श्रीमद् भागवत महापुराण स्कन्ध 1 अध्याय 15: कृष्णविरहव्यथित पाण्डवों का परीक्षित् को राज्य देकर स्वर्ग सिधारना
॥ ॐ तत्सत्॥
॥ श्रीगणेशायः नमः॥
श्रीमद्भागवतमहापुराणम्
अथ पञ्चदशोऽध्यायः (अध्याय 15) पाण्डवस्वर्गारोहणं
कृष्णविरहव्यथित पाण्डवों का परीक्षित् को राज्य देकर स्वर्ग सिधारना
श्लोक-1
सूत उवाच
एवं कृष्णसखः कृष्णो भ्रात्रा राज्ञाऽऽविकल्पितः।
नानाशङ्कास्पदं रूपं कृष्णविश्लेषकर्शितः॥
सूतजी कहते हैं- भगवान् श्रीकृष्णके प्यारे सखा अर्जुन एक तो पहले ही श्रीकृष्णके विरहसे कृश हो रहे थे, उसपर राजा युधिष्ठिरने उनकी विषादग्रस्त मुद्रा देखकर उसके विषयमें कई प्रकारकी आशंकाएँ करते हुए प्रश्नोंकी झड़ी लगा दी॥1॥
श्लोक-2
शोकेन शुष्यद्रदन हृत्सरोजो हतप्रभः।
विभुं तमेवानुध्यायन्नाशक्नोत्प्रतिभाषितुम्॥
शोकसे अर्जुनका मुख और हृदय-कमल सूख गया था, चेहरा फीका पड़ गया था। वे उन्हीं भगवान् श्रीकृष्णके ध्यानमें ऐसे डूब रहे थे कि बड़े भाईके प्रश्नोंका कुछ भी उत्तर न दे सके। 2॥
श्लोक-3
कृच्छ्रेण संस्तभ्य शुचः पाणिनाऽऽमृज्य नेत्रयोः।
परोक्षेण समुन्नद्धप्रणयौत्कण्ठ्यकातरः॥
श्लोक-4
सख्यं मैत्री सौहृदं च सारथ्यादिषु संस्मरन्।
नृपमग्रजमित्याह बाष्पगद्गदया गिरा॥
श्रीकृष्णकी आँखोंसे ओझल हो जानेके कारण वे बढ़ी हुई प्रेमजनित उत्कण्ठाके परवश हो रहे थे। रथ हाँकने, टहलने आदिके समय भगवान्ने उनके साथ जो मित्रता, अभिन्नहृदयता और प्रेमसे भरे हुए व्यवहार किये थे, उनकी याद-पर-याद आ रही थी; बड़े कष्टसे उन्होंने अपने शोकका वेग रोका, हाथसे नेत्रोंके आँसू पोंछे और फिर रुंधे हुए गलेसे अपने बड़े भाई महाराज युधिष्ठिरसे कहा॥3-4॥
श्लोक-5
अर्जुन उवाच
वञ्चितोऽहं महाराज हरिणा बन्धुरूपिणा।
येन मेऽपहृतं तेजो देवविस्मापनं महत्॥
अर्जुन बोले- महाराज! मेरे ममेरे भाई अथवा अत्यन्त घनिष्ठ मित्रका रूप धारणकर श्रीकृष्णने मुझे ठग लिया। मेरे जिस प्रबल पराक्रमसे बड़े-बड़े देवता भी आश्चर्यमें डूब जाते थे, उसे श्रीकृष्णने मुझसे छीन लिया॥5॥
श्लोक-6
यस्य क्षणवियोगेन लोको ह्यप्रियदर्शनः।
उक्थेन रहितो ह्येष मृतकः प्रोच्यते यथा॥
जैसे यह शरीर प्राणसे रहित होनेपर मृतक कहलाता है, वैसे ही उनके क्षणभरके वियोगसे यह संसार अप्रिय दीखने लगता है॥6॥
श्लोक-7
यत्संश्रयाद् द्रुपदगेहमुपागतानां राज्ञां स्वयंवरमुखे स्मरदुर्मदानाम्।
तेजो हृतं खलु मयाभिहतश्च मत्स्यःसज्जीकृतेन धनुषाधिगता च कृष्णा॥
उनके आश्रयसे द्रौपदी स्वयंवरमें राजा द्रुपदके घर आये हुए कामोन्मत्त राजाओंका तेज मैंने हरण कर लिया, धनुषपर बाण चढ़ाकर मत्स्यवेध किया और इस प्रकार द्रौपदीको प्राप्त किया था॥7॥
श्लोक-8
