आनन्दलहरी स्तोत्र हिंदी अंग्रेजी अर्थ सहित | Ananda Lahari Lyrics in Sanskrit with Hindi English Meaning
आनन्दलहरी परिचय:
आदिगुरू भगवत्पाद शंकराचार्य ने सौन्दर्य लहरी नामक ग्रन्थ में मां त्रिपुरसुन्दरी के स्वरूप का बहुत ही सुन्दर वर्णन किया है। उनके अनिवर्चनीय स्वरूप का वर्णन करने के लिए ही उन्होंने सौन्दर्य लहरी ग्रन्थ की रचना की जिसमें उन्होंने बहुत ही सुन्दर ढंग से मां की स्तुति की है। वास्तव में इसके दो खण्ड हैं…..आनन्द लहरी और सौन्दर्य लहरी। इन दोनों को एकत्र करके ही सौन्दर्य लहरी का नाम दिया गया है। इसमें प्रस्तुत स्तुति बहुत ही प्रभावी और रहस्यों से परिपूर्ण है। इससे कई साधनांए एवं ऐसे प्रयोग सिद्ध होते हैं, जो मानव जीवन के लिए अत्यन्त ही महत्वपूर्ण हैं।
आनन्दलहरी स्तोत्र हिंदी अंग्रेजी अर्थ सहित
भवानि स्तोतुं त्वां प्रभवति चतुर्भिर्न वदनैः
प्रजानामीशानस्त्रिपुरमथनः पञ्चभिरपि।
न षड्भिः सेनानीर्दशशतमुखैरप्यहिपतिस्तदान्येषां
केषां कथय कथमस्मिन्नवसरः॥१॥
bhavāni stotuṃ tvāṃ prabhavati caturbhirna vadanaiḥ
prajānāmīśānastripuramathanaḥ pañcabhirapi।
na ṣaḍbhiḥ senānīrdaśaśatamukhairapyahipatistadānyeṣāṃ
keṣāṃ kathaya kathamasminnavasaraḥ॥1॥
हे भवानि ! प्रजापति ब्रह्माजी अपने चार मुखों से भी तुम्हारी स्तुति करने में समर्थ नहीं हैं, त्रिपुरविनाशक महादेवजी पाँच मुखों से भी तुम्हारा स्तवन नहीं कर सकते, कार्तिकेय जी तो छः मुखों के रहते हुए भी असमर्थ हैं, इने-गिने मुखवालों की तो बात ही क्या है, नागराज शेष हजार मुखों से भी तुम्हारा गुणगान नहीं कर पाते, फिर तुम्हीं बताओ, जब इनकी यह दशा है तो दूसरे किसी को और किस प्रकार तुम्हारी स्तुति का अवसर प्राप्त हो सकता है? ॥१॥
घृतक्षीरद्राक्षामधुमधुरिमा कैरपि
पदैविशिष्यानाख्येयो भवति रसनामात्रविषयः।
तथा ते सौन्दर्यं परमशिवदृङ्मात्रविषयः कथङ्कारं
ब्रूमः सकलनिगमागोचरगुणे॥२॥
ghṛtakṣīradrākṣāmadhumadhurimā kairapi
padaiviśiṣyānākhyeyo bhavati rasanāmātraviṣayaḥ।
tathā te saundaryaṃ paramaśivadṛṅmātraviṣayaḥ kathaṅkāraṃ
brūmaḥ sakalanigamāgocaraguṇe॥2॥
घी, दूध, दाख और मधु की मधुरता को किसी भी शब्द से विशेषरूप से नहीं बताया जा सकता, उसे तो केवल रसना (जिह्वा) ही जानती है। इसी प्रकार तुम्हारा सौन्दर्य केवल महादेवजी के नेत्रों का ही विषय है, उसे हम क्योंकर बतावें? हे देवि! तुम्हारे गुणों का वर्णन तो सारे वेद भी नहीं कर सकते॥२॥
मुखे ते ताम्बूलं नयनयुगले कज्जलकला
ललाटे काश्मीरं विलसति गले मौक्तिकलता।
स्फुरत्काञ्ची शाटी पृथुकटितटे हाटकमयी
भजामि त्वां गौरी नगपतिकिशोरीमविरतम्॥३॥
