श्रीमद् भागवत महापुराण स्कन्ध 10 अध्याय 12
श्रीमद्भागवतपुराणम्/स्कन्धः १०/पूर्वार्धः/अध्यायः १२
अघासुरवधः –
( मिश्र )
श्रीशुक उवाच ।
क्वचिद्वनाशाय मनो दधद् व्रजात्
प्रातः समुत्थाय वयस्यवत्सपान् ।
प्रबोधयन् श्रृंगरवेण चारुणा
विनिर्गतो वत्सपुरःसरो हरिः ॥ १ ॥
श्रीशकदेवजी कहते हैं-परीक्षित! एक दिन नन्दनन्दन श्यामसुन्दर वनमें ही कलेवा करनेके विचारसे बड़े तड़के उठ गये और सिंगी बाजेकी मधुर मनोहर ध्वनिसे अपने साथी ग्वालबालोंको मनकी बात जनाते हुए उन्हें जगाया और बछड़ोंको आगे करके वे व्रजमण्डलसे निकल पड़े ।।१।।
( इंद्रवंशा )
तेनैव साकं पृथुकाः सहस्रशः
स्निग्धाः सुशिग्वेत्रविषाणवेणवः ।
स्वान् स्वान् सहस्रो परिसङ्ख्ययान्वितान्
वत्सान् पुरस्कृत्य विनिर्ययुर्मुदा ॥ २ ॥
श्रीकृष्णके साथ ही उनके प्रेमी सहस्रों ग्वालबाल सुन्दर छीके, बेंत, सिंगी और बाँसुरी लेकर तथा अपने सहस्रों बछड़ोंको आगे करके बड़ी प्रसन्नतासे अपने-अपने घरोंसे चल पड़े ||२||
( अनुष्टुप् )
कृष्णवत्सैः असङ्ख्यातैः यूथीकृत्य स्ववत्सकान् ।
चारयन्तोऽर्भलीलाभिः विजह्रुः तत्र तत्र ह ॥ ३ ॥
उन्होंने श्रीकृष्णके अगणित बछड़ोंमें अपने-अपने बछड़े मिला दिये और स्थान-स्थानपर बालोचित खेल खेलते हुए विचरने लगे ।।३।।
फलप्रबालस्तवक सुमनःपिच्छधातुभिः ।
काचगुञ्जामणिस्वर्ण-भूषिता अप्यभूषयन् ॥ ४ ॥
यद्यपि सब-केसब ग्वालबाल काँच, घुघची, मणि और सुवर्णके गहने पहने हुए थे, फिर भी उन्होंने वृन्दावनके लाल-पीले-हरे फलोंसे, नयी-नयी कोंपलोंसे, गुच्छोंसे, रंग-बिरंगे फूलों और मोरपंखोंसे तथा गेरू आदि रंगीन धातुओंसे अपनेको सजा लिया ।।४।।
मुष्णन्तोऽन्योन्य शिक्यादीन् न्ज्ञातानाराच्च चिक्षिपुः ।
तत्रत्याश्च पुनर्दूरात् हसन्तश्च पुनर्ददुः ॥ ५ ॥
कोई किसीका छीका चुरा लेता, तो कोई किसीकी बेंत या बाँसुरी। जब उन वस्तुओंके स्वामीको पता चलता, तब उन्हें लेनेवाला किसी दूसरेके पास दूर फेंक देता, दूसरा तीसरेके और तीसरा और भी दूर चौथेके पास। फिर वे हँसते हुए उन्हें लौटा देते ।।५।।
यदि दूरं गतः कृष्णो वनशोभेक्षणाय तम् ।
अहं पूर्वं अहं पूर्वं इति संस्पृश्य रेमिरे ॥ ६ ॥
यदि श्यामसुन्दर श्रीकृष्ण वनकी शोभा देखनेके लिये कुछ आगे बढ़ जाते, तो ‘पहले मैं छुऊँगा, पहले मैं छुऊँगा’—इस प्रकार आपसमें होड़ लगाकर सब-के-सब उनकी ओर दौड़ पड़ते और उन्हें छु-छूकर आनन्दमग्न होजाते ।।६।।
केचिद् वेणून् वादयन्तो ध्मान्तः शृङ्गाणि केचन ।
