निज दास ज्यों रघुबंसभूषन कबहुँ मम सुमिरन कर्यो। सुनि भरत बचन बिनीत अति कपि पुलकि तन चरनन्हि पर्यो॥ रघुबीर निज मुख जासु गुन गन कहत अग जग नाथ जो। काहे न होइ बिनीत परम पुनीत सदगुन सिंधु सो॥
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