mukhe te tāmbūlaṃ nayanayugale kajjalakalā
lalāṭe kāśmīraṃ vilasati gale mauktikalatā।
sphuratkāñcī śāṭī pṛthukaṭitaṭe hāṭakamayī
bhajāmi tvāṃ gaurī nagapatikiśorīmaviratam॥3॥
तुम्हारे मुख में पान है, नेत्रों में काजल की पतली रेखा है, ललाट में केसर की बिंदी है, गले में मोती का हार सुशोभित हो रहा है, कटि के निम्नभाग में सुनहली साड़ी है, जिसपर रत्नमयी मेखला (करधनी) चमक रही है, ऐसी वेष-भूषा से सजी हुई गिरिराज हिमालय की गौरवर्णा कन्या तुमको मैं सदा ही भजता हूँ॥३॥
विराजन्मन्दारद्रुमकुसुमहारस्तनतटी
नदरीणानादश्रवणविलसत्कुण्डलगुणा।
नताङ्गी मातङ्गीरुचिरगतिभङ्गी भगवती
सती शम्भोरम्भोरुहचटुलचक्षुर्विजयते॥४॥
virājanmandāradrumakusumahārastanataṭī
nadarīṇānādaśravaṇavilasatkuṇḍalaguṇā।
natāṅgī mātaṅgīruciragatibhaṅgī bhagavatī
satī śambhorambhoruhacaṭulacakṣurvijayate॥4॥
जहाँ पारिजात-पुष्प की माला सुशोभित हो रही है, उन उरोजों के समीप बजती हुई वीणा का मधुर नाद श्रवण करते हुए जिनके कानों में कुण्डल शोभा पा रहे हैं, जिनका अंग झुका हुआ है, हथिनी की भाँति जिनकी मन्द-मनोहर चाल है, जिनके नेत्र कमल के समान सुन्दर और चंचल हैं, वे शम्भु की सती भार्या भगवती उमा सर्वत्र विजयिनी हो रही हैं ॥ ४॥
नवीनार्कभ्राजन्मणिकनकभूषापरिकरैवृताङ्गी
सारङ्गीरुचिरनयनाङ्गीकृतशिवा।
तडित्पीता पीताम्बरललितमजीरसुभगा
ममापर्णा पूर्णा निरवधिसुखैरस्तु सुमुखी॥५॥
navīnārkabhrājanmaṇikanakabhūṣāparikaraivṛtāṅgī
sāraṅgīruciranayanāṅgīkṛtaśivā।
taḍitpītā pītāmbaralalitamajīrasubhagā
mamāparṇā pūrṇā niravadhisukhairastu sumukhī॥5॥
जिनका अंग नवोदित बाल रवि के समान देदीप्यमान मणि और सोने के आभूषणों से अलंकृत है,मृगी के समान जिनके विशाल एवं सुन्दर नेत्र हैं, जिन्होंने शिव को पतिरूप से स्वीकार किया है, बिजली के समान जिनकी पीत प्रभा है, जो पीत वस्त्र की प्रभा पड़ने से और अधिक सुन्दर प्रतीत होने वाले मंजीर को चरणों में धारण करके सुशोभित होरही हैं, वे निरतिशय आनन्द से पूर्ण भगवती अपर्णा मुझ पर सुप्रसन्न हों॥५॥
हिमाद्रेः संभूता सुललितकरैः पल्लवयुता
सुपुष्पा मुक्ताभिर्भमरकलिता चालकभरैः।
कृतस्थाणुस्थाना कुचफलनता सूक्तिसरसा
रुजां हन्त्री गन्त्री विलसति चिदानन्दलतिका॥
himādreḥ saṃbhūtā sulalitakaraiḥ pallavayutā
supuṣpā muktābhirbhamarakalitā cālakabharaiḥ।
kṛtasthāṇusthānā kucaphalanatā sūktisarasā
rujāṃ hantrī gantrī vilasati cidānandalatikā॥
