श्रीमद् भागवत महापुराण स्कन्ध 10 अध्याय 19
श्रीमद्भागवतपुराणम्/स्कन्धः १०
पूर्वार्धः/अध्यायः १९
मुञ्जाटव्यां गवां गोपानां च दावानलाद् रक्षणम् –
श्रीशुक उवाच ।
( अनुष्टुप् )
क्रीडासक्तेषु गोपेषु तद्गावो दूरचारिणीः ।
स्वैरं चरन्त्यो विविशुः तृणलोभेन गह्वरम् ॥ १ ॥
श्रीशुकदेवजी कहते हैं-परीक्षित्! उस समय जब ग्वालबाल खेल-कूदमें लग गये, तब उनकी गौएँ बेरोक-टोक चरती हुई बहुत दूर निकल गयीं और हरी-हरी घासके लोभसे एक गहन वनमें घुस गयीं ।।१।।
अजा गावो महिष्यश्च निर्विशन्त्यो वनाद् वनम् ।
ईषीकाटवीं निर्विविशुः क्रन्दन्त्यो दावतर्षिताः ॥ २ ॥
उनकी बकरियाँ, गायें और भैंसें एक वनसे दूसरे वनमें होती हुई आगे बढ़ गयीं तथा गर्मीके तापसे व्याकुल हो गयीं। वे बेसुध-सी होकर अन्तमें डकराती हई मुंजाटवी (सरकंडोंके वन) में घुस गयीं ।।२।।
तेऽपश्यन्तः पशून् गोपाः कृष्णरामादयस्तदा ।
जातानुतापा न विदुः विचिन्वन्तो गवां गतिम् ॥ ३ ॥
जब श्रीकृष्ण, बलराम आदि ग्वालबालोंने देखा कि हमारे पशुओंका तो कहीं पता-ठिकाना ही नहीं है, तब उन्हें अपने खेल-कूदपर बड़ा पछतावा हुआ और वे बहुत कुछ खोज-बीन करनेपर भी अपनी गौओंका पता न लगा सके ।।३।।
तृणैस्तत्खुरदच्छिन्नैः गोष्पदैः अंकितैर्गवाम् ।
मार्गं अन्वगमन् सर्वे नष्टाजीव्या विचेतसः ॥ ४ ॥
गौएँ ही तो व्रजवासियोंकी जीविकाका साधन थीं। उनके न मिलनेसे वे अचेत-से हो रहे थे। अब वे गौओंके खुर और दाँतोंसे कटी हुई घास तथा पृथ्वीपर बने हुए खुरोंके चिह्नोंसे उनका पता लगाते हुए आगे बढ़े ।।४।।
मुञ्जाटव्यां भ्रष्टमार्गं क्रन्दमानं स्वगोधनम् ।
सम्प्राप्य तृषिताः श्रान्ताः ततस्ते संन्यवर्तयन् ॥ ५ ॥
अन्तमें उन्होंने देखा कि उनकी गौएँ मुंजाटवीमें रास्ता भूलकर डकरा रही हैं। उन्हें पाकर वे लौटानेकी चेष्टा करने लगे। उस समय वे एकदम थक गये थे और उन्हें प्यास भी बड़े जोरसे लगी हुई थी। इससे वे व्याकुल हो रहे थे ।।५।।
ता आहूता भगवता मेघगम्भीरया गिरा ।
स्वनाम्नां निनदं श्रुत्वा प्रतिनेदुः प्रहर्षिताः ॥ ६ ॥
उनकी यह दशा देखकर भगवान् श्रीकृष्ण अपनी मेघके समान गम्भीर वाणीसे नाम ले-लेकर गौओंको पुकारने लगे। गौएँ अपने नामकी ध्वनि सुनकर बहुत हर्षित हुईं। वे भी उत्तरमें हुंकारने और {भाने लगीं ।।६।।
( मिश्र )
ततः समन्ताद् वनधूमकेतुः
यदृच्छयाभूत् क्षयकृत् वनौकसाम् ।
समीरितः सारथिनोल्बणोल्मुकैः
विलेलिहानः स्थिरजङ्गमान् महान् ॥ ७ ॥
परीक्षित्! इस प्रकार भगवान् उन गायोंको पुकार ही रहे थे कि उस वनमें सब ओर अकस्मात् दावाग्नि लग गयी, जो वनवासी जीवोंका काल ही होती है। साथ ही बड़े जोरकी आँधी भी चलकर उस अग्निके बढ़ने में सहायता देने लगी। इससे सब ओर फैली हई वह प्रचण्ड अग्नि अपनी भयंकर लपटोंसे समस्त चराचर जीवोंको भस्मसात् करने लगी ||७||
तं आपतन्तं परितो दवाग्निं
गोपाश्च गावः प्रसमीक्ष्य भीताः ।
ऊचुश्च कृष्णं सबलं प्रपन्ना
यथा हरिं मृत्युभयार्दिता जनाः ॥ ८ ॥
