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श्रीमद् भागवत महापुराण दशम स्कन्ध

श्रीमद् भागवत महापुराण स्कन्ध 10 अध्याय 30

Spread the Glory of Sri SitaRam!

30 CHAPTER
श्रीमद्भागवतपुराणम्/स्कन्धः १०/पूर्वार्धः/अध्यायः ३०

श्रीशुक उवाच
अन्तर्हिते भगवति सहसैव व्रजाङ्गनाः ।
अतप्यंस्तमचक्षाणाः करिण्य इव यूथपम् ॥ 10.30.001 ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैं-परीक्षित्! भगवान् सहसा अन्तर्धान हो गये। उन्हें न देखकर व्रजयुवतियोंकी वैसी ही दशा हो गयी, जैसे यूथपति गजराजके बिना हथिनियोंकी होती है। उनका हृदय विरहकी ज्वालासे जलने लगा ।।१।।

गत्यानुरागस्मितविभ्रमेक्षितैर्मनोरमालापविहारविभ्रमैः ।
आक्षिप्तचित्ताः प्रमदा रमापतेस्तास्ता विचेष्टा जगृहुस्तदात्मिकाः ॥ 10.30.002 ॥

भगवान् श्रीकृष्णकी मदोन्मत्त गजराजकीसी चाल, प्रेमभरी मुसकान, विलासभरी चितवन, मनोरम प्रेमालाप, भिन्न-भिन्न प्रकारकी लीलाओं तथा शृंगार-रसकी भाव-भंगियोंने उनके चित्तको चुरा लिया था। वे प्रेमकी मतवाली गोपियाँ श्रीकृष्णमय हो गयीं और फिर श्रीकृष्णकी विभिन्न चेष्टाओंका अनुकरण करने लगीं ।।२।।

गतिस्मितप्रेक्षणभाषणादिषु प्रियाः प्रियस्य प्रतिरूढमूर्तयः ।
असावहं त्वित्यबलास्तदात्मिका न्यवेदिषुः कृष्णविहारविभ्रमाः ॥ 10.30.003 ॥

अपने प्रियतम श्रीकृष्णकी चाल-ढाल, हास-विलास और चितवन-बोलन आदिमें श्रीकृष्णकी प्यारी गोपियाँ उनके समान ही बन गयीं; उनके शरीरमें भी वही गति-मति, वही भाव-भंगी उतर आयी। वे अपनेको सर्वथा भूलकर श्रीकृष्ण-स्वरूप हो गयीं और उन्हींके लीला-विलासका अनुकरण करती हुई ‘मैं श्रीकृष्ण ही हूँ’-इस प्रकार कहने लगीं ।।३।।

गायन्त्य उच्चैरमुमेव संहता विचिक्युरुन्मत्तकवद्वनाद्वनम् ।
पप्रच्छुराकाशवदन्तरं बहिर्भूतेषु सन्तं पुरुषं वनस्पतीन् ॥ 10.30.004 ॥

वे सब परस्पर मिलकर ऊँचे स्वरसे उन्हींके गुणोंका गान करने लगीं और मतवाली होकर एक वनसे दूसरे वनमें, एक झाड़ीसे दूसरी झाड़ीमें जा-जाकर श्रीकृष्णको ढूँढने लगीं। परीक्षित्! भगवान् श्रीकृष्ण कहीं दूर थोड़े ही गये थे। वे तो समस्त जड-चेतन पदार्थों में तथा उनके बाहर भी आकाशके समान एकरस स्थित ही हैं। वे वहीं थे, उन्हींमें थे, परन्तु उन्हें न देखकर गोपियाँ वनस्पतियोंसे—पेड़-पौधोंसे उनका पता पूछने लगीं ।।४।।

दृष्टो वः कच्चिदश्वत्थ प्लक्ष न्यग्रोध नो मनः ।
नन्दसूनुर्गतो हृत्वा प्रेमहासावलोकनैः ॥ 10.30.005 ॥