समस्त रोगों को नष्ट करने वाली एक चलती-फिरती चिदानन्दमयी लता (उमा) सुशोभित हो रही है, वह हिमालय से उत्पन्न हुई है, सुन्दर हाथ ही उसके पल्लव हैं, मुक्ता का हार ही सुन्दर फूल है, कालीकाली अलकें भ्रमरों की भाँति उसे आच्छन्न किये हुई हैं, स्थाणु (शंकरजी अथवा लूंठवृक्ष) ही उसके रहने का आश्रय है, उरोजरूपी फलों के भार से वह झुकी हुई है और सुन्दर वाणीरूपी रस से भरी है॥६॥
सपर्णामाकीर्णां कतिपयगुणैः सादरमिह
श्रयन्त्यन्ये वल्लीं मम त् मतिरेवं विलसति।
अपर्णैका सेव्या जगति सकलैर्यत्परिवृतः
पुराणोऽपि स्थाणुः फलति किल कैवल्यपदवीम्॥७॥
saparṇāmākīrṇāṃ katipayaguṇaiḥ sādaramiha
śrayantyanye vallīṃ mama t matirevaṃ vilasati।
aparṇaikā sevyā jagati sakalairyatparivṛtaḥ
purāṇo’pi sthāṇuḥ phalati kila kaivalyapadavīm॥7॥
दूसरे लोग कुछ ही गुणों से युक्त सपर्णा (पत्तेवाली) लताका आदरपूर्वक सेवन करते हैं, परन्तु हमारी बुद्धि तो इस प्रकार स्फुरित होती है कि इस जगत् में सभी लोगों को एकमात्र अपर्णा (पार्वती या बिना पत्ते की लता) का ही सेवन करना चाहिये, जिससे आवृत होकर पुराना स्थाणु (ठूठ वृक्ष अथवा शिव) भी कैवल्यपदवी (मोक्ष) रूप फल देता है। ७॥
विधात्री धर्माणां त्वमसि सकलाम्नायजननी
त्वमर्थानां मूलं धनदनमनीयाङ्ग्रिकमले।
त्वमादिः कामानां जननि कृतकन्दर्पविजये
सतां मक्तेर्बीजं त्वमसि परमब्रह्ममहिषी॥८॥
vidhātrī dharmāṇāṃ tvamasi sakalāmnāyajananī
tvamarthānāṃ mūlaṃ dhanadanamanīyāṅgrikamale।
tvamādiḥ kāmānāṃ janani kṛtakandarpavijaye
satāṃ makterbījaṃ tvamasi paramabrahmamahiṣī॥8॥
सम्पूर्ण धर्मो की सृष्टि करने वाली और समस्त आगमों को जन्म देने वाली तुम्ही हो। हे देवि! कुबेर भी तुम्हारे चरणों की वन्दना करते हैं, तुम्हीं समस्त वैभव का मूल हो। हे कामदेव पर विजय पाने वाली माँ! कामनाओं की आदि कारण भी तुम्हीं हो। तुम परब्रह्मस्वरूप महेश्वर की पटरानी हो। अतः तुम्ही संतों के मोक्ष का बीज हो॥ ८॥
प्रभूता भक्तिस्ते यदपि न ममालोलमनसस्त्वया
तु श्रीमत्या सदयमवलोक्योऽहमधुना।
पयोदः पानीयं दिशति मधुरं चातकमुखे
भृशं शङ्के कैर्वा विधिभिरनुनीता मम मतिः॥९॥
prabhūtā bhaktiste yadapi na mamālolamanasastvayā
tu śrīmatyā sadayamavalokyo’hamadhunā।
payodaḥ pānīyaṃ diśati madhuraṃ cātakamukhe
bhṛśaṃ śaṅke kairvā vidhibhiranunītā mama matiḥ॥9॥
मेरा मन चंचल है, इसलिये यद्यपि मैंने आपकी प्रचुर भक्ति नहीं की है तथापि आप श्रीमती को इस समय मुझपर अवश्य ही दया-दृष्टि करनी चाहिये। चातक चाहे प्रेम करे या न करे, पर मेघ तो उसके मुख में मधुर जल गिराता ही है अथवा मुझे बड़ी शंका हो रही है कि मेरी बुद्धि किन-किन विधियों से आपमें अनुनीत हो, आपकी ओर लगे॥९॥
कृपापाङ्गालोकं वितर तरसा साधुचरिते
