श्रीमद् भागवत महापुराण स्कन्ध 10 अध्याय 23
श्रीमद्भागवतपुराणम्/स्कन्धः १०
पूर्वार्धः/अध्यायः २३
अन्नयाञ्चामिषेण यज्ञपत्नीषु अनुग्रहः –
श्रीगोप ऊचुः –
( अनुष्टुप् )
राम राम महाबाहो कृष्ण दुष्टनिबर्हण ।
एषा वै बाधते क्षुत् नः तच्छान्तिं कर्तुमर्हथः ॥ १ ॥
ग्वालबालोंने कहा-नयनाभिराम बलराम! तुम बड़े पराक्रमी हो। हमारे चित्तचोर श्यामसुन्दर! तुमने बड़े-बड़े दुष्टोंका संहार किया है। उन्हीं दुष्टोंके समान यह भूख भी हमें सता रही है। अतः तुम दोनों इसे भी बुझानेका कोई उपाय करो ।।१।।
श्रीशुक उवाच –
इति विज्ञापितो गोपैः भगवान् देवकीसुतः ।
भक्ताया विप्रभार्यायाः प्रसीदन् इदमब्रवीत् ॥ २ ॥
श्रीशुकदेवजीने कहा-परीक्षित्! जब ग्वालबालोंने देवकीनन्दन भगवान् श्रीकृष्णसे इस प्रकार प्रार्थना की तब उन्होंने मथुराकी अपनी भक्त ब्राह्मणपत्नियोंपर अनुग्रह करनेके लिये यह बात कही– ।।२।।
प्रयात देवयजनं ब्राह्मणा ब्रह्मवादिनः ।
सत्रं आङ्गिरसं नाम ह्यासते स्वर्गकाम्यया ॥ ३ ॥
‘मेरे प्यारे मित्रो! यहाँसे थोड़ी ही दूरपर वेदवादी ब्राह्मण स्वर्गकी कामनासे
आंगिरस नामका यज्ञ कर रहे हैं। तुम उनकी यज्ञशालामें जाओ ||३||
तत्र गत्वौदनं गोपा याचतास्मद् विसर्जिताः ।
कीर्तयन्तो भगवत आर्यस्य मम चाभिधाम् ॥ ४ ॥
ग्वालबालो! मेरे भेजनेसे वहाँ जाकर तुमलोग मेरे बड़े भाई भगवान् श्रीबलरामजीका और मेरा नाम लेकर कुछ थोड़ा-सा भात-भोजनकी सामग्री माँग लाओ’ ||४||
इत्यादिष्टा भगवता गत्वा याचन्त ते तथा ।
कृताञ्जलिपुटा विप्रान् दण्डवत् पतिता भुवि ॥ ५ ॥
जब भगवान्ने ऐसी आज्ञा दी, तब ग्वालबाल उन ब्राह्मणोंकी यज्ञशालामें गये और उनसे भगवान्की आज्ञाके अनुसार ही अन्न माँगा। पहले उन्होंने पृथ्वीपर गिरकर दण्डवत् प्रणाम किया और फिर हाथ जोड़कर कहा- ||५||
हे भूमिदेवाः श्रृणुत कृष्णस्यादेशकारिणः ।
प्राप्ताञ्जानीत भद्रं वो गोपान् नो रामचोदितान् ॥ ६ ॥
‘पृथ्वीके मूर्तिमान् देवता ब्राह्मणो! आपका कल्याण हो! आपसे निवेदन है कि हम व्रजके ग्वाले हैं। भगवान् श्रीकृष्ण और बलरामकी आज्ञासे हम आपके पास आये हैं। आप हमारी बात सुनें ।।६।।
( मिश्र )
गाश्चारयतौ अविदूर ओदनं
रामाच्युतौ वो लषतो बुभुक्षितौ ।
तयोर्द्विजा ओदनमर्थिनोर्यदि
श्रद्धा च वो यच्छत धर्मवित्तमाः ॥ ७ ॥
भगवान् बलराम और श्रीकृष्ण गौएँ चराते हुए यहाँसे थोड़े ही दूरपर आये हुए हैं। उन्हें इस समय भूख लगी है और वे चाहते हैं कि आपलोग उन्हें थोड़ा-सा भात दे दें। ब्राह्मणो! आप धर्मका मर्म जानते हैं। यदि आपकी श्रद्धा हो, तो उन भोजनार्थियों के लिये कुछ भात दे दीजिये ||७||
( अनुष्टुप् )
