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श्रीमद् भागवत महापुराण दशम स्कन्ध

श्रीमद् भागवत महापुराण स्कन्ध 10 अध्याय 10

Spread the Glory of Sri SitaRam!

श्रीमद्भागवतपुराणम्
स्कन्धः १०, अध्यायः १०
यमलार्जुनोद्धारः –

( अनुष्टुप् )
श्रीराजोवाच ।
कथ्यतां भगवन् एतत् तयोः शापस्य कारणम् ।
यत्तद्विगर्हितं कर्म येन वा देवर्षेस्तमः ॥ १ ॥

राजा परीक्षितने पूछा-भगवन! आप कपया यह बतलाइये कि नलकूबर और मणिग्रीवको शाप क्यों मिला। उन्होंने ऐसा कौन-सा निन्दित कर्म किया था, जिसके कारण परम शान्त देवर्षि नारदजीको भी क्रोध आ गया? ||१||

श्रीशुक उवाच ।
रुद्रस्यानुचरौ भूत्वा सुदृप्तौ धनदात्मजौ ।
कैलासोपवने रम्ये मन्दाकिन्यां मदोत्कटौ ॥ २ ॥

वारुणीं मदिरां पीत्वा मदाघूर्णितलोचनौ ।
स्त्रीजनैः अनुगायद्‌भिः चेरतुः पुष्पिते वने ॥ ३ ॥

श्रीशुकदेवजीने कहा-परीक्षित्! नलकूबर और मणिग्रीव-ये दोनों एक तो धनाध्यक्ष कुबेरके लाड़ले लड़के थे और दूसरे इनकी गिनती हो गयी रुद्रभगवान्के अनुचरोंमें। इससे उनका घमण्ड बढ़ गया। एक दिन वे दोनों मन्दाकिनीके तटपर कैलासके रमणीय उपवनमें वारुणी मदिरा पीकर मदोन्मत्त हो गये थे। नशेके कारण उनकी आँखें घूम रही थीं। बहुत-सी स्त्रियाँ उनके साथ गा-बजा रही थीं और वे पुष्पोंसे लदे हुए वनमें उनके साथ विहार कर रहे थे ।।२-३।।

अन्तः प्रविश्य गङ्‌गायां अंभोजवनराजिनि ।
चिक्रीडतुर्युवतिभिः गजौ इव करेणुभिः ॥ ४ ॥

उस समय गंगाजीमें पाँत-के-पाँत कमल खिले हए थे। वे स्त्रियों के साथ जलके भीतर – घुस गये और जैसे हाथियोंका जोड़ा हथिनियोंके साथ जलक्रीडा कर रहा हो, वैसे ही वे उन युवतियों के साथ तरह-तरहकी क्रीडा करने लगे ।।४।।

यदृच्छया च देवर्षिः भगवांस्तत्र कौरव ।
अपश्यन्नारदो देवौ क्षीबाणौ समबुध्यत ॥ ५ ॥

परीक्षित्! संयोगवश उधरसे परम समर्थ देवर्षि नारदजी आ निकले। उन्होंने उन यक्षयुवकोंको देखा और समझ लिया कि ये इस समय मतवाले हो रहे हैं ।।५।।

तं दृष्ट्वा व्रीडिता देव्यो विवस्त्राः शापशङ्‌किताः ।
वासांसि पर्यधुः शीघ्रं विवस्त्रौ नैव गुह्यकौ ॥ ६ ॥

देवर्षि नारदको देखकर वस्त्रहीन अप्सराएँ लजा गयीं। शापके डरसे उन्होंने तो अपनेअपने कपड़े झटपट पहन लिये, परन्तु इन यक्षोंने कपड़े नहीं पहने ।।६।।

तौ दृष्ट्वा मदिरामत्तौ श्रीमदान्धौ सुरात्मजौ ।
तयोरनुग्रहार्थाय शापं दास्यन् इदं जगौ ॥ ७ ॥