यत्संनिधावहमु खाण्डवमग्नयेऽदामिन्द्रं च सामरगणं तरसा विजित्य।
लब्धा सभा मयकृताद्भुतशिल्पमाया दिग्भ्योऽहरन्नृपतयो बलिमध्वरे ते॥
उनकी सन्निधिमात्रसे मैंने समस्त देवताओंके साथ इन्द्रको अपने बलसे जीतकर अग्निदेवको उनकी तृप्तिके लिये खाण्डव वनका दान कर दिया और मय दानवकी निर्माण की हुई, अलौकिक कलाकौशलसे युक्त मायामयी सभा प्राप्त की और आपके यज्ञमें सब ओरसे आ-आकर राजाओंने अनेकों प्रकारकी भेंटें समर्पित कीं॥8॥
श्लोक-9
यत्तेजसा नृपशिरोऽङिमहन्मखार्थे आर्योऽनुजस्तव गजायुतसत्त्ववीर्यः।
तेनाहृताः प्रमथनाथमखाय भूपा यन्मोचितास्तदनयन् बलिमध्वरे ते॥
दस हजार हाथियोंकी शक्ति और बलसे सम्पन्न आपके इन छोटे भाई भीमसेनने उन्हींकी शक्तिसे राजाओंके सिरपर पैर रखनेवाले अभिमानी जरासन्धका वध किया था; तदनन्तर उन्हीं भगवान्ने उन बहुत-से राजाओंको मुक्त किया, जिनको जरासन्धने महाभैरव-यज्ञमें बलि चढ़ानेके लिये बंदी बना रखा था। उन सब राजाओंने आपके यज्ञमें अनेकों प्रकारके उपहार दिये थे॥9॥
श्लोक-10
पत्न्यास्तवाधिमखक्लप्तमहाभिषेक श्लाघिष्ठचारुकबरं कितवैः सभायाम्।
स्पृष्टं विकीर्य पदयोः पतिताश्रुमुख्या यस्तत्स्त्रियोऽकृत हतेशविमुक्तकेशाः॥
महारानी द्रौपदी राजसूय यज्ञके महान् अभिषेकसे पवित्र हुए अपने उन सुन्दर केशोंको, जिन्हें दुष्टोंने भरी सभामें छूनेका साहस किया था, बिखेरकर तथा आँखोंमें आँसू भरकर जब श्रीकृष्णके चरणोंमें गिर पड़ी, तब उन्होंने उसके सामने उसके उस घोर अपमानका बदला लेनेकी प्रतिज्ञा करके उन धूर्तोंकी स्त्रियोंकी ऐसी दशा कर दी कि वे विधवा हो गयीं और उन्हें अपने केश अपने हाथों खोल देने पडे ॥10॥
श्लोक-11
यो नो जुगोप वनमेत्य दुरन्तकृच्छ्राद् दुर्वाससोऽरिविहितादयुताग्रभुग् यः।
शाकान्नशिष्टमुपयुज्य यतस्त्रिलोकी तृप्ताममंस्त सलिले विनिमग्नसङ्घः॥
वनवासके समय हमारे वैरी दुर्योधनके षड्यन्त्रसे दस हजार शिष्योंको साथ बिठाकर भोजन करनेवाले महर्षि दुर्वासाने हमें दुस्तर संकटमें डाल दिया था। उस समय उन्होंने द्रौपदीके पात्रमें बची हुई शाककी एक पत्तीका ही भोग लगाकर हमारी रक्षा की। उनके ऐसा करते ही नदीमें स्नान करती हुई मुनिमण्डलीको ऐसा प्रतीत हुआ मानो उनकी तो बात ही क्या, सारी त्रिलोकी ही तृप्त हो गयी है ॥11॥
* एक बार राजा दुर्योधनने महर्षि दुर्वासाकी बड़ी सेवा की। उससे प्रसन्न होकर मुनिने दुर्योधनसे वर माँगनेको कहा। दुर्योधनने यह सोचकर कि ऋषिके शापसे पाण्डवोंको नष्ट करनेका अच्छा अवसर है, मुनिसे कहा-“ब्रह्मन्! हमारे कुलमें युधिष्ठिर प्रधान हैं, आप अपने दस सहस्र शिष्योंसहित उनका आतिथ्य स्वीकार करें। किंतु आप उनके यहाँ उस समय जायँ जबकि द्रौपदी भोजन कर चुकी हो, जिससे उसे भूखका कष्ट न उठाना