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श्री शिव स्तुति संग्रह

श्री पशुपति अष्टकम संस्कृत हिंदी अंग्रेजी अर्थ सहित | Shri Pashupati Ashtakam Lyrics in Sanskrit Hindi English

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श्री पशुपति अष्टकम संस्कृत हिंदी अंग्रेजी अर्थ सहित

 

ध्यानम् ध्यायेन्नित्यं महेशं रजतगिरिनिभं चारुचन्द्रावतंसं।
रत्नाकल्पोज्ज्वलाङ्गं परशुमृगवराभीतिहस्तं प्रसन्नम्।
पद्मासीनं समन्तात्स्तुतममरगणैर्व्याघ्रकृत्तिं वसानं
विश्वाद्यं विश्वबीजं निखिलभयहरं पञ्चवक्त्रं त्रिनेत्रम्॥१॥

dhyānam dhyāyennityaṃ maheśaṃ rajatagirinibhaṃ cārucandrāvataṃsaṃ।
ratnākalpojjvalāṅgaṃ paraśumṛgavarābhītihastaṃ prasannam।
padmāsīnaṃ samantātstutamamaragaṇairvyāghrakṛttiṃ vasānaṃ
viśvādyaṃ viśvabījaṃ nikhilabhayaharaṃ pañcavaktraṃ trinetram॥1॥

चाँदी के पर्वतसमान जिनकी श्वेत कान्ति है, जो सुन्दर चन्द्रमा को आभूषणरूप से धारण करते हैं, रत्नमय अलंकारों से जिनका शरीर उज्ज्वल है, जिनके हाथों में परशु, मृग, वर और अभय है, जो प्रसन्न हैं, पद्म के आसन पर विराजमान हैं, देवतागण जिनके चारों ओर खड़े होकर स्तुति करते हैं, जो बाघ की खाल पहनते हैं, जो विश्व के आदि, जगत् की उत्पत्ति के बीज और समस्त भयों को हरने वाले हैं, जिनके पाँच मुख और तीन नेत्र हैं, उन महेश्वर का प्रतिदिन ध्यान करे।

स्तोत्रम् पशुपतिं धुपतिं धरणीपतिं भुजगलोकपतिं च सतीपतिम्।
प्रणतभक्तजनार्तिहरं परं भजत रे मनुजा गिरिजापतिम्॥१॥

stotram paśupatiṃ dhupatiṃ dharaṇīpatiṃ bhujagalokapatiṃ ca satīpatim।
praṇatabhaktajanārtiharaṃ paraṃ bhajata re manujā girijāpatim॥1॥

अरे मनुष्यो! जो समस्त प्राणियों, स्वर्ग, पृथ्वी और नागलोकके पति हैं, दक्षकन्या सती के स्वामी हैं, शरणागत प्राणियों और भक्तजनों की पीड़ा दूर करने वाले हैं, उन परमपुरुष पार्वती-वल्लभ शंकरजी को भजो॥१॥

न जनको जननी न च सोदरो न तनयो न च भूरिबलं कुलम्।
अवति कोऽपि न कालवशं गतं भजत रे मनुजा गिरिजापतिम्॥२॥

na janako jananī na ca sodaro na tanayo na ca bhūribalaṃ kulam।
avati ko’pi na kālavaśaṃ gataṃ bhajata re manujā girijāpatim॥2॥

ऐ मनुष्यो! काल के वश में पड़े हुए जीव को पिता, माता, भाई, बेटा, अत्यन्त बल और कुल—इनमें से कोई भी नहीं बचा सकता, इसलिये तुम गिरिजापति को भजो॥२॥

मुरजडिण्डिमवाद्यविलक्षणं मधुरपञ्चमनादविशारदम्।
प्रमथभूतगणैरपि सेवितं भजत रे मनुजा गिरिजापतिम्॥३॥

murajaḍiṇḍimavādyavilakṣaṇaṃ madhurapañcamanādaviśāradam।
pramathabhūtagaṇairapi sevitaṃ bhajata re manujā girijāpatim॥3॥

रे मनुष्यो! जो मृदंग और डमरू बजाने में निपुण हैं, मधुर पंचम स्वर के गायन में कुशल हैं, प्रमथ और भूतगण जिनकी सेवा में रहते हैं, उन गिरिजापति को भजो॥३॥

शरणदं सुखदं शरणान्वितं शिव शिवेति शिवेति नतं नृणाम्।
अभयदं करुणावरुणालयं भजत रे मनुजा गिरिजापतिम्॥४॥