न ते युक्तोपेक्षा मयि शरणदीक्षामुपगते।
न चेदिष्टं दद्यादनुपदमहो कल्पलतिका
विशेषः सामान्यैः कथमितरवल्लीपरिकरैः॥१०॥
kṛpāpāṅgālokaṃ vitara tarasā sādhucarite
na te yuktopekṣā mayi śaraṇadīkṣāmupagate।
na cediṣṭaṃ dadyādanupadamaho kalpalatikā
viśeṣaḥ sāmānyaiḥ kathamitaravallīparikaraiḥ॥10॥
हे साधु चरित्रोंवाली मा! तुम बहुत शीघ्र अपनी कृपाकटाक्षयुक्त दृष्टि से मुझे निहारो। मैं तुम्हारी शरण की दीक्षा ले चुका हूँ, अब मेरी उपेक्षा करना उचित नहीं है। यदि कल्पलता पग-पग पर अभीष्ट कामनाओं की पूर्ति न कर सके तो अन्य साधारण लताओं से उसमें विशेषता ही कैसे रह सकती है?॥ १०॥
Ananda Lahari Lyrics in Sanskrit with Hindi English Meaning
महान्तं विश्वासं तव चरणपङ्केरुहयुगे
निधायान्यन्नैवाश्रितमिह मया दैवतमुमे।
तथापि त्वच्चेतो यदि मयि न जायेत सदयं
निरालम्बो लम्बोदरजननि कं यामि शरणम्॥
mahāntaṃ viśvāsaṃ tava caraṇapaṅkeruhayuge
nidhāyānyannaivāśritamiha mayā daivatamume।
tathāpi tvacceto yadi mayi na jāyeta sadayaṃ
nirālambo lambodarajanani kaṃ yāmi śaraṇam॥
हे लम्बोदर गणेश को जन्म देने वाली उमे! मैंने तुम्हारे युगल चरणारविन्दों में बहुत बड़ा विश्वास रखकर किसी अन्य देवता का आश्रय नहीं लिया, तथापि यदि तुम्हारा चित्त मुझ पर सदय न हो तो अब मैं किसकी शरण जाऊँगा? ॥ ११॥
अयः स्पर्शे लग्नं सपदि लभते हेमपदवीं
यथा रथ्यापाथः शुचि भवति गङ्गौघमिलितम्।
तथा तत्तत्पापैरतिमलिनमन्तर्मम यदि त्वयि
प्रेम्णासक्तं कथमिव न जायेत विमलम्॥१२॥
ayaḥ sparśe lagnaṃ sapadi labhate hemapadavīṃ
yathā rathyāpāthaḥ śuci bhavati gaṅgaughamilitam।
tathā tattatpāpairatimalinamantarmama yadi tvayi
premṇāsaktaṃ kathamiva na jāyeta vimalam॥12॥
जिस प्रकार लोहा पारस से छू जाने पर तत्काल सोना बन जाता है और गलियों के नाले का जल गंगाजी में पड़कर पवित्र हो जाता है उसी प्रकार भिन्न-भिन्न पापों से मलिन हुआ मेरा अन्तःकरण यदि प्रेमपूर्वक तुम में आसक्त हो गया तो वह कैसे निर्मल नहीं होगा? ॥ १२ ॥
त्वदन्यस्मादिच्छाविषयफललाभे न
नियमस्त्वमर्थानामिच्छाधिकमपि समर्था वितरणे।
इति प्राहुः प्राञ्चः कमलभवनाद्यास्त्वयि
मनस्त्वदासक्तं नक्तं दिवमुचितमीशानि कुरु तत्॥१३॥
tvadanyasmādicchāviṣayaphalalābhe na
niyamastvamarthānāmicchādhikamapi samarthā vitaraṇe।
iti prāhuḥ prāñcaḥ kamalabhavanādyāstvayi
manastvadāsaktaṃ naktaṃ divamucitamīśāni kuru tat॥13॥
हे ईशानि! तुमसे अन्य किसी देवता से मनोवांछितफल प्राप्त हो ही जाय, ऐसा नियम नहीं है, परन्तु तुम तो पुरुषों को उनकी इच्छा से अधिक वस्तु भी देने में समर्थ हो—इस प्रकार ब्रह्मादि प्राचीन