केचिद् भृंङ्गैः प्रगायन्तः कूजन्तः कोकिलैः परे ॥ ७ ॥
कोई बाँसुरी बजा रहा है, तो कोई सिंगी ही फूंक रहा है। कोई-कोई भौंरोंके साथ गुनगुना रहे हैं, तो बहुत-से कोयलोंके स्वर में स्वर मिलाकर ‘कुहू-कुहू’ कर रहे हैं ||७||
विच्छायाभिः प्रधावन्तो गच्छन्तः साधुहंसकैः ।
बकैः उपविशन्तश्च नृत्यन्तश्च कलापिभिः ॥ ८ ॥
एक ओर कुछ ग्वालबाल आकाशमें उड़ते हुए पक्षियोंकी छायाके साथ दौड़ लगा रहे हैं, तो दूसरी ओर कुछ हंसोंकी चालकी नकल करते हुए उनके साथ सुन्दर गतिसे चल रहे हैं। कोई बगुलेके पास उसीके समान आँखें मूंदकर बैठ रहे हैं, तो कोई मोरोंको नाचते देख उन्हींकी तरह नाच रहे हैं ||८||
विकर्षन्तः कीशबालान् आरोहन्तश्च तैर्द्रुमान् ।
विकुर्वन्तश्च तैः साकं प्लवन्तश्च पलाशिषु ॥ ९ ॥
कोई-कोई बंदरोंकी पूँछ पकड़कर खींच रहे हैं, तो दूसरे उनके साथ इस पेड़से उस पेड़पर चढ़ रहे हैं। कोई-कोई उनके साथ मुँह बना रहे हैं, तो दूसरे उनके साथ एक डालसे दूसरी डालपर छलाँग मार रहे हैं ।।९।।
साकं भेकैर्विलङ्घन्तः सरित् प्रस्रवसम्प्लुताः ।
विहसन्तः प्रतिच्छायाः शपन्तश्च प्रतिस्वनान् ॥ १० ॥
बहुत-से ग्वालबाल तो नदीके कछारमें छपका खेल रहे हैं और उसमें फुदकते हुए मेढकोंके साथ स्वयं भी फुदक रहे हैं। कोई पानीमें अपनी परछाईं देखकर उसकी हँसी कर रहे हैं, तो दूसरे अपने शब्दकी प्रतिध्वनिको ही बुराभला कह रहे हैं ||१०||
( इंद्रवज्रा )
इत्थं सतां ब्रह्मसुखानुभूत्या
दास्यं गतानां परदैवतेन ।
मायाश्रितानां नरदारकेण
साकं विजह्रुः कृतपुण्यपुञ्जाः ॥ ११ ॥
भगवान् श्रीकृष्ण ज्ञानी संतोंके लिये स्वयं ब्रह्मानन्दके मूर्तिमान् अनुभव हैं। दास्यभावसे युक्त भक्तोंके लिये वे उनके आराध्यदेव, परम ऐश्वर्यशाली परमेश्वर हैं। और माया-मोहित विषयान्धोंके लिये वे केवल एक मनुष्य-बालक हैं। उन्हीं भगवान्के साथ वे महान् पुण्यात्मा ग्वालबाल तरह-तरहके खेल खेल रहे हैं ।।११।।
( मिश्र )
यत्पादपांसुः बहुजन्मकृच्छ्रतो
धृतात्मभिः योगिभिरप्यलभ्यः ।
स एव यद्दृग्विषयः स्वयं स्थितः
किं वर्ण्यते दिष्टमतो व्रजौकसाम् ॥ १२ ॥
बहत जन्मोंतक श्रम और कष्ट उठाकर जिन्होंने अपनी इन्द्रियों और अन्तःकरणको वश में कर लिया है, उन योगियोंके लिये भी भगवान् श्रीकृष्णके चरणकमलोंकी रज अप्राप्य है। वही भगवान् स्वयं जिन व्रजवासी ग्वालबालोंकी आँखोंके सामने रहकर सदा खेल खेलते हैं, उनके सौभाग्यकी महिमा इससे अधिक क्या कही जाय ।।१२।।
अथ अघनामाभ्यपतन् महासुरः