पड़े।” द्रौपदीके पास सूर्यकी दी हुई एक ऐसी बटलोई थी, जिसमें सिद्ध किया हुआ अन्न द्रौपदीके भोजन कर लेनेसे पूर्व शेष नहीं होता था; किन्तु उसके भोजन करनेके बाद वह समाप्त हो जाता था। दुर्वासाजी दुर्योधनके कथनानुसार उसके भोजन कर चुकने पर मध्याह्नमें अपनी शिष्यमण्डली सहित पहुँचे और धर्मराजसे बोले “हम नदीपर स्नान करने जाते हैं, तुम हमारे लिये भोजन तैयार रखना।” इससे द्रौपदीको बड़ी चिन्ता हुई और उसने अति आर्त होकर आर्तबन्धु भगवान् श्रीकृष्णकी शरण ली। भगवान् तुरंत ही अपना विलासभवन छोड़कर द्रौपदीकी झोंपड़ीपर आये और उससे बोले “कृष्णे! आज बड़ी भूख लगी है, कुछ खानेको दो।” द्रौपदी भगवान्की इस अनुपम दयासे गद्गद हो गयी और बोली,”प्रभो! मेरा बड़ा भाग्य है, जो आज विश्वम्भरने मुझसे भोजन माँगा; परन्तु क्या करूँ? अब तो कुटीमें कुछ भी नहीं है।” भगवान्ने कहा “अच्छा, वह पात्र तो लाओ; उसमें कुछ होगा ही।” द्रौपदी बटलोई ले आयी; उसमें कहीं शाकका एक कण लगा था। विश्वात्मा हरिने उसीको भोग लगाकर त्रिलोकीको तृप्त कर दिया और भीमसेनसे कहा कि मुनिमण्डलीको भोजनके लिये बुला लाओ। किन्तु मुनिगण तो पहले ही तृप्त होकर भाग गये थे। (महाभारत)
श्लोक-12
यत्तेजसाथ भगवान् युधि शूलपाणिविस्मापितः सगिरिजोऽस्त्रमदान्निजं मे।
अन्येऽपि चाहममुनैव कलेवरेण प्राप्तो महेन्द्रभवने महदासनार्धम्॥
उनके प्रतापसे मैंने युद्धमें पार्वतीसहित भगवान् शंकरको आश्चर्यमें डाल दिया तथा उन्होंने मुझको अपना पाशुपत नामक अस्त्र दिया। साथ ही दूसरे लोकपालोंने भी प्रसन्न होकर अपनेअपने अस्त्र मुझे दिये। और तो क्या, उनकी कृपासे मैं इसी शरीरसे स्वर्गमें गया और देवराज इन्द्रकी सभामें उनके बराबर आधे आसनपर बैठनेका सम्मान मैंने प्राप्त किया॥12॥
श्लोक-13
तत्रैव मे विहरतो भुजदण्डयुग्मं गाण्डीवलक्षणमरातिवधाय देवाः।
सेन्द्राः श्रिता यदनुभावितमाजमीढतेनाहमद्य मुषितः पुरुषेण भूम्ना॥
उनके आग्रहसे जब मैं स्वर्गमें ही कुछ दिनोंतक रह गया, तब इन्द्रके साथ समस्त देवताओंने मेरी इन्हीं गाण्डीव धारण करनेवाली भुजाओंका निवातकवच आदि दैत्योंको मारनेके लिये आश्रय लिया। महाराज! यह सब जिनकी महती कृपाका फल था, उन्हीं पुरुषोत्तम भगवान् श्रीकृष्णने मुझे आज ठग लिया?॥
श्लोक-14
यद्बान्धवः कुरुबलाब्धिमनन्तपारमेको रथेन ततरेऽहमतार्यसत्त्वम्।
प्रत्याहृतं बहु धनं च मया परेषां तेजास्पदं मणिमयं च हृतं शिरोभ्यः॥
महाराज! कौरवोंकी सेना भीष्म-द्रोण आदि अजेय महामत्स्योंसे पूर्ण अपार समुद्रके समान दुस्तर थी, परंतु उनका आश्रय ग्रहण करके अकेले ही रथपर सवार हो मैं उसे पार कर गया। उन्हींकी सहायतासे, आपको याद होगा, मैंने शत्रुओंसे राजा विराटका सारा गोधन तो वापस ले ही लिया, साथ ही उनके सिरोंपरसे चमकते हुए मणिमय मुकुट तथा अंगोंके अलंकारतक छीन लिये थे॥14॥
