श्रीमद् भागवत महापुराण स्कन्ध 10 अध्याय 1
10 SKANDH
श्रीमद्भागवतपुराणम्
स्कन्धः १०
श्रीमद्भागवतपुराणम्
पूर्वार्धः
1 CHAPTER
अध्यायः १
श्रीकृष्णावतारोपक्रमः, ब्रह्मकर्तृकं पृथिव्या आश्वासनं कंसस्य देवकीवधोद्योगाद्
वसुदेववचनेन निवृत्तिः, षण्णां देवकीपुत्राणां कंसकतृको वधश्च –
श्रीराजोवाच ।
( अनुष्टुप् )
कथितो वंशविस्तारो भवता सोमसूर्ययोः ।
राज्ञां च उभयवंश्यानां चरितं परमाद्भुतम् ॥ १ ॥
यदोश्च धर्मशीलस्य नितरां मुनिसत्तम ।
तत्रांशेन अवतीर्णस्य विष्णोर्वीर्याणि शंस नः ॥ २ ॥
राजा परीक्षित्ने पूछा-भगवन्! आपने चन्द्रवंश और सूर्यवंशके विस्तार तथा दोनों वंशोंके राजाओंका अत्यन्त अदभुत चरित्र वर्णन किया। भगवानके परम प्रेमी मुनिवर! आपने स्वभावसे ही धर्मप्रेमी यदुवंशका भी विशद वर्णन किया। अब कृपा करके उसी वंशमें अपने अंश श्रीबलरामजीके साथ अवतीर्ण हुए भगवान् श्रीकृष्णके परम पवित्र चरित्र भी हमें सुनाइये ।।१-२।।
अवतीर्य यदोर्वंशे भगवान् भूतभावनः ।
कृतवान् यानि विश्वात्मा तानि नो वद विस्तरात् ॥ ३ ॥
भगवान् श्रीकृष्ण समस्त प्राणियोंके जीवनदाता एवं सर्वात्मा हैं। उन्होंने यदुवंशमें अवतार लेकर जो-जो लीलाएँ कीं, उनका विस्तारसे हमलोगोंको श्रवण कराइये ।।३।।
( उपेंद्रवज्रा )
निवृत्ततर्षैः उपगीयमानाद्भवौषधात् श्रोत्रमनोऽभिरामात् ।
क उत्तमश्लोकगुणानुवादात्पुमान् विरज्येत विना पशुघ्नात् ॥ ४ ॥
जिनकी तृष्णाकी प्यास सर्वदाके लिये बुझ चुकी है, वे जीवन्मुक्त महापुरुषजिसका पूर्ण प्रेमसे अतृप्त रहकर गान किया करते हैं, मुमुक्षुजनोंके लिये जो भवरोगका रामबाण औषध है तथा विषयी लोगोंके लिये भी उनके कान और मनको परम आह्लाद देनेवाला है, भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रके ऐसे सुन्दर, सुखद, रसीले, गुणानुवादसे पशुघाती अथवा आत्मघाती मनुष्यके अतिरिक्त और ऐसा कौन है जो विमुख हो जाय, उससे प्रीति न करे? ||४||
( वंशस्थ )
पितामहा मे समरेऽमरञ्जयैःदेवव्रताद्यातिरथैस्तिमिङ्गिलैः ।
दुरत्ययं कौरवसैन्यसागरंकृत्वातरन् वत्सपदं स्म यत्प्लवाः ॥ ५ ॥
(श्रीकृष्ण तो मेरे कुलदेव ही हैं।) जब कुरुक्षेत्रमें महाभारत-युद्ध हो रहा था और देवताओंको भी जीत लेनेवाले भीष्मपितामह आदि अतिरथियोंसे मेरे दादा पाण्डवोंका युद्ध हो रहा था, उस समय कौरवोंकी सेना उनके लिये अपार समुद्रके समान थी जिसमें भीष्म आदि वीर बड़े-बड़े मच्छोंको भी निगल जानेवाले तिमिगिल मच्छोंकी भाँति भय उत्पन्न कर रहे थे। परन्तु मेरे स्वनामधन्य पितामह भगवान् श्रीकृष्णके चरणकमलोंकी नौकाका आश्रय लेकर उस समुद्रको अनायास ही पार कर गये-ठीक वैसे ही जैसे कोई मार्गमें चलता हुआ स्वभावसे ही बछडेके खुरका गड़ा पार कर जाय ||५||
( इंद्रवज्रा )
द्रौण्यस्त्रविप्लुष्टमिदं मदङ्गंसन्तानबीजं कुरुपाण्डवानाम् ।
जुगोप कुक्षिं गत आत्तचक्रोमातुश्च मे यः शरणं गतायाः ॥ ६ ॥
महाराज! मेरा यह शरीर-जो आपके सामने है तथा जो कौरव और पाण्डव दोनों ही वंशोंका एकमात्र सहारा थाअश्वत्थामाके ब्रह्मास्त्रसे जल चुका था। उस समय मेरी माता जब भगवान्की शरणमें गयीं, तब उन्होंने हाथमें चक्र लेकर मेरी माताके गर्भमें प्रवेश किया और मेरी रक्षा की ।।६।।
