीतल नित यहि बल, बड़े ठेकाने ठौरको हौं ॥ ३ ॥
२३०
अकारन को हितू और को है।
बिरद ‘गरीब-निवाज’ कौनको, भौंह जासु जन जोहै ॥ १ ॥
छोटो-बड़ो चहत सब स्वारथ, जो बिरंचि बिरचो है।
कोल कुटिल, कपि-भालु पालिबो कौन कृपालुहि सोहै ॥ २ ॥
काको नाम अनख आलस कहें अघ अवगुननि बिछोहै।
को तुलसीसे कुसेवक संग्रह्यो, सठ सब दिन साईं द्रोहै ॥ ३ ॥
२३१
और मोहि को है, काहि कहिहौं ?
रंक-राज ज्यों मनको मनोरथ, केहि सुनाइ सुख लहिहौं ॥ १ ॥
जम-जातना,जोनि-संकट सब सहे दुसह अरु सहिहौं।
मोको अगम,सुगम तुमको प्रभु, तउ फल चारि न चहिहौं ॥ २ ॥
खेलिबेको खग-मृग,तरु-कंकर है रावरो राम हौं रहिहौं।
यहि नाते नरकहुँ सचु या बिनु परमपदहुँ दुख दहिहौं ॥ ३ ॥
इतनी जिय लालसा दासके, कहत पानही गहिहौं।
दीजै बचन कि हृदय आनिये ‘तुलसिको पन निर्बहिहौ’ ॥ ४ ॥
२३२
दीनबंधु दूसरो कहँ पावो ?
को तुम बिनु पर-पीर पाइ है ? केहि दीनता सुनावों ॥ १ ॥
प्रभु अकृपालु,कृपालु अलायक, जहँ-जहँ चितहिं डोलावों।
इहै समुझि सुनि रहौं मौन ही, कहि भ्रम कहा गवावों ॥ २ ॥
गोपद बुड़िबे जोग करम करौं, बातनि जलधि थहावों।
अति लालची,काम-किंकर मन, मुख रावरो कहावों ॥ ३ ॥
तुलसी प्रभु जियकी जानत सब, अपनो कछुक जनावों।
सो कीजै,जेहि भाँति छाँडि छल द्वार परो गुन गावों ॥ ४ ॥
२३३
मनोरथ मनको एकै भाँति।
चाहत मुनि-मन-अगम सुकृत-फल, मनसा अघ न अघाति ॥ १ ॥
करमभूमि कलि जनम,कुसंगति, मति बिमोह-मद-माति।
करत कुजोग कोटि, कयों पैयत परमारथ-पद सांति ॥ २ ॥
सेइ साधु-गुरु,सुनि पुरान-श्रुति बूझ्यो राग बाजी ताँति।
तुलसी प्रभु सुभाउ सुरतरु-सो, ज्यों दरपन मुख-कांति ॥ ३ ॥
२३४
जनम गयो बादिहिं बर बीति।
परमारथ पाले न पर् यो कछु, अनुदिन अधिक अनीति ॥ १ ॥
खेलत खात लरिकपन गो चलि, जौबन जुवतिन लियो जीति।
रोग-बियोग-सोग-श्रम-संकुल बड़ि बय बृथहि अतीति ॥ २ ॥
राग-रोष-इरिषा-बिमोह-बस रुची न साधु-समीति।
कहे न सुने गुनगन रघुबरके, भइ न रामपद-प्रीति ॥ ३ ॥
हृदय दहत पछिताय-अनल अब, सुनत दुसह भवभीति।
तुलसी प्रभु तें होइ सो कीजिय समुझि बिरदकी रीति ॥ ४ ॥
२३५
ऐसेहि जनम-समूह सिराने।
प्राननाथ रघुनाथ-से प्रभु तजि सेवत चरन बिराने ॥ १ ॥
जे जड जीव कुटिल,कायर,खल, केवल कलिमल-साने।
सूखत बदन प्रसंसत तिन्ह कहँ, हरितें अधिक करि माने ॥ २ ॥
सुख हित कोटि उपाय निरंतर करत न पायँ पिराने।
सदा मलीन पंथके जल ज्यो, कबहुँ न हृदय थिराने ॥ ३ ॥
यह दीनता दूर करिबेको अमित जतन उर आने।
तुलसी चित-चिंता न मिटै बिनु चिंतामनि पहिचाने ॥ ४ ॥
२३६
जो पै जिय जानकी-नाथ न जाने।
तौ सब करम-धरम श्रमदायक ऐसेइ कहत सयाने ॥ १ ॥
जे सुर, सिद्ध,मुनीस, जोगबिद बेद-पुरान बखाने।
पूजा लेत,देत पलटे सुख हानि-लाभ अनुमाने ॥ २ ॥
काको नाम धोखेहू सुमिरत पातकपुंज पराने।
बिप्र-बधिक, गज-गीध कोटि खल कौनके पेट समाने ॥ ३ ॥
मेरु-से दोष दूरि करि जनके, रेनु-से गुन उर आने।
तुलसिदास तेहि सकल आस तजि भजहि न अजहुँ अयाने ॥ ४ ॥
२३७
काहे न रसना, रामहि गावहि ?
