वाल्मीकि रामायण युद्धकाण्ड सर्ग 26 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Yuddhakanda Chapter 26
॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
युद्धकाण्डम्
षड्विंशः सर्गः (26)
सारण का रावण को पृथक-पृथक वानर यूथपतियों का परिचय देना
तद्वचः सत्यमक्लीबं सारणेनाभिभाषितम्।
निशम्य रावणो राजा प्रत्यभाषत सारणम्॥१॥
(शुक और) सारण के ये सच्चे और जोशीले शब्द सुनकर रावण ने सारण से कहा— ॥१॥
यदि मामभियुञ्जीरन् देवगन्धर्वदानवाः।
नैव सीतामहं दद्यां सर्वलोकभयादपि॥२॥
‘यदि देवता, गन्धर्व और दानव भी मुझसे युद्ध करने आ जायँ और समस्त लोक भय दिखाने लगे तो भी मैं सीता को नहीं दूंगा॥२॥
त्वं तु सौम्य परित्रस्तो हरिभिः पीडितो भृशम्।
प्रतिप्रदानमद्यैव सीतायाः साधु मन्यसे॥३॥
को हि नाम सपत्नो मां समरे जेतुमर्हति।
‘सौम्य! जान पड़ता है कि तुम्हें बंदरों ने बहुत तंग किया है। इसी से भयभीत होकर तुम आज ही सीता को लौटा देना ठीक समझने लगे हो। भला, कौन ऐसा शत्रु है, जो समराङ्गण में मुझे जीत सके’॥ ३ १/२॥
इत्युक्त्वा परुषं वाक्यं रावणो राक्षसाधिपः॥४॥
आरुरोह ततः श्रीमान् प्रासादं हिमपाण्डुरम्।
बहुतालसमुत्सेधं रावणोऽथ दिदृक्षया॥५॥
ऐसा कठोर वचन कहकर श्रीमान् राक्षसराज रावण वानरों की सेना का निरीक्षण करने के लिये अपनी कई ताल ऊँची और बर्फ के समान श्वेत रंग की अट्टालिका पर चढ़ गया॥ ४-५ ॥
ताभ्यां चराभ्यां सहितो रावणः क्रोधमूर्च्छितः।
पश्यमानः समुद्रं तं पर्वतांश्च वनानि च॥६॥
ददर्श पृथिवीदेशं सुसम्पूर्णं प्लवंगमैः।
उस समय रावण क्रोध से तमतमा उठा था। उसने उन दोनों गुप्तचरों के साथ जब समुद्र, पर्वत और वनों पर दृष्टिपात किया, तब पृथिवी का सारा प्रदेश वानरों से भरा दिखायी दिया॥ ६ १/२॥
तदपारमसह्यं च वानराणां महाबलम्॥७॥
आलोक्य रावणो राजा परिपप्रच्छ सारणम्।
वानरों की वह विशाल सेना अपार और असह्य थी। उसे देखकर राजा रावण ने सारण से पूछा- ॥ ७१/२॥
एषां के वानरा मुख्याः के शूराः के महाबलाः॥८॥
‘सारण! इन वानरों में कौन-कौन से मुख्य हैं? कौन शूरवीर हैं और कौन बल में बहुत बढ़े-चढ़े हैं? ॥ ८॥
के पूर्वमभिवर्तन्ते महोत्साहाः समन्ततः।
केषां शृणोति सुग्रीवः के वा यूथपयूथपाः॥९॥
सारणाचक्ष्व मे सर्वं किंप्रभावाः प्लवंगमाः।
‘कौन-कौनसे वानर महान् उत्साहसे सम्पन्न होकर युद्धमें आगे-आगे रहते हैं? सुग्रीव किनकी बातें सुनते हैं और कौन यूथपतियोंके भी यूथपति हैं? सारण! ये सारी बातें मुझे बताओ। साथ ही यह भी कहो कि उन वानरोंका प्रभाव कैसा है?’ ॥ ९ १/२॥
सारणो राक्षसेन्द्रस्य वचनं परिपृच्छतः॥१०॥
