वाल्मीकि रामायण सुन्दरकाण्ड सर्ग 29 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Sundarakanda Chapter 29
॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
सुन्दरकाण्डम्
एकोनत्रिंशः सर्गः (29)
(सीताजी के शुभ शकुन)
तथागतां तां व्यथितामनिन्दितां व्यतीतहर्षां परिदीनमानसाम्।
शुभां निमित्तानि शुभानि भेजिरे नरं श्रिया जुष्टमिवोपसेविनः॥१॥
इस प्रकार अशोकवृक्ष के नीचे आने पर बहुत-से शुभ शकुन प्रकट हो उन व्यथितहृदया, सती-साध्वी, हर्षशून्य, दीनचित्त तथा शुभलक्षणा सीता का उसी तरह सेवन करने लगे, जैसे श्रीसम्पन्न पुरुष के पास सेवा करने वाले लोग स्वयं पहुँच जाते हैं॥१॥
तस्याः शुभं वाममरालपक्ष्मराज्यावृतं कृष्णविशालशुक्लम्।
प्रास्पन्दतैकं नयनं सुकेश्या मीनाहतं पद्ममिवाभिताम्रम्॥२॥
उस समय सुन्दर केशोंवाली सीता का बाँकी बरौनियों से घिरा हुआ परम मनोहर काला, श्वेत और विशाल बायाँ नेत्र फड़कने लगा। जैसे मछली के आघात से लाल कमल हिलने लगा हो॥२॥
भुजश्च चार्वञ्चितवृत्तपीनः परार्घ्यकालागुरुचन्दनार्हः।
अनुत्तमेनाघ्युषितः प्रियेण चिरेण वामः समवेपताशु॥३॥
साथ ही उनकी सुन्दर प्रशंसित गोलाकार मोटी, बहुमूल्य काले अगुरु और चन्दन से चर्चित होनेयोग्य तथा परम उत्तम प्रियतम द्वारा चिरकाल से सेवित बायीं भुजा भी तत्काल फड़क उठी॥३॥
गजेन्द्रहस्तप्रतिमश्च पीनस्तयोर्द्वयोः संहतयोस्तु जातः।
प्रस्पन्दमानः पुनरूरुरस्या रामं पुरस्तात् स्थितमाचचक्षे॥४॥
फिर उनकी परस्पर जुड़ी हुई दोनों जाँघों में से एक बायीं जाँघ, जो गजराज की ढूँड़ के समान पीन (मोटी) थी, बारम्बार फड़ककर मानो यह सूचना देने लगी कि भगवान् श्रीराम तुम्हारे सामने खड़े हैं। ४॥
शुभं पुनर्हेमसमानवर्ण मीषद्रजोध्वस्तमिवातुलाक्ष्याः।
वासः स्थितायाः शिखराग्रदन्त्याः किंचित् परिसंसत चारुगात्र्याः॥५॥
तत्पश्चात् अनार के बीज की भाँति सुन्दर दाँत, मनोहर गात्र और अनुपम नेत्रवाली सीता का, जो वहाँ वृक्ष के नीचे खड़ी थीं, सोने के समान रंगवाला किंचित् मलिन रेशमी पीताम्बर तनिक-सा खिसक गया और भावी शुभ की सूचना देने लगा॥५॥
एतैर्निमित्तैरपरैश्च सुभ्रूः संचोदिता प्रागपि साधुसिद्धैः।
वातातपक्लान्तमिव प्रणष्टं वर्षेण बीजं प्रतिसंजहर्ष ॥६॥
इनसे तथा और भी अनेक शकुनों से, जिनके द्वारा पहले भी मनोरथसिद्धि का परिचय मिल चुका था, प्रेरित हुई सुन्दर भौंहोंवाली सीता उसी प्रकार हर्ष से खिल उठीं, जैसे हवा और धूप से सूखकर नष्ट हुआ बीज वर्षा के जल से सिंचकर हरा हो गया हो॥६॥
तस्याः पुनर्बिम्बफलोपमोष्ठं स्वक्षिकेशान्तमरालपक्ष्म।
वक्त्रं बभासे सितशुक्लदंष्ट्र राहोर्मुखाच्चन्द्र इव प्रमुक्तः॥७॥
उनका बिम्बफल के समान लाल ओठों, सुन्दर नेत्रों, मनोहर भौंहों, रुचिर केशों, बाँकी बरौनियों तथा श्वेत, उज्ज्वल दाँतों से सुशोभित मुख राहु के ग्रास से मुक्त हुए चन्द्रमा की भाँति प्रकाशित होने लगा॥ ७॥
सा वीतशोका व्यपनीततन्द्रा शान्तज्वरा हर्षविबुद्धसत्त्वा।
अशोभतार्या वदनेन शुक्ले शीतांशुना रात्रिरिवोदितेन॥८॥
उनका शोक जाता रहा, सारी थकावट दूर हो गयी, मन का ताप शान्त हो गया और हृदय हर्ष से खिल उठा। उस समय आर्या सीता शुक्लपक्ष में उदित हुए शीतरश्मि चन्द्रमा से सुशोभित रात्रि की भाँति अपने मनोहर मुख से अद्भुत शोभा पाने लगीं॥ ८॥
इत्यार्षे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये सुन्दरकाण्डे एकोनत्रिंशः सर्गः॥ २९॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के सुन्दरकाण्ड में उनतीसवाँ सर्ग पूरा हुआ॥२९॥