तेषां सुखक्रीडनवीक्षणाक्षमः ।
नित्यं यदन्तर्निजजीवितेप्सुभिः
पीतामृतैः अप्यमरैः प्रतीक्ष्यते ॥ १३ ॥
परीक्षित्! इसी समय अघासुर नामका महान् दैत्य आ धमका। उससे श्रीकृष्ण और ग्वालबालोंकी सुखमयी क्रीडा देखी न गयी। उसके हृदयमें जलन होने लगी। वह इतना भयंकर था कि अमृतपान करके अमर हुए देवता भी उससे अपने जीवनकी रक्षा करनेके लिये चिन्तित रहा करते थे और इस बातकी बाट देखते रहते थे कि किसी प्रकारसे इसकी मृत्युका अवसर आ जाय ।।१३।।
दृष्ट्वार्भकान् कृष्णमुखान् अघासुरः ।
कंसानुशिष्टः स बकीबकानुजः ।
अयं तु मे सोदरनाशकृत्तयोरः
द्वयोर्ममैनं सबलं हनिष्ये ॥ १४ ॥
अघासुर पूतना और बकासुरका छोटा भाई तथा कंसका भेजा हुआ था। वह श्रीकृष्ण, श्रीदामा आदि ग्वालबालोंको देखकर मन-ही-मन सोचने लगा कि ‘यही मेरे सगे भाई और बहिनको मारनेवाला है। इसलिये आज मैं इन ग्वालबालाकें साथ इसे मार डालूँगा ।।१४।।
एते यदा मत्सुहृदोस्तिलापः
कृतास्तदा नष्टसमा व्रजौकसः ।
प्राणे गते वर्ष्मसु का नु चिन्ता
प्रजासवः प्राणभृतो हि ये ते ॥ १५ ॥
जब ये सब मरकर मेरे उन दोनों भाई-बहिनोंके मृततर्पणकी तिलांजलि बन जायँगे, तब व्रजवासी अपने-आप मरे-जैसे हो जायेंगे। सन्तान ही प्राणियोंके प्राण हैं। जब प्राण ही न रहेंगे, तब शरीर कैसे रहेगा? इसकी मृत्युसे व्रजवासी अपने-आप मर जायँगे’ ||१५||
( वंशस्था )
इति व्यवस्याजगरं बृहद् वपुः
स योजनायाम महाद्रिपीवरम् ।
धृत्वाद्भुतं व्यात्तगुहाननं तदा
पथि व्यशेत ग्रसनाशया खलः ॥ १६ ॥
ऐसा निश्चय करके वह दुष्ट दैत्य अजगरका रूप धारण कर मार्गमें लेट गया। उसका वह अजगर-शरीर एक योजन लंबे बड़े पर्वतके समान विशाल एवं मोटा था। वह बहुत ही अद्भुत था। उसकी नीयत सब बालकोंको निगल जानेकी थी, इसलिये उसने गुफाके समान अपना बहुत बड़ा मुँह फाड़ रखा था ।।१६।।
( मिश्र )
धराधरोष्ठो जलदोत्तरोष्ठो
दर्याननान्तो गिरिशृङ्गदंष्ट्रः ।
ध्वान्तान्तरास्यो वितताध्वजिह्वः
परुषानिलश्वासदवेक्षणोष्णः ॥ १७ ॥
उसका नीचेका होठ पृथ्वीसे और ऊपरका होठ बादलोंसे लग रहा था। उसके जबड़े कन्दराओंके समान थे और दाढ़ें पर्वतके शिखर-सी जान पड़ती थीं। मुँहके भीतर घोर अन्धकार था। जीभ एक चौड़ी लाल सड़क-सी दीखती थी। साँस आँधीके समान थी और आँखें दावानलके समान दहक रही थीं ।।१७।।
( अनुष्टुप् )
दृष्ट्वा तं तादृशं सर्वे मत्वा वृन्दावनश्रियम् ।
व्यात्ताजगरतुण्डेन ह्युत्प्रेक्षन्ते स्म लीलया ॥ १८ ॥