दीक्षायाः पशुसंस्थायाः सौत्रामण्याश्च सत्तमाः ।
अन्यत्र दीक्षितस्यापि नान्नमश्नन् हि दुष्यति ॥ ८ ॥
सज्जनो! जिस यज्ञदीक्षामें पशुबलि होती है, उसमें और सौत्रामणी यज्ञमें दीक्षित पुरुषका अन्न नहीं खाना चाहिये। इनके अतिरिक्त और किसी भी समय किसी भी यज्ञमें दीक्षित पुरुषका भी अन्न खानेमें कोई दोष नहीं है ।।८।।
इति ते भगवद् याच्ञां शृण्वन्तोऽपि न शुश्रुवुः ।
क्षुद्राशा भूरिकर्माणो बालिशा वृद्धमानिनः ॥ ९ ॥
परीक्षित्! इस प्रकार भगवान्के अन्न माँगनेकी बात सुनकर भी उन ब्राह्मणोंने उसपर कोई ध्यान नहीं दिया। वे चाहते थे स्वर्गादि तुच्छ फल और उनके लिये बड़े-बड़े कर्मों में उलझे हुए थे। सच पूछो तो वे ब्राह्मण ज्ञानकी दृष्टिसे थे बालकही, परन्तु अपनेको बड़ा ज्ञानवृद्ध मानते थे ।।९।।
देशः कालः पृथग् द्रव्यं मंत्रतंत्रर्त्विजोऽग्नयः ।
देवता यजमानश्च क्रतुर्धर्मश्च यन्मयः ॥ १० ॥
परीक्षित्! देश, काल अनेक प्रकारकी सामग्रियाँ, भिन्न-भिन्न कर्मोंमें विनियुक्त मच, अनुष्ठानकी पद्धति, ऋत्विज्ब्रह्मा आदि यज्ञ करानेवाले, अग्नि, देवता, यजमान, यज्ञ और धर्म-इन सब रूपोंमें एकामत्र भगवान् ही प्रकट हो रहे हैं ||१०||
तं ब्रह्म परमं साक्षाद् भगवन्तं अधोक्षजम् ।
मनुष्यदृष्ट्या दुष्प्रज्ञा मर्त्यात्मानो न मेनिरे ॥ ११ ॥
वे ही इन्द्रियातीत परब्रह्म भगवान् श्रीकृष्ण स्वयं ग्वालबालोंके द्वारा भात माँग रहे हैं। परन्तु इन मूल्ने, जो
अपनेको शरीर ही माने बैठे हैं, भगवानको भी एक साधारण मनुष्य ही माना और उनका सम्मान नहीं किया ||११||
न ते यदोमिति प्रोचुः न नेति च परन्तप ।
गोपा निराशाः प्रत्येत्य तथोचुः कृष्णरामयोः ॥ १२ ॥
परीक्षित्! जब उन ब्राह्मणोंने ‘हाँ’ या ‘ना’-कुछ नहीं कहा, तब ग्वालबालोंकी आशा टूट गयी; वे लौट आये और वहाँकी सब बात उन्होंने श्रीकृष्ण तथा बलरामसे कह दी ||१२||
तदुपाकर्ण्य भगवान् प्रहस्य जगदीश्वरः ।
व्याजहार पुनर्गोपान् दर्शयँलौकिकीं गतिम् ॥ १३ ॥
उनकी बात सुनकर सारे जगत्के स्वामी भगवान् श्रीकृष्ण हँसने लगे। उन्होंने ग्वालबालोंको समझाया कि ‘संसारमें असफलता तो बार-बार होती ही है, उससे निराश नहीं होना चाहिये; बार-बार प्रयत्न करते रहनेसे सफलता मिल ही जाती है।’ फिर उनसे कहा- ||१३।।
मां ज्ञापयत पत्नीभ्यः ससङ्कर्षणमागतम् ।
दास्यन्ति काममन्नं वः स्निग्धा मय्युषिता धिया ॥ १४ ॥
‘मेरे प्यारे ग्वालबालो! इस बार तुमलोग उनकी पत्नियोंके पास जाओ और उनसे कहो कि राम और श्याम यहाँ आये हैं। तम जितना चाहोगे उतना भोजन वे तुम्हें देंगी। वे मुझसे बड़ा प्रेम करती हैं। उनका मन सदा-सर्वदा मुझमें लगा रहता है’ ||१४।।