(गोपियोंने पहले बड़े-बड़े वृक्षोंसे जाकर पूछा) ‘हे पीपल, पाकर और बरगद! नन्दनन्दन श्यामसुन्दर अपनी प्रेमभरी मुसकान और चितवनसे हमारा मन चुराकर चले गये हैं। क्या तुमलोगोंने उन्हें देखा है? ||५||

कच्चित्कुरबकाशोक नागपुन्नागचम्पकाः ।
रामानुजो मानिनीनामितो दर्पहरस्मितः ॥ 10.30.006 ॥

कुरबक, अशोक, नागकेशर, पुन्नाग और चम्पा! बलरामजीके छोटे भाई, जिनकी मुसकान-मात्रसे बड़ी-बड़ी मानिनियोंका मानमर्दन हो जाता है, इधर आये थे क्या?’ ||६||

कच्चित्तुलसि कल्याणि गोविन्दचरणप्रिये ।
सह त्वालिकुलैर्बिभ्रद्दृष्टस्तेऽतिप्रियोऽच्युतः ॥ 10.30.007 ॥

(अब उन्होंने स्त्रीजातिके पौधोंसे कहा—) ‘बहिन तुलसी! तुम्हारा हृदय तो बड़ा कोमल है, तुम तो सभी लोगोंका कल्याण चाहती हो। भगवानके चरणोंमें तुम्हारा प्रेम तो है ही, वे भी तुमसे बहुत प्यार करते हैं। तभी तो भौंरोंके मँडराते रहनेपर भी वे तुम्हारी माला नहीं उतारते, सर्वदा पहने रहते हैं। क्या तुमने अपने परम प्रियतम श्यामसुन्दरको देखा है? ||७||

मालत्यदर्शि वः कच्चिन्मल्लिके जातियूथिके ।
प्रीतिं वो जनयन् यातः करस्पर्शेन माधवः ॥ 10.30.008 ॥

प्यारी मालती! मल्लिके! जाती और जूही! तुमलोगोंने कदाचित् हमारे प्यारे माधवको देखा होगा। क्या वे अपने कोमल करोंसे स्पर्श करके तुम्हें आनन्दित करते हुए इधरसे गये हैं?’ ||८||

चूतप्रियालपनसासनकोविदार जम्ब्वर्कबिल्वबकुलाम्रकदम्बनीपाः ।
येऽन्ये परार्थभवका यमुनोपकूलाः शंसन्तु कृष्णपदवीं रहितात्मनां नः ॥ 10.30.009 ॥

‘रसाल, प्रियाल, कटहल, पीतशाल, कचनार, जामुन, आक, बेल, मौलसिरी, आम, कदम्ब और नीम तथा अन्यान्य यमुनाके तटपर विराजमान सुखी तरुवरो! तुम्हारा जन्म-जीवन केवल परोपकारके लिये है। श्रीकृष्णके बिना हमारा जीवन सूना हो रहा है। हम बेहोश हो रही हैं। तुम हमें उन्हें पानेका मार्ग बता दो’ ||९||

किं ते कृतं क्षिति तपो बत केशवाङ्घ्रि स्पर्शोत्सवोत्पुलकिताङ्गनहैर्विभासि ।
अप्यङ्घ्रिसम्भव उरुक्रमविक्रमाद्वा आहो वराहवपुषः परिरम्भणेन ॥ 10.30.010 ॥*

‘भगवान्की प्रेयसी पृथ्वीदेवी! तुमने ऐसी कौन-सी तपस्या की है कि श्रीकृष्णके चरणकमलोंका स्पर्श प्राप्त करके तुम आनन्दसे भर रही हो और तण-लता आदिके रूपमें अपना रोमांच प्रकट कर रही हो? तुम्हारा यह उल्लास-विलास श्रीकृष्णके चरणस्पर्शके कारण है अथवा वामनावतारमें विश्वरूप धारण करके उन्होंने तुम्हें जो नापा था, उसके कारण है? कहीं उनसे भी पहले वराह भगवानके अंग-संगके कारण तो तुम्हारी यह दशा नहीं हो रही है?’ ||१०||