जब देवर्षि नारदजीने देखा कि ये देवताओंके पुत्र होकर श्रीमदसे अन्धे और मदिरापान करके उन्मत्त हो रहे हैं, तब उन्होंने उनपर अनुग्रह करनेके लिये शाप देते हुए यह कहा * ||७||

श्रीनारद उवाच ।
न ह्यन्यो जुषतो जोष्यान् बुद्धिभ्रंशो रजोगुणः ।
श्रीमदादाभिजात्यादिः यत्र स्त्री द्यूतमासवः ॥ ८ ॥

नारदजीने कहा-जो लोग अपने प्रिय विषयोंका सेवन करते हैं, उनकी बुद्धिको सबसे बढ़कर नष्ट करनेवाला है श्रीमद-धन-सम्पत्तिका नशा। हिंसा आदि रजोगुणी कर्म और कुलीनता आदिका अभिमान भी उससे बढ़कर बुद्धिभ्रंशक नहीं है; क्योंकि श्रीमदके साथसाथ तो स्त्री, जूआ और मदिरा भी रहती है ।।८।।

हन्यन्ते पशवो यत्र निर्दयैः अजितात्मभिः ।
मन्यमानैरिमं देहः अजरामृत्यु नश्वरम् ॥ ९ ॥
ऐश्वर्यमद और श्रीमदसे अंधे होकर अपनी इन्द्रियोंके वशमें रहनेवाले क्रूर पुरुष अपने नाशवान् शरीरको तो अजर-अमर मान बैठते हैं और अपने ही जैसे शरीरवाले पशुओंकी हत्या करते हैं ।।९।।

देवसंज्ञितमप्यन्ते कृमिविड् भस्मसंज्ञितम् ।
भूतध्रुक् तत्कृते स्वार्थं किं वेद निरयो यतः ॥ १० ॥

जिस शरीरको ‘भूदेव’, ‘नरदेव’, ‘देव’ आदि नामोंसे पुकारते हैं उसकी अन्तमें क्या गति होगी? उसमें कीड़े पड़ जायँगे, पक्षी खाकर उसे विष्ठा बना देंगे या वह जलकर राखका ढेर बन जायगा। उसी शरीरके लिये प्राणियोंसे द्रोह करनेमें मनुष्य अपना कौन-सा स्वार्थ समझता है? ऐसा करनेसे तो उसे नरककी ही प्राप्ति होगी ।।१०।।

देहः किमन्नदातुः स्वं निषेक्तुर्मातुरेव च ।
मातुः पितुर्वा बलिनः क्रेतुरग्नेः शुनोऽपि वा ॥ ११ ॥

बतलाओ तो सही, यह शरीर किसकी सम्पत्ति है? अन्न देकर पालनेवालेकी है या गर्भाधान करानेवाले पिताकी? यह शरीर उसे नौ महीने पेटमें रखनेवाली माताका है अथवा माताको भी पैदा करनेवाले नानाका? जो बलवान पुरुष बलपूर्वक इससे काम करा लेता है, उसका है अथवा दाम देकर खरीद लेनेवालेका? चिताकी जिस धधकती आगमें यह जल जायगा, उसका है अथवा जो कुत्ते-स्यार इसको चीथ-चीथकर खा जानेकी आशा लगाये बैठे हैं, उनका? ||११||

एवं साधारणं देहं अव्यक्त प्रभवाप्ययम् ।
को विद्वान् आत्मसात्कृत्वा हन्ति जन्तूनृतेऽसतः ॥ १२ ॥

यह शरीर एक साधारण-सी वस्तु है। प्रकृतिसे पैदा होता है और उसीमें समा जाता है। ऐसी स्थितिमें मूर्ख पशुओंके सिवा और ऐसा कौन बुद्धिमान् है जो इसको अपना आत्मा मानकर दूसरोंको कष्ट पहुँचायेगा, उनके प्राण लेगा ।।१२।।

