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वाल्मीकि रामायण युद्धकाण्ड हिंदी अर्थ सहित

वाल्मीकि रामायण युद्धकाण्ड सर्ग 28 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Yuddhakanda Chapter 28

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॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
युद्धकाण्डम्
अष्टाविंशः सर्गः (28)

शुक के द्वारा सुग्रीव के मन्त्रियों का, मैन्द और द्विविद का, हनुमान् का, श्रीराम, लक्ष्मण, विभीषण और सग्रीव का परिचय देकर वानरसेना की संख्या का निरूपण करना

 

सारणस्य वचः श्रुत्वा रावणं राक्षसाधिपम्।
बलमादिश्य तत् सर्वं शुको वाक्यमथाब्रवीत्॥१॥

‘उस सारी वानरीसेना का परिचय देकर जब सारण चुप हो गया, तब उसका कथन सुनकर शुक ने राक्षसराज रावण से कहा— ॥१॥

स्थितान् पश्यसि यानेतान् मत्तानिव महाद्विपान्।
न्यग्रोधानिव गाङ्गेयान् सालान् हैमवतानिव॥२॥
एते दुष्प्रसहा राजन् बलिनः कामरूपिणः।
दैत्यदानवसंकाशा युद्धे देवपराक्रमाः॥३॥

‘राजन् ! जिन्हें आप मतवाले महागजराजों के समान वहाँ खड़ा देख रहे हैं, जो गङ्गातट के वटवृक्षों और हिमालय के सालवृक्षों के समान जान पड़ते हैं, इनका वेग दुस्सह है। ये इच्छानुसार रूप धारण करने वाले और बलवान् हैं। दैत्यों और दानवों के समान शक्तिशाली तथा युद्ध में देवताओं के समान पराक्रम प्रकट करने वाले हैं। २-३॥

एषां कोटिसहस्राणि नव पञ्च च सप्त च।
तथा शङ्कसहस्राणि तथा वृन्दशतानि च॥४॥
एते सुग्रीवसचिवाः किष्किन्धानिलयाः सदा।
हरयो देवगन्धर्वैरुत्पन्नाः कामरूपिणः॥५॥

‘इनकी संख्या इक्कीस कोटि सहस्र, सहस्र शङ्क और सौ वृन्द है*। ये सब-के-सब वानर सदा किष्किन्धा में रहने वाले सुग्रीव के मन्त्री हैं। इनकी उत्पत्ति देवताओं और गन्धर्वो से हुई है। ये सभी इच्छानुसार रूप धारण करने में समर्थ हैं। ४-५॥
* इन संख्याओं का स्पष्टीकरण इसी सर्ग के अन्त में दी हुई परिभाषा के अनुसार समझना चाहिये।

यौ तौ पश्यसि तिष्ठन्तौ कुमारौ देवरूपिणौ।
मैन्दश्च द्विविदश्चैव ताभ्यां नास्ति समो युधि॥
ब्रह्मणा समनुज्ञातावमृतप्राशिनावुभौ।
आशंसेते यथा लङ्कामेतौ मर्दितुमोजसा॥७॥

‘राजन्! आप इन वानरों में देवताओं के समान रूपवाले जिन दो वानरों को खड़ा देख रहे हैं उनके नाम हैं मैन्द और द्विविद। युद्ध में उनकी बराबरी करने वाला कोई नहीं है। ब्रह्माजी की आज्ञा से उन दोनों ने अमृतपान किया है। ये दोनों वीर अपने बलपराक्रम से लङ्का को कुचल डालने की इच्छा रखते हैं। ६-७॥

यं तु पश्यसि तिष्ठन्तं प्रभिन्नमिव कुञ्जरम्।
यो बलात् क्षोभयेत् क्रुद्धः समुद्रमपि वानरः॥८॥
एषोऽभिगन्ता लङ्कायां वैदेह्यास्तव च प्रभो।
एनं पश्य पुरा दृष्टं वानरं पुनरागतम्॥९॥
ज्येष्ठः केसरिणः पुत्रो वातात्मज इति श्रुतः।
हनूमानिति विख्यातो लङ्घितो येन सागरः॥१०॥

‘इधर जिसे आप मद की धारा बहाने वाले मतवाले हाथी की भाँति खड़ा देख रहे हैं, जो वानर कुपित होने पर समुद्र को भी विक्षुब्ध कर सकता है, जो लङ्का में आपके पास आया था और विदेहनन्दिनी सीता से मिलकर गया था, उसे देखिये। पहले का देखा हुआ यह वानर फिर आया है। यह केसरी का बड़ा पुत्र है। पवनपुत्र के भी नाम से विख्यात है। उसे लोग हनुमान् कहते हैं। इसी ने पहले समुद्र लाँघा था॥ ८ —१०॥