श्लोक-15
यो भीष्मकर्णगुरुशल्यचमूष्वदभ्रराजन्यवर्यरथमण्डलमण्डितासु।
अग्रेचरो मम विभो रथयूथपाना मायुर्मनांसि च दृशा सह ओज आर्च्छत्॥
भाईजी! कौरवोंकी सेना भीष्म, कर्ण, द्रोण, शल्य तथा अन्य बड़े-बड़े राजाओं और क्षत्रिय वीरोंके रथोंसे शोभायमान थी। उसके सामने मेरे आगे-आगे चलकर वे अपनी दृष्टिसे ही उन महारथी यूथपतियोंकी आयु, मन, उत्साह और बलको छीन लिया करते थे॥ 15॥
श्लोक-16
यद्दोष्षु मा प्रणिहितं गुरुभीष्मकर्णनप्तृत्रिगर्तशलसैन्धवबालिकाद्यैः।
अस्त्राण्यमोघमहिमानि निरूपितानि नो पस्पृशुर्तृहरिदासमिवासुराणि॥
द्रोणाचार्य, भीष्म, कर्ण, भूरिश्रवा, सुशर्मा, शल्य, जयद्रथ और बालीक आदि वीरोंने मुझपर अपने कभी न चूकनेवाले
अस्त्र चलाये थे; परंतु जैसे हिरण्यकशिपु आदि दैत्योंके अस्त्रशस्त्र भगवद्भक्त प्रह्लादका स्पर्श नहीं करते थे, वैसे ही उनके शस्त्रास्त्र मुझे छूतक नहीं सके। यह श्रीकृष्णके भुजदण्डोंकी छत्रछाया में रहनेका ही प्रभाव था॥16॥
श्लोक-17
सौत्ये वृतः कुमतिनाऽऽत्मद ईश्वरो मे यत्पादपद्ममभवाय भजन्ति भव्याः।
मां श्रान्तवाहमरयो रथिनो भुविष्ठं न प्राहरन् यदनुभावनिरस्तचित्ताः॥
श्रेष्ठ पुरुष संसारसे मुक्त होनेके लिये जिनके चरणकमलोंका सेवन करते हैं, अपने-आपतकको दे डालनेवाले उन भगवान्को मुझ दुर्बुद्धिने सारथितक बना डाला। अहा! जिस समय मेरे घोड़े थक गये थे और मैं रथसे उतरकर पृथ्वीपर खड़ा था, उस समय बड़े-बड़े महारथी शत्रु भी मुझपर प्रहार न कर सके; क्योंकि श्रीकृष्णके प्रभावसे उनकी बुद्धि मारी गयी थी॥17॥
श्लोक-18
नर्माण्युदाररुचिरस्मितशोभितानि हे पार्थ हेऽर्जुन सखे कुरुनन्दनेति।
संजल्पितानि नरदेव हृदिस्पृशानि स्मर्तुलुंठन्ति हृदयं मम माधवस्य॥
महाराज! माधवके उन्मुक्त और मधुरमुसकानसे युक्त, विनोदभरे एवं हृदयस्पर्शी वचन और उनका मुझे ‘पार्थ, अर्जुन, सखा, कुरुनन्दन’ आदि कहकर पुकारना, मुझे याद आनेपर मेरे हृदयमें उथल-पुथल मचा देते हैं ॥18॥
श्लोक-19
शय्यासनाटनविकत्थनभोजनादिष्वैक्यादयस्य ऋतवानिति विप्रलब्धः।
सख्युः सखेव पितृवत्तनयस्य सर्वं सेहे महान्महितया कुमतेरघं मे॥
सोने, बैठने, टहलने और अपने सम्बन्धमें बड़ी-बड़ी बातें करने तथा भोजन आदि करनेमें हम प्रायः एक साथ रहा करते थे। किसी-किसी दिन मैं व्यंग्यसे उन्हें कह बैठता, ‘मित्र! तुम तो बड़े सत्यवादी हो!’ उस समय भी वे महापुरुष अपनी महानुभावताके कारण, जैसे मित्र अपने मित्रका और पिता अपने पुत्रका अपराध सह लेता है उसी प्रकार, मुझ दुर्बुद्धिके अपराधोंको सह लिया करते थे॥19॥
श्लोक-20