निसदिन पर-अपवाद बृथा कत रटि-रटि राग बढ़ावहि ॥ १ ॥
नरमुख सुंदर मंदिर पावन बसि जनि ताहि लजावहि।
ससि समीप रहि त्यागि सुधा कत रबिकर-जल कहँ धावहि ॥ २ ॥
काम-कथा कलि-कैरव-चंदनि, सुनत श्रवन दै भावहि।
तिनहिं हटकि कहि हरि-कल-कीरति, करन कलंक नसावहि ॥ ३ ॥
जातरूप मति, जुगति रुचिर मनि रचि-रचि हार बनावहि।
सरन-सुखद रबिकुल-सरोज-रबि राम-नृपहि पहिरावहि ॥ ४ ॥
बाद-बिबाद, स्वाद तजि भजि हरि, सरस चरित चित लावहि।
तुलसिदास भव तरहि, तिहुँ पुर तू पुनीत जस पावहि ॥ ५ ॥
२३८
आपनो हित रावरेसों जो पै सूझै।
तौ जनु तनुपर अछत सीस सुधि क्यों कबंध ज्यों जूझै ॥ १ ॥
निज अवगुन,गुनराम! रावरे लखि-सुनि-मति-मन-रूझै।
रहनि-कहनि-समुझनि तुलसीकी को कृपालु बिनु बूझै ॥ २ ॥
२३९
जाको हरि दृढ़ करि अंग कर् यो।
सोइ सुसील,पुनीत,बेदबिद, बिद्या-गुननि भर् यो ॥ १ ॥
उतपति पांडु-सुतनकी करनी सुनि सतपंथ डर् यो।
ते त्रैलोक्य-पूज्य, पावन जस सुनि-सुनि लोक तर् यो ॥ २ ॥
जो निज धरम बेदबोधित सो करत न कछु बिसर् यो।
बिनु अवगुन कृकलास कूप मज्जित कर गहि उधर् यो ॥ ३ ॥
ब्रह्म बिसिख ब्रह्मांड दहन छम गर्भ न नृपति जर् यो।
अजर-अमर, कुलिसहुँ नाहिंन बध, सो पुनि फेन मर् यो ॥ ४ ॥
बिप्र अजामिल अरु सुरपति तें कहा जो नहिं बिगर् यो।
उनको कियो सहाय बहुत, उरको संताप हर् यो ॥ ५ ॥
गनिका अरु कंदरपतें जगमहँ अघ न करत उबर् यो।
तिनको चरित पवित्र जानि हरि निज हृदि-भवन धर् यो ॥ ६ ॥
केहि आचरन भलो मानैं प्रभु सो तौ न जानि पर् यो।
तुलसिदास रघुनाथ-कृपाको जोवत पंथ खर् यो ॥ ७ ॥
२४०
सोइ सुकृती,सुचि साँचो जाहि राम! तुम रीझे।
गनिका,गीध,बधिक हरिपुर गये, लै कासी प्रयाग कब सीझे ॥ १ ॥
कबहुँ न डग्यो निगम-मगतें पग, नृग जग जानि जिते दुख पाये।
गजधौं कौन दिछित, जाके सुमिरत लै सनाभ बाहन तजि धाये ॥ २ ॥
सुर-मुनि-बिप्र बिहाय बड़े कुल, गोकुल जनम गोपगृह लीन्हो।
बायों दियो बिभव कुरुपतिको, भोजन जाइ बिदुर-घर कीन्हो ॥ ३ ॥
मानत भलहि भलो भगतनितें, कछुक रीति पारथहि जनाई।
तुलसी सहज सनेह राम बस, और सबै जलकी चिकनाई ॥ ४ ॥
२४१
तब तुम मोहूसे सठनिको हठि गति न देते।
कैसेहु नाम लेइ कोउ पामर, सुनि सादर आगे ह्वे लेते ॥ १ ॥
पाप-खानि जिय जानि अजामिल जमगन तमकि तये ताको भे ते।
लियो छुड़ाइ, चले कर मींजत, पीसत दाँत गये रिस-रेते ॥ २ ॥
गौतम-तिय,गज,गीध,बिटप,कपि, हैं नाथहिं नीके मालुम जेते।
तिन्ह तिन्ह काजनि
————– साधु-समाजु तजि कृपासिंधु तब तब उठिगे ते ॥ ३ ॥
तिन्ह के काज
अजहुँ अधिक आदर येहि द्वारे, पतित पुनीत होत नहिं केते।
मेरे पासंगहु न पूहिहैं,ह्वे गये,है, होने खल जेते ॥ ४ ॥
हौं अबलौं करतूति तिहारिय चितवत हुतो न रावरे चेते।
अब तुलसी पूतरो बाँधिहै, सहि न जात मोपै परिहास एते ॥ ५ ॥
२४२
तुम सम दींनबंधु,न दीन कोउ मो सम, सुनहु नृपति रघुराई।
मोसम कुटिल-मौलिमन नहिं जग, तुमसम हरि,!न हरन कुटिलाई ॥ १ ॥
हौं मन-बचन-कर्म पातक-रत, तुम कृपालु पतितन-गतिदाई।
हौं अनाथ, प्रभु! तुम अनाथ-हित, चित यहि सुरति कबहुँ नहिं जाई ॥ २ ॥
हौं आरत,आरति-नासक तुम, कीरति निगम पुराननि गाई।
हौं सभीत तुम हरन सकल भय, कारन कवन कृपा बिसराई ॥ ३ ॥
तुम सुखधाम राम श्रम-भंजन, हौं अति दुखित त्रिबिध श्रम पाई।