असतः श्रीमदान्धस्य दारिद्र्यं परमञ्जनम् ।
आत्मौपम्येन भूतानि दरिद्रः परमीक्षते ॥ १३ ॥

जो दुष्ट श्रीमदसे अंधे हो रहे हैं, उनकी आँखोंमें ज्योति डालनेके लिये दरिद्रता ही सबसे बड़ा अंजन है; क्योंकि दरिद्र यह देख सकता है कि दूसरे प्राणी भी मेरे ही जैसे हैं ।।१३।।

यथा कण्टकविद्धाङ्‌गो जन्तोर्नेच्छति तां व्यथाम् ।
जीवसाम्यं गतो लिङ्‌गैः न तथाविद्धकण्टकः ॥ १४ ॥

जिसके शरीरमें एक बार काँटा गड़ जाता है, वह नहीं चाहता कि किसी भी प्राणीको काँटा गड़नेकी पीड़ा सहनी पड़े; क्योंकि उस पीड़ा और उसके द्वारा होनेवाले विकारोंसे वह समझता है कि दूसरेको भी वैसी ही पीड़ा होती है। परन्तु जिसे कभी काँटा गड़ा ही नहीं, वह उसकी पीड़ाका अनुमान नहीं कर सकता ।।१४।।

दरिद्रो निरहंस्तम्भो मुक्तः सर्वमदैरिह ।
कृच्छ्रं यदृच्छयाऽऽप्नोति तद्धि तस्य परं तपः ॥ १५ ॥

दरिद्रमें घमंड और हेकड़ी नहीं होती; वह सब तरहके मदोंसे बचा रहता है। बल्कि दैववश उसे जो कष्ट उठाना पड़ता है, वह उसके लिये एक बहुत बड़ी तपस्या भी है ||१५||

नित्यं क्षुत्क्षामदेहस्य दरिद्रस्यान्नकाङ्‌क्षिणः ।
इन्द्रियाणि अनुशुष्यन्ति हिंसापि विनिवर्तते ॥ १६ ॥

जिसे प्रतिदिन भोजनके लिये अन्न जुटाना पड़ता है, भूखसे जिसका शरीर दुबला-पतला हो गया है, उस दरिद्रकी इन्द्रियाँ भी अधिक विषय नहीं भोगना चाहतीं, सूख जाती हैं और फिर वह अपने भोगोंके लिये दूसरे प्राणियोंको सताता नहीं उनकी हिंसा नहींकरता ।।१६।।

दरिद्रस्यैव युज्यन्ते साधवः समदर्शिनः ।
सद्‍भिः क्षिणोति तं तर्षं तत आराद्विशुद्ध्यति ॥ १७ ॥

यद्यपि साधु पुरुष समदर्शी होते हैं, फिर भी उनका समागम दरिद्रके लिये ही सुलभ है; क्योंकि उसके भोग तो पहलेसे ही छूटे हुए हैं। अब संतोंके संगसे उसकी लालसा-तृष्णा भी मिट जाती है और शीघ्र ही उसका अन्तःकरण शुद्ध हो जाता है ||१७||

साधूनां समचित्तानां मुकुन्द चरणैषिणाम् ।
उपेक्ष्यैः किं धनस्तम्भैः असद्‌भिः असदाश्रयैः ॥ १८ ॥

जिन महात्माओंके चित्तमें सबके लिये समता है, जो केवल भगवानके चरणारविन्दोंका मकरन्द-रस पीनेके लिये सदा उत्सुक रहते हैं, उन्हें दुर्गुणोंके खजाने अथवा दुराचारियोंकी जीविका चलानेवाले और धनके मदसे मतवाले दुष्टोंकी क्या आवश्यकता है? वे तो उनकी उपेक्षाके ही पात्र हैं। ।।१८।।

