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इंटरनेट पर श्रीरामजी का सबसे बड़ा विश्वकोश | RamCharitManas Ramayana in Hindi English | रामचरितमानस रामायण हिंदी अनुवाद अर्थ सहित

श्रीमद् भागवत महापुराण प्रथम स्कन्ध हिंदी अर्थ सहित

1 अध्याय 18: राजा परीक्षित्‌ को शृंगी ऋषि का शाप

Spread the Glory of Sri SitaRam!

॥ ॐ तत्सत्॥
॥ श्रीगणेशायः नमः॥
श्रीमद्भागवतमहापुराणम्

प्रथमः स्कन्धः

अथाष्टादशोऽध्यायः

राजा परीक्षित को शृंगी ऋषि का शाप

सूत उवाच

यो वै ट्रौण्यस्त्रविप्लुष्टो न मातुरुदरे मृतः |
अनुग्रहाद्‌ भगवतः कृष्णस्याद्भुतकर्मणः ।।१
ब्रह्मकोपोत्थिताद्‌ यस्तु तक्षकात्प्राणविप्लवात्‌ |

न सम्मुमोहोरुभयाद्‌ भगवत्यर्पिताशयः ।।2
उत्सृज्य सर्वतः सङ्गं विज्ञाताजितसंस्थितिः ।
वैयासकेर्जहौ शिष्यो गङ्गायां स्वं कलेवरम्‌ ।।३
नोत्तमश्लोकवार्तानां जुषतां तत्कथामृतम्‌ |
स्यात्सम्भ्रमोऽन्तकालेऽपि स्मरतां तत्पदाम्बुजम्‌ ।।४
तावत्कलिर्न प्रभवेत्‌ प्रविष्टोऽपीह सर्वतः ।
यावदीशो महानुर्व्यामाभिमन्यव एकराट्‌ ।।५

सूतजी कहते हैं-अदभुत कर्मा भगवान्‌ श्रीकृष्णकी कृपासे राजा परीक्षित्‌ अपनी माताकी कोखमें अश्वत्थामाके ब्रह्मास्त्रसे जल जानेपर भी मरे नहीं ।।१।। जिस समय ब्राह्मणके शापसे उन्हें डसनेके लिये तक्षक आया, उस समय वे प्राणनाशके महान्‌ भयसे भी भयभीत नहीं हुए; क्योंकि उन्होंने अपना चित्त भगवान्‌ श्रीकृष्णके चरणोंमें समर्पित कर रखा था ।।२।। उन्होंने सबकी आसक्ति छोड़ दी, गंगातटपर जाकर श्रीशुकदेवजीसे उपदेश ग्रहण किया और इस प्रकार भगवानूके स्वरूपको जानकर अपने शरीरको त्याग दिया 11311 जो लोग भगवान्‌ श्रीकृष्णकी लीलाकथा कहते रहते हैं, उस कथामृतका पान करते रहते हैं और इन दोनों ही साधनोंके द्वारा उनके चरण-कमलोंका स्मरण करते रहते हैं, उन्हें अन्तकालमें भी मोह नहीं होता ।।४।। जबतक पृथ्वीपर अभिमन्युनन्दन महाराज परीक्षित्‌ सम्राट्‌ रहे, तबतक चारों ओर व्याप्त हो जानेपर भी कलियुगका कुछ भी प्रभाव नहीं था ।।५।। वैसे तो जिस दिन, जिस क्षण श्रीकृष्णने पृथ्वीका परित्याग किया, उसी समय पृथ्वीमें अधर्मका मूलकारण कलियुग आ गया था ।।६।। भ्रमरके समान सारग्राही सम्राट्‌ परीक्षित्‌ कलियुगसे कोई द्वेष नहीं रखते थे; क्योंकि इसमें यह एक बहुत बड़ा गुण है कि पुण्यकर्म तो संकल्पमात्रसे ही फलीभूत हो जाते हैं, परन्तु पापकर्मका फल शरीरसे करनेपर ही मिलता है; संकल्पमात्रसे नहीं ।।७।। यह भेड़ियेके समान बालकोंके प्रति शूरवीर और धीर वीर पुरुषोंके लिये बड़ा भीरु है। यह प्रमादी मनुष्योंको अपने वशमें करनेके लिये ही सदा सावधान रहता है ।।८।।
शौनकादि ऋषियो! आपलोगोंको मैंने भगवान्‌की कथासे युक्त राजा परीक्षित्‌का पवित्र चरित्र सुनाया। आपलोगोंने यही पूछा था ।।९।। भगवान्‌ श्रीकृष्ण कीर्तन करनेयोग्य बहुत-सी लीलाएँ करते हैं। इसलिये उनके गुण और लीलाओंसे सम्बन्ध रखनेवाली जितनी भी कथाएँ
है, कल्याणकामी पुरुषोंको उन सबका सेवन करना चाहिये 113011