वीर्याणि तस्याखिलदेहभाजांअन्तर्बहिः पूरुषकालरूपैः ।
प्रयच्छतो मृत्युमुतामृतं च मायामनुष्यस्य वदस्व विद्वन् ॥ ७ ॥
(केवल मेरी ही बात नहीं,) वे समस्त शरीरधारियोंके भीतर आत्मारूपसे रहकर अमृतत्वका दान कर रहे हैं और बाहर कालरूपसे रहकर मृत्युका*। मनुष्यके रूपमें प्रतीत होना, यह तो उनकी एक लीला है। आप उन्हींकी ऐश्वर्य और माधुर्यसे परिपूर्ण लीलाओंका वर्णन कीजिये ||७||
( अनुष्टुप् )
रोहिण्यास्तनयः प्रोक्तो रामः संकर्षणस्त्वया ।
देवक्या गर्भसंबंधः कुतो देहान्तरं विना ॥ ८ ॥
भगवन्! आपने अभी बतलाया था कि बलरामजी रोहिणीके पुत्र थे। इसके बाद देवकीके पुत्रोंमें भी आपने उनकी गणना की। दूसरा शरीर धारण किये बिना दो माताओंका पुत्र होना कैसे सम्भव है? ||८||
कस्मात् मुकुन्दो भगवान् पितुर्गेहाद् व्रजं गतः ।
क्व वासं ज्ञातिभिः सार्धं कृतवान् सात्वतां पतिः ॥ ९ ॥
असुरोंको मुक्ति देनेवाले और भक्तोंको प्रेम वितरण करनेवाले भगवान् श्रीकृष्ण अपने वात्सल्य-स्नेहसे भरे हुए पिताका घर छोड़कर व्रजमें क्यों चले गये? यवंशशिरोमणि भक्तवत्सल प्रभुने नन्द आदि गोप-बन्धुओंके साथ कहाँ-कहाँ निवास किया? ||९||
व्रजे वसन् किं अकरोत् मधुपुर्यां च केशवः ।
भ्रातरं चावधीत् कंसं मातुः अद्धा अतदर्हणम् ॥ १० ॥
ब्रह्मा और शंकरका भी शासन करनेवाले प्रभुने व्रजमें तथा मधुपुरीमें रहकर कौन-कौन-सी लीलाएँ कीं? और महाराज! उन्होंने अपनी माँके भाई मामा कंसको अपने हाथों क्यों मार डाला? वह मामा होनेके कारण उनके द्वारा मारे जाने योग्य तो नहीं था ।।१०।।
देहं मानुषमाश्रित्य कति वर्षाणि वृष्णिभिः ।
यदुपुर्यां सहावात्सीत् पत्न्यः कत्यभवन् प्रभोः ॥ ११ ॥
मनुष्याकार सच्चिदानन्दमय विग्रह प्रकट करके द्वारकापुरीमें यदुवंशियोंके साथ उन्होंने कितने वर्षोंतक निवास किया? और उन सर्वशक्तिमान् प्रभुकी पत्नियाँ कितनी थीं? ।।११।।
एतत् अन्यच्च सर्वं मे मुने कृष्णविचेष्टितम् ।
वक्तुमर्हसि सर्वज्ञ श्रद्दधानाय विस्तृतम् ॥ १२ ॥
मुने! मैंने श्रीकृष्णकी जितनी लीलाएँ पूछी हैं और जो नहीं पूछी हैं, वे सब आप मुझे विस्तारसे सुनाइये; क्योंकि आप सब कुछ जानते हैं और मैं बड़ी श्रद्धाके साथ उन्हें सुनना चाहता हूँ ।।१२।।
नैषातिदुःसहा क्षुन्मां त्यक्तोदं अपि बाधते ।
पिबन्तं त्वन्मुखाम्भोज अच्युतं हरिकथामृतम् ॥ १३ ॥
भगवन्! अन्नकी तो बात ही क्या, मैंने जलका भी परित्याग कर दिया है। फिर भी वह असह्य भूख-प्यास (जिसके कारण मैंने मुनिके गले में मृत सर्प डालनेका अन्याय किया था) मुझे तनिक भी नहीं सता रही है; क्योंकि मैं आपके मुखकमलसे झरती हुई भगवान्की सुधामयी लीला-कथाका पान कर रहा हूँ ।।१३।।
सूत उवाच ।
( वसंततिलका )
एवं निशम्य भृगुनन्दन साधुवादं ।
वैयासकिः स भगवान् अथ विष्णुरातम् ।
प्रत्यर्च्य कृष्णचरितं कलिकल्मषघ्नं ।
व्याहर्तुमारभत भागवतप्रधानः ॥ १४ ॥
सूतजी कहते हैं-शौनकजी! भगवान्के प्रेमियोंमें अग्रगण्य एवं सर्वज्ञ श्रीशुकदेवजी महाराजने परीक्षित्का ऐसा समीचीन प्रश्न सुनकर (जो संतोंकी सभामें भगवान्की लीलाके वर्णनका हेतु हुआ करता है) उनका अभिनन्दन किया और भगवान् श्रीकृष्णकी उन लीलाओंका वर्णन प्रारम्भ किया, जो समस्त कलिमलोंको सदाके लिये धो डालती है ।।१४।।