तदहं मत्तयोर्माध्व्या वारुण्या श्रीमदान्धयोः ।
तमोमदं हरिष्यामि स्त्रैणयोः अजितात्मनोः ॥ १९ ॥

ये दोनों यक्ष वारुणी मदिराका पान करके मतवाले और श्रीमदसे अंधे हो रहे हैं। अपनी इन्द्रियों के अधीन रहनेवाले इन स्त्री-लम्पट यक्षोंका अज्ञानजनित मद मैं चूर-चूर कर ट्रॅगा ||१९||

यदिमौ लोकपालस्य पुत्रौ भूत्वा तमःप्लुतौ ।
न विवाससमात्मानं विजानीतः सुदुर्मदौ ॥ २० ॥

देखो तो सही, कितना अनर्थ है कि ये लोकपाल कुबेरके पुत्र होनेपर भी मदोन्मत्त होकर अचेत हो रहे हैं और इनको इस बातका भी पता नहीं है कि हम बिलकुल नंग-धडंग हैं ।।२०।।

अतोऽर्हतः स्थावरतां स्यातां नैवं यथा पुनः ।
स्मृतिः स्यात् मत्प्रसादेन तत्रापि मदनुग्रहात् ॥ २१ ॥

वासुदेवस्य सान्निध्यं लब्ध्वा दिव्यशरच्छते ।
वृत्ते स्वर्लोकतां भूयो लब्धभक्ती भविष्यतः ॥ २२ ॥

इसलिये ये दोनों अब वृक्षयोनिमें जानेके योग्य हैं। ऐसा होनेसे इन्हें फिर इस प्रकारका अभिमान न होगा। वृक्षयोनिमें जानेपर भी मेरी कृपासे इन्हें भगवान्की स्मृतिबनी रहेगी और मेरे अनुग्रहसे देवताओंके सौ वर्ष बीतनेपर इन्हें भगवान् श्रीकृष्णका सान्निध्य प्राप्त होगा; और फिर भगवानके चरणोंमें परम प्रेम प्राप्त करके ये अपने लोकमें चले आयेंगे ।।२१-२२।।

श्रीशुक उवाच ।
एवमुक्त्वा स देवर्षिः गतो नारायणाश्रमम् ।
नलकूवरमणिग्रीवौ आसतुः यमलार्जुनौ ॥ २३ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैं-देवर्षि नारद इस प्रकार कहकर भगवान् नर-नारायणके आश्रमपर चले गये। नलकूबर और मणिग्रीव-ये दोनों एक ही साथ अर्जुन वृक्ष होकर यमलार्जुन नामसे प्रसिद्ध हुए ।।२३।।

ऋषेर्भागवत मुख्यस्य सत्यं कर्तुं वचो हरिः ।
जगाम शनकैस्तत्र यत्रास्तां यमलार्जुनौ ॥ २४ ॥

भगवान् श्रीकृष्णने अपने परम प्रेमी भक्त देवर्षि नारदजीकी बात सत्य करनेके लिये धीरे-धीरे ऊखल घसीटते हए उस ओर प्रस्थान किया, जिधर यमलार्जुन वृक्ष थे ।।२४।।

देवर्षिर्मे प्रियतमो यदिमौ धनदात्मजौ ।
तत्तथा साधयिष्यामि यद्‍गीतं तन्महात्मना ॥ २५ ॥

भगवान्ने सोचा कि ‘देवर्षि नारद मेरे अत्यन्त प्यारे हैं और ये दोनों भी मेरे भक्त कुबेरके लड़के हैं। इसलिये महात्मा नारदने जो कुछ कहा है, उसे मैं ठीक उसी रूपमें पूरा करूँगा’* ||२५||

इत्यन्तरेणार्जुनयोः कृष्णस्तु यमयोर्ययौ ।
आत्मनिर्वेशमात्रेण तिर्यग्गतं उलूखलम् ॥ २६ ॥