सोऽहं नृपेन्द्र रहितः पुरुषोत्तमेन सख्या प्रियेण सुहृदा हृदयेन शून्यः।
अध्वन्युरुक्रमपरिग्रहमङ्ग रक्षन् गोपैरसदभिरबलेव विनिर्जितोऽस्मि॥
महाराज! जो मेरे सखा, प्रिय मित्र-नहीं-नहीं मेरे हृदय ही थे, उन्हीं पुरुषोत्तम भगवान्से मैं रहित हो गया हूँ। भगवान्की पत्नियोंको द्वारकासे अपने साथ ला रहा था, परंतु मार्गमें दुष्ट गोपोंने मुझे एक अबलाकी भाँति हरा दिया और मैं उनकी रक्षा नहीं कर सका॥20॥
श्लोक-21
तदै धनुस्त इषवः स रथो हयास्ते सोऽहं रथी नृपतयो यत आनमन्ति।
सर्वं क्षणेन तदभूदसदीशरिक्तं भस्मन् हुतं कुहकराद्धमिवोप्तमूष्याम्॥
वही मेरा गाण्डीव धनुष है, वे ही बाण हैं, वही रथ है, वही घोड़े हैं और वही मैं रथी अर्जुन हूँ, जिसके सामने बड़े-बड़े
राजालोग सिर झुकाया करते थे। श्रीकृष्णके बिना ये सब एक ही क्षणमें नहींके समान सारशून्य हो गये ठीक उसी तरह, जैसे भस्ममें डाली हुई आहुति, कपटभरी सेवा और ऊसरमें बोया हुआ बीज व्यर्थ जाता है॥21॥
श्लोक-22
राजंस्त्वयाभिपृष्टानां सुहृदां नः सुहृत्पुरे।
विप्रशापविमूढानां निजतां मुष्टिभिर्मिथः॥
श्लोक-23
वारुणीं मदिरां पीत्वा मदोन्मथितचेतसाम्।
अजानतामिवान्योन्यं चतुः पञ्चावशेषिताः॥
राजन्! आपने द्वारकावासी अपने जिन सुहृद् सम्बन्धियोंकी बात पूछी है, वे ब्राह्मणोंके शापवश मोहग्रस्त हो गये और वारुणी मदिराके पानसे मदोन्मत्त होकर अपरिचितोंकी भाँति आपसमें ही एक-दूसरेसे भिड़ गये और घूसोंसे मार-पीट करके सब-के-सब नष्ट हो गये। उनमेंसे केवल चार-पाँच ही बचे हैं। 22-23॥
श्लोक-24
प्रायेणैतद् भगवत ईश्वरस्य विचेष्टितम्।
मिथो निजन्ति भूतानि भावयन्ति च यन्मिथः॥
वास्तवमें यह सर्वशक्तिमान् भगवान्की ही लीला है कि संसारके प्राणी परस्पर एक-दूसरेका पालन-पोषण भी करते हैं और एक-दूसरेको मार भी डालते हैं॥24॥
श्लोक-25
जलौकसां जले यदन्महान्तोऽदन्त्यणीयसः।
दुर्बलान्बलिनो राजन्महान्तो बलिनो मिथः॥
श्लोक-26
एवं बलिष्ठैर्यदुभिर्महद्भिरितरान् विभुः ।
यदून् यदुभिरन्योन्यं भूभारान् संजहार ह॥
राजन्! जिस प्रकार जलचरोंमें बड़े जन्तु छोटोंको, बलवान् दुर्बलोंको एवं बड़े और बलवान् भी परस्पर एक-दूसरेको खा जाते हैं, उसी प्रकार अतिशय बली और बड़े यदुवंशियोंके द्वारा भगवान्ने दूसरे राजाओंका संहार कराया। तत्पश्चात् यदुवंशियोंके द्वारा ही एकसे दूसरे यदुवंशीका नाश कराके पूर्णरूपसे पृथ्वीका भार उतार दिया॥ 25-26॥
श्लोक-27
देशकालार्थयुक्तानि हृत्तापोपशमानि च।
हरन्ति स्मरतश्चित्तं गोविन्दाभिहितानि मे॥
भगवान् श्रीकृष्णने मुझे जो शिक्षाएँ दी थीं, वे देश, काल और प्रयोजनके अनुरूप तथा हृदयके तापको शान्त करनेवाली थीं; स्मरण आते ही वे हमारे चित्तका हरण कर लेती हैं॥27॥