श्रीशुक उवाच ।
( अनुष्टुप् )
सम्यग्व्यवसिता बुद्धिः तव राजर्षिसत्तम ।
वासुदेवकथायां ते यज्जाता नैष्ठिकी रतिः ॥ १५ ॥
श्रीशुकदेवजीने कहा-भगवान्के लीला-रसके रसिक राजर्षे! तुमने जो कुछ निश्चय किया है, वह बहुत ही सुन्दर और आदरणीय है; क्योंकि सबके हृदयाराध्य श्रीकृष्णकी लीलाकथा श्रवण करनेमें तुम्हें सहज एवं सुदृढ़ प्रीति प्राप्त हो गयी है ||१५||
वासुदेवकथाप्रश्नः पुरुषान् त्रीन् पुनाति हि ।
वक्तारं पृच्छकं श्रोतॄन् तत्पादसलिलं यथा ॥ १६ ॥
भगवान् श्रीकृष्णकी कथाके सम्बन्धमें प्रश्न करनेसे ही वक्ता, प्रश्नकर्ता और श्रोता तीनों ही पवित्र हो जाते हैंजैसे गंगाजीका जल या भगवान् शालग्रामका चरणामृत सभीको पवित्र कर देता है ।।१६।।
भूमिः दृप्तनृपव्याज दैत्यानीकशतायुतैः ।
आक्रान्ता भूरिभारेण ब्रह्माणं शरणं ययौ ॥ १७ ॥
परीक्षित्! उस समय लाखों दैत्योंके दलने घमंडी राजाओंका रूप धारण कर अपने भारी भारसे पृथ्वीको आक्रान्त कर रखा था। उससे त्राण पानेके लिये वह ब्रह्माजीकी शरणमें गयी ।।१७।।
गौर्भूत्वा अश्रुमुखी खिन्ना क्रन्दन्ती करुणं विभोः ।
उपस्थितान्तिके तस्मै व्यसनं स्वं अवोचत ॥ १८ ॥
पृथ्वीने उस समय गौका रूप धारण कर रखा था। उसके नेत्रोंसे आँसू बह-बहकर मुँहपर आ रहे थे। उसका मन तो खिन्न था ही, शरीर भी बहुत कृश हो गया था। वह बड़े करुण स्वरसे रँभा रही थी। ब्रह्माजीके पास जाकर उसने उन्हें अपनी पूरी कष्ट-कहानी सुनायी ।।१८।।
ब्रह्मा तद् उपधार्याथ सह देवैस्तया सह ।
जगाम स-त्रिनयनः तीरं क्षीरपयोनिधेः ॥ १९ ॥
ब्रह्माजीने बड़ी सहानुभूतिके साथ उसकी दःख-गाथा सुनी। उसके बाद वे भगवान् शंकर, स्वर्गके अन्यान्य प्रमुख देवता तथा गौके रूपमें आयी हुई पृथ्वीको अपने साथ लेकर क्षीरसागरके तटपर गये ।।१९।।
तत्र गत्वा जगन्नाथं देवदेवं वृषाकपिम् ।
पुरुषं पुरुषसूक्तेन उपतस्थे समाहितः ॥ २० ॥
भगवान् देवताओंके भी आराध्यदेव हैं। वे अपने भक्तोंकी समस्त अभिलाषाएँ पूर्ण करते और उनके समस्त क्लेशोंको नष्ट कर देते हैं। वे ही जगत्के एकमात्र स्वामी हैं। क्षीरसागरके तटपर पहुँचकर ब्रह्मा आदि देवताओंने ‘पुरुषसूक्त’ के द्वारा उन्हीं परम पुरुष सर्वान्तर्यामी प्रभुकी स्तुति की। स्तुति करते-करते ब्रह्माजी समाधिस्थ हो गये ||२०||
( वंशस्थ )
गिरं समाधौ गगने समीरितांनिशम्य वेधास्त्रिदशानुवाच ह ।
गां पौरुषीं मे श्रृणुतामराः पुनःविधीयतां आशु तथैव मा चिरम् ॥ २१ ॥
उन्होंने समाधि-अवस्थामें आकाशवाणी सुनी। इसके बाद जगत्के निर्माणकर्ता ब्रह्माजीने देवताओंसे कहा-‘देवताओ! मैंने भगवान्की वाणी सुनी है। तुमलोग भी उसे मेरे द्वारा अभी सन लो और फिर वैसा ही करो। उसके पालनमें विलम्ब नहीं होना चाहिये ।।२१।।
पुरैव पुंसा अवधृतो धराज्वरोभवद्भिः अंशैः यदुषूपजन्यताम् ।
स यावद् उर्व्या भरं इश्वरेश्वरःस्वकालशक्त्या क्षपयन् चरेद् भुवि ॥ २२ ॥
भगवान्को पृथ्वीके कष्टका पहलेसे ही पता है। वे ईश्वरोंके भी ईश्वर हैं। अतः अपनी कालशक्तिके द्वारा पृथ्वीका भार हरण करते हुए वे जबतक पृथ्वीपर लीला करें, तबतक तुम लोग भी अपने-अपने अंशोंके साथ यदुकुलमें जन्म लेकर उनकी लीलामें सहयोग दो ||२२||