अप्येणपत्न्युपगतः प्रिययेह गात्रैस् तन्वन् दृशां सखि सुनिर्वृतिमच्युतो वः ।
कान्ताङ्गसङ्गकुचकुङ्कुमरञ्जितायाः कुन्दस्रजः कुलपतेरिह वाति गन्धः ॥ 10.30.011 ॥*

‘अरी सखी! हरिनियो! हमारे श्यामसुन्दरके अंग-संगसे सुषमासौन्दर्यकी धारा बहती रहती है, वे कहीं अपनी प्राणप्रियाके साथ तुम्हारे नयनोंको परमानन्दका दान करते हुए इधरसे ही तो नहीं गये हैं? देखो, देखो; यहाँ कुलपति श्रीकृष्णकी कुन्दकलीकी मालाकी मनोहर गन्ध आ रही है, जो उनकी परम प्रेयसीके अंग-संगसे लगे हुएकुच-कुंकुमसे अनुरंजित रहती है’ ।।११।।

बाहुं प्रियांस उपधाय गृहीतपद्मो रामानुजस्तुलसिकालिकुलैर्मदान्धैः ।
अन्वीयमान इह वस्तरवः प्रणामं किं वाभिनन्दति चरन् प्रणयावलोकैः ॥ 10.30.012 ॥*

‘तरुवरो! उनकी मालाकी तुलसीमें ऐसी सुगन्ध है कि उसकी गन्धके लोभी मतवाले भौंरे प्रत्येक क्षण उसपर मँडराते रहते हैं। उनके एक हाथमें लीलाकमल होगा और दूसरा हाथ अपनी प्रेयसीके कंधेपर रखे होंगे। हमारे प्यारे श्यामसुन्दर इधरसे विचरते हुए अवश्य गये होंगे। जान पड़ता है, तुमलोग उन्हें प्रणाम करनेके लिये ही झुके हो। परन्तु उन्होंने अपनी प्रेमभरी चितवनसे भी तुम्हारी वन्दनाका अभिनन्दन किया है या नहीं?’ ||१२||

पृच्छतेमा लता बाहूनप्याश्लिष्टा वनस्पतेः ।
नूनं तत्करजस्पृष्टा बिभ्रत्युत्पुलकान्यहो ॥ 10.30.013 ॥

‘अरी सखी! इन लताओंसे पूछो। ये अपने पति वृक्षोंको भुजपाशमें बाँधकर आलिंगन किये हुए हैं, इससे क्या हुआ? इनके शरीरमें जो पुलक है, रोमांच है, वह तो भगवान्के नखोंके स्पर्शसे ही है। अहो! इनका कैसा सौभाग्य है?’ ||१३||

इत्युन्मत्तवचो गोप्यः कृष्णान्वेषणकातराः ।
लीला भगवतस्तास्ता ह्यनुचक्रुस्तदात्मिकाः ॥ 10.30.014 ॥

परीक्षित्! इस प्रकार मतवाली गोपियाँ प्रलाप करती हुई भगवान् श्रीकृष्णको ढूँढ़ते-ढूँढ़ते कातर हो रही थीं। अब और भी गाढ़ आवेश हो जानेके कारण वे भगवन्मय होकर भगवान्की विभिन्न लीलाओंका अनुकरण करने लगीं ।।१४।।

कस्याचित्पूतनायन्त्याः कृष्णायन्त्यपिबत्स्तनम् ।
तोकयित्वा रुदत्यन्या पदाहन् शकटायतीम् ॥ 10.30.015 ॥

एक पूतना बन गयी, तो दूसरी श्रीकृष्ण बनकर उसका स्तन पीने लगीं। कोई छकड़ा बन गयी, तो किसीने बालकृष्ण बनकर रोते हुए उसे पैरकी ठोकर मारकर उलट दिया ||१५||