पुरुष कहा करते हैं। इसलिये अब मेरा मन रात-दिन तुममें ही लगा रहता है, अब तुम जो उचित समझो करो॥ १३॥
स्फुरन्नानारत्नस्फटिकमयभित्तिप्रतिफलत्त्वदाकारं
चञ्चच्छशधरकलासौधशिखरम्।
मुकुन्दब्रह्मेन्द्रप्रभृतिपरिवार विजयते
तवागारं रम्यं त्रिभुवनमहाराजगृहिणि॥१४॥
sphurannānāratnasphaṭikamayabhittipratiphalattvadākāraṃ
cañcacchaśadharakalāsaudhaśikharam।
mukundabrahmendraprabhṛtiparivāra vijayate
tavāgāraṃ ramyaṃ tribhuvanamahārājagṛhiṇi॥14॥
हे त्रिभुवनमहाराज शिव की गृहिणी शिवे! जहाँ नाना प्रकार के रत्न और स्फटिकमणि की भीत पर तुम्हारा आकार प्रतिबिम्बित हो रहा है, जिसकी अट्टालिका के शिखर पर प्रतिबिम्बित होकर चन्द्रमा की कला सुशोभित हो रही है, विष्णु , ब्रह्मा और इन्द्र आदि देवता जिसे घेरकर खड़े रहते हैं, वह तुम्हारा रमणीय भवन विजयी हो रहा है।॥ १४ ॥
निवासः कैलासे विधिशतमखाद्याः स्तुतिकराः
कुटुम्बं त्रैलोक्यं कृतकरपुटः सिद्धिनिकरः।
महेशः प्राणेशस्तदवनिधराधीशतनये
न ते सौभाग्यस्य क्वचिदपि मनागस्ति तुलना॥१५॥
nivāsaḥ kailāse vidhiśatamakhādyāḥ stutikarāḥ
kuṭumbaṃ trailokyaṃ kṛtakarapuṭaḥ siddhinikaraḥ।
maheśaḥ prāṇeśastadavanidharādhīśatanaye
na te saubhāgyasya kvacidapi manāgasti tulanā॥15॥
हे गिरिराजनन्दिनि! तुम्हारा कैलास में निवास है, ब्रह्मा और इन्द्र आदि तुम्हारी स्तुति किया करते हैं, समस्त त्रिभुवन ही तुम्हारा कुटुम्ब है, आठों सिद्धियों का समुदाय तुम्हारे सामने हाथ जोड़कर खड़ा रहता है और महेश्वर तुम्हारे प्राणनाथ हैं; तुम्हारे सौभाग्य की कहीं अल्प भी तुलना नहीं हो सकती॥ १५॥
वृषो वृद्धो यानं विषमशनमाशा निवसनं
श्मशानं क्रीडाभूर्भुजगनिवहो भूषणविधिः।
समग्रा सामग्री जगति विदितैवं स्मररिपोर्यदेतस्यैश्वर्यं
तव जननि सौभाग्यमहिमा॥१६॥
vṛṣo vṛddho yānaṃ viṣamaśanamāśā nivasanaṃ
śmaśānaṃ krīḍābhūrbhujaganivaho bhūṣaṇavidhiḥ।
samagrā sāmagrī jagati viditaivaṃ smarariporyadetasyaiśvaryaṃ
tava janani saubhāgyamahimā॥16॥
हे जननि! कामारि शिव का बूढ़ा बैल ही वाहन है, विष ही भोजन है, दिशाएँ ही वस्त्र हैं; श्मशान ही रंगभूमि है और साँप ही आभूषण का काम देते हैं; उनकी यह सारी सामग्री संसार में प्रसिद्ध ही है, फिर भी जो उनके पास ऐश्वर्य है, वह तुम्हारे ही सौभाग्य की महिमा है॥ १६ ॥
अशेषब्रह्माण्डप्रलयविधिनैसर्गिकमतिः
श्मशानेष्वासीनः कृतभसितलेपः पशुपतिः।
दधौ कण्ठे हालाहलमखिलभूगोलकृपया
भवत्याः संगत्याः फलमिति च कल्याणि कलये॥१७॥
aśeṣabrahmāṇḍapralayavidhinaisargikamatiḥ