आबभाषेऽथ मुख्यज्ञो मुख्यास्तत्र वनौकसः।
इस प्रकार पूछते हुए राक्षसराज रावण का वचन सुनकर मुख्य-मुख्य वानरों को जानने वाले सारण ने उन मुख्य वानरों का परिचय देते हुए कहा- ॥ १० १/२ ॥
एष योऽभिमुखो लङ्कां नर्दस्तिष्ठति वानरः॥११॥
यूथपानां सहस्राणां शतेन परिवारितः।
यस्य घोषेण महता सप्राकारा सतोरणा॥१२॥
लङ्का प्रतिहता सर्वा सशैलवनकानना।
सर्वशाखामृगेन्द्रस्य सुग्रीवस्य महात्मनः॥१३॥
बलाग्रे तिष्ठते वीरो नीलो नामैष यूथपः।
‘महाराज! यह जो लङ्का की ओर मुख करके खड़ा है और गरज रहा है, एक लाख यूथपों से घिरा हुआ है तथा जिसकी गर्जना के अत्यन्त गम्भीर घोष से परकोटे, दरवाजे, पर्वत और वनों के सहित सारी लङ्का प्रतिहत हो गूंज उठी है, इसका नाम नील है। यह वीर यूथपतियों में से है। समस्त वानरों के राजा महामना सुग्रीव की सेना के आगे यही खड़ा होता है। ११–१३ १/२॥
बाहू प्रगृह्य यः पद्भ्यां महीं गच्छति वीर्यवान्॥१४॥
लङ्कामभिमुखः कोपादभीक्ष्णं च विजृम्भते।
गिरिशृङ्गप्रतीकाशः पद्मकिंजल्कसंनिभः॥१५॥
स्फोटयत्यतिसंरब्धो लाङ्गलं च पुनः पुनः।
यस्य लाङ्गलशब्देन स्वनन्ति प्रदिशो दश॥१६॥
एष वानरराजेन सुग्रीवेणाभिषेचितः।
युवराजोऽङ्गदो नाम त्वामाह्वयति संयुगे॥१७॥
‘जो पराक्रमी वानर दोनों उठी हुई बाँहों को एक दूसरी से पकड़कर दोनों पैरों से पृथ्वी पर टहल रहा है, लङ्का की ओर मुख करके क्रोधपूर्वक देखता है और बारंबार अंगड़ाई लेता है, जिसका शरीर पर्वत शिखर के समान ऊँचा है, जिसकी कान्ति कमलकेसर के समान सुनहले रंग की है, जो रोष से भरकर बारंबार अपनी पूँछ पटक रहा है तथा जिसकी पूँछके पटकने की आवाज से दसों दिशाएँ गूंज उठती हैं, यह युवराज अङ्गद है। वानरराज सुग्रीव ने इसका युवराज के पद पर अभिषेक किया है। यह अपने साथ युद्ध के लिये आपको ललकारता है॥ १४ -१७॥
वालिनः सदृशः पुत्रः सुग्रीवस्य सदा प्रियः।
राघवार्थे पराक्रान्तः शक्रार्थे वरुणो यथा॥१८॥
‘वाली का यह पुत्र अपने पिता के समान ही बलशाली है। सुग्रीव को यह सदा ही प्रिय है। जैसे वरुण इन्द्र के लिये पराक्रम प्रकट करते हैं, उसी प्रकार यह श्रीरामचन्द्रजी के लिये अपना पुरुषार्थ प्रकट करने के लिये उद्यत है॥ १८ ॥
एतस्य सा मतिः सर्वा यद् दृष्टा जनकात्मजा।
हनूमता वेगवता राघवस्य हितैषिणा॥१९॥
‘श्रीरघुनाथजी का हित चाहने वाले वेगशाली हनुमान् जी ने जो यहाँ आकर जनकनन्दिनी सीता का दर्शन किया, उसके भीतर इस अङ्गद की ही सारी बुद्धि काम कर रही थी॥ १९॥
बहूनि वानरेन्द्राणामेष यूथानि वीर्यवान्।
परिगृह्याभियाति त्वां स्वेनानीकेन मर्दितुम्॥२०॥