दैत्यायित्वा जहारान्यामेको कृष्णार्भभावनाम् ।
रिङ्गयामास काप्यङ्घ्री कर्षन्ती घोषनिःस्वनैः ॥ 10.30.016 ॥

कोई सखी बालकृष्ण बनकर बैठ गयी तो कोई तणावर्त दैत्यका रूप धारण करके उसे हर ले गयी। कोई गोपी पाँव घसीट-घसीटकर घुटनोंके बल बकैयाँ चलने लगी और उस समय उसके पायजेब रुनझुन-रुनझुन बोलने लगे ।।१६।।

कृष्णरामायिते द्वे तु गोपायन्त्यश्च काश्चन ।
वत्सायतीं हन्ति चान्या तत्रैका तु बकायतीम् ॥ 10.30.017 ॥

एक बनी कृष्ण, तो दूसरी बनी बलराम, और बहुत-सी गोपियाँ ग्वालबालोंके रूपमें हो गयीं। एक गोपी बन गयी वत्सासुर, तो दूसरी बनी बकासुर। तब तो गोपियोंने अलग-अलग श्रीकृष्ण बनकर वत्सासुर और बकासुर बनी हुई गोपियोंको मारनेकी लीला की ||१७||

आहूय दूरगा यद्वत्कृष्णस्तमनुवर्ततीम् ।
वेणुं क्वणन्तीं क्रीडन्तीमन्याः शंसन्ति साध्विति ॥ 10.30.018 ॥

जैसे श्रीकृष्ण वनमें करते थे, वैसे ही एक गोपी बाँसुरी बजा-बजाकर दूर गये हुए पशुओंको बुलानेका खेल खेलने लगी। तब दूसरी गोपियाँ ‘वाह-वाह’ करके उसकी प्रशंसा करने लगीं ।।१८।।

कस्याञ्चित्स्वभुजं न्यस्य चलन्त्याहापरा ननु ।
कृष्णोऽहं पश्यत गतिं ललितामिति तन्मनाः ॥ 10.30.019 ॥

एक गोपी अपनेको श्रीकृष्ण समझकर दूसरी सखीके गले में बाँह डालकरचलती और गोपियोंसे कहने लगती-‘मित्रो! मैं श्रीकृष्ण हूँ। तुमलोग मेरी यह मनोहर चाल देखो’ ||१९||

मा भैष्ट वातवर्षाभ्यां तत्त्राणं विहितं मय ।
इत्युक्त्वैकेन हस्तेन यतन्त्युन्निदधेऽम्बरम् ॥ 10.30.020 ॥

कोई गोपी श्रीकृष्ण बनकर कहती-‘अरे व्रजवासियो! तुम आँधी-पानीसे मत डरो। मैंने उससे बचनेका उपाय निकाल लिया है।’ ऐसा कहकर गोवर्धन-धारणका अनुकरण करती हुई वह अपनी ओढ़नी उठाकर ऊपर तान लेती ||२०||

आरुह्यैका पदाक्रम्य शिरस्याहापरां नृप ।
दुष्टाहे गच्छ जातोऽहं खलानां ननु दण्डकृत् ॥ 10.30.021 ॥

परीक्षित्! एक गोपी बनी कालिय नाग, तो दूसरी श्रीकृष्ण बनकर उसके सिरपर पैर रखकर चढ़ी-चढ़ी बोलने लगी –रे दुष्ट साँप! तु यहाँसे चला जा। मैं दुष्टोंका दमन करनेके लिये ही उत्पन्न हआ हँ’ ||२१||

तत्रैकोवाच हे गोपा दावाग्निं पश्यतोल्बणम् ।
चक्षूंष्याश्वपिदध्वं वो विधास्ये क्षेममञ्जसा ॥ 10.30.022 ॥