गत्वाथ पत्नीशालायां दृष्ट्वासीनाः स्वलङ्कृताः ।
नत्वा द्विजसतीर्गोपाः प्रश्रिता इदमब्रुवन् ॥ १५ ॥
अबकी बार ग्वालबाल पत्नीशालामें गये। वहाँ जाकर देखा तो ब्राह्मणोंकी पत्नियाँ सुन्दर-सुन्दर वस्त्र और गहनोंसे सज-धजकर बैठी हैं। उन्होंने द्विजपत्नियोंको प्रणाम करके बडी नम्रतासे यह बात कही- ||१५||
नमो वो विप्रपत्नीभ्यो निबोधत वचांसि नः ।
इतोऽविदूरे चरता कृष्णेनेहेषिता वयम् ॥ १६ ॥
‘आप विप्रपत्नियोंको हम नमस्कार करते हैं। आप कृपा करके हमारी बात सुनें। भगवान् श्रीकृष्ण यहाँसे थोड़ी ही दूरपर आये हुए हैं और उन्होंने ही हमें आपके पास भेजा है ।।१६।।
गाश्चारयन् स गोपालैः सरामो दूरमागतः ।
बुभुक्षितस्य तस्यान्नं सानुगस्य प्रदीयताम् ॥ १७ ॥
वे ग्वालबाल और बलरामजीके साथ गौएँ चराते हुए इधर बहुत दूर आ गये हैं। इस समय उन्हें और उनके साथियोंको भूख लगी है। आप उनके लिये कुछ भोजन दे दें’ ।।१७।।
श्रुत्वाच्युतं उपायातं नित्यं तद्दर्शनोत्सुकाः ।
तत्कथाक्षिप्तमनसो बभूवुर्जातसम्भ्रमाः ॥ १८ ॥
परीक्षित्! वे ब्राह्मणियाँ बहुत दिनोंसे भगवान्की मनोहर लीलाएँ सुनती थीं। उनका मन उनमें लग चुका था। वे सदा-सर्वदा इस बातके लिये उत्सुक रहतीं कि किसी प्रकार श्रीकृष्णके दर्शन हो जायँ। श्रीकृष्णके आनेकी बात सुनते ही वे उतावली हो गयीं ।।१८।।
चतुर्विधं बहुगुणं अन्नमादाय भाजनैः ।
अभिसस्रुः प्रियं सर्वाः समुद्रमिव निम्नगाः ॥ १९ ॥
निषिध्यमानाः पतिभिः भ्रातृभिर्बन्धुभिः सुतैः ।
भगवति उत्तमश्लोके दीर्घश्रुत धृताशयाः ॥ २० ॥
उन्होंने बर्तनोंमें अत्यन्त स्वादिष्ट और हितकर भक्ष्य, भोज्य, लेह्य और चोष्य-चारों प्रकारकी भोजन-सामग्री ले ली तथा भाई-बन्धु, पति-पुत्रोंके रोकते रहनेपर भी अपने प्रियतम भगवान् श्रीकृष्णके पास जानेके लिये घरसे निकल पड़ीठीक वैसे ही, जैसे नदियाँ समुद्रके लिये। क्यों न हो; न जाने कितने दिनोंसे पवित्रकीर्ति भगवान् श्रीकृष्णके गुण, लीला, सौन्दर्य और माधुर्य आदिका वर्णन सुन-सुनकर उन्होंने उनके चरणोंपर अपना हृदय निछावर कर दिया था ।।१९-२०।।
यमुनोपवनेऽशोक नवपल्लवमण्डिते ।
विचरन्तं वृतं गोपैः साग्रजं ददृशुः स्त्रियः ॥ २१ ॥
ब्राह्मणपत्नियोंने जाकर देखा कि यमुनाके तटपर नये-नये कोंपलोंसे शोभायमान अशोक-वनमें ग्वालबालोंसे घिरे हुए बलरामजीके साथ श्रीकृष्ण इधर-उधर घूम रहे हैं ||२१||
( वसंततिलका )
श्यामं हिरण्यपरिधिं वनमाल्यबर्ह
धातुप्रवालनटवेषमनव्रतांसे ।
विन्यस्तहस्तमितरेण धुनानमब्जं
कर्णोत्पलालक कपोलमुखाब्जहासम् ॥ २२ ॥