‘पराक्रमी अङ्गद वानरशिरोमणियों के बहुत-से यूथ लिये अपनी सेना के साथ आपको कुचल डालने के लिये आ रहा है॥२०॥
अनुवालिसुतस्यापि बलेन महता वृतः।
वीरस्तिष्ठति संग्रामे सेतुहेतुरयं नलः॥२१॥
‘अङ्गद के पीछे संग्रामभूमि में जो वीर विशाल सेना से घिरा हुआ खड़ा है, इसका नाम नल है। यही सेतु-निर्माण का प्रधान हेतु है॥ २१ ॥
ये तु विष्टभ्य गात्राणि क्ष्वेडयन्ति नदन्ति च।
उत्थाय च विजृम्भन्ते क्रोधेन हरिपुङ्गवाः॥२२॥
एते दुष्प्रसहा घोराश्चण्डाश्चण्डपराक्रमाः।
अष्टौ शतसहस्राणि दशकोटिशतानि च।
य एनमनुगच्छन्ति वीराश्चन्दनवासिनः॥२३॥
एषैवाशंसते लङ्कां स्वेनानीकेन मर्दितुम्।
‘जो अपने अङ्गों को सुस्थिर करके सिंहनाद करते और गर्जते हैं तथा जो कपिश्रेष्ठ वीर अपने आसनों से उठकर क्रोधपूर्वक अंगड़ाई लेते हैं, इनके वेग को सह लेना अत्यन्त कठिन है। ये बड़े भयंकर, अत्यन्त क्रोधी और प्रचण्ड पराक्रमी हैं। इनकी संख्या दस अरब और आठ लाख है। ये सब वानर तथा चन्दनवन में निवास करने वाले वीर वानर इस यूथपति नल का ही अनुसरण करते हैं। यह नल भी अपनी सेना द्वारा लङ्कापुरी को कुचल देनेका हौसला रखता है।॥ २२-२३ १/२॥
श्वेतो रजतसंकाशश्चपलो भीमविक्रमः॥२४॥
बुद्धिमान् वानरः शूरस्त्रिषु लोकेषु विश्रुतः।
तूर्णं सुग्रीवमागम्य पुनर्गच्छति वानरः॥ २५॥
विभजन वानरी सेनामनीकानि प्रहर्षयन्।
‘यह जो चाँदी के समान सफेद रंग का चञ्चल वानर दिखायी देता है, इसका नाम श्वेत है। यह भयंकर पराक्रम करने वाला, बुद्धिमान्, शूरवीर औरतीनों लोकों में विख्यात है। श्वेत बड़ी तेजी से सुग्रीव के
पास आकर फिर लौट जाता है। यह वानरीसेना का विभाग करता और सैनिकों में हर्ष तथा उत्साह भरता है॥ २४-२५ १/२॥
यः पुरा गोमतीतीरे रम्यं पर्येति पर्वतम्॥२६॥
नाम्ना संरोचनो नाम नानानगयुतो गिरिः।
तत्र राज्य प्रशास्त्येष कुमुदो नाम यूथपः॥२७॥
‘गोमती के तट पर जो नाना प्रकार के वृक्षों से युक्त संरोचन नामक पर्वत है, उसी रमणीय पर्वत के चारों ओर जो पहले विचरा करता था और वहीं अपने वानरराज्य का शासन करता था, वही यह कुमुद नामक यूथपति है॥
योऽसौ शतसहस्राणि सहर्षं परिकर्षति।
यस्य वाला बहुव्यामा दीर्घलाङ्गलमाश्रिताः॥२८॥
ताम्राः पीताः सिताः श्वेताः प्रकीर्णा घोरदर्शनाः।
अदीनो वानरश्चण्डः संग्राममभिकाङ्क्षति।
एषोऽप्याशंसते लङ्कां स्वेनानीकेन मर्दितुम्॥२९॥
‘वह जो लाखों वानर-सैनिकों को सहर्ष अपने साथ खींचे लाता है, जिसकी लंबी दुम में बहुत बड़े-बड़े लाल, पीले, भूरे और सफेद रंग के बाल फैले हुए हैं और देखने में बड़े भयंकर हैं तथा जो कभी दीनता न दिखाकर सदा युद्ध की ही इच्छा रखता है, उस वानर का नाम चण्ड है। यह चण्ड भी अपनी सेना द्वारा लङ्का को कुचल देने की इच्छा रखता है। २८-२९॥