यस्मिन्नहनि यहाँव भगवानुत्ससर्ज गाम्‌ ।

तदैवेहानुवृत्तोऽसावधर्मप्रभवः कलिः ।।६

नानुद्वेष्टिः कलिं सम्राट्‌ सारङ्ग इव सारभुक्‌ |
कुशलान्याशु सिदध्यन्ति नेतराणि कृतानि यत्‌ ।।७

किं नु बालेषु शूरेण कलिना धीरभीरुणा ।
अप्रमत्तः प्रमत्तेषु यो वृको? नृषु वर्तते ।।८

उपवर्णितमेतद्‌ वःर पुण्यं पारीक्षितं मया ।
वासुदेवकथोपेतमाख्यानं यदपृच्छत ।।९

या या: कथा भगवतः कथनीयोरुकर्मणः |
गुणकर्माश्रयाः पुम्भिः संसेव्यास्ता बुभूषुभिः 1130

ऋषय ऊचुः

सूत जीव समा: सौम्य शाश्चतीर्विशदं यशः |
यस्त्वं शंससि कृष्णस्य मर्त्यानाममृतं हि नः 1133

कर्मण्यस्मिन्ननाश्वासे धूमधूम्रात्मनां भवान्‌ |
आपाययति गोविन्दपादपद्मासवं मधु 11१२

तुलयाम लवेनापि न स्वर्ग नापुनर्भवम्‌ ।
भगवत्सङ्गिसङ्गस्य मर्त्यानां किमुताशिषः 1133

को नाम तृप्येद्‌ रसवित्कथायां
महत्तमैकान्तपरायणस्य |

नान्तं गुणानामगुणस्य जग्मु-
योगेश्वरा ये भवपाद्ममुख्याः ।।१४

ऋषियोंने कहा–सौम्यस्वभाव सूतजी! आप युग-युग जीयें; क्योंकि मृत्युके प्रवाहमें पड़े हुए हमलोगोंको आप भगवान्‌ श्रीकृष्णकी अमृतमयी उज्ज्वल कीर्तिका श्रवण कराते हैं 113311 यज्ञ करते-करते उसके धूएँसे हमलोगोंका शरीर धूमिल हो गया है। फिर भी इस कर्मका कोई विश्वास नहीं है। इधर आप तो वर्तमानमें ही भगवान्‌ श्रीकृष्णचन्द्रके चरणकमलोंका मादक और मधुर मधु पिलाकर हमें तृप्त कर रहे हैं ।।१२।। भगवत्-प्रेमी भक्तोंके लवमात्रके सत्संगसे स्वर्ग एवं मोक्षकी भी तुलना नहीं की जा सकती; फिर मनुष्योंके तुच्छ भोगोंकी तो बात ही क्या है 11331 ऐसा कोन रस-मर्मज्ञ होगा, जो महापुरुषोंके एकमात्र जीवनसर्वस्व श्रीकृष्णकी लीला-कथाओंसे तृप्त हो जाय? समस्त प्राकृत गुणोंसे अतीत भगवानूके अचिन्त्य अनन्त कल्याणमय गुणगणोंका पार तो ब्रह्मा, शंकर आदि बड़े-बड़े योगेश्वर भी नहीं पा सके ।।१४।। विद्वन्‌! आप भगवानको ही अपने जीवनका ध्रुवतारा मानते हैं। इसलिये आप सत्पुरुषोंके एकमात्र आश्रय भगवानूके उदार और विशुद्ध चरित्रोंका हम श्रद्धालु श्रोताओंके लिये विस्तारसे वर्णन कीजिये ।।१५।। भगवानूके परम प्रेमी महाबुद्धि परीक्षितूने श्रीशुकदेवजीके उपदेश किये हुए जिस ज्ञानसे मोक्षस्वरूप भगवानूके चरणकमलोंको प्राप्त किया, आप कृपा करके उसी ज्ञान और परीक्षितृके परम पवित्र उपाख्यानका वर्णन कीजिये; क्योंकि उसमें कोई बात छिपाकर नहीं कही गयी होगी और भगवत्प्रेमकी अदभुत योगनिष्ठाका निरूपण किया गया होगा। उसमें पद-पदपर भगवान्‌
श्रीकृष्णकी लीलाओंका वर्णन हुआ होगा। भगवानके प्यारे भक्तोंको वैसा प्रसंग सुननेमें बड़ा रस मिलता है ।।१६-१७।।