यह जिय जानि दास तुलसी कहँ राखहु सरन समुझि प्रभुताई ॥ ४ ॥
२४३
यहै जानि चरनन्हि चित लायो।
नाहिन नाथ! अकारनको हितु तुम समान पुरान-श्रुति गायो ॥ १ ॥
जननि जनक,सुत-दार, बंधुजन भये बहुत जहँ जहँ हौं जायो।
सब स्वारथहित प्रीति, कपट चित,काहू नहिं हरिभजन सिखायो ॥ २ ॥
सुर-मुनि,मनुज-दनुज,अहि-किन्नर, मैं तनु धरि सिर काहि न नायो।
जरत फिरत त्रयताप पापबस, काहु न हरि! करि कृपा जुड़ायो ॥ ३ ॥
जतन अनेक किये सुख-कारन, हरिपद-बिमुख सदा दुख पायो।
अब थाक्यो जलहीन नाव ज्यों देखत बिपति-जाल जग छायो ॥ ४ ॥
मो कहँ नाथ! बूझिये, यह गति सुख-निधान निज पति बिसरायो।
अब तजि रौष करहु करुना हरि! तुलसिदास सरनागत आयो ॥ ५ ॥
२४४
याहि ते मैं हरि ग्यान गँवायो।
परिहरि हृदय-कमल रघुनाथहि, बाहर फिरत बिकल भयो धायो ॥ १ ॥
ज्यों कुरंग निज अंग रुचिर मद अति मतिहीन मरम नहिं पायो।
खोजत गिरि,तरु,लता,भूमि, बिल परम सुगंध कहाँ तें आयो ॥ २ ॥
ज्यों सर बिमल बारि परिपूरन, ऊपर कछु सिवार तृन छायो।
जारत हियो ताहि तजि हौं सठ, चाहत यहि बिधि तृषा बुझायो ॥ ३ ॥
ब्यापत त्रिबिध ताप तनु दारुन, तापर दुसह दरिद्र सतायो।
अपनेहि धाम नाम-सुरतरु तजि बिषय-बबूर-बाग मन लायो ॥ ४ ॥
तुम-सम ग्यान-निधान, मोहि सम मूढ़ न आन पुराननि गायो।
तुलसिदास प्रभु! यह बिचारि जिय कीजै नाथ उचित मन भायो ॥ ५ ॥
२४५
मोहि मूढ़ मन बहुत बिगोयो।
याके लिये सुनहु करुनामय, मैं जग जनमि-जनमि दुख रोयो ॥ १ ॥
सीतल मधुर पियूष सहज सुख निकटहि रहत दूरि जन खोयो।
बहु भाँतिन स्रम करत मोहबस, बृथहि मंदमति बारि बिलोयो ॥ २ ॥
करम-कीच जिय जानि,सानि चित, चाहत कुटिल मलहि मल धोयो।
तृषावंत सुरसरि बिहाय सठ फिरि-फिरि बिकल अकास निचोयो ॥ ३ ॥
तुलसिदास प्रभु! कृपा करहु अब, मैं निज दोष कछू नहिं गोयो।
डासत ही गइ बीति निसा सब, कबहुँ न नाथ! नींद भरि सोयो ॥ ४ ॥
२४६
लोक-बेद हूँ बिदित बात सुनि-समुझि।
मोह-मोहित बिकल मति थिति न लहति।
छोटे-बड़े,खोटे-खरे, मोटेऊ दूबरे,
राम! रावरे निबाहे सबहीकी निबहति ॥ १ ॥
होती जो आपने बस, रहती एक ही रस,
दूनी न हरष-सोक-सांसति सहति।
चहतो जो जोई जोई, लहतो सो सोई सोई,
केहू भाँति काहूकी न लालसा रहति। ॥ २ ॥
करम,काल, सुभाउ गुन-दोष जीव जग मायाते,
सो सभै भौंह चकित चहति।
ईसन-दिगीसनि, जोगीसनि,मुनीसनि हू,
छोड़ति छोड़ाये तें,गहाये तें गहति ॥ ३ ॥
सतरंजको सो राज, काठको सबै समाज,
महाराज बाजी रची, प्रथम न हति।
तुलसी प्रभुके हाथ हारिबो-जीतिबो नाथ!
बहु बेष, बहु मुख सारदा कहति ॥ ४ ॥
२४७
राम जपु जीह! जानि, प्रीति सों प्रतीत मानि,
रामनाम जपे जैहै जियकी जरनि।
रामनामसों रहनि, रामनामकी कहनि,
कुटिल कलि-मल-सोक-संकट-हरनि ॥ १ ॥
रामनामको प्रभाउ पूजियत गनराउ,
कियो न दुराउ, कही आपनी करनि।
भव-सागरको सेतु, कासीहू सुगति हेतु,
जपत सादर संभु सहित घरनि ॥ २ ॥
बालमीकि ब्याध हे अगाध-अपराध-निधि,
‘मरा’ ‘मरा’ जपे पूजे मुनि अमरनि।
रोक्यो बिंध्य, सोख्यो सिंधु घटजहुँ नाम-बल,
हार् यो हिय,खारो भयो भूसुर-डरनि ॥ ३ ॥
नाम-महिमा अपार, सेष-सुक बार बार,
मति-अनुसार बुध बेदहू बरनि।
नामरति-कामधेनु तुलसीको कामतरु,
रामनाम है बिमोह-तिमिर-तरनि ॥ ४ ॥
२४८
पाहि,पाहि राम! पाहि रामभद्र, रामचंद्र!