श्लोक-28
सूत उवाच
एवं चिन्तयतो जिष्णोः कृष्णपादसरोरुहम्।
सौहार्दैनातिगाढेन शान्ताऽऽसीद्विमला मतिः॥
सूतजी कहते हैं- इस प्रकार प्रगाढ़ प्रेमसे भगवान् श्रीकृष्णके चरणकमलोंका चिन्तन करते-करते अर्जुनकी चित्तवृत्ति अत्यन्त निर्मल और प्रशान्त हो गयी॥28॥
श्लोक-29
वासुदेवाज़्यनुध्यानपरिबृंहितरंहसा।
भक्त्या निर्मथिताशेषकषायधिषणोऽर्जुनः॥
उनकी प्रेममयी भक्ति भगवान् श्रीकृष्णके चरणकमलोंके अहर्निश चिन्तनसे अत्यन्त बढ़ गयी। भक्तिके वेगने उनके हृदयको मथकर उसमेंसे सारे विकारोंको बाहर निकाल दिया। 29॥
श्लोक-30
गीतं भगवता ज्ञानं यत् तत् सङ्ग्राममूर्धनि।
कालकर्मतमोरुद्धं पुनरध्यगमद् विभुः॥
उन्हें युद्धके प्रारम्भमें भगवान्के द्वारा उपदेश किया हुआ गीता ज्ञान पुनः स्मरण हो आया, जिसकी कालके व्यवधान और कर्मोके विस्तारके कारण प्रमादवश कुछ दिनोंके लिये विस्मृति हो गयी थी॥30॥
श्लोक-31
विशोको ब्रह्मसम्पत्त्या संछिन्नद्वैतसंशयः।
लीनप्रकृतिनैर्गुण्यादलिङ्गत्वादसम्भवः॥
ब्रह्मज्ञानकी प्राप्तिसे मायाका आवरण भंग होकर गुणातीत अवस्था प्राप्त हो गयी। द्वैतका संशय निवृत्त हो गया। सूक्ष्मशरीर भंग हुआ। वे शोक एवं जन्म-मृत्युके चक्रसे सर्वथा मुक्त हो गये॥31॥
श्लोक-32
निशम्य भगवन्मार्ग संस्थां यदुकुलस्य च।
स्वःपथाय मतिं चक्रे निभृतात्मा युधिष्ठिरः॥
भगवान्के स्वधामगमन और यदुवंशके संहारका वृत्तान्त सुनकर निश्चलमति युधिष्ठिरने स्वर्गारोहणका निश्चय किया। 32॥
श्लोक-33
पृथाप्यनुश्रुत्य धनञ्जयोदितं नाशं यदूनां भगवद्गतिं च ताम्।
एकान्तभक्त्या भगवत्यधोक्षजे निवेशितात्मोपरराम संसृतेः॥
कुन्तीने भी अर्जुनके मुखसे यदुवंशियोंके नाश और भगवान्के स्वधामगमनकी बात सुनकर अनन्य भक्तिसे अपने हृदयको भगवान् श्रीकृष्णमें लगा दिया और सदाके लिये इस जन्ममृत्युरूप संसारसे अपना मुँह मोड़ लिया॥33॥
श्लोक-34
ययाहरद् भुवो भारं तां तनुं विजहावजः।
कण्टकं कण्टकेनेव द्वयं चापीशितुः समम्॥
भगवान् श्रीकृष्णने लोकदृष्टिमें जिस यादवशरीरसे पृथ्वीका भार उतारा था, उसका वैसे ही परित्याग कर दिया, जैसे कोई काँटेसे काँटा निकालकर फिर दोनोंको फेंक दे। भगवान्की दृष्टिमें दोनों ही समान थे॥34॥
श्लोक-35
यथा मत्स्यादिरूपाणि धत्ते जह्याद् यथा नटः।
भूभारः क्षपितो येन जहौ तच्च कलेवरम्॥
जैसे वे नटके समान मत्स्यादि रूप धारण करते हैं और फिर उनका त्याग कर देते हैं, वैसे ही उन्होंने जिस यादवशरीरसे पृथ्वीका भार दूर किया था, उसे त्याग भी दिया॥ 35 ॥
श्लोक-36
यदा मुकुन्दो भगवानिमां महीं जहौ स्वतन्वा श्रवणीयसत्कथः।
तदाहरेवाप्रतिबुद्धचेतसा मधर्महेतुः कलिरन्ववर्तत॥