इतनेमें ही एक गोपी बोली-‘अरे ग्वालो! देखो, वनमें बड़ी भयंकर आग लगी है। तुमलोग जल्दी-से-जल्दी अपनी आँखें मूंद लो, मैं अनायास ही तुमलोगोंकी रक्षा कर लूँगा’ ।।२२।।

बद्धान्यया स्रजा काचित्तन्वी तत्र उलूखले ।
बध्नामि भाण्डभेत्तारं हैयङ्गवमुषं त्विति ।
भीता सुदृक्पिधायास्यं भेजे भीतिविडम्बनम् ॥ 10.30.023 ॥

एक गोपी यशोदा बनी और दूसरी बनी श्रीकृष्ण। यशोदाने फूलोंकी मालासे श्रीकृष्णको ऊखलमें बाँध दिया। अब वह श्रीकृष्ण बनी हुई सुन्दरी गोपी हाथोंसे मुँह ढंककर भयकी नकल करने लगी ।।२३।।

एवं कृष्णं पृच्छमाना व्र्ण्दावनलतास्तरून् ।
व्यचक्षत वनोद्देशे पदानि परमात्मनः ॥ 10.30.024 ॥

परीक्षित्! इस प्रकार लीला करते-करते गोपियाँ वृन्दावनके वृक्ष और लता आदिसे फिर भी श्रीकृष्णका पता पूछने लगीं। इसी समय उन्होंने एक स्थानपर भगवान्के चरणचिह्न देखे ||२४||

पदानि व्यक्तमेतानि नन्दसूनोर्महात्मनः ।
लक्ष्यन्ते हि ध्वजाम्भोज वज्राङ्कुशयवादिभिः ॥ 10.30.025 ॥

वे आपसमें कहने लगीं—’अवश्य ही ये चरणचिह्न उदारशिरोमणि नन्दनन्दन श्यामसुन्दरके हैं; क्योंकि इनमें ध्वजा, कमल, वज्र, अंकुश और जौ आदिके चिह्न स्पष्ट ही दीख रहे हैं’ ||२५||

तैस्तैः पदैस्तत्पदवीमन्विच्छन्त्योऽग्रतोऽबलाः ।
वध्वाः पदैः सुपृक्तानि विलोक्यार्ताः समब्रुवन् ॥ 10.30.026 ॥

उन चरणचिह्नोंके द्वारा व्रजवल्लभ भगवानको ढूँढ़ती हुई गोपियाँ आगे बढ़ीं, तब उन्हें श्रीकृष्णके साथ किसी व्रजयुवतीके भी चरणचिह्न दीख पड़े। उन्हें देखकर वे व्याकुल हो गयीं। और आपसमें कहने लगीं- ||२६||

कस्याः पदानि चैतानि याताया नन्दसूनुना ।
अंसन्यस्तप्रकोष्ठायाः करेणोः करिणा यथा ॥ 10.30.027 ॥

‘जैसे हथिनी अपने प्रियतम गजराजके साथ गयी हो, वैसे ही नन्दनन्दन श्यामसुन्दरके साथ उनके कंधेपर हाथ रखकर चलनेवाली किस बडभागिनीके ये चरणचिह्न हैं? ||२७।।

अनयाराधितो नूनं भगवान् हरिरीश्वरः ।
यन्नो विहाय गोविन्दः प्रीतो यामनयद्रहः ॥ 10.30.028 ॥

अवश्य ही सर्वशक्तिमान् भगवान् श्रीकृष्णकी यह ‘आराधिका’ होगी। इसीलिये इसपर प्रसन्न होकर हमारे प्राणप्यारे श्यामसुन्दरने हमें छोड़ दिया है और इसे एकान्तमें ले गये हैं ||२८||

धन्या अहो अमी आल्यो गोविन्दाङ्घ्र्यब्जरेणवः ।
यान् ब्रह्मेशौ रमा देवी दधुर्मूर्ध्न्यघनुत्तये ॥ 10.30.029 ॥