कामरूपो हरिश्रेष्ठो बलरूपसमन्वितः।
अनिवार्यगतिश्चैव यथा सततगः प्रभुः॥११॥

‘बल और रूप से सम्पन्न यह श्रेष्ठ वानर अपनी इच्छा के अनुसार रूप धारण कर सकता है। इसकी गति कहीं नहीं रुकती। यह वायु के समान सर्वत्र जा सकता है॥

उद्यन्तं भास्करं दृष्ट्वा बालः किल बुभुक्षितः।
त्रियोजनसहस्रं तु अध्वानमवतीर्य हि॥१२॥
आदित्यमाहरिष्यामि न मे क्षुत् प्रतियास्यति।
इति निश्चित्य मनसा पुप्लुवे बलदर्पितः॥१३॥

‘जब यह बालक था उस समय की बात है, एक दिन इसको बहुत भूख लगी थी। उस समय उगते हुए सूर्य को देखकर यह तीन हजार योजन ऊँचा उछल गया था। उस समय मन-ही-मन यह निश्चय करके कि ‘यहाँ के फल आदि से मेरी भूख नहीं जायगी, इसलिये सूर्य को (जो आकाश का दिव्य फल है) ले आऊँगा’ यह बलाभिमानी वानर ऊपर को उछला था॥ १२-१३॥

अनाधृष्यतमं देवमपि देवर्षिराक्षसैः।
अनासाद्यैव पतितो भास्करोदयने गिरौ॥१४॥

‘देवर्षि और राक्षस भी जिन्हें परास्त नहीं कर सकते, उन सूर्यदेवतक न पहुँचकर यह वानर उदयगिरिपर ही गिर पड़ा॥१४॥

पतितस्य कपेरस्य हनुरेका शिलातले।
किंचिद् भिन्ना दृढहनुर्हनूमानेष तेन वै॥१५॥

‘वहाँ के शिलाखण् डपर गिरने के कारण इस वानर की एक हनु (ठोढ़ी) कुछ कट गयी; साथ ही अत्यन्त दृढ़ हो गयी, इसलिये यह ‘हनुमान्’ नाम से प्रसिद्ध हुआ॥ १५॥

सत्यमागमयोगेन ममैष विदितो हरिः।
नास्य शक्यं बलं रूपं प्रभावो वानुभाषितुम्॥१६॥
एष आशंसते लङ्कामेको मथितुमोजसा।
येन जाज्वल्यतेऽसौ वै धूमकेतुस्तवाद्य वै।
लङ्कायां निहितश्चापि कथं विस्मरसे कपिम्॥१७॥

‘विश्वसनीय व्यक्तियों के सम्पर्क से मैंने इस वानर का वृत्तान्त ठीक-ठीक जाना है। इसके बल, रूप और प्रभाव का पूर्णरूप से वर्णन करना किसी के लिये भी असम्भव है। यह अकेला ही सारी लङ्का को मसल देना चाहता है। जिसे आपने लङ्का में रोक रखा था, उस अग्नि को भी जिसने अपनी पूँछ द्वारा प्रज्वलित करके सारी लङ्का जला डाली, उस वानर को आप भूलते कैसे हैं? ॥ १६-१७॥

यश्चैषोऽनन्तरः शूरः श्यामः पद्मनिभेक्षणः।
इक्ष्वाकूणामतिरथो लोके विश्रुतपौरुषः॥१८॥

‘हनुमान जी के पास ही जो कमल के समान नेत्रवाले साँवले शूरवीर विराज रहे हैं, वे इक्ष्वाकुवंश के अतिरथी हैं। इनका पौरुष सम्पूर्ण लोकों में प्रसिद्ध है॥ १८॥

यस्मिन् न चलते धर्मो यो धर्मं नातिवर्तते।
यो ब्राह्ममस्त्रं वेदांश्च वेद वेदविदां वरः॥१९॥

‘धर्म उनसे कभी अलग नहीं होता। ये धर्मका कभी उल्लङ्घन नहीं करते तथा ब्रह्मास्त्र और वेद दोनोंके ज्ञाता हैं। वेदवेत्ताओंमें इनका बहुत ऊँचा स्थान है॥ १९॥

यो भिन्द्याद् गगनं बाणैर्मेदिनीं वापि दारयेत्।
यस्य मृत्योरिव क्रोधः शक्रस्येव पराक्रमः॥२०॥

‘ये अपने बाणों से आकाश का भी भेदन कर सकते हैं, पृथ्वी को भी विदीर्ण करने की क्षमता रखते हैं। इनका क्रोध मृत्यु के समान और पराक्रम इन्द्र के तुल्य है॥२०॥