( अनुष्टुप् )
वसुदेवगृहे साक्षाद् भगवान् पुरुषः परः ।
जनिष्यते तत्प्रियार्थं संभवन्तु सुरस्त्रियः ॥ २३ ॥
वसुदेवजीके घर स्वयं पुरुषोत्तम भगवान् प्रकट होंगे। उनकी और उनकी प्रियतमा (श्रीराधा) की सेवाके लिये देवांगनाएँ जन्म ग्रहण करें ।।२३।।
वासुदेवकलानन्तः सहस्रवदनः स्वराट् ।
अग्रतो भविता देवो हरेः प्रियचिकीर्षया ॥ २४ ॥
स्वयंप्रकाश भगवान शेष भी, जो भगवानकी कला होनेके कारण अनन्त हैं (अनन्तका अंश भी अनन्त ही होता है) और जिनके सहस्र मुख हैं, भगवानके प्रिय कार्य करनेके लिये उनसे पहले ही उनके बड़े भाईके रूपमें अवतार ग्रहण करेंगे ||२४||
विष्णोर्माया भगवती यया सम्मोहितं जगत् ।
आदिष्टा प्रभुणांशेन कार्यार्थे संभविष्यति ॥ २५ ॥
भगवान्की वह ऐश्वर्यशालिनी योगमाया भी, जिसने सारे जगत्को मोहित कर रखा है, उनकी आज्ञासे उनकी लीलाके कार्य सम्पन्न करनेके लिये अंशरूपसे अवतार ग्रहण करेगी’ ।।२५।।
श्रीशुक उवाच ।
इत्यादिश्यामरगणान् प्रजापतिपतिः विभुः ।
आश्वास्य च महीं गीर्भिः स्वधाम परमं ययौ ॥ २६ ॥
श्रीशुकदेवजी कहते हैं-परीक्षित्! प्रजापतियोंके स्वामी भगवान् ब्रह्माजीने देवताओंको इस प्रकार आज्ञा दी और पृथ्वीको समझा-बुझाकर ढाढ़स बंधाया। इसके बाद वेअपने परम धामको चले गये ।।२६।।
शूरसेनो यदुपतिः मथुरां आवसन् पुरीम् ।
माथुरान् शूरसेनांश्च विषयान् बुभुजे पुरा ॥ २७ ॥
प्राचीन कालमें यदुवंशी राजा थे शूरसेन। वे मथुरापुरीमें रहकर माथुरमण्डल और शूरसेनमण्डलका राज्यशासन करते थे ।।२७।।
राजधानी ततः साभूत् सर्वयादव भूभुजाम् ।
मथुरा भगवान् यत्र नित्यं सन्निहितो हरिः ॥ २८ ॥
उसी समयसे मथुरा ही समस्त यदुवंशी नरपतियोंकी राजधानी हो गयी थी। भगवान श्रीहरि सर्वदा वहाँ विराजमान रहते हैं ||२८||
तस्यां तु कर्हिचित् शौरिः वसुदेवः कृतोद्वहः ।
देवक्या सूर्यया सार्धं प्रयाणे रथमारुहत् ॥ २९ ॥
एक बार मथुरामें शूरके पुत्र वसुदेवजी विवाह करके अपनी नवविवाहिता पत्नी देवकीके साथ घर जानेके लिये रथपर सवार हुए ||२९||
उग्रसेनसुतः कंसः स्वसुः प्रियचिकीर्षया ।
रश्मीन् हयानां जग्राह रौक्मै रथशतैर्वृतः ॥ ३० ॥
उग्रसेनका लड़का था कंस। उसने अपनी चचेरी बहिन देवकीको प्रसन्न करनेके लिये उसके रथके घोड़ोंकी रास पकड़ ली। वह स्वयं ही रथ हाँकने लगा, यद्यपि उसके साथ सैकड़ों सोनेके बने हुए रथ चल रहे थे ।।३०।।
चतुःशतं पारिबर्हं गजानां हेममालिनाम् ।
अश्वानां अयुतं सार्धं रथानां च त्रिषट्शतम् ॥ ३१ ॥
दासीनां सुकुमारीणां द्वे शते समलंकृते ।
दुहित्रे देवकः प्रादात् याने दुहितृवत्सलः ॥ ३२ ॥
देवकीके पिता थे देवक। अपनी पत्रीपर उनका बड़ा प्रेम था। कन्याको विदा करते समय उन्होंने उसे सोनेके हारोंसे अलंकृत चार सौ हाथी, पंद्रह हजार घोड़े, अठारह सौ रथ तथा सुन्दर-सुन्दर वस्त्रा-भूषणोंसे विभूषित दो सौ सुकुमारी दासियाँ दहेजमें दीं ।।३१-३२||
शंखतूर्यमृदंगाश्च नेदुः दुन्दुभयः समम् ।
प्रयाणप्रक्रमे तावत् वरवध्वोः सुमंगलम् ॥ ३३ ॥
विदाईके समय वर-वधूके मंगलके लिये एक ही साथ शंख, तुरही, मृदंग और दुन्दुभियाँ बजने लगीं ।।३३।।
पथि प्रग्रहिणं कंसं आभाष्य आह अशरीरवाक् ।
अस्यास्त्वां अष्टमो गर्भो हन्ता यां वहसे अबुध ॥ ३४ ॥