प्यारी सखियो! भगवान् श्रीकृष्ण अपने चरणकमलसे जिस रजका स्पर्श कर देते हैं, वह धन्य हो जाती है, उसके अहोभाग्य हैं! क्योंकि ब्रह्मा, शंकर और लक्ष्मी आदि भी अपने अशुभ नष्ट करनेके लिये उस रजको अपने सिरपर धारण करते हैं’ ||२९||

तस्या अमूनि नः क्षोभं कुर्वन्त्युच्चैः पदानि यत्यैकापहृत्य गोपीनां रहो भुन्क्तेऽच्युताधरम् ।
न लक्ष्यन्ते पदान्यत्र तस्या नूनं तृणाङ्कुरैः खिद्यत्सुजाताङ्घ्रितलामुन्निन्ये प्रेयसीं प्रियः ॥ 10.30.030 ॥

‘अरी सखी! चाहे कुछ भी हो—यह जो सखी हमारे सर्वस्व श्रीकृष्णको एकान्तमें ले जाकर अकेले ही उनकी अधर-सुधाका रस पी रही है, इस गोपीके उभरे हए चरणचिह्न तो हमारे हृदयमें बडा ही क्षोभ उत्पन्न कर रहे हैं’ ||३०||

इमान्यधिकमग्नानि पदानि वहतो वधूम् ।
गोप्यः पश्यत कृष्णस्य भाराक्रान्तस्य कामिनः ।
अत्रावरोपिता कान्ता पुष्पहेतोर्महात्मना ॥ 10.30.031 ॥

यहाँ उस गोपीके पैर नहीं दिखायी देते। मालूम होता है, यहाँ प्यारे श्यामसुन्दरने देखा होगा कि मेरी प्रेयसीके सुकुमार चरणकमलोंमें घासकी नोक गड़ती होगी; इसलिये उन्होंने उसे अपने कंधेपर चढ़ा लिया होगा ||३१||

अत्र प्रसूनावचयः प्रियार्थे प्रेयसा कृतः ।
प्रपदाक्रमण एते पश्यतासकले पदे ॥ 10.30.032 ॥

सखियो! यहाँ देखो, प्यारे श्रीकृष्णके चरणचिह्न अधिक गहरे-बालूमें धंसे हुए हैं। इससे सूचित होता है कि यहाँ वे किसी भारी वस्तुको उठाकर चले हैं, उसीके बोझसे उनके पैर जमीनमें धंस गये हैं। हो-न-हो यहाँ उस कामीने अपनी प्रियतमाको अवश्य कंधेपर चढ़ाया होगा ||३२||

केशप्रसाधनं त्वत्र कामिन्याः कामिना कृतम् ।
तानि चूडयता कान्तामुपविष्टमिह ध्रुवम् ॥ 10.30.033 ॥

देखो-देखो, यहाँ परमप्रेमी व्रजवल्लभने फूल चुननेके लिये अपनी प्रेयसीको नीचे उतार दिया है और यहाँ परम प्रियतम श्रीकृष्णने अपनी प्रेयसीके लिये फूल चुने हैं। उचक-उचककर फूल तोड़नेके कारण यहाँ उनके पंजे तो धरतीमें गड़े हुए हैं और एड़ीका पता ही नहीं है ।।३३।।

रेमे तया चात्मरत आत्मारामोऽप्यखण्डितः ।
कामिनां दर्शयन् दैन्यं स्त्रीणां चैव दुरात्मताम् ॥ 10.30.034 ॥

परम प्रेमी श्रीकृष्णने कामी पुरुषके समान यहाँ अपनी प्रेयसीके केश सँवारे हैं। देखो, अपने चुने हुए फूलोंको प्रेयसीकी चोटीमें गूंथनेके लिये वे यहाँ अवश्य ही बैठे रहे होंगे ||३४।।