तन्नो भवान्‌ वै भगवत्प्रधानो महत्तमैकान्तपरायणस्य |
हरेरुदारं चरितं विशुद्धं शुश्रूषतां नो वितनोतु विद्वन्‌) ।।१५

स वै महाभागवतः परीक्षिद्‌ येनापवर्गाख्यमदश्रबुद्धिः |
ज्ञानेन वैयासकिशब्दितेन भेजे खगेन्द्रध्वजपादमूलम्‌ 1138

तन्नः परं पुण्यमसंवृतार्थ-माख्यानमत्यद्भुतयोगनिष्ठम्‌ |
आख्याह्मनन्ताचरितोपपन्नं पारीक्षितं भागवताभिरामम्‌ ।।१७

सूत उवाच

अहो वयं जन्मभृतोऽद्य हास्म वृद्धानुवृत्त्यापि विलोमजाताः |

दौष्कुल्यमाधिं विधुनोति शीघ्रं महत्तमानामभिधानयोगः 1134

कुतः पुनर्गृणतो नाम तस्य महत्तमैकान्तपरायणस्य |

योऽनन्तशक्तिर्भगवाननन्तो महदगुणत्वाद्‌ यमनन्तमाहुः ।।१९

एतावतालं ननुः सूचितेन गुणैरसाम्यानतिशायनस्य* |

हित्वेतरान्‌ प्रार्थयतो विभूति-यस्याङ्घ्रिरेणुं जुषतेऽनभीप्सोः 1120

सूतजी कहते है-अहो! विलोम जातिमें उत्पन्न होनेपर भी महात्माओंकी सेवा करनेके कारण आज हमारा जन्म सफल हो गया। क्योंकि महापुरुषोंके साथ बातचीत करनेमात्रसे ही नीच कुलमें उत्पन्न होनेकी मनोव्यथा शीघ्र ही मिट जाती है ।।१८।।

फिर उन लोगोंकी तो बात ही क्या है, जो सत्पुरुषोंके एकमात्र आश्रय भगवानूका नाम लेते हैं! भगवानूकी शक्ति अनन्त है, वे स्वयं अनन्त हैं। वास्तवमें उनके गुणोंकी अनन्तताके कारण ही उन्हें अनन्त कहा गया है 113911

भगवानके गुणोंकी समता भी जब कोई नहीं कर सकता, तब उनसे बढ़कर तो कोई हो ही कैसे सकता है। उनके गुणोंकी यह विशेषता समझानेके लिये इतना कह देना ही पर्याप्त है कि लक्ष्मीजी अपनेको प्राप्त करनेकी इच्छासे प्रार्थना करनेवाले ब्रह्मादि देवताओंको छोड़कर
भगवानके न चाहनेपर भी उनके चरणकमलोंकी रजका ही सेवन करती हैं ।।२०।।

अथापि यत्पादनखावसृष्टं जगद्विरिञ्चोपहृतार्हणाम्भः |
सेशं पुनात्यन्यतमो मुकुन्दात्‌ को नाम लोके भगवत्पदार्थः 1123

यत्रानुरक्ताः सहसैव धीरा व्यपोह्य देहादिषु सङ्गमूढम्‌ ।
व्रजन्ति तत्पारमहंस्यमन्त्यं यस्मिन्नहिंसोपशम: स्वधर्मः 1122