जिनकी मधुर लीलाएँ श्रवण करनेयोग्य हैं, उन भगवान् श्रीकृष्णने जब अपने मनुष्यके से शरीरसे इस पृथ्वीका परित्याग कर दिया, उसी दिन विचारहीन लोगोंको अधर्ममें फँसानेवाला कलियुग आ धमका॥36॥
श्लोक-37
युधिष्ठिरस्तत्परिसर्पणं बुधः पुरे च राष्ट्रे च गृहे तथाऽऽत्मनि।
विभाव्य लोभानृतजिह्महिंसनाद्यधर्मचक्रं गमनाय पर्यधात्॥
महाराज युधिष्ठिरसे कलियुगका फैलना छिपा न रहा। उन्होंने देखा-देशमें, नगरमें, घरोंमें और प्राणियोंमें लोभ, असत्य, छल, हिंसा आदि अधर्मोकी बढ़ती हो गयी है। तब उन्होंने महाप्रस्थानका निश्चय किया॥37॥
श्लोक-38
स्वराट् पौत्रं विनयिनमात्मनः सुसमं गुणैः।
तोयनीव्याः पतिं भूमेरभ्यषिञ्चद् गजाह्वये॥
उन्होंने अपने विनयी पौत्र परीक्षित् को, जो गुणोंमें उन्हींके समान थे, समुद्रसे घिरी हुई पृथ्वीके सम्राट पदपर हस्तिनापुरमें अभिषिक्त किया॥38॥
श्लोक-39
मथुरायां तथा वज्रं शूरसेनपतिं ततः।
प्राजापत्यां निरूप्येष्टिमग्नीनपिबदीश्वरः॥
उन्होंने मथुरामें शूरसेनाधिपतिके रूपमें अनिरुद्धके पुत्र वज्रका अभिषेक किया। इसके बाद समर्थ युधिष्ठिरने प्राजापत्य यज्ञ करके आहवनीय आदि अग्नियोंको अपनेमें लीन कर दिया अर्थात् गृहस्थाश्रमके धर्मसे मुक्त होकर उन्होंने संन्यास ग्रहण किया॥39॥
श्लोक-40
विसृज्य तत्र तत् सर्वं दुकूलवलयादिकम्।
निर्ममो निरहंकारः संछिन्नाशेषबन्धनः॥
युधिष्ठिरने अपने सब वस्त्राभूषण आदि वहीं छोड़ दिये एवं ममता और अहंकारसे रहित होकर समस्त बन्धन काट डाले॥ 40॥
श्लोक-41
वाचं जुहाव मनसि तत्प्राण इतरे च तम्।
मृत्यावपानं सोत्सर्गं तं पञ्चत्वे ह्यजोहवीत्॥
उन्होंने दृढ़ भावनासे वाणीको मनमें, मनको प्राणमें, प्राणको अपानमें और अपानको उसकी क्रियाके साथ मृत्युमें तथा मृत्युको पंचभूतमय शरीरमें लीन कर लिया॥41॥
श्लोक-42
त्रित्वे हुत्वाथ पञ्चत्वं तच्चैकत्वेऽजुहोन्मुनिः।
सर्वमात्मन्यजुहवीद् ब्रह्मण्यात्मानमव्यये॥
इस प्रकार शरीरको मृत्युरूप अनुभव करके उन्होंने उसे त्रिगुणमें मिला दिया, त्रिगुणको मूल प्रकृतिमें, सर्वकारणरूपा प्रकृतिको आत्मामें और आत्माको अविनाशी ब्रह्ममें विलीन कर दिया। उन्हें यह अनुभव होने लगा कि यह सम्पूर्ण दृश्यप्रपंच ब्रह्मस्वरूप है॥42॥
श्लोक-43
चीरवासा निराहारो बद्धवाङ् मुक्तमूर्धजः।
दर्शयन्नात्मनो रूपं जडोन्मत्तपिशाचवत्॥
इसके पश्चात् उन्होंने शरीरपर चीर-वस्त्र धारण कर लिया, अन्न-जलका त्याग कर दिया, मौन ले लिया और केश खोलकर बिखेर लिये। वे अपने रूपको ऐसा दिखाने लगे जैसे कोई जड, उन्मत्त या पिशाच हो॥43॥
श्लोक-44
अनपेक्षमाणो निरगादशृण्वन्बधिरो यथा।
उदीची प्रविवेशाशां गतपूर्वां महात्मभिः।
हृदि ब्रह्म परं ध्यायन्नावर्तेत यतो गतः॥ 44॥