इत्येवं दर्शयन्त्यस्ताश्चेरुर्गोप्यो विचेतसः ।
यां गोपीमनयत्कृष्णो विहायान्याः स्त्रियो वने ॥ 10.30.035 ॥

परीक्षित्! भगवान् श्रीकृष्ण आत्माराम हैं। वे अपने-आपमें ही सन्तुष्ट और पूर्ण हैं। जब वे अखण्ड हैं, उनमें दूसरा कोई है ही नहीं, तब उनमें कामकी कल्पना कैसे हो सकती है? फिर भी उन्होंने कामियोंकी दीनता-स्त्रीपरवशता और स्त्रियोंकी कुटिलता दिखलाते हुए वहाँ उस गोपीके साथ एकान्तमें क्रीडा की थी—एक खेल रचा था ||३५||

सा च मेने तदात्मानं वरिष्ठं सर्वयोषिताम् ।
हित्वा गोपीः कामयाना मामसौ भजते प्रियः ॥ 10.30.036 ॥

ततो गत्वा वनोद्देशं दृप्ता केशवमब्रवीत् ।
न पारयेऽहं चलितुं नय मां यत्र ते मनः ॥ 10.30.037 ॥

इस प्रकार गोपियाँ मतवाली-सी होकर अपनी सुधबुध खोकर एक दूसरेको भगवान् श्रीकृष्णके चरणचिह्न दिखलाती हुई वन-वनमें भटक रही थीं। इधर भगवान् श्रीकृष्ण दूसरी गोपियोंको वनमें छोड़कर जिस भाग्यवती गोपीको एकान्तमें ले गये थे, उसने समझा कि ‘मैं ही समस्त गोपियोंमें श्रेष्ठ हूँ। इसीलिये तो हमारे प्यारे श्रीकृष्ण दूसरी गोपियोंको छोड़कर, जो उन्हें इतना चाहती हैं, केवल मेरा ही मान करते हैं। मुझे ही आदर दे रहे हैं ||३६-३७।।

एवमुक्तः प्रियामाह स्कन्ध आरुह्यतामिति ।
ततश्चान्तर्दधे कृष्णः सा वधूरन्वतप्यत ॥ 10.30.038 ॥

भगवान् श्रीकृष्ण ब्रह्मा और शंकरके भी शासक हैं। वह गोपी वनमें जाकर अपने प्रेम और सौभाग्यके मदसे मतवाली हो गयी और उन्हीं श्रीकृष्णसे कहने लगी-‘प्यारे! मुझसे अब तो और नहीं चला जाता। मेरे सुकुमार पाँव थक गये हैं। अब तुम जहाँ चलना चाहो, मुझे अपने कंधेपर चढ़ाकर ले चलो’ ||३८।।

हा नाथ रमण प्रेष्ठ क्वासि क्वासि महाभुज ।
दास्यास्ते कृपणाया मे सखे दर्शय सन्निधिम् ॥ 10.30.039 ॥

अपनी प्रियतमाकी यह बात सुनकर श्यामसुन्दरने कहा -‘अच्छा प्यारी! तुम अब मेरे कंधेपर चढ़ लो।’ यह सुनकर वह गोपी ज्यों ही उनके कंधेपर चढ़ने चली, त्यों ही श्रीकृष्ण अन्तर्धान हो गये और वह सौभाग्यवती गोपी रोने-पछताने लगी ।।३९।।

श्रीशुक उवाच
अन्विच्छन्त्यो भगवतो मार्गं गोप्योऽविदूरितः ।
ददृशुः प्रियविश्लेषान्मोहितां दुःखितां सखीम् ॥ 10.30.040 ॥

‘हा नाथ! हा रमण! हा प्रेष्ठ! हा महाभुज! तुम कहाँ हो! कहाँ हो!! मेरे सखा! मैं तुम्हारी दीन-हीन दासी हूँ। शीघ्र ही मुझे अपने सान्निध्यका अनुभव कराओ, मुझे दर्शन दो’ ||४०।।