जब ग्वालों और गौओंने देखा कि दावानल चारों ओरसे हमारी ही ओर बढ़ता आ रहा है, तब वे अत्यन्त भयभीत हो गये। और मृत्युके भयसे डरे हुए जीव जिस प्रकार भगवान्की शरणमें आते हैं, वैसे ही वे श्रीकृष्ण और बलरामजीके शरणापन्न होकर उन्हें पुकारते हुए बोले – ||८||
( अनुष्टुप् )
कृष्ण कृष्ण महावीर हे रामामित विक्रम ।
दावाग्निना दह्यमानान् प्रपन्नान् त्रातुमर्हथः ॥ ९ ॥
‘महावीर श्रीकृष्ण! प्यारे श्रीकृष्ण! परम बलशाली बलराम! हम तुम्हारे शरणागत हैं। देखो, इस समय हम दावानलसे जलना ही चाहते हैं। तुम दोनों हमें इससे बचाओ ।।९।।
नूनं त्वद्बान्धवाः कृष्ण न चार्हन्त्यवसीदितुम् ।
वयं हि सर्वधर्मज्ञ त्वन्नाथाः त्वत्परायणाः ॥ १० ॥
श्रीकृष्ण! जिनके तुम्हीं भाई-बन्धु और सब कुछ हो, उन्हें तो किसी प्रकारका कष्ट नहीं होना चाहिये। सब धर्मोंके ज्ञाता श्यामसुन्दर! तुम्ही हमारे एकमात्र रक्षक एवं स्वामी हो; हमें केवल तुम्हारा ही भरोसा है’ ।।१०।।
श्रीशुक उवाच ।
वचो निशम्य कृपणं बन्धूनां भगवान् हरिः ।
निमीलयत मा भैष्ट लोचनानीत्यभाषत ॥ ११ ॥
श्रीशुकदेवजी कहते हैं-अपने सखा ग्वालबालोंके ये दीनतासे भरे वचन सुनकरभगवान् श्रीकृष्णने कहा—’डरो मत, तुम अपनी आँखें बंद कर लो’ ||११||
तथेति मीलिताक्षेषु भगवान् अग्निमुल्बणम् ।
पीत्वा मुखेन तान्कृच्छ्राद् योगाधीशो व्यमोचयत् ॥ १२ ॥
भगवान्की आज्ञा सुनकर उन ग्वालबालोंने कहा ‘बहुत अच्छा’ और अपनी आँखें मूंद ली। तब योगेश्वर भगवान् श्रीकृष्णने उस भयंकर आगको अपने मुँहसे पी लिया और इस प्रकार उन्हें उस घोर संकटसे छुड़ा दिया ।।१२।।
ततश्च तेऽक्षीण्युन्मील्य पुनर्भाण्डीरमापिताः ।
निशाम्य विस्मिता आसन् आत्मानं गाश्च मोचिताः ॥ १३ ॥
इसके बाद जब ग्वालबालोंने अपनी-अपनी आँखें खोलकर देखा तब अपनेको भाण्डीर वटके पास पाया। इस प्रकार अपने-आपको और गौओंको दावानलसे बचा देख वे ग्वालबाल बहुत ही विस्मित हुए ||१३||
कृष्णस्य योगवीर्यं तद् योगमायानुभावितम् ।
दावाग्नेरात्मनः क्षेमं वीक्ष्य ते मेनिरेऽमरम् ॥ १४ ॥
श्रीकृष्णकी इस योगसिद्धि तथा योगमायाके प्रभावको एवं दावा-नलसे अपनी रक्षाको देखकर उन्होंने यही समझा कि श्रीकृष्ण कोई देवता हैं ।।१४।।
गाः सन्निवर्त्य सायाह्ने सहरामो जनार्दनः ।
वेणुं विरणयन् गोष्ठं अगाद् गोपैरभिष्टुतः ॥ १५ ॥
परीक्षित्! सायंकाल होनेपर बलरामजीके साथ भगवान श्रीकृष्णने गौएँ लौटायीं और वंशी बजाते हुए उनके पीछे-पीछे व्रजकी यात्रा की। उस समय ग्वालबाल उनकी स्तुति करते आ रहे थे ।।१५।।
गोपीनां परमानन्द आसीद् गोविन्ददर्शने ।
क्षणं युगशतमिव यासां येन विनाभवत् ॥ १६ ॥
इधर व्रजमें गोपियोंको श्रीकृष्णके बिना एक-एक क्षण सौ-सौ युगके । समान हो रहा था। जब भगवान् श्रीकृष्ण लौटे तब उनका दर्शन करके वे परमानन्दमें मग्न हो गयीं ||१६||
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां
संहितायां दशमस्कन्धे पूर्वार्धे एकोनविंशोऽध्यायः ॥ १९ ॥
हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥
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