अहं हि पृष्टोऽर्यमणो भवद्धि-राचक्ष आत्मावगमोऽत्र यावान्‌ |
नभः पतन्त्यात्मसमं पतत्त्रिण-स्तथा समं विष्णुगतिं विपश्चितः 1123

एकदा धनुरुद्यम्य विचरन्‌ मृगयां वने ।
मृगाननुगतः श्रान्तः क्षुधितस्तृषितो भृशम्‌ ।।२४

जलाशयमचक्षाणः प्रविवेश तमाश्रमम्‌ |
ददर्श मुनिमासीनं शान्तं मीलितलोचनम्‌ ।।२५

प्रतिरुद्धेन्द्रियप्राणमनोबुद्धिमुपारतम्‌ |
स्थानत्रयात्परं प्राप्तं ब्रह्मभूतमविक्रियम्‌ ।।२६

विप्रकीर्णजटाच्छन्नं रौरवेणाजिनेन च |
विशुष्यत्तालुरुदकं तथाभूतमयाचत ।।२७

अलब्धतृणभूम्यादिरसम्प्राप्तार्घ्यसूनृतः |
अवज्ञातमिवात्मानं मन्यमानश्चुकोप ह ।।२८

ब्रह्माजीने भगवानके चरणोंका प्रक्षालन करनेके लिये जो जल समर्पित किया था, वही उनके चरणनखोंसे निकलकर गंगाजीके रूपमें प्रवाहित हुआ। यह जल महादेवजीसहित सारे जगत्को पवित्र करता है। ऐसी अवस्थामें त्रिभुवनमें श्रीकृष्णके अतिरिक्त “भगवान्‌” शब्दका दूसरा और क्या अर्थ हो सकता है 11331 जिनके प्रेमको प्राप्त करके धीर पुरुष बिना किसी हिचकके देह-गेह आदिकी दृढ़ आसक्तिको छोड़ देते हैं और उस अन्तिम परमहंस-आश्रमको स्वीकार करते हैं, जिसमें किसीको कष्ट न पहुँचाना और सब ओरसे उपशान्त हो जाना ही स्वधर्म होता है ।।२२।। सूर्यके समान प्रकाशमान महात्माओ! आपलोगोंने मुझसे जो कुछ पूछा है, वह अपनी समझके अनुसार सुनाता हूँ। जैसे पक्षी अपनी शक्तिके अनुसार आकाशमें उड़ते हैं, वैसे ही विद्वानूलोग भी अपनी-अपनी बुद्धिके अनुसार ही श्रीकृष्णकी लीलाका वर्णन करते हैं 113311
एक दिन राजा परीक्षित्‌ धनुष लेकर वनमें शिकार खेलने गये हुए थे। हरिणोंके पीछे दौड़ते-दौड़ते वे थक गये और उन्हें बड़े जोरकी भूख और प्यास लगी ।।२४।। जब कहीं उन्हें कोई जलाशय नहीं मिला, तब वे पासके ही एक ऋषिके आश्रममें घुस गये। उन्होंने देखा कि वहाँ आँखें बंद करके शान्तभावसे एक मुनि आसनपर बैठे हुए हैं ।।२५।। इन्द्रिय, प्राण, मन और बुद्धिके निरुद्ध हो जानेसे वे संसारसे ऊपर उठ गये थे। जाग्रत्‌, स्वप्न, सुषुप्ति–तीनों अवस्थाओंसे रहित निर्विकार ब्रह्मरूप तुरीय पदमें वे स्थित थे ।।२६।। उनका शरीर बिखरी हुई जटाओंसे और कृष्ण मृगचर्मसे ढका हुआ था। राजा परीक्षित्ने ऐसी ही अवस्थामें उनसे जल माँगा, क्योंकि प्याससे उनका गला सूखा जा रहा था ।।२७।। जब राजाको वहाँ बैठनेके लिये तिनकेका आसन भी न मिला, किसीने उन्हें भूमिपर भी बैठनेको न कहा–अर्घ्य और आदरभरी मीठी बातें तो कहाँसे मिलतीं-तब अपनेको अपमानित-सा मानकर वे क्रोधके वश हो गये ।1२८।।