सुजस स्रवन सुनि आयो हौं सरन।
दीनबंधु! दीनता-दरिद्र-दाह-दोष-दुख,
दारुन दुसह दर-दुरित-हरन ॥ १ ॥
जब जब जग-जाल ब्याकुल करम काल,
सब खल भूप भये भूतल-भरन।
तब तब तनु धरि, भूमि-भार दूरि करि,
थापे मुनि,सुर,साधु, आस्रम, बरन ॥ २ ॥
बेद,लोक,सब साखी, काहूकी रती न राखी,
रावनकी बंदि लागे अमर मरन।
ओक दै बिसोक किये लोकपति लोकनाथ,
रामराज भयो धरम चारिहु चरन ॥ ३ ॥
सिला,गुह,गीध,कपि,भील,भालु,रातिचर,
ख्याल ही कृपालु कीन्हे तारन-तरन।
पील-उद्धरन! सीलसिंधु! ढील देखियतु,
तुलसी पै चाहत गलानि ही गरन ॥ ४ ॥
२४९
भली भाँति पहिचाने-जाने साहिब जहाँ लौं जग,
जूड़े होत थोरे, थोरे ही गरम।
प्रीति न प्रवीन,नीतिहीन,रीतिके मलीन,
मायाधीन सब किये कालहू करम ॥ १ ॥
दानव-दनुज बड़े महामूढ़ मूँड़ चढ़े,
जीते लोकनाथ नाथ! बलनि भरम।
रीझि-रीझि दिये बर, खीझी-खीझि घाले घर,
आपने निवाजेकी न काहूको सरम ॥ २ ॥
सेवा-सावधान तू सुजान समरथ साँचो,
सदगुन-धाम राम! पावन परम।
सुरुख,सुमुख,एकरस,एकरूप,तोहि,
बिदित बिसेषि घटघटके मरम ॥ ३ ॥
तोसो नतपाल न कृपाल,न कँगाल मो-सो,
दयामें बसत देव सकल धरम।
राम कामतरु-छाँह चाहै रुचि मन माँह,
तुलसी बिकल,बलि, कलि-कुधरम ॥ ४ ॥
२५०
तौं हौं बार बार प्रभुहि पुकारिकै खिझावतो न,
जो पै मोको होतो कहूँ ठाकुर-ठहरु।
आलसी-अभागे मोसे तैं कृपालु पाले-पोसे,
राजा मेरे राजाराम,अवध सहरु ॥ १ ॥
सेये न दिगीस,न दिनेस,न गनेस, गौरी,
हित कै न माने बिधि हरिउ न हरु।
रामनाम ही सों जोग-छेम, नेम, प्रेम-पन,
सुधा सो भरोसो एहु,दूसरो जहरु ॥ २ ॥
समाचार साथके अनाथ-नाथ! कासों कहौं,
नाथ ही के हाथ सब चोरऊ पहरु।
निज काज, सुरकाज,आरतके काज,राज!
बूझिये बिलंब कहा कहूँ न गहरु ॥ ३ ॥
रीति सुनि रावरी प्रतीति-प्रीति रावरे सों,
डरत हौं देखि कलिकालको कहरु।
कहेही बनैगी कै कहाये,बलि जाउँ,राम,
‘तुलसी! तू मेरो, हारि हिये न हहरु’ ॥ ४ ॥
२५१
राम! रावरो सुभाउ, गुन सील महिमा प्रभाउ,
जान्यो हर,हनुमान,लखन,भरत।
जिन्हके हिये-सुथरु राम-प्रेम-सुरतरु,
लसत सरस सुख फूलत फरत ॥ १ ॥
आप माने स्वामी कै सखा सुभाइ भाइ,पति,
ते सनेह-सावधान रहत डरत।
साहिब-सेवक-रीति, प्रीति-परिमिति,नीति,
नेमको निबाह एक टेक न टरत ॥ २ ॥
सुक-सनकादिक, प्रहलाद-नारदादि कहैं,
रामकी भगति बड़ी बिरति-निरत।
जाने बिनु भगति न, जानिबो तिहारे हाथ,
समुझी सयाने नाथ! पगनि परत ॥ ३ ॥
छ-मत बिमत, न पुरान मत,एक मत,
नेति-नेति-नेति नित निगम करत।
औरनिकी कहा चली ? एकै बात भलै भली,
राम-नाम लिये तुलसी हू से तरत ॥ ४ ॥
२५२
बाप! आपने करत मेरी घनी घटि गई।
लालची लबारकी सुधारिये बारक,बलि,
रावरी भलाई सबहीकी भली भई ॥ १ ॥
रोगबस तनु, कुमनोरथ मलिन मनु,
पर-अपबाद मिथ्या-बाद बानी हई।
साधनकी ऐसी बिधि, साधन बिना न सिधि,
बिगरी बनावै कृपानिधिकी कृपा नई ॥ २ ॥
पतित-पावन, हित आरत-अनाथनिको,
निराधारको अधार,दीनबंधु,दई।
इन्हमें न एकौ भयो, बूझि न जूझ्यो न जयो,
ताहिते त्रिताप-तयो, लुनियत बई ॥ ३ ॥
स्वाँग सूधो साधुको, कुचालि कलितें अधिक,
परलोक फीकी मति, लोक-रंग-रई।
बड़े कुसमाज राज! आजुलौं जो पाये दिन,
महाराज! केहू भाँति नाम-ओट लईः ॥ ४ ॥
राम! नामको प्रताप जानियत नीके आप,
मोको गति दूसरी न बिधि निरमई।
खीझिबे लायक करतब कोटि कोटि कटु,
रीझिबे लायक तुलसीकी निलजई ॥ ५ ॥
२५३
राम राखिये सरन, राखि आये सब दिन।
बिदित त्रिलोक तिहुँ काल न दयाल दूजो,
आरत-प्रनत-पाल को है प्रभु बिन ॥ १ ॥
लाले पाले,पोषे तोषे आलसी-अभागी-अघी,
नाथ! पै अनाथनिसों भये न उरिन।
स्वामी समरथ ऐसो, हौं तिहारो जै सो. तैसो,
काल-चाल हेरि होति हिये घनी घिन ॥ २ ॥
खीझि-रीझि,बिहँसि-अनख, क्यों हूँ एक बार,
‘तुलसी तू मेरो’ बलि, कहियत किन?