अघासुरका ऐसा रूप देखकर बालकोंने समझा कि यह भी वृन्दावनकी कोई शोभा है। वे कौतुकवश खेल-ही-खेलमें उत्प्रेक्षा करने लगे कि यह मानो अजगरका खुला हुआ मुँह है ।।१८।।
अहो मित्राणि गदत सत्त्वकूटं पुरः स्थितम् ।
अस्मत्सङ्ग्रसनव्यात्त व्यालतुण्डायते न वा ॥ १९ ॥
कोई कहता–’मित्रो! भला बतलाओ तो, यह जो हमारे सामने कोई जीव-सा बैठा है, यह हमें निगलनेके लिये खुले हुए किसी अजगरके मुँह-जैसा नहीं है?’ ||१९||
सत्यमर्ककरारक्तं उत्तराहनुवद्घनम् ।
अधराहनुवद् रोधः तत् प्रतिच्छाययारुणम् ॥ २० ॥
दूसरेने कहा—’सचमुच सूर्यकी किरणें पड़नेसे ये जो बादल लाल-लाल हो गये हैं, वे ऐसे मालूम होते हैं मानो ठीक-ठीक इसका ऊपरी होठ ही हो। और उन्हीं बादलोंकी परछाईंसे यह जो नीचेकी भूमि कुछ लाल-लाल दीख रही है, वही इसका नीचेका होठ जान पड़ता है’ ||२०||
प्रतिस्पर्धेते सृक्किभ्यां सव्यासव्ये नगोदरे ।
तुंगशृंगालयोऽप्येताः तद् दंष्ट्राभिश्च पश्यत ॥ २१ ॥
तीसरे ग्वालबालने कहा—’हाँ, सच तो है। देखो तो सही, क्या ये दायीं और बायीं ओरकी गिरिकन्दराएँ अजगरके जबड़ोंकी होड़ नहीं करती? और ये ऊँची-ऊँची शिखर-पंक्तियाँ तो साफसाफ इसकी दाढ़ें मालूम पड़ती हैं’ ।।२१।।
आस्तृतायाम मार्गोऽयं रसनां प्रतिगर्जति ।
एषां अन्तर्गतं ध्वान्तं एतदप्यन्तः आननम् ॥ २२ ॥
चौथेने कहा-‘अरे भाई! यह लम्बी-चौड़ी सड़क तो ठीक अजगरकी जीभ-सरीखी मालूम पड़ती है और इन गिरिशंगोंके बीचका अन्धकार तो उसके मुँहके भीतरी भागको भी मात करता है’ ||२२।।
दावोष्णखरवातोऽयं श्वासवद्भाति पश्यत ।
तद् दग्धसत्त्वदुर्गन्धोऽपि अन्तरामिषगन्धवत् ॥ २३ ॥
किसी दूसरे ग्वालबालने कहा -‘देखो, देखो! ऐसा जान पडता है कि कहीं इधर जंगलमें आग लगी है। इसीसे यह गरम और तीखी हवा आ रही है। परन्तु अजगरकी साँसके साथ इसका क्या ही मेल बैठ गया है। और उसी आगसे जले हुए प्राणियोंकी दुर्गन्ध ऐसी जान पड़ती है, मानो अजगरके पेटमें मरे हए जीवोंके मांसकी ही दुर्गन्ध हो’ ||२३||
( मिश्र )
अस्मान्किमत्र ग्रसिता निविष्टा-
नयं तथा चेद् बकवद् विनङ्क्ष्यति ।
क्षणादनेनेति बकार्युशन्मुखं
वीक्ष्योद्धसन्तः करताडनैर्ययुः ॥ २४ ॥
तब उन्हींमेंसे एकने कहा—’यदि हमलोग इसके मुँहमें घुस जायँ, तो क्या यह हमें निगल जायगा? अजी! यह क्या निगलेगा। कहीं ऐसा करनेकी ढिठाई की तो एक क्षणमें यह भी बकासुरके समान नष्ट हो जायगा। हमारा यह कन्हैया इसको छोड़ेगा थोड़े ही।’ इस प्रकार कहते हुए वे ग्वालबाल बकासुरको मारनेवाले श्रीकृष्णका सुन्दर मुख देखते और ताली पीट-पीटकर हँसते हुए अघासुरके मुँहमें घुस गये ।।२४।।