अभूतपूर्वः सहसा क्षुत्तृडभ्यामर्दितात्मनः |
ब्राह्मणं प्रत्यभूद ब्रह्मन्‌ मत्सरो मन्युरेव च ।।२९

स! तु ब्रह्मऋषेरंसे गतासुमुरगं रुषा |
विनिर्गच्छन्धनुष्कोट्या निधाय पुरमागमत्‌) 1130

एष किं निभृताशेषकरणो मीलितेक्षणः ।
मृषासमाधिराहोस्वित्किं नु स्यातक्षत्रबन्धुभिः 1133

तस्य पुत्रोऽतितेजस्वी विहरन्‌ बालकोऽर्भकैः |
राज्ञाघं प्रापितं तातं श्रुत्वा तत्रेदमब्रवीत्‌ 1132

अहो अधर्मः पालानां पीन्नां बलिभुजामिव ।
स्वामिन्यघं यद्‌ दासानां द्वारपानां शुनामिव 1133

ब्राह्मणैः क्षत्रबन्धुर्हि द्वारपालो? निरूपितः |
स कथं तदगृहे द्वाःस्थः सभाण्डं भोक्तुमर्हति* 113%

कृष्णे गते भगवति शास्तर्युत्पथगामिनाम्‌ |
तद्भिन्नसेतूनद्याहं ` शास्मि पश्यत मे बलम्‌ 113%

इत्युक्त्वा रोषताम्राक्षो वयस्यानृषिबालकः ।
कौशिक्याप उपस्पृश्य वाग्वज्रं विससर्ज ह 11३६

इति* लङ्घितमर्यादं तक्षकः सप्तमेऽहनि ।

दङ्क्ष्यति स्म कुलाङ्गारं चोदितो मे ततद्रुहम्‌* 1130

शौनकजी! वे भूख-प्याससे छटपटा रहे थे, इसलिये एकाएक उन्हें ब्राह्मणके प्रति ईर्ष्या और क्रोध हो आया। उनके जीवनमें इस प्रकारका यह पहला ही अवसर था ।।२९।। वहाँसे लौटते समय उन्होंने क्रोधवश धनुषकी नोकसे एक मरा साँप उठाकर ऋषिके गलेमें डाल दिया और अपनी राजधानीमें चले आये ।।३०।। उनके मनमें यह बात आयी कि इन्होंने जो अपने नेत्र बंद कर रखे हैं, सो क्या वास्तवमें इन्होंने अपनी सारी इन्द्रियवृत्तियोंका निरोध कर लिया है अथवा इन राजाओंसे हमारा क्या प्रयोजन है, यों सोचकर इन्होंने झूठ-मूठ समाधिका ढोंग रच रखा है ।।३१।।
उन शमीक मुनिका पुत्र बड़ा तेजस्वी था। वह दूसरे ऋषिकुमारोंके साथ पास ही खेल रहा था। जब उस बालकने सुना कि राजाने मेरे पिताके साथ दुर्व्यवहार किया है, तब वह इस प्रकार कहने लगा ।।३२।। “ये नरपति कहलानेवाले लोग उच्छिष्टभोजी कोओंके समान संड-मुसंड होकर कितना अन्याय करने लगे हैं! ब्राह्मणोंके दास होकर भी ये दरवाजेपर पहरा देनेवाले कुत्तेके समान अपने स्वामीका ही तिरस्कार करते हैं 113311 ब्राह्मणोने क्षत्रियोंको अपना द्वारपाल बनाया है। उन्हें द्वारपर रहकर रक्षा करनी चाहिये, RA घुसकर स्वामीके बर्तनोंमें खानेका उसे अधिकार नहीं है ।1३४।। अतएव उन्मार्गगामियोंके शासक भगवान्‌ श्रीकृष्णके परमधाम पधार जानेपर इन मर्यादा तोड़नेवालोंको आज मैं दण्ड देता हूँ। मेरा तपोबल देखो’ ।।३५।। अपने साथी बालकोंसे इस प्रकार कहकर क्रोधसे लाल-लाल आँखोंवाले उस ऋषिकुमारने कौशिकी नदीके जलसे आचमन करके अपने वाणी-रूपी वज्रका प्रयोग किया ।।३६।। ‘कुलांगार परीक्षित्ने मेरे पिताका अपमान करके मर्यादाका उल्लंघन किया है, इसलिये मेरी प्रेरणासे आजके सातवें दिन उसे तक्षक सर्प डस लेगा’ 113911