जाहिं सूल निरमूल, होहिं सुख अनुकूल,
महाराज राम! रावरी सौं, तेहि छिन ॥ ३ ॥
२५४
राम! रावरो नाम मेरो मातु-पितु है।
सुजन-सनेही, गुरु-साहिब, सखा-सुहृद्,
राम-नाम प्रेम-पन अबिचल बितु है ॥ १ ॥
सतकोटि चरित अपार दधिनिधि मथि,
लियो काढ़ि वामदेव नाम-घृतु है।
नामको भरो सो. बल चारिहू फलको फल,
सुमिरिये छाड़ि छल, भलो कृतु है ॥ २ ॥
स्वारथ-साधक, परमारथ-दायक नाम,
राम-नाम सारिखो न और हितु है।
तुलसी सुभाव कही, साँचिये परैगी सही,
सीतानाथ-नाम नित चितहूको चितु है ॥ ३ ॥
२५५
राम!रावरो नाम साधु-सुरतरु है।
सुमिरे त्रिबिध घाम हरत, पूरत काम,
सकल सुकृत सरसिजको सरु है ॥ १ ॥
लाभहुको लाभ, सुखहूको सुख, सरबस,
पतित-पावन, डरहूको डरु है।
नीचेहूको ऊँचेहूको, रंकहूको रावहूको,
सुलभ, सुखद आपनो-सो घरु है ॥ २ ॥
बेद हू, पुरान हू पुरारि हू पुकारि कह्यो,
नाम-प्रेम चारिफलहूको फरु है।
ऐसे राम-नाम सों न प्रीति, न प्रतीति मन,
मेरे जान, जानिबो सोई नर खरु है ॥ ३ ॥
नाम-सो न मातु-पितु, मीत-हित, बंधु-गुरु,
साहिब सुधी सुसील सुधाकरु है।
नामसों निबाह नेहु, दीनको दयालु! देहु,
दासतुलसीको, बलि, बड़ो बरु है ॥ ४ ॥
२५६
कहे बिनु रह्यो न परत,कहे राम! रस न रहत।
तुमसे सुसाहिबकी ओट जन खौटो-खरो,
कालकी, करमकी कुसाँसति सहत ॥ १ ॥
करत बिचार सार पैयत न कहूँ कछु,
सकल बड़ाई सब कहाँ ते लहत ?
नाथकी महिमा सुनि, समुझि आपनि ओर,
हेरि हारि कै हहरि हृदय दहत ॥ २ ॥
सखा न, सुसेवक न, सुतिय न, प्रभु आप,
माय-बाप तुही साँचो तुलसी कहत।
मेरी तौ थोरी है, सुधरैगी बिगरियौ,बलि,
राम! रावरी सों, रही रावरी चहत ॥ ३ ॥
२५७
दीनबंधु! दूरि किये दीनको न दूसरी सरन।
आपको भले हैं सब, आपनेको कोऊ कहूँ,
सबको भलो है राम! रावरो चरन ॥ १ ॥
पाहन,पसु,पतंग,कोल,भील,निसिचर,
काँच ते कृपानिधान किये सुबरन।
दंडक-पुहुमि पाय परसि पुनीत भई,
उकठे बिटप लागे फूलन-फरन ॥ २ ॥
पतित-पावन नाम बाम हू दाहिनो, देव!
दुनी न दुसह-दुख-दूषन-दरन।
सीलसिंधु! तोसों ऊँची-नीचियौ कहत सोभा,
तोसो तुही तुलसीको आरति-हरन ॥ ३ ॥
२५८
जानि पहिचानि मैं बिसारे हौं कृपानिधान!
एतो मान ढीठ हौं उलटि देत खौरि हौं।
करत जतन जासों जोरिबे को जोगीजन,
तासों क्योंहू जुरी, सो अभागो बैठो तोरि हौं ॥ १ ॥
मोसो दोस-कोसको भुवन-कोस दूसरो न,
आपनी समुझि सूझि आयो टकटोरि हौं।
गाड़ीके स्वानकी नाईं,माया मोहकी बड़ाई,
छिनहिं तजत, छिन भजत बहोरि हौं ॥ २ ॥
बड़ो साईं-द्रोही न बराबरी मेरीको कोऊ,
नाथकी सपथ किये कहत करोरि हौं।
दूरि कीजै द्वारतें लबार लालची प्रपंची,
सुधा-सो सलिल सूकरी ज्यों गहडोरिहौं ॥ ३ ॥
राखिये नीके सुधारि, नीचको डारिये मारि,
दुहूँ ओरकी बिचारि, अब न निहोरिहौं।
तुलसी कही है साँची रेख बार बार खाँची,
ढील किये नाम-महिमाकी नाव बोरिहौं ॥ ४ ॥
२५९
रावरी सुधारी जो बिगारी बिगरैगी मेरी,।
कहौं,बलि,बेदकी न लोक कहा कहैगो ?
प्रभुको उदास-भाउ, जनको पाप-प्रभाउ,
दुहूँ भाँति दीनबन्धु ! दीन दुख दहैगो ॥ १ ॥
मैं तो दियो छाती पबि,लयो कलिकाल दबि,
साँसति सहत,परबस को न सहैगो ?
बाँकी बिरुदावली बनैगी पाले ही कृपालु !
अंत मेरो हाल हेरि यौं न मन रहैगो ॥ २ ॥
करमी-धरमी, साधु-सेवक, बिरत-रत,
आपनी भलाई थल कहाँ कौन लहैगो ?
तेरे मुँह फेरे मोसे कायर-कपूत-कूर,
लटे लटपटेनि को कौन परिगहैगो ? ॥ ३ ॥
काल पाय फिरत दसा दयालु ! सबहीकी,
तोहि बिनु मोहि कबहूँ न कोऊ चहैगो।
बचन-करम-हिये कहौं राम ! सौंह किये,
तुलसी पै नाथके निबाहेई निबहैगो ॥ ४ ॥
२६०
साहिब उदास भये दास खास खीस होत,
मेरी कहा चली ? हौं बजाय जाय रह्यो हौं।
लोकमें न ठाउँ, परलोकको भरोसो कौन ?
हौं तो, बलि जाउँ,रामनाम ही ते लह्यो हौं ॥ १ ॥
करम,सुभाउ,काम,कोह,लोभ,मोह,-
ग्राह अति गहनि गरीबी गाढ़े गह्यो हौं।
छोरिबेको महाराज,बाँधिबेको कोटि भट,
पाहि प्रभु !पाहि, तिहुँ ताप-पाप दह्यो हौं ॥ २ ॥
रीझि-बूझि सबकी प्रतीति-प्रीति एही द्वार,
दूधको जर् यो पियत फूँकि फूँकि मह्यो हौं।
रटत-रटत लट्यो,जाति-पाँति-भाँति घट्यो,
जूठनिको लालची चहौं न दूध-नह्यो हौं ॥ ३ ॥
अनत चह्यो न भलो,सुपथ सुचाल चल्यो,
नीके जिय जानि इहाँ भलो अनचह्यो हौं।
तुलसी समुझि समुझायो मन बार बार,
अपनो सो नाथ हू सों कहि निरबह्यो हौं ॥ ४ ॥
२६१
मेरी न बनै बनाये मेरे कोटि कलप लौं,
राम !रावरे बनाये बनै पल पाउ मैं।
निपट सयाने हौ कृपानिधान ! कहा कहौं ?
