श्रीरंग-स्तुति
श्रीरंग-स्तुति
५७
देव–
देहि सतसंग निज-अंग श्रीरंग! भवभंग-कारण शरण-शोकहारी।
ये तु भवदघ्रिपल्लव-समाश्रित सदा, भक्तिरत,विगतसंशय,मुरारी ॥ १ ॥
असुर,सुर,नाग,नर,यक्ष,गंधर्व,खग,रजनिचर,सिद्ध,ये चापि अन्ने।
संत-संसर्ग त्रेवर्गपर,परमपद,प्राप्य निप्राप्यगति त्वयि प्रसन्ने ॥ २ ॥
वृत्र,बलि,बाण,प्रहलाद,मय,व्याध,गज,गृध्र,द्विजबन्धु निजधर्मत्यागी।
साधुपद-सलिल-निर्धूत-कल्मष सकल,श्वपच-यवनादि कैवल्य-भागी ॥ ३ ॥
शांत,निरपेक्ष,निर्मम,निरामय,अगुण,शब्दब्रह्मैकपर,ब्रह्मज्ञानी।
दक्ष,समदृक,स्वदृक,विगत अति स्वपरमति,परमरतिविरति तव चक्रपानी ॥ ४ ॥
विश्व-उपकारहित व्यग्रचित सर्वदा,त्यक्तमदमन्यु,कृत पुण्यरासी।
यत्र तिष्ठन्ति,तत्रेव अज शर्व हरि सहित गच्छन्ति क्षीराब्धिवासी ॥ ५ ॥
वेद-पयसिंधु,सुविचार मंदरमहा, अखिल-मुनिवृंद निमर्थनकर्ता।
सार सतसंगमुद् धृत्य इति निश्चिंतं वदति श्रीकृष्ण वैदर्भिभर्ता ॥ ६ ॥
शोक-संदेह,भय-हर्ष,तम-तर्षगण,साधु-सद्युक्ति विच्छेदकारी।
यथा रघुनाथ-सायक निशाचर-चमू-निचय-निर्दलन-पटु-वेग-भारी ॥ ७ ॥
यत्र कुत्रापि मम जन्म निजकर्मवश भ्रमत जगजोनि संकट अनेकं।
तत्र त्वद्भक्ति,सज्जन-समागम, सदा भवतु मे राम विश्राममेकं ॥ ८ ॥
प्रबल भव-जनित त्रैव्याधि-भैषज भगति, भक्त भैषज्यमद्वैतदरसी।
संत-भगवंत अंतर निरंतर नहीं, किमपि मति मलिन कह दासतुलसी ॥ ९ ॥
५८
देव–
देहि अवलंब कर कमल,कमलारमन,दमन-दुख,शमन-संताप भारी।
अज्ञान-राकेश-ग्रासन विंधुतुद,गर्व-काम-करिमत्त-हरि,दूषणारी ॥ १ ॥
वपुष ब्रह्माण्ड सुप्रवृत्ति लंका-दुर्ग, रचित मन दनुज मय-रूपधारी।
विविध कोशौघ, अति रुचिर-मंदिर-निकर,सत्वगुण प्रमुख त्रेकटककारी ॥ २ ॥
कुणप-अभिमान सागर भंयकर घोर, विपुल अवगाह,दुस्तर अपारं।
नक्र रागादि-संकुल मनोरथ सकल, संग-संकल्प वीची-विकारं ॥ ३ ॥
मोह दशमौलि, तद्भ्रात अहँकार, पाकारिजित काम विश्रामहारी।
लोभ अतिकाय,मत्सर महोदर दुष्ट,क्रोध पापिष्ठ-विबुधांतकारी ॥ ४ ॥
द्वेष दुर्मुख,दंभ खर अकंपन कपट, दर्प मनुजाद मद शूलपानी।
अमितबल परम दुर्जय निशाचर-निकर सहित षडवर्ग गो-यातुधानी ॥ ५ ॥
जीव भवदंघ्रि-सेवक विभीषण बसत मध्य दुष्टाटवी ग्रसितचिंता।
नियम-यम-सकल सुरलोक-लोकेश लंकेश-वश नाथ! अत्यंत भीता ॥ ६ ॥
ज्ञान-अवधेश-गृह गेहिनी भक्ति शुभ,तत्र अवतार भूभार-हर्ता।
भक्त-संकष्ट अवलोकि पितु-वाक्य कृत गमन किय गहन वैदेहि-भर्ता ॥ ७ ॥
कैवल्य-साधन अखिल भालु मर्कट विपुल ज्ञान-सुग्रीवकृत जलधिसेतू।
प्रबल वैराग्य दारुण प्रभंजन-तनय, विषय वन भवनमिव धूमकेतू ॥ ८ ॥
दुष्ट दनुजेश निर्वशकृत दासहित, विश्वदुख-हरण बोधैकरासी।
अनुज निज जानकी सहित हरि सर्वदा दासतुलसी ह्रदय कमलवासी ॥ ९ ॥
५९
देव–
दीन-उद्धरण रघुवर्य करुणाभवन शमन-संताप पापौघहारी।
विमल विज्ञान-विग्रह,अनुग्रहरूप,भूपवर, विबुध,नर्मद,खरारी ॥ १ ॥
संसार-कांतार अति घोर,गंभीर,घन,गहन तरुकर्मसंकुल,मुरारी।
वासना वल्लि खर-कंटकाकुल विपुल, निबिड़ विटपाटवी कठिन भारी ॥ २ ॥
विविध चितवृति-खग निकर श्येनोलूक,काक वक गृध्र आमिष-अहारी।
अखिल खल,निपुण छल,छिद्र निरखत सदा, जीवजनपथिकमन-खेदकारी ॥ ३ ॥
क्रोध करिमत्त,मृगराज,कंदर्प,मद-दर्प वृक-भालु अति उग्रकर्मा।
महिष मत्सर क्रूर,लोभ शूकररूप,फेरु छल,दंभ मार्जारधर्मा ॥ ४ ॥
कपट मर्कट विकट,व्याघ्र पाखण्डमुख,दुखद मृगव्रात,उत्पातकर्ता।
ह्रदय अवलोकि यह शोक शरणागतं,पाहि मां पाहि भो विश्वभर्ता ॥ ५ ॥
प्रबल अहँकार दुरघट महीधर,महामोह गिरि-गुहा निबिड़ांधकारं।
चित्त वेताल,मनुजाद मन,प्रेतगनरोग,भोगौघ वृश्चिक-विकारं ॥ ६ ॥
विषय-सुख-लालसा दंश-मशकादि,खल झिल्लि रूपादि सब सर्प,स्वामी।
तत्र आक्षिप्त तव विषम माया नाथ,अंध मैं मंद,व्यालादगामी ॥ ७ ॥
घोर अवगाह भव आपगा पापजलपूर,दुष्प्रेक्ष्य,दुस्तर,अपारा।
मकर षड्वर्ग,गो नक्र चक्राकुला,कूल शुभ-अशुभ,दुख तीव्र धारा ॥ ८ ॥
सकल संघट पोच शोचवश सर्वदा दासतुलसी विषम गहनग्रस्तं।
त्राहि रघुवंशभूषण कृपा कर,कठिन काल विकराल-कलित्रास-त्रस्तं ॥ ९ ॥