ततोऽभ्येत्याश्रमं बालो गले सर्पकलेवरम्‌ |
पितरं वीक्ष्य दुःखार्तो मुक्तकण्ठो रुरोद ह 11३८
स वा आङ्गिरसो ब्रह्मन्‌ श्रुत्वा सुतविलापनम्‌ ।
उन्मील्य शनकैनेत्रे दृष्ट्वा स्वांसे मृतोरगम्‌ 1139
विसृज्य पुत्रं पप्रच्छ वत्स कस्माद्धि रोदिषि ।
केन वा तेऽपकृतमित्युक्तः स न्यवेदयत्‌ ।।४०
निशम्य शप्तमतदर्हं नरेन्द्र स ब्राह्मणो नात्मजमभ्यनन्दत्‌ |
अहो बतांहो महदज्ञ ते pd-मल्पीयसि द्रोह उरुर्दमो धृतः ।।४१
न वै नृभिर्नरदेवं पराख्यं सम्मातुमर्हस्यविपक्वबुद्धे ।

यत्तेजसा दुर्विषहेण गुप्ता विन्दन्ति भद्राण्यकुतोभयाः प्रजा: 1182

अलक्ष्यमाणे नरदेवनाम्नि रथाङ्गपाणावयमङ्ग लोक: |
तदा हि चौरप्रचुरो विनड्क्ष्य-त्यरक्ष्यमाणो5विवरूथवत्‌ क्षणात्‌ ।।४३
तदद्य नः पापमुपैत्यनन्वयं यन्नष्टनाथस्य वसोर्विलुम्पकात्‌ |
परस्परं घ्नन्ति शपन्ति वृञ्जते पशून स्त्रियोऽर्थान्‌ पुरुदस्यवो जनाः ।।४४
तदाऽऽर्यधर्मश्च विलीयते नृणां वर्णाश्रमाचारयुतस्त्रयीमयः |
ततोऽर्थकामाभिनिवेशितात्मनां शुनां कपीनामिव वर्णसङ्करः ।।४५
धर्मपालो नरपतिः स तु सम्राङ्‌ बृहच्छूवा: |
साक्षान्महाभागवतो राजर्षिईयमेधयाट्‌ |
्षुत्तृट्श्रमयुतो दीनो नैवास्मच्छापमर्हति ।।४६