यस्य भार्या जनस्थानात् सीता चापि हृता त्वया।
स एष रामस्त्वां राजन् योद्धं समभिवर्तते॥२१॥

‘राजन्! जिनकी भार्या सीता को आप जनस्थान से हर लाये हैं, वे ही ये श्रीराम आपसे युद्ध करने के लिये सामने आकर खड़े हैं॥ २१॥

यस्यैष दक्षिणे पार्वे शुद्धजाम्बूनदप्रभः।
विशालवक्षास्ताम्राक्षो नीलकुञ्चितमूर्धजः॥२२॥
एषो हि लक्ष्मणो नाम भ्रातुः प्रियहिते रतः।
नये युद्धे च कुशलः सर्वशस्त्रभृतां वरः॥२३॥

‘उनके दाहिने भाग में जो ये शुद्ध सुवर्ण के समान कान्तिमान्, विशाल वक्षःस्थल से सुशोभित, कुछ कुछ लाल नेत्रवाले तथा मस्तक पर काले-काले धुंघराले केश धारण करने वाले हैं, इनका नाम लक्ष्मण है। ये अपने भाई के प्रिय और हित में लगे रहने वाले हैं, राजनीति और युद्ध में कुशल हैं तथा सम्पूर्ण शस्त्रधारियों में श्रेष्ठ हैं।। २२-२३॥ ।

अमर्षी दुर्जयो जेता विक्रान्तश्च जयी बली।
रामस्य दक्षिणो बाहुर्नित्यं प्राणो बहिश्चरः॥२४॥

‘ये अमर्षशील, दुर्जय, विजयी, पराक्रमी, शत्रु को पराजित करने वाले तथा बलवान् हैं। लक्ष्मण सदा ही श्रीराम के दाहिने हाथ और बाहर विचरने वाले प्राण हैं॥

नह्येष राघवस्यार्थे जीवितं परिरक्षति।
एषैवाशंसते युद्धे निहन्तुं सर्वराक्षसान्॥२५॥

‘इन्हें श्रीरघुनाथजी के लिये अपने प्राणों की रक्षा का भी ध्यान नहीं रहता। ये अकेले ही युद्ध में सम्पूर्ण राक्षसों का संहार कर देने की इच्छा रखते हैं॥ २५ ॥

यस्तु सव्यमसौ पक्षं रामस्याश्रित्य तिष्ठति।
रक्षोगणपरिक्षिप्तो राजा ह्येष विभीषणः॥२६॥
श्रीमता राजराजेन लङ्कायामभिषेचितः।
त्वामसौ प्रतिसंरब्धो युद्धायैषोऽभिवर्तते॥२७॥

‘श्रीरामचन्द्रजी की बायीं ओर जो राक्षसों से घिरे हुए खड़े हैं, ये राजा विभीषण हैं। राजाधिराज श्रीराम ने इन्हें लङ्का के राज्य पर अभिषिक्त कर दिया है। अब ये आप पर कुपित होकर युद्ध के लिये सामने आ गये हैं॥

यं तु पश्यसि तिष्ठन्तं मध्ये गिरिमिवाचलम्।
सर्वशाखामृगेन्द्राणां भर्तारममितौजसम्॥२८॥

‘जिन्हें आप सब वानरों के बीच में पर्वत के समान अविचल भाव से खड़ा देखते हैं, वे समस्त वानरों के स्वामी अमित तेजस्वी सुग्रीव हैं॥ २८॥

तेजसा यशसा बुद्ध्या बलेनाभिजनेन च।
यः कपीनतिबभ्राज हिमवानिव पर्वतः॥२९॥

‘जैसे हिमालय सब पर्वतों में श्रेष्ठ है, उसी प्रकार वे तेज, यश, बुद्धि, बल और कुल की दृष्टि से समस्त वानरों में सर्वोपरि विराजमान हैं॥ २९॥

किष्किन्धां यः समध्यास्ते गुहां सगहनद्रुमाम्।
दुर्गा पर्वतदुर्गम्यां प्रधानैः सह यूथपैः॥३०॥

‘ये गहन वृक्षों से युक्त किष्किन्धा नामक दुर्गम गुफा में निवास करते हैं। पर्वतों के कारण उसमें प्रवेश करना अत्यन्त कठिन है। इनके साथ वहाँ प्रधानप्रधान यूथपति भी रहते हैं॥३०॥

यस्यैषा काञ्चनी माला शोभते शतपुष्करा।
कान्ता देवमनुष्याणां यस्यां लक्ष्मीः प्रतिष्ठिता॥