यस्त्वेष सिंहसंकाशः कपिलो दीर्घकेसरः।
निभृतः प्रेक्षते लङ्कां दिधक्षन्निव चक्षुषा॥३०॥
विन्ध्यं कृष्णगिरिं सह्यं पर्वतं च सुदर्शनम्।
राजन् सततमध्यास्ते स रम्भो नाम यूथपः।
शतं शतसहस्राणां त्रिंशच्च हरिपुङ्गवाः॥३१॥
यं यान्तं वानरा घोराश्चण्डाश्चण्डपराक्रमाः।
परिवार्यानुगच्छन्ति लङ्कां मर्दितुमोजसा॥३२॥
‘राजन् ! जो सिंह के समान पराक्रमी और कपिल वर्ण का है, जिसकी गर्दन में लंबे-लंबे बाल हैं और जो ध्यान लगाकर लङ्का की ओर इस प्रकार देख रहा है, मानो इसे भस्म कर देगा, वह रम्भ नामक यूथपति है। वह निरन्तर विन्ध्य, कृष्णगिरि, सह्य और सुदर्शन आदि पर्वतों पर रहा करता है। जब वह युद्ध के लिये चलता है, उस समय उसके पीछे एक करोड़ तीस श्रेष्ठ भयंकर, अत्यन्त क्रोधी और प्रचण्ड पराक्रमी वानर चलते हैं। वे सब-के-सब अपने बल से लङ्का को मसल डालने के लिये रम्भ को सब ओर से घेरे हुए आ रहे हैं॥ ३०–३२॥
यस्तु कौँ विवृणुते जृम्भते च पुनः पुनः।
न तु संविजते मृत्योर्न च सेनां प्रधावति॥३३॥
प्रकम्पते च रोषेण तिर्यक् च पुनरीक्षते।
पश्य लाङ्गलविक्षेपं क्ष्वेडत्येष महाबलः॥३४॥
‘जो कानों को फैलाता है, बारंबार जंभाई लेता है, मृत्यु से भी नहीं डरता है और सेना के पीछे न जाकर अर्थात् सेना का भरोसा न करके अकेले ही युद्ध करना चाहता है, रोष से काँप रहा है, तिरछी नजर से देखता है और पूंछ फटकारकर सिंहनाद करता है, इसका नाम शरभ है। देखिये, यह महाबली वानर कैसी गर्जना करता है॥ ३३-३४॥
महाजवो वीतभयो रम्यं साल्वेयपर्वतम्।
राजन् सततमध्यास्ते शरभो नाम यूथपः॥ ३५॥
‘इसका वेग महान् है। भय तो इसे छूतक नहीं गया है। राजन्! यह यूथपति शरभ सदा रमणीय साल्वेय पर्वत पर निवास करता है॥ ३५ ॥
एतस्य बलिनः सर्वे विहारा नाम यूथपाः।
राजन् शतसहस्राणि चत्वारिंशत्तथैव च ॥३६॥
‘इसके पास जो यूथपति हैं, उन सबकी ‘विहार’ संज्ञा है। वे बड़े बलवान् हैं। राजन्! उनकी संख्या एक लाख चालीस हजार है॥ ३६॥
यस्तु मेघ इवाकाशं महानावृत्य तिष्ठति।
मध्ये वानरवीराणां सुराणामिव वासवः॥ ३७॥
भेरीणामिव संनादो यस्यैष श्रूयते महान्।
घोषः शाखामृगेन्द्राणां संग्राममभिकाङ्क्षताम्॥३८॥
एष पर्वतमध्यास्ते पारियात्रमनुत्तमम्।
युद्धे दुष्प्रसहो नित्यं पनसो नाम यूथपः॥३९॥
एनं शतसहस्राणां शतार्धं पर्युपासते।
यूथपा यूथपश्रेष्ठं येषां यूथानि भागशः॥४०॥