इसके बाद वह बालक अपने आश्रमपर आया और अपने पिताके गलेमें साँप देखकर उसे बड़ा दुःख हुआ तथा वह ढाड़ मारकर रोने लगा ।।३८।। विप्रवर शौनकजी! शमीक मुनिने अपने पुत्रका रोना-चिल्लाना सुनकर धीरे-धीरे अपनी आँखें खोली और देखा कि उनके गलेमें एक मरा साँप पड़ा है 113811 उसे फेंककर उन्होंने अपने पुत्रसे पूछा–“बेटा! तुम क्यों रो रहे हो? किसने तुम्हारा अपकार किया है?’ उनके इस प्रकार पूछनेपर बालकने सारा हाल कह दिया ।।४०।। ब्रह्मर्षि शमीकने राजाके शापकी बात सुनकर अपने पुत्रका अभिनन्दन नहीं किया। उनकी दृष्टिमें परीक्षित्‌ शापके योग्य नहीं थे। उन्होंने कहा-‘ओह, मूर्ख बालक! तूने बड़ा पाप किया! खेद है कि उनकी थोड़ी-सी गलतीके लिये तूने उनको इतना बड़ा दण्ड दिया ।।४१।। तेरी बुद्धि अभी कच्ची है। तुझे भगवत्स्वरूप राजाको साधारण मनुष्योंके समान नहीं समझना चाहिये; क्योंकि राजाके दुस्सह तेजसे सुरक्षित और निर्भय रहकर ही प्रजा अपना कल्याण सम्पादन करती है ।।४२।। जिस समय राजाका रूप
धारण करके भगवान्‌ पृथ्वीपर नहीं दिखायी देंगे, उस समय चोर बढ़ जायेगे और अरक्षित भेडोंके समान एक क्षणमें ही लोगोंका नाश हो जायगा ।।४३।। राजाके नष्ट हो जानेपर धन आदि चुरानेवाले चोर जो पाप करेंगे, उसके साथ हमारा कोई सम्बन्ध न होनेपर भी वह हमपर भी लागू होगा। क्योंकि राजाके न रहनेपर लुटेरे बढ़ जाते हैं और वे आपसमें मार-पीट, गाली-गलौज करते हैं, साथ ही पशु, स्त्री और धन-सम्पत्ति भी लूट लेते हैं ।।४४।। उस समय मनुष्योंका वर्णाश्रमाचार-युक्त वैदिक आर्यधर्म लुप्त हो जाता है, अर्थ-लोभ और काम-वासनाके विवश होकर लोग कुत्तों और बंदरोंके समान वर्णसंकर हो जाते हैं ।।४५।। सम्राट्‌ परीक्षित्‌ तो बड़े ही यशस्वी और धर्मधुरन्धर हैं। उन्होंने बहुत-से अश्वमेध यज्ञ किये हैं और वे भगवानके परम प्यारे भक्त हैं; वे ही राजर्षि भूख-प्याससे व्याकुल होकर हमारे आश्रमपर आये थे, वे शापके योग्य कदापि नहीं हैं ।।४६।।

अपापेषु स्वभूत्येषु बालेनापक्वबुद्धिना ।

पापं कृतं तद्‌भगवान्‌ सर्वात्मा क्षन्तुमर्हति ।।४७

तिरस्कृता विप्रलब्धाः शप्ताः क्षिप्ता हता अपि |
नास्य तत्‌ प्रतिकुर्वन्ति तद्भक्ताः प्रभवोऽपि हि ।।४८

इति पुत्रकृताघेन सोऽनुतप्तो महामुनिः ।
स्वयं विप्रकृतो राज्ञा नैवाघं तदचिन्तयत्‌ ।।४९

प्रायशः साधवो लोके परैर्द्वन्द्वेषु योजिताः |
न व्यथन्ति न हृष्यन्ति यत आत्माऽगुणाश्रयः ।।५०

इस नासमझ बालकने हमारे निष्पाप सेवक राजाका अपराध किया है, सर्वात्मा भगवान्‌ कृपा करके इसे क्षमा करें ।।४७।। भगवानूके भक्तोंमें भी बदला लेनेकी शक्ति होती है, परंतु वे दूसरोंके द्वारा किये हुए अपमान, धोखेबाजी, गाली-गलौज, आक्षेप और मार-पीटका कोई बदला नहीं लेते ।।४८।। महामुनि शमीकको पुत्रके अपराधपर बड़ा पश्चात्ताप हुआ। राजा परीक्षितूने जो उनका अपमान किया था, उसपर तो उन्होंने ध्यान ही नहीं दिया ।।४९।।
महात्माओंका स्वभाव ही ऐसा होता है कि जगत्में जब दूसरे लोग उन्हें सुख-दुःखादि द्वब्धोंमें डाल देते हैं, तब भी वे प्रायः हर्षित या व्यथित नहीं होते; क्योंकि आत्माका स्वरूप तो गुणोंसे सर्वथा परे है ।।५०।।

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां प्रथमस्कन्धे विप्रशापोपलम्भनं
नामाष्टादशोऽध्यायः ।।१८।।


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Shiv

शिव RamCharit.in के प्रमुख आर्किटेक्ट हैं एवं सनातन धर्म एवं संस्कृत के सभी ग्रंथों को इंटरनेट पर निःशुल्क और मूल आध्यात्मिक भाव के साथ कई भाषाओं में उपलब्ध कराने हेतु पिछले 8 वर्षों से कार्यरत हैं। शिव टेक्नोलॉजी पृष्ठभूमि के हैं एवं सनातन धर्म हेतु तकनीकि के लाभकारी उपयोग पर कार्यरत हैं।

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