‘इनके गले में जो सौ कमलों की सुवर्णमयी माला सुशोभित है, उसमें सर्वदा लक्ष्मीदेवी का निवास है। उसे देवता और मनुष्य सभी पाना चाहते हैं॥ ३१॥

एतां मालां च तारां च कपिराज्यं च शाश्वतम्।
सुग्रीवो वालिनं हत्वा रामेण प्रतिपादितः॥३२॥

‘भगवान् श्रीराम ने वाली को मारकर यह माला, तारा और वानरों का राज्य—ये सब वस्तुएँ सुग्रीव को समर्पित कर दीं॥ ३२॥

शतं शतसहस्राणां कोटिमाहुर्मनीषिणः।
शतं कोटिसहस्राणां शङ्करित्यभिधीयते॥३३॥

‘मनीषी पुरुष सौ लाख की संख्या को एक कोटि कहते हैं और सौ सहस्र कोटि (एक नील)-को एक शङ्क कहा जाता है॥ ३३॥

शतं शङ्कसहस्राणां महाशङ्करिति स्मृतः।
महाशङ्कसहस्राणां शतं वृन्दमिहोच्यते॥ ३४॥

‘एक लाख शङ्क को महाशङ्क नाम दिया गया है। एक लाख महाशङ्कु को वृन्द कहते हैं ॥ ३४॥

शतं वृन्दसहस्राणां महावृन्दमिति स्मृतम्।
महावृन्दसहस्राणां शतं पद्ममिहोच्यते॥ ३५॥

‘एक लाख वृन्द का नाम महावृन्द है। एक लाख महावृन्द को पद्म कहते हैं॥ ३५ ॥

शतं पद्मसहस्राणां महापद्ममिति स्मृतम्।
महापद्मसहस्राणां शतं खर्वमिहोच्यते॥३६॥

‘एक लाख पद्म को महापद्म माना गया है। एक लाख महापद्म को खर्व कहते हैं॥ ३६॥

शतं खर्वसहस्राणां महाखर्वमिति स्मृतम्।
महाखर्वसहस्राणां समुद्रमभिधीयते।
शतं समुद्रसाहस्रमोघ इत्यभिधीयते॥३७॥
शतमोघसहस्राणां महौघा इति विश्रुतः।

‘एक लाख खर्व का महाखर्व होता है। एक सहस्र महाखर्व को समुद्र कहते हैं। एक लाख समुद्र को  ओघ कहते हैं और एक लाख ओघ की महौघ संज्ञा है॥ ३७ १/२॥

एवं कोटिसहस्रेण शङ्कनां च शतेन च।
महाशङ्कसहस्रेण तथा वृन्दशतेन च॥ ३८॥
महावृन्दसहस्रेण तथा पद्मशतेन च।
महापद्मसहस्रेण तथा खर्वशतेन च॥३९॥
समुद्रेण च तेनैव महौघेन तथैव च
एष कोटिमहौघेन समुद्रसदृशेन च॥४०॥
विभीषणेन वीरेण सचिवैः परिवारितः।
सुग्रीवो वानरेन्द्रस्त्वां युद्धार्थमनुवर्तते।
महाबलवृतो नित्यं महाबलपराक्रमः॥४१॥

‘इस प्रकार सहस्र कोटि, सौ शङ्क, सहस्रमहाशङ्क, सौ वृन्द, सहस्र महावृन्द, सौ पद्म, सहस्र महापद्म,सौ खर्व, सौ समुद्र, सौ महौघ तथा समुद्र-सदृश (सौ) कोटि महौघ सैनिकों से, वीर विभीषण से तथा अपने सचिवों से घिरे हुए वानरराज सुग्रीव आपको युद्ध के लिये ललकारते हुए सामने आ रहे हैं। विशाल सेना से घिरे हुए सुग्रीव महान् बल और पराक्रम से सम्पन्न हैं॥

इमां महाराज समीक्ष्य वाहिनी मुपस्थितां प्रज्वलितग्रहोपमाम्।
ततः प्रयत्नः परमो विधीयतां यथा जयः स्यान्न परैः पराभवः॥४२॥

‘महाराज! यह सेना एक प्रकाशमान ग्रह के समान है। इसे उपस्थित देख आप कोई ऐसा उपाय करें, जिससे आपकी विजय हो और शत्रुओं के सामने आपको नीचा न देखना पड़े’ ॥ ४२ ॥

इत्यार्षे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये युद्धकाण्डेऽष्टाविंशः सर्गः ॥२८॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आपरामायण आदिकाव्य के युद्धकाण्ड में अट्ठाईसवाँ सर्ग पूरा हुआ।२८॥


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Shivangi

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