‘जो विशाल वानर मेघ के समान आकाश को घेरे हुए खड़ा है तथा वानरवीरों के बीच में ऐसा जान पड़ता है, जैसे देवताओं में इन्द्र हों, युद्ध की इच्छावाले वानरों के बीच में जिसकी गम्भीर गर्जना ऐसी सुनायी देती है, मानो बहुत-सी भेरियों का तुमुल नाद हो रहा हो तथा जो युद्ध में दुःसह है, वह ‘पनस’ नाम से प्रसिद्ध यूथपति है। यह पनस परम उत्तम पारियात्र पर्वतपर निवास करता है। यूथपतियों में श्रेष्ठ पनस की सेवा में पचास लाख यूथपति रहते हैं, जिनके अपने अपने यूथ अलग-अलग हैं॥ ३७–४०॥
यस्तु भीमां प्रवल्गन्ती चमू तिष्ठति शोभयन्।
स्थितां तीरे समुद्रस्य द्वितीय इव सागरः॥४१॥
एष दर्दुरसंकाशो विनतो नाम यूथपः।
पिबंश्चरति यो वेणां नदीनामुत्तमां नदीम्॥४२॥
षष्टिः शतसहस्राणि बलमस्य प्लवंगमाः।
‘जो समुद्र के तट पर स्थित हुई इस उछलती-कूदती भीषण सेना को दूसरे मूर्तिमान् समुद्र की भाँति सुशोभित करता हुआ खड़ा है, वह दर्दुर पर्वत के समान विशालकाय वानर विनत नाम से प्रसिद्ध यूथपति है। वह नदियों में श्रेष्ठ वेणा नदी का पानी पीता हुआ विचरता है। साठ लाख वानर उसके सैनिक हैं॥ ४१-४२ १/२॥
त्वामाह्वयति युद्धाय क्रोधनो नाम वानरः॥४३॥
विक्रान्ता बलवन्तश्च यथा यूथानि भागशः।
‘जो युद्ध के लिये सदा आपको ललकारता रहता है तथा जिसके पास बल-विक्रमशाली अनेक यूथपति रहते हैं और उन यूथपतियों के पास पृथक्-पृथक् बहुत-से यूथ हैं, वह ‘क्रोधन’ नाम से प्रसिद्ध वानर है॥ ४३ १/२॥
यस्तु गैरिकवर्णाभं वपुः पुष्यति वानरः॥४४॥
अवमत्य सदा सर्वान् वानरान् बलदर्पितः।
गवयो नाम तेजस्वी त्वां क्रोधादभिवर्तते॥४५॥
एनं शतसहस्राणि सप्ततिः पर्युपासते।
एषैवाशंसते लङ्कां स्वेनानीकेन मर्दितुम्॥४६॥
‘वह जो गेरु के समान लाल रंग के शरीर का पोषण करता है, उस तेजस्वी वानर का नाम ‘गवय’ है। उसे अपने बलपर बड़ा घमंड है। वह सदा सब वानरों का तिरस्कार किया करता है। देखिये, कितने रोष से वह आपकी ओर बढ़ा आ रहा है। इसकी सेवा में सत्तर लाख वानर रहते हैं। यह भी अपनी सेना के द्वारा लङ्का को धूल में मिला देने की इच्छा रखता है॥ ४४– ४६॥
एते दुष्प्रसहा वीरा येषां संख्या न विद्यते।
यूथपा यूथपश्रेष्ठास्तेषां यूथानि भागशः॥४७॥
‘ये सारे-के-सारे वानर दुःसह वीर हैं। इनकी गणना करना भी असम्भव है। यूथपतियों में श्रेष्ठ जो यूथप हैं, उन सबके अलग-अलग यूथ हैं’॥४७॥
इत्यार्षे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये युद्धकाण्डे षड्विंशः सर्गः॥२६॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के युद्धकाण्ड में छब्बीसवाँ सर्ग पूरा हुआ।२६॥
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