यह विचार करके भगवान् श्रीकृष्ण दोनों वृक्षोंके बीचमें घुस गये।। वे तो दूसरी ओर निकल गये, परन्तु ऊखल टेढ़ा होकर अटक गया ।।२६।।

( वसंततिलका )
बालेन निष्कर्षयतान्वगुलूखलं तद्
दामोदरेण तरसोत्कलिताङ्‌घ्रिबन्धौ ।
निष्पेततुः परमविक्रमितातिवेप
स्कन्धप्रवालविटपौ कृतचण्डशब्दौ ॥ २७ ॥

दामोदरभगवान् श्रीकृष्णकी कमरमें रस्सी कसी हुई थी। उन्होंने अपने पीछे लुढ़कते हुए ऊखलको ज्यों ही तनिक जोरसे खींचा, त्यों ही पेडोंकी सारी जडें उखड गयी। समस्त बलविक्रमके केन्द्र भगवान्का तनिक-सा जोर लगते ही पेड़ोंके तने, शाखाएँ, छोटी-छोटी डालियाँ और एक-एक पत्ते काँप उठे और वे दोनों बड़े जोरसे तड़तड़ाते हुए पृथ्वीपर गिर पड़े ||२७||

तत्र श्रिया परमया ककुभः स्फुरन्तौ
सिद्धावुपेत्य कुजयोरिव जातवेदाः ।
कृष्णं प्रणम्य शिरसाखिललोकनाथं
बद्धाञ्जली विरजसाविदमूचतुः स्म ॥ २८ ॥

उन दोनों वृक्षोंमेंसे अग्निके समान तेजस्वी दो सिद्ध पुरुष निकले। उनके चमचमाते हुए सौन्दर्यसे दिशाएँ दमक उठीं। उन्होंने सम्पूर्ण लोकोंके स्वामी भगवान् श्रीकृष्णके पास आकर उनके चरणोंमें सिर रखकर प्रणाम किया और हाथ जोड़कर शुद्ध हृदयसे वे उनकी इस प्रकार स्तुति करने लगे- ||२८||

( अनुष्टुप् )
कृष्ण कृष्ण महायोगिन् त्वमाद्यः पुरुषः परः ।
व्यक्ताव्यक्तमिदं विश्वं रूपं ते ब्राह्मणा विदुः ॥ २९ ॥

उन्होंने कहा–सच्चिदानन्दस्वरूप! सबको अपनी ओर आकर्षित करनेवाले परम योगेश्वर श्रीकृष्ण! आप प्रकृतिसे अतीत स्वयं पुरुषोत्तम हैं। वेदज्ञ ब्राह्मण यह बात जानते हैं कि यह व्यक्त और अव्यक्त सम्पूर्ण जगत् आपका ही रूप है ।।२९।।

त्वमेकः सर्वभूतानां देहास्वात्मेन्द्रियेश्वरः ।
त्वमेव कालो भगवान् विष्णुरव्यय ईश्वरः ॥ ३० ॥

आप ही समस्त प्राणियोंके शरीर, प्राण, अन्तःकरण और इन्द्रियोंके स्वामी हैं। तथा आप ही सर्वशक्तिमान काल, सर्वव्यापक एवं अविनाशी ईश्वर हैं ||३०||

त्वं महान् प्रकृतिः सूक्ष्मा रजःसत्त्वतमोमयी ।
त्वमेव पुरुषोऽध्यक्षः सर्वक्षेत्रविकारवित् ॥ ३१ ॥

आप ही महत्तत्त्व और वह प्रकृति हैं, जो अत्यन्त सूक्ष्म एवं सत्त्वगुण, रजोगुण और तमोगुणरूपा है। आप ही समस्त स्थूल और सूक्ष्म शरीरोंके कर्म, भाव, धर्म और सत्ताको जाननेवाले सबके साक्षी परमात्मा हैं ||३१।।