लिये बेर बदलि अमोल मनि आउ मैं ॥ १ ॥
मानस मलीन,करतब कलिमल पीन,
जीह हू न जप्यो नाम,बक्यो आउ-बाउ मैं।
कुपथ कुचाल चल्यो, भयो न भूलिहू भलो,
बाल-दसा हू न खेल्यो खेलत सुदाउ मैं ॥ २ ॥
देखा-देखी दंभ तें कि संग तें भई भलाई,
प्रकटि जनाई, कियो दुरित-दुराउ मैं।
दोष
राग रोष—- पोषे, गोगन समेत मन,
द्वेष
इनकी भगति कीन्ही इनही को भाउ मैं ॥ ३ ॥
आगिली-पाछिली, अबहूँकी अनुमान ही तें,
बूझियत गति, कछु कीन्हों तो न काउ मैं।
जग कहै रामकी प्रतीति-प्रीति तुलसी हू,
झूठे-साँचे आसरो साहब रघुराउ मैं ॥ ४ ॥
२६२
कह्यो न परत,बिनु कहे न रह्यो परत,
बड़ो सुख कहत बड़े सों,बलि,दीनता।
प्रभुकी बड़ाई बड़ी,आपनी छोटाई छोटी,
प्रभुकी पुनीतता, आपनी पाप-पीनता ॥ १ ॥
दुहू ओर समुझि सकुचि सहमत मन,
सनमुख होत सुनि स्वामी-समीचीनता।
नाथ-गुनगाथ गाये,हाथ जोरि माथ नाये,
नीचऊ निवाजे प्रीति-रीतिकी प्रबीनता ॥ २ ॥
एही दरबार है गरब तें सरब-हानि,
लाभ जोग-छेमको गरीबी-मिसकीनता।
मोटो दसकंध सो न दूबरो बिभीषण सो,
बूझि परी रावरेकी प्रेम-पराधीनता ॥ ३ ॥
यहाँकी सयानप,अयानप सहस सम,
सूधौ सतभाय कहे मिटति मलीनता।
गीध-सिला-सबरीकी सुधि सब दिन किये,
होइगी न साई सों सनेह-हित-हीनता ॥ ४ ॥
सकल कामना देत नाम तेरो कामतरु,
सुमिरत होत कलिमल-छल-छीनता।
करुनानिधान ! बरदान तुलसी चहत,
सीतापति-भक्ति-सुरसरि-नीर-मीनता ॥ ५ ॥
२६३
नाथ नीके कै जानिबी ठीक जन-जीयकी।
रावरो भरोसो नाह कै सु-प्रेम-नेम लियो,
रुचिर रहनि रुचि मति गति तीयकी ॥ १ ॥
कुकृत-सुकृत बस सब ही सों संग पर् यो,
परखी पराई गति, आपने हूँ कीयकी।
मेरे भलेको गोसाई ! पोचको,न सोच-संक,
हौंहुँ किये कहौं सौंह साँची सीय-पीयकी ॥ २ ॥
ग्यानहू-गिराके स्वामी,बाहर-अंतरजामी,
यहाँ क्यों दुरैगी बात मुखकी औ हीयकी ?
तुलसी तिहारो,तुमहीं पै तुलसीके हित,
राखि कहौं हौं तो जो पै व्हहौ माखी घीयकी ॥ ३ ॥
२६४
मेरो कह्यो सुनि पुनि भावै तोहि करि सो।
चारिहू बिलोचन बिलोकु तू तिलोक महँ,
तेरो तिहु काल कहु को है हितू हरि-सो ॥ १ ॥
नये-नये नेह अनुभये देह-गेह बसि,
परखे प्रंपंची प्रेम, परत उघरि सो।
सुहृद-समाज दगाबाजिहीको सौदा-सूत,
जब जाको काज तब मिलै पाँय परि सो ॥ २ ॥
बिबुध सयाने, पहिचाने कैधौं नाहीं नीके,
देत एक गुन, लेत कोटि गुन भरि सो।
करम-धरम श्रम-फल रघुबर बिनु,
राखको सो होम है, ऊसर कैसो बरिसो ॥ ३ ॥
आदि-अंत-बीच भलो भलो करै सबहीको,
जाको जस लोक-बेद रह्यो है बगरि-सो।
सीतापति सारिखो न साहिब सील-निधान,
कैसे कल परै सठ! बैठो सो बिसरि-सो ॥ ४ ॥
जीवको जीवन-प्रान, प्रानको परम हित,
प्रीतम,पुनीतकृत नीचन निदरि सो।
तुलसी! तोको कृपालु जो कियो कोसलपालु,
चित्रकूटको चरित्र चेतु चित करि सो ॥ ५ ॥
२६५
तन सुचि,मनरुचि, मुख कहौं ‘जन हौं सिय-पीको’।
केहि अभाग जान्यो नहिं, जो न होइ नाथ सों नातो-नेह न नीको ॥ १ ॥
जल चाहत पावक लहौं, बिष होत अमीको।
कलि-कुचाल संतनि कही सोइ सही, मोहि कछु फहम न तरनि तमीको ॥ २ ॥
जानि अंध अंजन कहै बन-बाघिनी-घीको।
सुनि उपचार बिकारको सुबिचार करौं जब, तब बुधि बल हरै हीको ॥ ३ ॥
प्रभु सों कहत सकुचात हौं, परौं जनि फिरि फीको।
निकट बोलि,बलि,बरजिये,परिहरै ख्याल अब तुलसिदास जड़ जीको ॥ ४ ॥
२६६
ज्यों ज्यों निकट भयो चहौं कृपालु! त्यों त्यों दूरि पर् यो हौं।
तुम चहुँ जुग रस एक राम! हौं हूँ रावरो, जदपि अघ अवगुननि भर् यो हौं ॥