तया कथितमाकर्ण्य मानप्राप्तिं च माधवात् ।
अवमानं च दौरात्म्याद्विस्मयं परमं ययुः ॥ 10.30.041 ॥

परीक्षित्! गोपियाँ भगवान्के चरणचिह्नोंके सहारे उनके जानेका मार्ग ढूँढतीढूँढ़ती वहाँ जा पहुँची। थोड़ी दूरसे ही उन्होंने देखा कि उनकी सखी अपने प्रियतमके वियोगसे दुःखी होकर अचेत हो गयी है ।।४१।।

ततोऽविशन् वनं चन्द्र ज्योत्स्ना यावद्विभाव्यते ।
तमः प्रविष्टमालक्ष्य ततो निववृतुः स्त्रियः ॥ 10.30.042 ॥

जब उन्होंने उसे जगाया, तब उसने भगवान् श्रीकृष्णसे उसे जो प्यार और सम्मान प्राप्त हुआ था, वह उनको सुनाया। उसने यह भी कहाकि ‘मैंने कुटिलतावश उनका अपमान किया, इसीसे वे अन्तर्धान हो गये।’ उसकी बात सुनकर गोपियोंके आश्चर्यकी सीमा न रही ।।४२।।

तन्मनस्कास्तदलापास्तद्विचेष्टास्तदात्मिकाः ।
तद्गुणानेव गायन्त्यो नात्मगाराणि सस्मरुः ॥ 10.30.043 ॥

इसके बाद वनमें जहाँतक चन्द्रदेवकी चाँदनी छिटक रही थी, वहाँतक वे उन्हें ढूँढ़ती हुई गयीं। परन्तु जब उन्होंने देखा कि आगे घना अन्धकार है–घोर जंगल है-हम ढूँढ़ती जायँगी तो श्रीकृष्ण और भी उसके अंदर घुस जायँगे, तब वे उधरसे लौट आयीं ।।४३||

पुनः पुलिनमागत्य कालिन्द्याः कृष्णभावनाः ।
समवेता जगुः कृष्णं तदागमनकाङ्क्षिताः ॥ 10.30.044 ॥

परीक्षित्! गोपियोंका मन श्रीकृष्णमय हो गया था। उनकी वाणीसे कृष्णचर्चाके अतिरिक्त और कोई बात नहीं निकलती थी। उनके शरीरसे केवल श्रीकृष्णके लिये और केवल श्रीकृष्णकी चेष्टाएँ हो रही थीं। कहाँतक कहूँ; उनका रोम-रोम, उनकी आत्मा श्रीकृष्णमय हो रही थी। वे केवल उनके गुणों और लीलाओंका ही गान कर रही थीं और उनमें इतनी तन्मय हो रही थीं कि उन्हें अपने शरीरकी भी सुध नहीं थी, फिर घरकी याद कौन करता? ||४४।।

गोपियोंका रोम-रोम इस बातकी प्रतीक्षा और आकांक्षा कर रहा था कि जल्दी-से-जल्दी श्रीकृष्ण आयें। श्रीकृष्णकी ही भावनामें डूबी हुई गोपियाँ यमुनाजीके पावन पुलिनपररमणरेतीमें लौट आयीं और एक साथ मिलकर श्रीकृष्णके गुणोंका गान करने लगीं ।।४५।।


Spread the Glory of Sri SitaRam!

Shweta Srinet

गरिमा जी संस्कृत भाषा में परास्नातक एवं राष्ट्रीय पात्रता परीक्षा उत्तीर्ण हैं। यह RamCharit.in हेतु 2018 से सतत पूर्णकालिक सदस्य के रूप में कार्य कर रही हैं। धार्मिक ग्रंथों को उनके मूल आध्यात्मिक रूप में सरलता से उपलब्ध कराने का कार्य इसके द्वारा ही निष्पादित होता है।

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