फिर वे बिना किसीकी बाट देखे तथा बहरेकी तरह बिना किसीकी बात सुने, घरसे निकल पड़े। हृदयमें उस परब्रह्मका ध्यान करते हुए , जिसको प्राप्त करके फिर लौटना नहीं होता, उन्होंने उत्तर दिशाकी यात्रा की, जिस ओर पहले बड़े-बड़े महात्माजन जा चुके हैं। ॥ 44॥
श्लोक-45
सर्वे तमनु निर्जग्मुर्धातरः कृतनिश्चयाः।
कलिनाधर्ममित्रेण दृष्ट्वा स्पृष्टाः प्रजा भुवि ॥45॥
भीमसेन, अर्जुन आदि युधिष्ठिरके छोटे भाइयोंने भी देखा कि अब पृथ्वीमें सभी लोगोंको अधर्मके सहायक कलियुगने प्रभावित कर डाला है; इसलिये वे भी श्रीकृष्णचरणोंकी प्राप्तिका दृढ़ निश्चय करके अपने बड़े भाईके पीछे-पीछे चल पड़े॥45॥
श्लोक-46
ते साधुकृतसर्वार्था ज्ञात्वाऽऽत्यन्तिकमात्मनः।
मनसा धारयामासुर्वैकुण्ठचरणाम्बुजम्॥
उन्होंने जीवनके सभी लाभ भलीभाँति प्राप्त कर लिये थे; इसलिये यह निश्चय करके कि भगवान् श्रीकृष्णके चरणकमल ही हमारे परम पुरुषार्थ हैं, उन्होंने उन्हें हृदयमें धारण किया॥ 46॥
श्लोक-47
तद्ध्यानोद्रिक्तया भक्त्या विशुद्धधिषणाः परे।
तस्मिन् नारायणपदे एकान्तमतयो गतिम्॥
श्लोक-48
अवापुर्दुरवापां ते असद्भिर्विषयात्मभिः।
विधूतकल्मषास्थाने विरजेनात्मनैव हि॥
पाण्डवोंके हृदयमें भगवान् श्रीकृष्णके चरणकमलोंके ध्यानसे भक्ति-भाव उमड़ आया, उनकी बुद्धि सर्वथा शुद्ध होकर भगवान् श्रीकृष्णके उस सर्वोत्कृष्ट स्वरूपमें अनन्यभावसे स्थिर हो गयी; जिसमें निष्पाप पुरुष ही स्थिर हो पाते हैं। फलतः उन्होंने अपने विशुद्ध अन्तःकरणसे स्वयं ही वह गति प्राप्त की, जो विषयासक्त दुष्ट मनुष्योंको कभी प्राप्त नहीं हो सकती॥ 47-48॥
श्लोक-49
विदुरोऽपि परित्यज्य प्रभासे देहमात्मवान्।
कृष्णावेशेन तच्चित्तः पितृभिः स्वक्षयं ययौ॥
संयमी एवं श्रीकृष्णके प्रेमावेशमें मुग्ध भगवन्मय विदुरजीने भी अपने शरीरको प्रभासक्षेत्रमें त्याग दिया। उस समय उन्हें लेनेके लिये आये हुए पितरोंके साथ वे अपने लोक (यमलोक)-को चले गये॥49॥
श्लोक-50
द्रौपदी च तदाऽऽज्ञाय पतीनामनपेक्षताम्।
वासुदेवे भगवति ह्येकान्तमतिराप तम्॥
द्रौपदीने देखा कि अब पाण्डवलोग निरपेक्ष हो गये हैं; तब वे अनन्यप्रेमसे भगवान् श्रीकृष्णका ही चिन्तन करके उन्हें प्राप्त हो गयीं॥50॥
श्लोक-51
यः श्रद्धयैतद् भगवत्प्रियाणां पाण्डोः सुतानामिति सम्प्रयाणम्।
शृणोत्यलं स्वस्त्ययनं पवित्रं लब्ध्वा हरौ भक्तिमुपैति सिद्धिम्॥
भगवान्के प्यारे भक्त पाण्डवोंके महाप्रयाणकी इस परम पवित्र और मंगलमयी कथाको जो पुरुष श्रद्धासे सुनता है, वह निश्चय ही भगवान्की भक्ति और मोक्ष प्राप्त करता है॥51॥
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां प्रथमस्कन्धे पाण्डवस्वर्गारोहणं नाम पञ्चदशोऽध्यायः॥15॥
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