बीच पाइ एहि नीच बीच ही छरनि छर् यो हौं।
हौं सुबरन कुबरन कियो, नृपतें भिखारि करि, सुमतितें कुमति कर् यो हौं ॥ २ ॥
अगनित गिरि-कानन फिरयो, बिनु आगि जर् यो हौं।
चित्रकूट गये हौं लखि कलिकी कुचालि सब, अब अपडरनि डर् यो हौं ॥ ३ ॥
माथ नाइ नाथ सों कहौं, हात जोरि खर् यो हौं।
चीन्हों चोर जिय मारिहै तुलसी सो कथा सुनि प्रभुसों गुदरि निबर् यो हौं ॥ ४ ॥
२६७
पन करि हौं हठि आजुतें रामद्वार पर् यो हौं।
‘तू मेरो’यह बिन कहे उठिहौ न जनमभरि, प्रभुकी सौकरि निर् यो हौं ॥ १ ॥
दै दै धक्का जमभट थके, टारे न टर् यो हौं।
उदर दुसह साँसति सही बहुबार जनमि जग, नरकनिदरि निकर् यो हौं ॥ २ ॥
हौं मचला लै छाड़िहौं, जेहि लागि अर् यो हौं।
तुम दयालु,बनिहै दिये,बलि,बिलँब न कीजिये, जात गलानि गर् यौ हौं ॥ ३ ॥
प्रगट कहत जो सकुचिये, अपराध-भर् यो हौं।
तौ मनमें अपनाइये, तुलसीहि कृपा करि, कलि बिलोकि हहर् यो हौं ॥ ४ ॥
२६८
तुम अपनायो तब जानिहौं,जब मन फिरि परिहै।
जेहि सुभाव बिषयनि लग्यो, तेहि सहज नाथ सौं नेह छाड़ि छल करिहै ॥ १ ॥
सुतकी प्रीति,प्रतीति मीतकी, नृप ज्यों डर डरिहै।
अपनो सो स्वारथ स्वामिसों, चहुँ बिधि चातक ज्यों एक टेकते नहिं टरिहै ॥ २ ॥
हरषिहै न अति आदरे, निदरे न जरि मरिहै।
हानि-लाभ दुख-सुख सबै समचित हित-अनहित,कलि-कुचालि परिहरिहै ॥ ३ ॥
प्रभु-गुन सुनि मन हरषिहै, नीर नयननि ढरिहै।
तुलसिदास भयो रामको बिस्वास,प्रेम लखि आनँद उमगि उर भरिहै ॥ ४ ॥
२६९
राम कबहुँ प्रिय लागिहौ जैसे नीर मीनको?
सुख जीवन ज्यों जीवको, मनि ज्यों फनिको हित, ज्यों धन लोभ-लीनको ॥ १ ॥
ज्यों सुभाय प्रिय लगति नागरी नागर नवीनको।
त्यों मेरे मन लालसा करिये करुनाकर! पावन प्रेम पीनको ॥ २ ॥
मनसाको दाता कहैं श्रुति प्रभु प्रबीनको।
तुलसिदासको भावतो,बलि जाउँ दयानिधि! दीजे दान दीनको ॥ ३ ॥
२७०
कबहुँ कृपा करि रघुबीर! मोहू चितैहो।
भलो-बुरो जन आपनो,जिय जानि दयानिधि! अवगुन अमित बितैहो ॥ १ ॥
जनम जनम हौं मन जित्यो, अब मोहि जितैहो।
हौं सनाथ ह्वेहौ सही,तुमहू अनाथपति, जो लघुतहि न भितैहो ॥ २ ॥
बिनय करौं अपभयहु तें, तुम्ह परम हितै हो।
तुलसिदास कासों कहै, तुमही सब मेरे,प्रभु-गुरु,मातु-पितै हो ॥ ३ ॥
२७१
जैसो हौं तैसो राम रावरो जन, जनि परिहरिये।
कृपासिंधु,कोसलधनी! सरनागत-पालक, ढरनि आपनी ढरिये ॥ १ ॥
हौं तौ बिगरायल और को, बिगरो न बिगरिये।
तुम सुधारि आये सदा सबकी सबही बिधि, अब मेरियो सुधरिये ॥ २ ॥
जग हँसिहै मेरे संग्रहे, कत इहि डर डरिये।
कपि-केवट कीन्हे सखा जेहि सील,सरल चित, तेहि सुभाउ अनुसरिये ॥ ३ ॥
अपराधी तउ आपनो, तुलसी न बिसरिये।
टूटियो बाँह गरे परै, फूटेहु बिलोचन पीर होत हित करिये ॥ ४ ॥
२७२
तुम जनि मन मैलो करो, लोचन जनि फेरो।
सुनहु राम! बिनु रावरे लोकहु परलोकहु कोउ न कहूँ हितु मेरो ॥ १ ॥
अधम
अगुन-अलायक-आलसी जानि——-अनेरो।
अधनु
स्वारथके साथिन्ह तज्यो तिजराको- सो टोटक,औचट उलटि न हेरो ॥ २ ॥
भगतिहीन, बेद-बाहिरो लखि कलिमल घेरो।
देवनिहू देव! परिहरयो, अन्याव नतिनको हौं अपराधीसब केरो ॥ ३ ॥
नामकी ओट पेट भरत हौं, पै कहावत चेरो।
जगत-बिदित बात ह्वे परी, समुझिये धौं अपने, लोक कि बेद बड़ेरो ॥ ४ ॥
ह्वेहै जब-जब तुमहिं तें तुलसीको भलेरो।
देव
दिन-हू-दिन—–बिगरि है,बलि जाउँ, बिलंब किये,अपनाइये सबेरो ॥ ५ ॥
दीन
२७३
तुम तजि हौं कासों कहौं, और को हितु मेरे ?