इत्थं मिथोऽतथ्यं अतज्ज्ञभाषितं
श्रुत्वा विचिन्त्येत्यमृषा मृषायते ।
रक्षो विदित्वाखिल-भूतहृत्स्थितः
स्वानां निरोद्धुं भगवान् मनो दधे ॥ २५ ॥
उन अनजान बच्चोंकी आपसमें की हुई भ्रमपूर्ण बातें सुनकर भगवान् श्रीकृष्णने सोचा कि ‘अरे, इन्हें तो सच्चा सर्प भी झूठा प्रतीत होता है!’ परीक्षित्! भगवान् श्रीकृष्ण जान गये कि यह राक्षस है। भला, उनसे क्या छिपा रहता? वे तो समस्त प्राणियोंके हृदयमें ही निवास करते हैं। अब उन्होंने यह निश्चय किया कि अपने सखा ग्वालबालोंको उसके मुँहमें जानेसे बचा लें ||२५||
तावत् प्रविष्टास्तु असुरोदरान्तरं
परं न गीर्णाः शिशवः सवत्साः ।
प्रतीक्षमाणेन बकारिवेशनं
हतस्वकान्तस्मरणेन रक्षसा ॥ २६ ॥
भगवान् इस प्रकार सोच ही रहे थे कि सब-के-सब ग्वालबाल बछड़ोंके साथ उस असुरके पेटमें चले गये। परन्तु अघासुरने अभी उन्हें निगला नहीं, इसका कारण यह था कि अघासुर अपने भाई बकासुर और बहिन पूतनाके वधकी याद करके इस बातकी बाट देख रहा था कि उनको मारनेवाले श्रीकृष्ण मुँहमें आ जायँ, तब सबको एक साथ ही निगल जाऊँ ।।२६।।
तान् वीक्ष्य कृष्णः सकलाभयप्रदो
ह्यनन्यनाथान् स्वकरादवच्युतान् ।
दीनांश्च मृत्योर्जठराग्निघासान्
घृणार्दितो दिष्टकृतेन विस्मितः ॥ २७ ॥
भगवान् श्रीकृष्ण सबको अभय देनेवाले हैं। जब उन्होंने देखा कि येबेचारे ग्वालबाल—जिनका एकमात्र रक्षक मैं ही हूँ मेरे हाथसे निकल गये और जैसे कोई तिनका उड़कर आगमें गिर पड़े, वैसे ही अपने-आप मृत्युरूप अघासुरकी जठराग्निके ग्रास बन गये, तब दैवकी इस विचित्र लीलापर भगवान्को बड़ा विस्मय हुआ और उनका हृदय दयासे द्रवित हो गया ।।२७||
कृत्यं किमत्रास्य खलस्य जीवनं
न वा अमीषां च सतां विहिंसनम् ।
द्वयं कथं स्यादिति संविचिन्त्य तत्
ज्ञात्वाविशत् तुण्डमशेषदृग्घरिः ॥ २८ ॥
वे सोचने लगे कि ‘अब मुझे क्या करना चाहिये? ऐसा कौन-सा उपाय है, जिससे इस दुष्टकी मृत्यु भी हो जाय और इन संत-स्वभाव भोले-भाले बालकोंकी हत्या भी न हो? ये दोनों काम कैसे हो सकते हैं?’ परीक्षित्! भगवान् श्रीकृष्ण भूत, भविष्य, वर्तमान सबको प्रत्यक्ष देखते रहते हैं। उनके लिये यह उपाय जानना कोई कठिन न था। वे अपना कर्तव्य निश्चय करके स्वयं उसके मुँहमें घुस गये ।।२८।।
( अनुष्टुप् )
तदा घनच्छदा देवा भयाद् हाहेति चुक्रुशुः ।
जहृषुर्ये च कंसाद्याः कौणपास्त्वघबान्धवाः ॥ २९ ॥