मार्गमें जिस समय घोड़ोंकी रास पकड़कर कंस रथ हाँक रहा था, उस समय आकाशवाणीने उसे सम्बोधन करके कहा—’अरे मूर्ख! जिसको त रथमें बैठाकर लिये जा रहा है, उसकी आठवें गर्भकी सन्तान तुझे मार डालेगी’ ||३४||
इत्युक्तः स खलः पापो भोजानां कुलपांसनः ।
भगिनीं हन्तुमारब्धः खड्गपाणिः कचेऽग्रहीत् ॥ ३५ ॥
कंस बड़ा पापी था। उसकी दुष्टताकी सीमा नहीं थी। वह भोजवंशका कलंक ही था। आकाशवाणी सुनते ही उसने तलवार खींच ली और अपनी बहिनकी चोटी पकडकर उसे मारनेके लिये तैयार हो गया ||३५||
तं जुगुप्सितकर्माणं नृशंसं निरपत्रपम् ।
वसुदेवो महाभाग उवाच परिसान्त्वयन् ॥ ३६ ॥
वह अत्यन्त क्रर तो था ही, पाप-कर्म करते-करते निर्लज्ज भी हो गया था। उसका यह काम देखकर महात्मा वसुदेवजी उसको शान्त करते हुए बोले- ||३६||
श्रीवसुदेव उवाच ।
श्लाघनीयगुणः शूरैः भवान् भोज-यशस्करः ।
स कथं भगिनीं हन्यात् स्त्रियं उद्वाहपर्वणि ॥ ३७ ॥
वसुदेवजीने कहा-राजकुमार! आप भोजवंशके होनहार वंशधर तथा अपने कुलकी कीर्ति बढ़ानेवाले हैं। बड़े-बड़े शूरवीर आपके गुणोंकी सराहना करते हैं। इधर यह एक तो स्त्री, दूसरे आपकी बहिन और तीसरे यह विवाहका शुभ अवसर! ऐसी स्थितिमें आप इसे कैसे मार सकते हैं? ||३७।।
मृत्युर्जन्मवतां वीर देहेन सह जायते ।
अद्य वाब्दशतान्ते वा मृत्युर्वै प्राणिनां ध्रुवः ॥ ३८ ॥
वीरवर! जो जन्म लेते हैं, उनके शरीरके साथ ही मृत्यु भी उत्पन्न होती है। आज हो या सौ वर्षके बाद जो प्राणी है, उसकी मृत्यु होगी ही ।।३८||
देहे पञ्चत्वमापन्ने देही कर्मानुगोऽवशः ।
देहान्तरं अनुप्राप्य प्राक्तनं त्यजते वपुः ॥ ३९ ॥
जब शरीरका अन्त हो जाता है, तब जीव अपने कर्मके अनुसार दूसरे शरीरको ग्रहण करके अपने पहले शरीरको छोड़ देता है। उसे विवश होकर ऐसा करना पड़ता है ।।३९।।
व्रजन् तिष्ठन् पदैकेन यथैवैकेन गच्छति ।
यथा तृणजलूकैवं देही कर्मगतिं गतः ॥ ४० ॥
जैसे चलते समय मनुष्य एक पैर जमाकर ही दूसरा पैर उठाता है और जैसे जोंक किसी अगले तिनकेको पकड लेती है, तब पहलेके पकडे हए तिनकेको छोडती है—वैसे जीव भी अपने कर्मके अनुसार किसी शरीरको प्राप्त करनेके बाद ही इस शरीरको छोड़ता है ।।४०।।
( इंद्रवंशा )
स्वप्ने यथा पश्यति देहमीदृशंमनोरथेन अभिनिविष्टचेतनः ।
दृष्टश्रुताभ्यां मनसानुचिन्तयन्प्रपद्यते तत् किमपि ह्यपस्मृतिः ॥ ४१ ॥
जैसे कोई पुरुष जाग्रत्-अवस्थामें राजाके ऐश्वर्यको देखकर और इन्द्रादिके ऐश्वर्यको सुनकर उसकी अभिलाषा करने लगता है और उसका चिन्तन करते-करते उन्हीं बातोंमें घुल-मिलकर एक हो जाता है तथा स्वप्नमें अपनेको राजा या इन्द्रके रूपमें अनुभव करने लगता है, साथ ही अपने दरिद्रावस्थाके शरीरको भूल जाता है। कभी-कभी तो जाग्रत् अवस्थामें ही मन-ही-मन उन बातोंका चिन्तन करते-करते तन्मय हो जाता है और उसे स्थूल शरीरकी सुधि नहीं रहती। वैसे ही जीव कर्मकृत कामना और कामनाकृत कर्मके वश होकर दूसरे शरीरको प्राप्त हो जाता है और अपने पहले शरीरको भूल जाता है ।।४१||
यतो यतो धावति दैवचोदितंमनो विकारात्मकमाप पञ्चसु ।
गुणेषु मायारचितेषु देह्यसौप्रपद्यमानः सह तेन जायते ॥ ४२ ॥