उनके साँवले शरीरपर सुनहला पीताम्बर झिलमिला रहा है। गलेमें वनमाला लटक रही है। मस्तकपर मोरपंखका मुकुट है। अंग-अंगमें रंगीन धातुओंसे चित्रकारी कर रखी है। नये-नये कोंपलोंके गुच्छे शरीरमें लगाकर नटका-सा वेष बना रखा है। एक हाथ अपने सखा ग्वाल-बालके कंधेपर रखे हुए हैं और दूसरे हाथसे कमलका फूल नचा रहे हैं। कानोंमें कमलके कुण्डल हैं, कपोलोंपर घुघराली अलकें लटक रही हैं और मुखकमल मन्द-मन्द मुसकानकी रेखासे प्रफुल्लित हो रहा है ||२२||
प्रायःश्रुतप्रियतमोदयकर्णपूरैः
यस्मिन् निमग्नमनसः तं अथाक्षिरंध्रैः ।
अन्तः प्रवेश्य सुचिरं परिरभ्य तापं
प्राज्ञं यथाभिमतयो विजहुर्नरेन्द्र ॥ २३ ॥
परीक्षित्! अबतक अपने प्रियतम श्यामसुन्दरके गुण और लीलाएँ अपने कानोंसे सुन-सुनकर
उन्होंने अपने मनको उन्हींके प्रेमके रंगमें रँग डाला था, उसीमें सराबोर कर दिया था। अब नेत्रोंके मार्गसे उन्हें भीतर ले जाकर बहुत देरतक वे मन-ही-मन उनका आलिंगन करती रहीं और इस प्रकार उन्होंने अपने हृदयकी जलन शान्त की-ठीक वैसे ही, जैसे जाग्रत् और स्वप्न-अवस्थाओंकी वृत्तियाँ ‘यह मैं, यह मेरा’ इस भावसे जलती रहती हैं, परन्तु सुषुप्ति-अवस्थामें उसके अभिमानी प्राज्ञको पाकर उसीमें लीन हो जाती हैं और उनकी सारी जलन मिट जाती है ।।२३।।
( अनुष्टुप् )
तास्तथा त्यक्तसर्वाशाः प्राप्ता आत्मदिदृक्षया ।
विज्ञायाखिलदृग्द्रष्टा प्राह प्रहसिताननः ॥ २४ ॥
प्रिय परीक्षित्! भगवान् सबके हृदयकी बात जानते हैं, सबकी बुद्धियोंके साक्षी हैं। उन्होंने जब देखा कि ये ब्राह्मणपत्नियाँ अपने भाई-बन्ध और पति-पत्रोंके रोकनेपर भी सब सगे-सम्बन्धियों और विषयोंकी आशा छोड़कर केवल मेरे दर्शनकी लालसासे ही मेरे पास आयी हैं, तब उन्होंने उनसे कहा। उस समय उनके मुखारविन्दपर हास्यकी तरंगें अठखेलियाँ कर रही थीं ||२४||
स्वागतं वो महाभागा आस्यतां करवाम किम् ।
यन्नो दिदृक्षया प्राप्ता उपपन्नमिदं हि वः ॥ २५ ॥
भगवानने कहा—’महाभाग्यवती देवियो! तुम्हारा स्वागत है। आओ, बैठो। कहो, हम तुम्हारा क्या स्वागत करें? तुमलोग हमारे दर्शनकी इच्छासे यहाँ आयी हो, यह तुम्हारे-जैसे प्रेमपूर्ण हृदयवालोंके योग्य ही है ।।२५||
नन्वद्धा मयि कुर्वन्ति कुशलाः स्वार्थदर्शिनः ।
अहैतुक्यव्यवहितां भक्तिमात्मप्रिये यथा ॥ २६ ॥
इसमें सन्देह नहीं कि संसारमें अपनी सच्ची भलाईको समझनेवाले जितने भी बुद्धिमान् पुरुष हैं, वे अपने प्रियतमके समान ही मुझसे प्रेम करते हैं और ऐसा प्रेम करते हैं जिसमें किसी प्रकारकी कामना नहीं रहती-जिसमें किसी प्रकारका व्यवधान, संकोच, छिपाव, दुविधा या द्वैत नहीं होता ।।२६।।
प्राणबुद्धिमनःस्वात्म दारापत्यधनादयः ।
यत्सम्पर्कात् प्रिया आसन् ततः को न्वपरः प्रियः ॥ २७ ॥