उस समय बादलोंमें छिपे हुए देवता भयवश ‘हाय-हाय’ पुकार उठे और अघासुरके हितैषी कंस आदि राक्षस हर्ष प्रकट करने लगे ।।२९।।
तच्छ्रुत्वा भगवान् कृष्णस्तु अव्ययः सार्भवत्सकम् ।
चूर्णीचिकीर्षोरात्मानं तरसा ववृधे गले ॥ ३० ॥
अघासुर बछड़ों और ग्वालबालोंके सहित भगवान् श्रीकृष्णको अपनी डाढ़ोंसे चबाकर चूर-चूर कर डालना चाहता था। परन्तु उसी समय अविनाशी श्रीकृष्णने देवताओंकी ‘हायहाय’ सुनकर उसके गलेमें अपने शरीरको बड़ी फुर्तीसे बढ़ा लिया ||३०||
( मिश्र )
ततोऽतिकायस्य निरुद्धमार्गिणो
ह्युद्गीर्णदृष्टेः भ्रमतस्त्वितस्ततः ।
पूर्णोऽन्तरंगे पवनो निरुद्धो
मूर्धन् विनिष्पाट्य विनिर्गतो बहिः ॥ ३१ ॥
इसके बाद भगवान्ने अपने शरीरको इतना बड़ा कर लिया कि उसका गला ही सँध गया। आँखें उलट गयीं। वह व्याकुल होकर बहुत ही छटपटाने लगा। साँस रुककर सारे शरीरमें भर गयी और अन्तमें उसके प्राण ब्रह्मरन्ध्र फोड़कर निकल गये ।।३१।।
तेनैव सर्वेषु बहिर्गतेषु
प्राणेषु वत्सान् सुहृदः परेतान् ।
दृष्ट्या स्वयोत्थाप्य तदन्वितः पुनः
वक्त्रान् मुकुन्दो भगवान् विनिर्ययौ ॥ ३२ ॥
उसी मार्गसे प्राणोंके साथ उसकी सारी इन्द्रियाँ भी शरीरसे बाहर हो गयीं। उसी समय भगवान् मुकुन्दने अपनी अमृतमयी दृष्टिसे मरे हुए बछड़ों और ग्वालबालोंको जिला दिया और उन सबको साथ लेकर वे अघासुरके मुँहसे बाहर निकल आये ||३२||
पीनाहिभोगोत्थितमद्भुतं महत्
ज्योतिः स्वधाम्ना ज्वलयद् दिशो दश ।
प्रतीक्ष्य खेऽवस्थितमीशनिर्गमं
विवेश तस्मिन् मिषतां दिवौकसाम् ॥ ३३ ॥
उस अजगरके स्थूल शरीरसे एक अत्यन्त अद्भुत और महान् ज्योति निकली, उस समय उस ज्योतिके प्रकाशसे दसों दिशाएँ प्रज्वलित हो उठीं। वह थोड़ी देरतक तो आकाशमें स्थित होकर भगवानके निकलनेकी प्रतीक्षा करती रही। जब वे बाहर निकल आये, तब वह सब देवताओंके देखते-देखते उन्हीं में समा गयी ।।३३।।
ततोऽतिहृष्टाः स्वकृतोऽकृतार्हणं
पुष्पैः सुगा अप्सरसश्च नर्तनैः ।
गीतैः सुरा वाद्यधराश्च वाद्यकैः
स्तवैश्च विप्रा जयनिःस्वनैर्गणाः ॥ ३४ ॥
उस समय देवताओंने फूल बरसाकर, अप्सराओंने नाचकर, गन्धोंने गाकर, विद्याधरोंने बाजे बजाकर, ब्राह्मणोंने स्तुति-पाठकर और पार्षदोंने जय-जय-कारके नारे लगाकर बड़े आनन्दसे भगवान् श्रीकृष्णका अभिनन्दन किया। क्योंकि भगवान् श्रीकृष्णने अघासुरको मारकर उन सबका बहुत बड़ा काम किया था ।।३४।।
तदद्भुतस्तोत्रसुवाद्यगीतिका
जयादिनैकोत्सव मङ्गलस्वनान् ।
श्रुत्वा स्वधाम्नोऽन्त्यज आगतोऽचिराद्