दीनबंधु!सेवक,सखा,आरत,अनाथपर सहज छोह केहि केरे ॥ १ ॥
बहुत पतित भवनिधि तरे बिनु तरि बिनु बेरे।
कृपा-कोप-सतिभायहू, धोखेहु-तिरछेहू,राम! तिहारेहि हेरे ॥ २ ॥
जो चितवनि सौंधी लगै, चितइये सबेरे।
तुलसिदास अपनाइये, कीजै न ढील, अब जिवन-अवधि अति नेरे ॥ ३ ॥
२७४
जाउँ कहाँ, ठौर है कहाँ देव! दुखित-दीनको ?
को कृपालु स्वामी-सारिखो, राखे सरनागत सब अँग बल-बिहीनको ॥ १ ॥
गनिहि,गुनिहि साहिब लहै, सेवा समीचीनको।
अधम
—–अगुन आलसिनको पालिबो फबि आयो रघुनायक नवीनको ॥ २ ॥
अधन
मुखकै कहा कहौं, बिदित है जीकी प्रभु प्रबीनको।
तिहू काल, तिहु लोकमें एक टेक रावरी तुलसीसे मन मलीनको ॥ ३ ॥
२७५
द्वार द्वार दीनता कही, काढ़ि रद, परि पाहूँ।
हैं दयालु दुनी दस दिसा,दुख-दोष-दलन-छम, कियो न सँभाषन काहूँ ॥ १ ॥
जन्यो
तनु——-कुटिल कीट ज्यों, तज्यों मातु-पिताहूँ।
जनतेऊ
काहेको रोष,दोष काहि धौं,मेरे ही अभाग मोसों सकुचत छुइ सब छाहूँ ॥ २ ॥
दुखित देखि संतन कह्यो, सोचै जनि मन माँहू।
तोसे पसु-पाँवर-पातकी परिहरे न सरन गये, रघुबर ओर बिनाहूँ ॥ ३ ॥
तुलसी तिहारो भये भयो सुखी प्रीती-प्रतीति बिनाहू।
नामकी महिमा,सील नाथको, मेरो भलो बिलोकि अब तें सकुचाहुँ,सिहाहूँ ॥ ४ ॥
२७६
कहा न कियो,कहाँ न गयो, सीस काहि न नायो ?
राम रावरे बिन भये जन जनमि-जनमि जग दुख दसहू दिसि पायो ॥ १ ॥
आस-बिबस खास दास ह्वे नीच प्रभुनि जनायो।
हा हा करि दीनता कही द्वार-द्वार बार-बार, परी न छार,मुह बायो ॥ २ ॥
असन-बसन बिनु बावरो जहँ-तहँ उठि धायो।
मान
महिमा——प्रिय प्रानते तजि खोलि खलनि आगे, खिनु-खिनु पेट खलायो ॥ ३ ॥
असु
नाथ! हाथ कछु नाहि लग्यो, लालच ललचायो।
साँच कहौं,नाच कौन सो जो, न मोहि लोभ लघु हौं निरलज्ज नचायो ॥ ४ ॥
मन
श्रवन-नयन-मग——लगे, सब थल पतियायो।
अग
मूड़ मारि,हिय हारिकै, हित हेरि हहरि अब चरन-सरन तकि आयो ॥ ५ ॥
दसरथके! समरथ तुहीं, त्रिभुवन जसु गायो।
तुलसि नमत अवलोकिये,बाँह-बोल बलि दै बिरुदावली बुलायो ॥ ६ ॥
२७७
राम राय! बिनु रावरे मेरे को हितु साँचो ?
स्वामी-सहित सबसों कहौं,सुनि-गुनि बिसेषि कोउ रेख दूसरी खाँचो ॥ १ ॥
देह-जीव-जोगके सखा मृषा टाँचन टाँचो।
किये बिचार सार कदलि ज्यों, मनि कनकसंग लघु लसत बीच बिच काँचो।२।
‘बिनय-पत्रिका’ दीनकी,बापु! आपु ही बाँचो।
हिये हेरि तुलसी लिखी,सो सुभाय सही करि बहुरि पूँछिये पाँचो ॥ ३ ॥
२७८
पवन-सुवन! रिपु-दवन! भरतलाल! लखन! दीनकी।
निज निज अवसर सुधि किये,बलि जाउँ, दास-आस पूजि है खासखीनकी ॥ १ ॥
राज-द्वार भली सब कहैं साधु-समीचीनकी।
सुकृत-सुजस,साहिब-कृपा,स्वारथ-परमारथ,गति भये गति-बिहीनकी ॥ २ ॥
समय सँभारि सुधारिबी तुलसी मलीनकी।
प्रीति-रीति समुझाइबी नतपाल कृपालुहि परमिति पराधीनकी।३ ॥
२७९
मारुति-मन,रुचि भरतकी लखि लषन कही है।
कलिकालहु नाथ!नाम सों परतीति-प्रीति एक किंकरकी निबही है ॥ १ ॥
सकल सभा सुनि लै उठी, जानी रीति रही है।
कृपा गरीब निवाजकी,देखत गरीबको साहब बाँह गही है ॥ २ ॥
बिहँसि राम कह्यो ‘सत्यहै,सुधि मैं हूँ लही है’।
रघुनाथ
मुदित माथ नावत, बनी तुलसी अनाथकी,परी———सही है ॥ ३ ॥
रघुनाथ हाथ
॥ श्रीसीतारामार्पणमस्तु ॥
॥ इतिश्री ॥