प्राण, बुद्धि, मन, शरीर, स्वजन, स्त्री, पुत्र और धन आदि संसारकी सभी वस्तुएँ जिसके लिये और जिसकी सन्निधिसे प्रिय लगती हैं—उस आत्मासे, परमात्मासे, मुझ श्रीकृष्णसे बढ़कर और कौन प्यारा हो सकता है ||२७||
तद् यात देवयजनं पतयो वो द्विजातयः ।
स्वसत्रं पारयिष्यन्ति युष्माभिर्गृहमेधिनः ॥ २८ ॥
इसलिये तुम्हारा आना उचित ही है। मैं तुम्हारे प्रेमका अभिनन्दन करता हूँ। परन्तु अब तुमलोग मेरा दर्शन कर चुकीं। अब अपनी यज्ञशालामें लौट जाओ। तुम्हारे पति ब्राह्मण गृहस्थ हैं। वे तुम्हारे साथ मिलकर ही अपना यज्ञ पूर्ण कर सकेंगे’ ||२८||
श्रीपत्न्य ऊचुः ।
( वसंततिलका )
मैवं विभोऽर्हति भवान्गदितुं नृशंसं
सत्यं कुरुष्व निगमं तव पादमूलम् ।
प्राप्ता वयं तुलसिदाम पदावसृष्टं
केशैर्निवोढुमतिलङ्घ्य समस्तबन्धून् ॥ २९ ॥
ब्राह्मणपत्नियोंने कहा-अन्तर्यामी श्यामसुन्दर! आपकी यह बात निष्ठुरतासे पूर्ण है। आपको ऐसी बात नहीं कहनी चाहिये। श्रुतियाँ कहती हैं कि जो एक बार भगवान्को प्राप्त हो जाता है, उसे फिर संसारमें नहीं लौटना पड़ता। आप अपनी यह वेदवाणी सत्य कीजिये। हम अपने समस्त सगे-सम्बन्धियोंकी आज्ञाका उल्लंघन करके आपके चरणोंमें इसलिये आयी हैं कि आपके चरणोंसे गिरी हुई तुलसीकी माला अपने केशोंमें धारण करें ||२९||
गृह्णन्ति नो न पतयः पितरौ सुता वा
न भ्रातृबन्धुसुहृदः कुत एव चान्ये ।
तस्माद् भवत्प्रपदयोः पतितात्मनां नो
नान्या भवेद् गतिररिन्दम तद् विधेहि ॥ ३० ॥
स्वामी! अब हमारे पति-पुत्र, माता-पिता, भाई-बन्धु और । स्वजन-सम्बन्धी हमें स्वीकार नहीं करेंगे; फिर दूसरोंकी तो बात ही क्या है। वीरशिरोमणे! अब हम आपके चरणोंमें आ पड़ी हैं। हमें और किसीका सहारा नहीं है। इसलिये अब हमें दूसरोंकी शरणमें न जाना पड़े, ऐसी व्यवस्था कीजिये ।।३०।।
श्रीभगवानुवाच –
पतयो नाभ्यसूयेरन् पितृभ्रातृसुतादयः ।
लोकाश्च वो मयोपेता देवा अप्यनुमन्वते ॥ ३१ ॥
भगवान् श्रीकृष्णने कहा-देवियो! तुम्हारे पति-पुत्र, माता-पिता, भाई-बन्धुकोई भी तुम्हारा तिरस्कार नहीं करेंगे। उनकी तो बात ही क्या, सारा संसार तुम्हारा सम्मान करेगा। इसका कारण है। अब तुम मेरी हो गयी हो, मुझसे युक्त हो गयी हो। देखो न, ये देवता मेरी बातका अनुमोदन कर रहे हैं ।।३१।।
( अनुष्टुप् )
न प्रीतयेऽनुरागाय ह्यङ्गसङ्गो नृणामिह ।
तन्मनो मयि युञ्जाना अचिरान् मामवाप्स्यथ ॥ ३२ ॥
देवियो! इस संसारमें मेरा अंग-संग ही मनुष्योंमें मेरी प्रीति या अनुरागका कारण नहीं है। इसलिये तुम जाओ, अपना मन मुझमें लगा दो। तुम्हें बहुत शीघ्र मेरी प्राप्ति हो जायगी ||३२||
श्रीशुक उवाच –
इत्युक्ता द्विजपत्न्यस्ता यज्ञवाटं पुनर्गताः ।