śmaśāneṣvāsīnaḥ kṛtabhasitalepaḥ paśupatiḥ।
dadhau kaṇṭhe hālāhalamakhilabhūgolakṛpayā
bhavatyāḥ saṃgatyāḥ phalamiti ca kalyāṇi kalaye॥17॥
हे कल्याणि! जिनकी बुद्धि स्वभावतः समस्त ब्रह्माण्ड का संहार करने में ही प्रवृत्त होती है, जो अंगों में राख पोतकर श्मशान में बैठे रहते हैं, ऐसे निठुर स्वभाववाले पशुपति ने जो समस्त भूमण्डल पर दया करके कण्ठ में हालाहल विष धारण कर लिया, उसे मैं आपके सत्संग का ही फल समझता हूँ॥ १७॥
त्वदीयं सौन्दर्यं निरतिशयमालोक्य परया
भियैवासीद्गङ्गा जलमयतनुः शैलतनये।
तदेतस्यास्तस्माददनकमलं वीक्ष्य कृपया
प्रतिष्ठामातन्वन्निजशिरसिवासेन गिरिशः॥१८॥
tvadīyaṃ saundaryaṃ niratiśayamālokya parayā
bhiyaivāsīdgaṅgā jalamayatanuḥ śailatanaye।
tadetasyāstasmādadanakamalaṃ vīkṣya kṛpayā
pratiṣṭhāmātanvannijaśirasivāsena giriśaḥ॥18॥
हे शैलनन्दिनि! आपके सर्वोत्कृष्ट सौन्दर्य को देखकर अत्यन्त भय के कारण ही गंगाजी ने जलमय शरीर धारण कर लिया, इससे गंगाजी के दीन मुखकमल को देखकर दयावश शंकर जी उन्हें अपने सिर पर निवास देकर उनकी प्रतिष्ठा बढ़ाते हैं॥ १८॥
विशालश्रीखण्डद्रवमृगमदाकीर्णघुसृणप्रसूनव्यामिश्रं
भगवति तवाभ्यङ्गसलिलम्।
समादाय स्रष्टा चलितपदपांसून्निजकरैः
समाधत्ते सृष्टिं विबुधपुरपङ्केरुहदृशाम्॥१९॥
viśālaśrīkhaṇḍadravamṛgamadākīrṇaghusṛṇaprasūnavyāmiśraṃ
bhagavati tavābhyaṅgasalilam।
samādāya sraṣṭā calitapadapāṃsūnnijakaraiḥ
samādhatte sṛṣṭiṃ vibudhapurapaṅkeruhadṛśām॥19॥
हे भगवति! जिसमें विशाल चन्दन के रस, कस्तूरी और केसर के फूल मिले हुए हैं ऐसे तुम्हारे अनुलेपन के जल को और चलते हुए तुम्हारे चरणों की धूलि को ही लेकर ब्रह्माजी सुरपुर की कमलनयनी वनिताओं (अप्सराओं) की सृष्टि करते हैं ॥ १९॥
वसन्ते सानन्दे कुसुमितलताभिः परिवृते
स्फुरन्नानापद्मे सरसि कलहंसालिसुभगे।
सखीभिः खेलन्तीं मलयपवनान्दोलितजले
स्मरेद्यस्त्वां तस्य ज्वरजनितपीडापसरति॥२०॥
vasante sānande kusumitalatābhiḥ parivṛte
sphurannānāpadme sarasi kalahaṃsālisubhage।
sakhībhiḥ khelantīṃ malayapavanāndolitajale
smaredyastvāṃ tasya jvarajanitapīḍāpasarati॥20॥
हे देवि! वसन्त ऋतु में खिली हुई लताओं से मण्डित, नाना कमलों से सुशोभित एवं हंसों की मण्डली से अलंकृत सरोवर के भीतर, जहाँ का जल मलयानिल से आन्दोलित हो रहा है, उसमें सखियों के साथ क्रीडा करती हुई आपका जो पुरुष ध्यान करता है, उसकी ज्वर-रोगजनित पीड़ा दूर हो जाती है।॥ २०॥
इति श्रीमच्छङ्कराचार्यविरचिता आनन्दलहरी सम्पूर्णा ।
Namashkaram
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