गृह्यमाणैस्त्वमग्राह्यो विकारैः प्राकृतैर्गुणैः ।
को न्विहार्हति विज्ञातुं प्राक्‌सिद्धं गुणसंवृतः ॥ ३२ ॥

वृत्तियोंसे ग्रहण किये जानेवाले प्रकृतिके गुणों और विकारों के द्वारा आप पकड़में नहीं आ सकते। स्थूल और सूक्ष्म शरीरके आवरणसे ढका हुआ ऐसा कौन-सा पुरुष है, जो आपको जान सके? क्योंकि आप तो उन शरीरोंके पहले भी एकरस विद्यमान थे ||३२||

तस्मै तुभ्यं भगवते वासुदेवाय वेधसे ।
आत्मद्योतगुणैश्छन्न महिम्ने ब्रह्मणे नमः ॥ ३३ ॥

समस्त प्रपंचके विधाता भगवान् वासुदेवको हम नमस्कार करते हैं। प्रभो! आपके द्वारा प्रकाशित होनेवाले गुणोंसे ही आपने अपनी महिमा छिपा रखी है। परब्रह्मस्वरूप श्रीकृष्ण! हम आपको नमस्कार करते हैं ||३३||

यस्यावतारा ज्ञायन्ते शरीरेष्वशरीरिणः ।
तैस्तैरतुल्यातिशयैः वीर्यैर्देहिष्वसङ्‌गतैः ॥ ३४ ॥

आप प्राकृत शरीरसे रहित हैं। फिर भी जब आप ऐसे पराक्रम प्रकट करते हैं, जो साधारण शरीरधारियोंके लिये शक्य नहीं है और जिनसे बढ़कर तो क्या जिनके समान भी कोई नहीं कर सकता, तब उनके द्वारा उन शरीरोंमें आपके अवतारोंका पता चल जाता है ||३४||

स भवान् सर्वलोकस्य भवाय विभवाय च ।
अवतीर्णोंऽशभागेन साम्प्रतं पतिराशिषाम् ॥ ३५ ॥

प्रभो! आप ही समस्त लोकोंके अभ्युदय और निःश्रेयसके लिये इस समय अपनी सम्पूर्ण शक्तियोंसे अवतीर्ण हए हैं। आप समस्त अभिलाषाओंको पूर्ण करनेवाले हैं ||३५||

नमः परमकल्याण नमः परममङ्‌गल ।
वासुदेवाय शान्ताय यदूनां पतये नमः ॥ ३६ ॥

परम कल्याण (साध्य) स्वरूप! आपको नमस्कार है। परम मंगल (साधन) स्वरूप! आपको नमस्कार है। परम शान्त, सबके हृदयमें विहार करनेवाले यदुवंशशिरोमणि श्रीकृष्णको नमस्कार है ||३६||

अनुजानीहि नौ भूमन् तवानुचरकिङ्‌करौ ।
दर्शनं नौ भगवत ऋषेरासीदनुग्रहात् ॥ ३७ ॥

अनन्त! हम आपके दासानुदास हैं। आप यह स्वीकार कीजिये। देवर्षि भगवान् नारदके परम अनुग्रहसे ही हम अपराधियोंको आपका दर्शन प्राप्त हुआ है ||३७।।

( वसंततिलका )
वाणी गुणानुकथने श्रवणौ कथायां
हस्तौ च कर्मसु मनस्तव पादयोर्नः ।
स्मृत्यां शिरस्तव निवासजगत्प्रणामे
दृष्टिः सतां दर्शनेऽस्तु भवत्तनूनाम् ॥ ३८ ॥

प्रभो! हमारी वाणी आपके मंगलमय गुणोंका वर्णन करती रहे। हमारे कान आपकी रसमयी कथामें लगे रहें। हमारे हाथ आपकी सेवामें और मन आपके चरण-कमलोंकी स्मृतिमें रम जायँ। यह सम्पूर्ण जगत् आपका निवास स्थान है। हमारा मस्तक सबके सामने झुका रहे। संत आपके प्रत्यक्ष शरीर हैं। हमारी आँखें उनके दर्शन करती रहें ।।३८।।