ते चानसूयवः स्वाभिः स्त्रीभिः सत्रमपारयन् ॥ ३३ ॥
श्रीशुकदेवजी कहते हैं-परीक्षित्! जब भगवान्ने इस प्रकार कहा, तब वे ब्राह्मणपत्नियाँ यज्ञशालामें लौट गयीं। उन ब्राह्मणोंने अपनी स्त्रियोंमें तनिक भी दोषदृष्टि नहीं की। उनके साथ मिलकर अपना यज्ञ पूरा किया ।।३३।।
तत्रैका विधृता भर्त्रा भगवन्तं यथाश्रुतम् ।
हृदोपगुह्य विजहौ देहं कर्मानुबन्धनम् ॥ ३४ ॥
उन स्त्रियोंमेंसे एकको आनेके समय ही उसके पतिने बलपूर्वक रोक लिया था। इसपर उस ब्राह्मणपत्नीने भगवान्के वैसे ही स्वरूपका ध्यान किया, जैसा कि बहत दिनोंसे सुन रखा था। जब उसका ध्यान जम गया, तब मन-ही-मन भगवान्का आलिंगन करके उसने कर्मके द्वारा बने हुए अपने शरीरको छेड़ दिया—(शुद्धसत्त्वमयदिव्य शरीरसे उसने भगवान्की सन्निधि प्राप्त कर ली) ।।३४।।
भगवानपि गोविन्दः तेनैवान्नेन गोपकान् ।
चतुर्विधेनाशयित्वा स्वयं च बुभुजे प्रभुः ॥ ३५ ॥
इधर भगवान् श्रीकृष्णने ब्राह्मणियोंके लाये हुए उस चार प्रकारके अन्नसे पहले ग्वाल-बालोंको भोजन कराया और फिर उन्होंने स्वयं भी भोजन किया ||३५||
एवं लीलानरवपुः नृलोकमनुशीलयन् ।
रेमे गोगोपगोपीनां रमयन्रूपवाक्कृतैः ॥ ३६ ॥
परीक्षित्! इस प्रकार लीलामनुष्य भगवान् श्रीकृष्णने मनुष्यकी-सी लीला की और अपने सौन्दर्य, माधुर्य, वाणी तथा कर्मोंसे गौएँ, ग्वालबाल और गोपियोंको आनन्दित किया और स्वयं भी उनके अलौकिक प्रेमरसका आस्वादन करके आनन्दित हुए ||३६।।
अथानुस्मृत्य विप्रास्ते अन्वतप्यन् कृतागसः ।
यद् विश्वेश्वरयोर्याच्ञां अहन्म नृविडम्बयोः ॥ ३७ ॥
परीक्षित्! इधर जब ब्राह्मणोंको यह मालूम हुआ कि श्रीकृष्ण तो स्वयं भगवान् हैं, तब उन्हें बडा पछतावा हआ। वे सोचने लगे कि जगदीश्वर भगवान श्रीकष्ण और बलरामकी आज्ञाका उल्लंघन करके हमने बड़ा भारी अपराध किया है। वे तो मनुष्यकी-सी लीला करते हुए भी परमेश्वर ही हैं ।।३७।।
दृष्ट्वा स्त्रीणां भगवति कृष्णे भक्तिमलौकिकीम् ।
आत्मानं च तया हीनं अनुतप्ता व्यगर्हयन् ॥ ३८ ॥
जब उन्होंने देखा कि हमारी पत्नियोंके हृदयमें तो भगवान्का अलौकिक प्रेम है और हमलोग उससे बिलकुल रीते हैं, तब वे पछता-पछताकर अपनी निन्दा करने लगे ।।३८।।
धिग्जन्म नः त्रिवृत् विद्यां धिग् व्रतं धिग् बहुज्ञताम् ।
धिक्कुलं धिक् क्रियादाक्ष्यं विमुखा ये त्वधोक्षजे ॥ ३९ ॥
वे कहने लगे हाय! हम भगवान् श्रीकृष्णसे विमुख हैं। बड़े ऊँचे कुलमें हमारा जन्म हुआ, गायत्री ग्रहण करके हम द्विजाति हुए, वेदाध्ययन करके हमने बड़े-बड़े यज्ञकिये; परन्तु वह सब किस कामका? धिक्कार है! धिक्कार है!! हमारी विद्या व्यर्थ गयी, हमारे व्रत बुरे सिद्ध हुए। हमारी इस बहुज्ञताको धिक्कार है! ऊँचे वंशमें जन्म लेना, कर्मकाण्डमें निपुण होना किसी काम न आया। इन्हें बार-बार धिक्कार है ।।३९।।