जीवका मन अनेक विकारोंका पुंज है। देहान्तके समय वह अनेक जन्मोंके संचित और प्रारब्ध कर्मोंकी वासनाओंके अधीन होकर मायाके द्वारा रचे हए अनेक पांचभौतिक शरीरोंमेंसे जिस किसी शरीरके चिन्तनमें तल्लीन हो जाता है और मान बैठता है कि यह मैं हूँ, उसे वही शरीर ग्रहण करके जन्म लेना पड़ता है ।।४२।।
ज्योतिर्यथैव उदकपार्थिवेष्वदः ।
समीरवेगानुगतं विभाव्यते ।
एवं स्वमायारचितेष्वसौ पुमान् ।
गुणेषु रागानुगतो विमुह्यति ॥ ४३ ॥
जैसे सूर्य, चन्द्रमा आदि चमकीली वस्तुएँ जलसे भरे हुए घड़ोंमें या तेल आदि तरल पदार्थों में प्रतिबिम्बित होती हैं और हवाके झोंकेसे उनके जल आदिके हिलने-डोलनेपर उनमें प्रतिबिम्बित वस्तुएँ भी चंचल जान पड़ती हैं—वैसे ही जीव अपने स्वरूपके अज्ञानद्वारा रचे हुए शरीरोंमें राग करके उन्हें अपना आप मान बैठता है और मोहवश उनके आने-जानेको अपना आना-जाना मानने लगता है ।।४३।।
( अनुष्टुप् )
तस्मात् न कस्यचिद् द्रोहं आचरेत् स तथाविधः ।
आत्मनः क्षेममन्विच्छन् द्रोग्धुर्वै परतो भयम् ॥ ४४ ॥
इसलिये जो अपना कल्याण चाहता है, उसे किसीसे द्रोह नहीं करना चाहिये; क्योंकि जीव कर्मके अधीन हो गया है और जो किसीसे भी द्रोह करेगा, उसको इस जीवनमें शत्रुसे और जीवनके बाद परलोकसे भयभीत होना हीपड़ेगा ।।४४।।
एषा तव अनुजा बाला कृपणा पुत्रिकोपमा ।
हन्तुं नार्हसि कल्याणीं इमां त्वं दीनवत्सलः ॥ ४५ ॥
कंस! यह आपकी छोटी बहिन अभी बच्ची और बहुत दीन है। यह तो आपकी कन्याके समान है। इसपर, अभी-अभी इसका विवाह हुआ है, विवाहके मंगलचिह्न भी इसके शरीरपरसे नहीं उतरे हैं। ऐसी दशामें आप-जैसे दीनवत्सल पुरुषको इस बेचारीका वध करना उचित नहीं है ।।४५।।
श्रीशुक उवाच ।
एवं स सामभिर्भेदैः बोध्यमानोऽपि दारुणः ।
न न्यवर्तत कौरव्य पुरुषादान् अनुव्रतः ॥ ४६ ॥
श्रीशुकदेवजी कहते हैं-परीक्षित्! इस प्रकार वसुदेवजीने प्रशंसा आदि सामनीति और भय आदि भेदनीतिसे कंसको बहुत समझाया। परन्तु वह क्रूर तो राक्षसोंका अनुयायी हो रहा था; इसलिये उसने अपने घोर संकल्पको नहीं छोड़ा ।।४६।।
निर्बन्धं तस्य तं ज्ञात्वा विचिन्त्यानकदुन्दुभिः ।
प्राप्तं कालं प्रतिव्योढुं इदं तत्रान्वपद्यत ॥ ४७ ॥
वसुदेवजीने कंसका विकट हठ देखकर यह विचार किया कि किसी प्रकार यह समय तो टाल ही देना चाहिये। तब वे इसनिश्चयपर पहुँचे ।।४७।।
मृत्युर्बुद्धिमतापोह्यो यावद्बुद्धिबलोदयम् ।
यद्यसौ न निवर्तेत नापराधोऽस्ति देहिनः ॥ ४८ ॥
‘बुद्धिमान् पुरुषको, जहाँतक उसकी बुद्धि और बल साथ दें, मृत्युको टालनेका प्रयत्न करना चाहिये। प्रयत्न करनेपर भी वह न टल सके, तो फिर प्रयत्न करनेवालेका कोई दोष नहीं रहता ।।४८।।
प्रदाय मृत्यवे पुत्रान् मोचये कृपणां इमाम् ।
सुता मे यदि जायेरन् मृत्युर्वा न म्रियेत चेत् ॥ ४९ ॥
इसलिये इस मृत्युरूप कंसको अपने पुत्र दे देनेकी प्रतिज्ञा करके मैं इस दीन देवकीको बचा लूँ। यदि मेरे लड़के होंगे और तबतक यह कंस स्वयं नहीं मर जायगा, तब क्या होगा? ||४९||
विपर्ययो वा किं न स्याद् गतिर्धातुः दुरत्यया ।
उपस्थितो निवर्तेत निवृत्तः पुनरापतेत् ॥ ५० ॥
सम्भव है, उलटा ही हो। मेरा लड़का ही इसे मार डाले! क्योंकि विधाताके विधानका पार पाना बहुत कठिन है। मृत्यु सामने आकर भी टल जाती है और टली हई भी लौट आती है ।।५०||