śaraṇadaṃ sukhadaṃ śaraṇānvitaṃ śiva śiveti śiveti nataṃ nṛṇām।
abhayadaṃ karuṇāvaruṇālayaṃ bhajata re manujā girijāpatim॥4॥

हे मनुष्यो! ‘शिव! शिव! शिव!’ कहकर मनुष्य जिनको प्रणाम करते हैं, जो शरणागतों को शरण, सुख और अभय देने वाले हैं, उन दयासागर गिरिजापति का भजन करो॥ ४॥

नरशिरोरचितं मणिकुण्डलं भुजगहारमुदं वृषभध्वजम्।
चितिरजोधवलीकृतविग्रहं भजत रे मनुजा गिरिजापतिम्॥५॥

naraśiroracitaṃ maṇikuṇḍalaṃ bhujagahāramudaṃ vṛṣabhadhvajam।
citirajodhavalīkṛtavigrahaṃ bhajata re manujā girijāpatim॥5॥

अरे मनुष्यो! जो नरमुण्डरूपी मणियों का कुण्डल और साँपों का हार पहनते हैं, जिनका शरीर चिता की धूलि से धूसर है, उन वृषभध्वज गिरिजापति को भजो॥ ५॥

मखविनाशकरं शशिशेखरं सततमध्वरभाजि फलप्रदम्।
प्रलयदग्धसुरासुरमानवं भजत रे मनुजा गिरिजापतिम्॥६॥

makhavināśakaraṃ śaśiśekharaṃ satatamadhvarabhāji phalapradam।
pralayadagdhasurāsuramānavaṃ bhajata re manujā girijāpatim॥6॥

अरे मनुष्यो! जिन्होंने दक्ष-यज्ञ का विध्वंस किया था; जिनके मस्तक पर चन्द्रमा सुशोभित हैं, जो यज्ञ करने वालों को सदा ही फल देने वाले हैं और जो प्रलय की अग्नि में देवता, दानव और मानवों को दग्ध करने वाले हैं, उन गिरिजापति को भजो॥६॥

मदमपास्य चिरं हृदि संस्थितं मरणजन्मजराभयपीडितम्।
जगदुदीक्ष्य समीपभयाकुलं भजत रे मनुजा गिरिजापतिम्॥७॥

madamapāsya ciraṃ hṛdi saṃsthitaṃ maraṇajanmajarābhayapīḍitam।
jagadudīkṣya samīpabhayākulaṃ bhajata re manujā girijāpatim॥7॥

अरे मनुष्यो! जगत् को जन्म, जरा और मरण के भय से पीड़ित, सामने उपस्थित भय से व्याकुल देखकर बहुत दिनों से हृदय में संचित मद का त्याग कर उन गिरिजापति को भजो॥७॥

हरिविरञ्चिसुराधिपपूजितं यमजनेशधनेशनमस्कृतम्।
त्रिनयनं भुवनत्रितयाधिपं भजत रे मनुजा गिरिजापतिम्॥८॥

harivirañcisurādhipapūjitaṃ yamajaneśadhaneśanamaskṛtam।
trinayanaṃ bhuvanatritayādhipaṃ bhajata re manujā girijāpatim॥8॥

अरे मनुष्यो! विष्णु, ब्रह्मा और इन्द्र जिनकी पूजा करते हैं, यम और कुबेर जिनको प्रणाम करते हैं, जिनके तीन नेत्र हैं तथा जो त्रिभुवन के स्वामी हैं, उन गिरिजापति को भजो॥ ८॥

पशुपतेरिदमष्टकमद्भुतं विरचितं पृथिवीपतिसूरिणा।
पठति संशृणुते मनुजः सदा शिवपुरीं वसते लभते मुदम्॥९॥

paśupateridamaṣṭakamadbhutaṃ viracitaṃ pṛthivīpatisūriṇā।
paṭhati saṃśṛṇute manujaḥ sadā śivapurīṃ vasate labhate mudam॥9॥

जो मनुष्य पृथ्वीपति सूरि के बनाये हुए इस अद्भुत पशुपति-अष्टक का सदा पाठ और श्रवण करता है, वह शिवपुरी में निवास करता और आनन्दित होता है॥९॥

इति श्रीपृथिवीपतिसूरिविरचितं श्रीपशुपत्यष्टकं सम्पूर्णम्।


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