श्रीशुक उवाच ।
( अनुष्टुप् )
इत्थं सङ्‌कीर्तितस्ताभ्यां भगवान् गोकुलेश्वरः ।
दाम्ना चोलूखले बद्धः प्रहसन्नाह गुह्यकौ ॥ ३९ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—सौन्दर्य-माधुर्यनिधि गोकुलेश्वर श्रीकृष्णने नलकूबर और मणिग्रीवके इस प्रकार स्तुति करनेपर रस्सीसे ऊखलमें बँधे-बँधे ही हँसते हुए उनसे कहा – ||३९।।

श्रीभगवानुवाच ।
ज्ञातं मम पुरैवैतद् ऋषिणा करुणात्मना ।
यत् श्रीमदान्धयोर्वाग्भिः विभ्रंशोऽनुग्रहः कृतः ॥ ४० ॥

श्रीभगवानने कहा-तुमलोग श्रीमदसे अंधे हो रहे थे। मैं पहलेसे ही यह बात जानता था कि परम कारुणिक देवर्षि नारदने शाप देकर तुम्हारा ऐश्वर्य नष्ट कर दिया तथा इस प्रकार तुम्हारे ऊपर कृपा की ।।४०।।

साधूनां समचित्तानां सुतरां मत्कृतात्मनाम् ।
दर्शनान्नो भवेद्‍बन्धः पुंसोऽक्ष्णोः सवितुर्यथा ॥ ४१ ॥

जिनकी बुद्धि समदर्शिनी है और हृदय पूर्ण-रूपसे मेरे प्रति समर्पित है, उन साधु पुरुषोंके दर्शनसे बन्धन होना ठीक वैसे ही सम्भव नहीं है, जैसे सूर्योदय होनेपर मनुष्यके नेत्रोंके सामने अन्धकारका होना ।।४१।।

तद्‍गच्छतं मत्परमौ नलकूबर सादनम् ।
सञ्जातो मयि भावो वां ईप्सितः परमोऽभवः ॥ ४२ ॥

इसलिये नलकूबर और मणिग्रीव! तुमलोग मेरे परायण होकर अपने-अपने घर जाओ। तुमलोगोंको संसारचक्रसे छुड़ानेवाले अनन्य भक्तिभावकी, जो तुम्हें अभीष्ट है, प्राप्ति हो गयी है ।।४२।।

श्रीशुक उवाच ।
इत्युक्तौ तौ परिक्रम्य प्रणम्य च पुनः पुनः ।
बद्धोलूखलमामन्त्र्य जग्मतुर्दिशमुत्तराम् ॥ ४३ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैं-जब भगवान्ने इस प्रकार कहा, तब उन दोनोंने उनकी परिक्रमा की और बार-बार प्रणाम किया। इसके बाद ऊखलमें बँधे हुए सर्वेश्वरकी आज्ञा प्राप्त करके उन लोगोंने उत्तर दिशाकी यात्रा की ||४३||

इति श्रीमद्‍भागवते महापुराणे पारमहंस्यां
संहितायां दशमस्कन्धे पूर्वार्धे दशमोऽध्यायः ॥ १० ॥
हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥


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Shweta Srinet

गरिमा जी संस्कृत भाषा में परास्नातक एवं राष्ट्रीय पात्रता परीक्षा उत्तीर्ण हैं। यह RamCharit.in हेतु 2018 से सतत पूर्णकालिक सदस्य के रूप में कार्य कर रही हैं। धार्मिक ग्रंथों को उनके मूल आध्यात्मिक रूप में सरलता से उपलब्ध कराने का कार्य इसके द्वारा ही निष्पादित होता है।

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