( मिश्र )
अग्नेर्यथा दारुवियोगयोगयोःअदृष्टतोऽन्यन्न निमित्तमस्ति ।
एवं हि जन्तोरपि दुर्विभाव्यःशरीर संयोगवियोगहेतुः ॥ ५१ ॥
जिस समय वनमें आग लगती है, उस समय कौन-सी लकड़ी जले और कौन-सी न जले, दूरकी जल जाय और पासकी बच रहे—इन सब बातोंमें अदृष्टके सिवा और कोई कारण नहीं होता। वैसे ही किस प्राणीका कौन-सा शरीर बना रहेगा और किस हेतुसे कौन-सा शरीर नष्ट हो जायगा-इस बातका पता लगा लेना बहुत ही कठिन है’ ||५१।।
( अनुष्टुप् )
एवं विमृश्य तं पापं यावद् आत्मनिदर्शनम् ।
पूजयामास वै शौरिः बहुमानपुरःसरम् ॥ ५२ ॥
अपनी बुद्धिके अनुसार ऐसा निश्चय करके वसुदेवजीने बहुत सम्मानके साथ पापी कंसकी बड़ी प्रशंसा की ।।५२||
प्रसन्न वदनाम्भोजो नृशंसं निरपत्रपम् ।
मनसा दूयमानेन विहसन् इदमब्रवीत् ॥ ५३ ॥
परीक्षित्! कंस बड़ा क्रूर और निर्लज्ज था; अतः ऐसा करते समय वसुदेवजीके मनमें बड़ी पीड़ा भी हो रही थी। फिर भी उन्होंने ऊपरसे अपने मुखकमलको प्रफुल्लित करके हँसते हुए कहा- ||५३।।
श्रीवसुदेव उवाच ।
न ह्यस्यास्ते भयं सौम्य यद् वाक् आहाशरीरिणी ।
पुत्रान् समर्पयिष्येऽस्या यतस्ते भयमुत्थितम् ॥ ५४ ॥
वसुदेवजीने कहा-सौम्य! आपको देवकीसे तो कोई भय है नहीं, जैसा कि आकाशवाणीने कहा है। भय है पुत्रोंसे, सो इसके पुत्र मैं आपको लाकर सौंप दूंगा ।।५४।।
श्रीशुक उवाच ।
स्वसुर्वधात् निववृते कंसः तद्वाक्यसारवित् ।
वसुदेवोऽपि तं प्रीतः प्रशस्य प्राविशद् गृहम् ॥ ५५ ॥
श्रीशुकदेवजी कहते हैं-परीक्षित्! कंस जानता था कि वसुदेवजीके वचन झूठे नहीं होते और इन्होंने जो कुछ कहा है, वह युक्तिसंगत भी है। इसलिये उसने अपनी बहिन देवकीको मारनेका विचार छोड़ दिया। इससे वसुदेवजी बहुत प्रसन्न हुए और उसकी प्रशंसा करके अपने घर चले आये ||५५||
अथ काल उपावृत्ते देवकी सर्वदेवता ।
पुत्रान् प्रसुषुवे चाष्टौ कन्यां चैवानुवत्सरम् ॥ ५६ ॥
देवकी बड़ी सती-साध्वी थी। सारे देवता उसके शरीरमें निवास करते थे। समय आनेपर देवकीके गर्भसे प्रतिवर्ष एक-एक करके आठ पुत्र तथा एक कन्या उत्पन्न हुई ।।५६||
कीर्तिमन्तं प्रथमजं कंसायानकदुन्दुभिः ।
अर्पयामास कृच्छ्रेण सोऽनृताद् अतिविह्वलः ॥ ५७ ॥
पहले पुत्रका नाम था कीर्तिमान्। वसुदेवजीने उसे लाकर कंसको दे दिया। ऐसा करते समय उन्हें कष्ट तो अवश्य हुआ, परन्तु उससे भी बड़ा कष्ट उन्हें इस बातका था कि कहीं मेरे वचन झूठे न हो जायँ ||५७||
किं दुःसहं नु साधूनां विदुषां किं अपेक्षितम् ।
किं अकार्यं कदर्याणां दुस्त्यजं किं धृतात्मनाम् ॥ ५८ ॥
परीक्षित्! सत्यसन्ध पुरुष बड़े-सेबड़ा कष्ट भी सह लेते हैं, ज्ञानियोंको किसी बातकी अपेक्षा नहीं होती, नीच पुरुष बुरे-से-बुरा काम भी कर सकते हैं और जो जितेन्द्रिय हैं जिन्होंने भगवान्को हृदयमें धारण कर रखा है, वे सब कुछ त्याग सकते हैं ।।५८।।
दृष्ट्वा समत्वं तत् शौरेः सत्ये चैव व्यवस्थितिम् ।
कंसस्तुष्टमना राजन् प्रहसन् इदमब्रवीत् ॥ ५९ ॥
जब कंसने देखा कि वसुदेवजीका अपने पुत्रके जीवन और मृत्युमें समान भाव है एवं वे सत्यमें पूर्ण निष्ठावान् भी हैं, तब वह बहुत प्रसन्न हुआ और उनसे हँसकर बोला ।।५९।।
प्रतियातु कुमारोऽयं न ह्यस्मादस्ति मे भयम् ।