दृष्ट्वा महीशस्य जगाम विस्मयम् ॥ ३५ ॥
उन अद्भुत स्तुतियों, सुन्दर बाजों, मंगलमय गीतों, जय-जयकार और आनन्दोत्सवोंकी मंगलध्वनि ब्रह्म-लोकके पास पहुँच गयी। जब ब्रह्माजीने वह ध्वनि सुनी, तब वे बहुत ही शीघ्र अपने वाहनपर चढ़कर
वहाँ आये और भगवान् श्रीकृष्णकी यह महिमा देखकर आश्चर्य चकित हो गये ||३५||
( अनुष्टुप् )
राजन् आजगरं चर्म शुष्कं वृन्दावनेऽद्भुतम् ।
व्रजौकसां बहुतिथं बभूवाक्रीडगह्वरम् ॥ ३६ ॥
परीक्षित! जब वृन्दावनमें अजगरका वह चाम सूख गया, तब वह व्रजवासियों के लिये बहुत दिनोंतक खेलनेकी एक अद्भुत गुफा-सी बना रहा ||३६||
एतत्कौमारजं कर्म हरेरात्माहिमोक्षणम् ।
मृत्योः पौगण्डके बाला दृष्ट्वोचुर्विस्मिता व्रजे ॥ ३७ ॥
यह जो भगवान्ने अपने ग्वालबालोंको मृत्युके मुखसे बचाया था और अघासुरको मोक्ष-दान किया था, वह लीला भगवान्ने अपनी कुमार अवस्थामें अर्थात् पाँचवें वर्षमें ही की थी। ग्वालबालोंने उसे उसी समय देखा भी था, परन्तु पौगण्ड अवस्था अर्थात् छठे वर्ष में अत्यन्त आश्चर्यचकित होकर व्रजमें उसका वर्णन किया ।।३७।।
( मिश्र )
नैतद् विचित्रं मनुजार्भमायिनः
परावराणां परमस्य वेधसः ।
अघोऽपि यत्स्पर्शनधौतपातकः
प्रापात्मसाम्यं त्वसतां सुदुर्लभम् ॥ ३८ ॥
अघासुर मूर्तिमान् अघ (पाप) ही था। भगवान्के स्पर्शमात्रसे उसके सारे पाप धुल गये और उसे उस सारूप्य-मुक्तिकी प्राप्ति हुई, जो पापियोंको कभी मिल नहीं सकती। परन्तु यह कोई आश्चर्यकी बात नहीं है। क्योंकि मनुष्य-बालककी-सी लीला रचनेवाले ये वे ही परमपुरुष परमात्मा हैं, जो व्यक्त-अव्यक्त और कार्य-कारणरूप समस्त जगत्के एकमात्र विधाता हैं ||३८||
( वंशस्था )
सकृद्यदङ्गप्रतिमान्तराहिता
मनोमयी भागवतीं ददौ गतिम् ।
स एव नित्यात्मसुखानुभूत्यभि
व्युदस्तमायोऽन्तर्गतो हि किं पुनः ॥ ३९ ॥
भगवान् श्रीकृष्णके किसी एक अंगकी भावनिर्मित प्रतिमा यदि ध्यानके द्वारा एक बार भी हृदयमें बैठा ली जाय तो वह सालोक्य, सामीप्य आदि गतिका दान करती है, जो भगवानके बड़े-बड़े भक्तोंको मिलती है। भगवान् आत्मानन्दके नित्य साक्षात्कारस्वरूप हैं। माया उनके पासतक नहीं फटक पाती। वे ही स्वयं अघासुरके शरीरमें प्रवेश कर गये। क्या अब भी उसकी सद्गतिके विषयमें कोई सन्देह है? ||३९||
श्रीसूत उवाच ।
( इंद्रवज्रा )
इत्थं द्विजा यादवदेवदत्तः
श्रुत्वा स्वरातुश्चरितं विचित्रम् ।
पप्रच्छ भूयोऽपि तदेव पुण्यं
वैयासकिं यन्निगृहीतचेताः ॥ ४० ॥