नूनं भगवतो माया योगिनामपि मोहिनी ।
यस् वयं गुरवो नृणां स्वार्थे मुह्यामहे द्विजाः ॥ ४० ॥
निश्चय ही, भगवान्की माया बड़े-बड़े योगियोंको भी मोहित कर लेती है। तभी तो हम कहलाते हैं मनुष्योंके गुरु और ब्राह्मण, परन्तु अपने सच्चे स्वार्थ और परमार्थके विषयमें बिलकुल भूले हुए हैं ||४०।।
अहो पश्यत नारीणां अपि कृष्णे जगद्गुरौ ।
दुरन्तभावं योऽविध्यन् मृत्युपाशान् गृहाभिधान् ॥ ४१ ॥
कितने आश्चर्यकी बात है! देखो तो सही-यद्यपि ये स्त्रियाँ हैं, तथापि जगद्गुरु भगवान् श्रीकृष्णमें इनका कितना अगाध प्रेम है, अखण्ड अनुराग है! उसीसे इन्होंने गहस्थीकी वह बहुत बड़ी फाँसी भी काट डाली, जो मत्युके साथ भी नहीं कटती ।।४१।।
नासां द्विजातिसंस्कारो न निवासो गुरावपि ।
न तपो नात्ममीमांसा न शौचं न क्रियाः शुभाः ॥ ४२ ॥
इनके न तो द्विजातिके योग्य यज्ञोपवीत आदि संस्कार हुए हैं और न तो इन्होंने गुरुकुलमें ही निवास किया है। न इन्होंने तपस्या की है और न तो आत्माके सम्बन्धमें ही कुछ विवेक-विचार किया है। उनकी बात तो दूर रही, इनमें न तो पूरी पवित्रता है और न तो शुभकर्म ही ।।४२।।
तथापि ह्युत्तमःश्लोके कृष्णे योगेश्वरेश्वरे ।
भक्तिर्दृढा न चास्माकं संस्कारादिमतामपि ॥ ४३ ॥
फिर भी समस्त योगेश्वरोंके ईश्वर पुण्यकीर्ति भगवान् श्रीकृष्णके चरणोंमें इनका दृढ़ प्रेम है। और हमने अपने संस्कार किये हैं, गुरुकुलमें निवास किया है, तपस्या की है, आत्मानुसन्धान किया है, पवित्रताका निर्वाह किया है तथा अच्छे-अच्छे कर्म किये हैं; फिर भी भगवानके चरणोंमें हमारा प्रेम नहीं है ।।४३||
ननु स्वार्थविमूढानां प्रमत्तानां गृहेहया ।
अहो नः स्मारयामास गोपवाक्यैः सतां गतिः ॥ ४४ ॥
सच्ची बात यह है कि हमलोग गृहस्थीके काम-धंधोंमें मतवाले हो गये थे, अपनी भलाई और बुराईको बिलकुल भूल गये थे। अहो, भगवान्की कितनी कृपा है! भक्तवत्सल प्रभुने ग्वालबालोंको भेजकर उनके वचनोंसे हमें चेतावनी
दी, अपनी याद दिलायी ।।४४।।
अन्यथा पूर्णकामस्य कैवल्याद्यशिषां पतेः ।
ईशितव्यैः किमस्माभिः ईशस्यैतद् विडम्बनम् ॥ ४५ ॥
भगवान् स्वयं पूर्णकाम हैं और कैवल्यमोक्षपर्यन्त जितनी भी कामनाएँ होती हैं, उनको पूर्ण करनेवाले हैं। यदि हमें सचेत नहीं करना होता तो उनका हम-सरीखे क्षुद्र जीवोंसे प्रयोजन ही क्या हो सकता था? अवश्य ही उन्होंने इसी उद्देश्यसे माँगनेका बहाना बनाया। अन्यथा उन्हें माँगनेकी भला क्या आवश्यकता थी? ||४५||