अष्टमाद् युवयोर्गर्भान् मृत्युर्मे विहितः किल ॥ ६० ॥
वसुदेवजी! आप इस नन्हे-से सुकुमार बालकको ले जाइये। इससे मुझे कोई भय नहीं है। क्योंकि आकाशवाणीने तो ऐसा कहा था कि देवकीके आठवें गर्भसे उत्पन्न सन्तानके द्वारा मेरी मृत्यु होगी ।।६०।।
तथेति सुतमादाय ययौ आनकदुन्दुभिः ।
नाभ्यनन्दत तद्वाक्यं असतोऽविजितात्मनः ॥ ६१ ॥
वसुदेवजीने कहा—’ठीक है’ और उस बालकको लेकर वे लौट आये। परन्तु उन्हें मालूम था कि कंस बड़ा दुष्ट है और उसका मन उसके हाथमें नहीं है। वह किसी क्षण बदल सकता है। इसलिये उन्होंने उसकी बातपर विश्वास नहीं किया ।।६१।।
नन्दाद्या ये व्रजे गोपा याश्चामीषां च योषितः ।
वृष्णयो वसुदेवाद्या देवक्याद्या यदुस्त्रियः ॥ ६२ ॥
सर्वे वै देवताप्राया उभयोरपि भारत ।
ज्ञातयो बन्धुसुहृदो ये च कंसं अनुव्रताः ॥ ६३ ॥
एतत् कंसाय भगवान् शशंसाभ्येत्य नारदः ।
भूमेर्भारायमाणानां दैत्यानां च वधोद्यमम् ॥ ६४ ॥
परीक्षित्! इधर भगवान् नारद कंसके पास आये और उससे बोले कि ‘कंस! व्रजमें रहनेवाले नन्द आदि गोप, उनकी स्त्रियाँ, वसुदेव आदि वृष्णिवंशी यादव, देवकी आदि यदुवंशकी स्त्रियाँ और नन्द, वसुदेव दोनोंके सजातीय बन्धु-बान्धव और सगे-सम्बन्धी-सब-के-सब देवता हैं; जो इस समय तुम्हारी सेवा कर रहे हैं, वे भी देवता ही हैं।’ उन्होंने यह भी बतलाया कि ‘दैत्योंके कारण पृथ्वीका भार बढ़ गया है, इसलिये देवताओंकी ओरसे अब उनके वधकी तैयारी की जा रही है’ ||६२-६४।।
ऋषेः विनिर्गमे कंसो यदून् मत्वा सुरान् इति ।
देवक्या गर्भसंभूतं विष्णुं च स्ववधं प्रति ॥ ६५ ॥
देवकीं वसुदेवं च निगृह्य निगडैर्गृहे ।
जातं जातं अहन् पुत्रं तयोः अजनशंकया ॥ ६६ ॥
जब देवर्षि नारद इतना कहकर चले गये, तब कंसको यह निश्चय हो गया कि यदुवंशी देवता हैं और देवकीके गर्भसे विष्णुभगवान् ही मुझे मारनेके लिये पैदा होनेवाले हैं। इसलिये उसने देवकी और वसुदेवको हथकड़ी-बेड़ीसे जकड़कर कैदमें डाल दिया और उन दोनोंसे जो-जो पुत्र होते गये, उन्हें वह मारता गया। उसे हर बार यह शंका बनी रहती कि कहीं विष्णु ही उस बालकके रूपमें न आ गया हो ।।६५-६६।।
मातरं पितरं भ्रातॄन् सर्वांश्च सुहृदस्तथा ।
घ्नन्ति ह्यसुतृपो लुब्धा राजानः प्रायशो भुवि ॥ ६७ ॥
परीक्षित्! पृथ्वीमें यह बात प्रायः देखी जाती है कि अपने प्राणोंका ही पोषण करनेवाले लोभी राजा अपने स्वार्थके लिये माता-पिता, भाई-बन्धु और अपने अत्यन्त हितैषी इष्ट-मित्रोंकी भी हत्या कर डालते हैं ।।६७।।
आत्मानं इह सञ्जातं जानन् प्राग् विष्णुना हतम् ।
महासुरं कालनेमिं यदुभिः स व्यरुध्यत ॥ ६८ ॥
कंस जानता था कि मैं पहले कालनेमि असुर था और विष्णुने मुझे मार डाला था। इससे उसने यदुवंशियोंसे घोर विरोध ठान लिया ।।६८।।
उग्रसेनं च पितरं यदुभोजान्धकाधिपम् ।
स्वयं निगृह्य बुभुजे शूरसेनान् महाबलः ॥ ६९ ॥
कंस बड़ा बलवान् था। उसने यदु, भोज और अन्धक वंशके अधिनायक अपने पिता उग्रसेनको कैद कर लिया और शूरसेन-देशका राज्य वह स्वयं करने लगा ।।६९।।
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यांसंहितायां दशमस्कन्धे पूर्वार्धे प्रथमोध्याऽयः ॥ १ ॥
हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