सूतजी कहते हैं-शौनकादि ऋषियो! यदुवंश-शिरोमणि भगवान् श्रीकृष्णने ही राजा परीक्षित्को जीवन दान दिया था। उन्होंने जब अपने रक्षक एवं जीवनसर्वस्वका यह विचित्र चरित्र सुना, तब उन्होंने फिर श्रीशुकदेवजी महाराजसे उन्हींकी पवित्र लीलाके सम्बन्धमें प्रश्न किया। इसका कारण यह था कि भगवान्की अमृतमयी लीलाने परीक्षितके चित्तको अपने वशमें कर रखा था ।।४०।।
श्रीराजोवाच ।
( अनुष्टुप् )
ब्रह्मन् कालान्तरकृतं तत्कालीनं कथं भवेत् ।
यत्कौमारे हरिकृतं जगुः पौगण्डकेऽर्भकाः ॥ ४१ ॥
राजा परीक्षित्ने पूछा-भगवन्! आपने कहा था कि ग्वालबालोंने भगवान्की की हुई पाँचवें वर्षकी लीला व्रजमें छठे वर्षमें जाकर कही। अब इस विषयमें आप कृपा करके यह बतलाइये कि एक समयकी लीला दूसरे समयमें वर्तमानकालीन कैसे हो सकती है? ||४१।।
तद् ब्रूहि मे महायोगिन् परं कौतूहलं गुरो ।
नूनमेतद्धरेरेव माया भवति नान्यथा ॥ ४२ ॥
महायोगी गुरुदेव! मुझे इस आश्चर्यपूर्ण रहस्यको जाननेके लिये बड़ा कौतूहल हो रहा है। आप कृपा करके बतलाइये। अवश्य ही इसमें भगवान् श्रीकृष्णकी विचित्र घटनाओंको घटित करनेवाली मायाका कुछ-न-कुछ काम होगा। क्योंकि और किसी प्रकार ऐसा नहीं हो सकता ||४२।।
वयं धन्यतमा लोके गुरोऽपि क्षत्रबन्धवः ।
यत् पिबामो मुहुस्त्वत्तः पुण्यं कृष्णकथामृतम् ॥ ४३ ॥
गुरुदेव! यद्यपि क्षत्रियोचित धर्म ब्राह्मणसेवासे विमुख होनेके कारण मैं अपराधी नाममात्रका क्षत्रिय हूँ, तथापि हमारा अहोभाग्य है कि हम आपके मुखारविन्दसे निरन्तर झरते हुए परम पवित्र मधुमय श्रीकृष्णलीलामृतका बार-बार पान कर रहे हैं ।।४३।।
श्रीसूत उवाच ।
( इंद्रवंशा )
इत्थं स्म पृष्टः स तु बादरायणिः
तत्स्मारितानन्तहृताखिलेन्द्रियः ।
कृच्छ्रात् पुनर्लब्धबहिर्दृशिः शनैः
प्रत्याह तं भागवतोत्तमोत्तम ॥ ४४ ॥
सूतजी कहते हैं-भगवान्के परम प्रेमी भक्तोंमें श्रेष्ठ शौनकजी! जब राजा परीक्षित्ने इस प्रकार प्रश्न किया, तब श्रीशुकदेवजीको भगवान्की वह लीला स्मरण हो आयी और उनकी समस्त इन्द्रियाँ तथा अन्तःकरण विवश होकर भगवान्की नित्यलीलामें खिंच गये। कुछ समयके बाद धीरे-धीरे श्रम और कष्टसे उन्हंब बाह्यज्ञान हुआ। तब वे परीक्षित्से भगवान्की लीलाका वर्णन करने लगे ।।४४।।
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां
संहितायां दशमस्कन्धे पूर्वार्धे द्वादशोऽध्यायः ॥ १२ ॥
हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥
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