हित्वान्यान् भजते यं श्रीः पादस्पर्शाशया सकृत् ।
स्वात्मदोषापवर्गेण तद्याच्ञा जनमोहिनी ॥ ४६ ॥
स्वयं लक्ष्मी अन्य सब देवताओंको छोडकर और अपनी चंचलता, गर्व आदि दोषोंका परित्याग कर केवल एक बार उनके चरणकमलोंका स्पर्श पानेके लिये सेवा करती रहती हैं। वे ही प्रभु किसीसे भोजनकी याचना करें, यह लोगोंको मोहित करनेके लिये नहीं तो और क्या है? ||४६।।
देशः कालः पृथग्द्रव्यं मंत्रतंत्रर्त्विजोऽग्नयः ।
देवता यजमानश्च क्रतुर्धर्मश्च यन्मयः ॥ ४७ ॥
देश, काल, पृथक्-पृथक् सामग्रियाँ, उन। उन कर्मोंमें विनियुक्त मन्त्र, अनुष्ठानकी पद्धति, ऋत्विज, अग्नि, देवता, यजमान, यज्ञऔर धर्म-सब भगवानके ही स्वरूप हैं ||४७||
स एष भगवान् साक्षाद् विष्णुर्योगेश्वरेश्वरः ।
जातो यदुष्वित्याश्रृण्म ह्यपि मूढा न विद्महे ॥ ४८ ॥
वे ही योगेश्वरों के भी ईश्वर भगवान विष्णु स्वयं श्रीकृष्णके रूपमें यदुवंशियोंमें अवतीर्ण हुए हैं, यह बात हमने सुन रखी थी; परन्तु हम इतने मूढ हैं कि उन्हें पहचान न सके ।।४८।।
अहो वयं धन्यतमा येषां नस्तादृशीः स्त्रियः ।
भक्त्या यासां मतिर्जाता अस्माकं निश्चला हरौ ॥ ४९ ॥
यह सब होनेपर भी हम धन्यातिधन्य हैं, हमारे अहोभाग्य हैं। तभी तो हमें वैसी पत्नियाँ प्राप्त हुई हैं। उनकी भक्तिसे हमारी बुद्धि भी भगवान् श्रीकृष्णके अविचल प्रेमसे युक्त हो गयी है ।।४९।।
नमस्तुभ्यं भगवते कृष्णायाकुण्ठमेधसे ।
यन्मायामोहितधियो भ्रमामः कर्मवर्त्मसु ॥ ५० ॥
प्रभो! आप अचिन्त्य और अनन्त ऐश्वर्योंके स्वामी हैं! श्रीकृष्ण! आपका ज्ञान अबाध है। आपकी ही मायासे हमारी बद्धि मोहित हो रही है और हम कर्मोंके पचडेमें भटक रहे हैं। हम आपको नमस्कार करते हैं ||५०||
स वै न आद्यः पुरुषः स्वमायामोहितात्मनाम् ।
अविज्ञतानुभावानां क्षन्तुमर्हत्यतिक्रमम् ॥ ५१ ॥
वे आदि पुरुषोत्तम भगवान् श्रीकृष्णहमारे इस अपराधको क्षमा करें। क्योंकि हमारी बुद्धि उनकी मायासे मोहित हो रही है और हम उनके प्रभावको न जाननेवाले अज्ञानी हैं ||५१।।
इति स्वाघमनुस्मृत्य कृष्णे ते कृतहेलनाः ।
दिदृक्षवोऽप्यच्युतयोः कंसाद्भीता न चाचलन् ॥ ५२ ॥
परीक्षित्! उन ब्राह्मणोंने श्रीकृष्णका तिरस्कार किया था। अतः उन्हें अपने अपराधकी स्मतिसे बड़ा पश्चात्ताप हआ और उनके हृदयमें श्रीकृष्ण-बलरामके दर्शनकी बड़ी इच्छा भी हुई; परन्तु कंसके डरके मारे वे उनका दर्शन करने न जा सके ।।५२।।
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां
संहितायां दशमस्कन्धे पूर्वार्धे त्रयोविंशोऽध्यायः ॥ २३ ॥
हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥
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