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श्रीमद् भागवत महापुराण दशम स्कन्ध

श्रीमद् भागवत महापुराण स्कन्ध 10 अध्याय 33

Spread the Glory of Sri SitaRam!

33 CHAPTER
श्रीमद्भागवतपुराणम्/स्कन्धः १०/पूर्वार्धः/अध्यायः ३३
महारासवर्णनं; परीक्षित्कृत शंकायाः शुकद्वारा समाधानं च –

श्रीशुक उवाच –
( अनुष्टुप् )
इत्थं भगवतो गोप्यः श्रुत्वा वाचः सुपेशलाः ।
जहुर्विरहजं तापं तदङ्‌गोपचिताशिषः ॥ १ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैं-राजन्! गोपियाँ भगवान्की इस प्रकार प्रेमभरी सुमधुर वाणी सुनकर जो कुछ विरहजन्य ताप शेष था, उससे भी मुक्त हो गयीं और सौन्दर्य-माधर्यनिधि प्राणप्यारेके अंग-संगसे सफल-मनोरथ हो गयीं ||१||

तत्रारभत गोविन्दो रासक्रीडामनुव्रतैः ।
स्त्रीरत्‍नैरन्वितः प्रीतैः अन्योन्याबद्धबाहुभिः ॥ २ ॥

भगवान् श्रीकृष्णकी प्रेयसी और सेविका गोपियाँ एक-दूसरेकी बाँह-में-बाँह डाले खड़ी थीं। उन स्त्रीरत्नोंके साथ यमुनाजीके पुलिनपर भगवानने अपनी रसमयी रासक्रीडा प्रारम्भ की ||२||

रासोत्सवः सम्प्रवृत्तो गोपीमण्डलमण्डितः ।
योगेश्वरेण कृष्णेन तासां मध्ये द्वयोर्द्वयोः ॥ ३ ॥

प्रविष्टेन गृहीतानां कण्ठे स्वनिकटं स्त्रियः ।
यं मन्येरन् नभस्तावद् विमानशतसङ्‌कुलम् ॥ ४ ॥

सम्पूर्ण योगोंके स्वामी भगवान् श्रीकृष्ण दो-दो गोपियों के बीच में प्रकट हो गये और उनके गले में अपना हाथ डाल दिया। इस प्रकार एक गोपी और एक श्रीकृष्ण, यही क्रम था। सभी गोपियाँ ऐसा अनुभव करती थीं कि हमारे प्यारे तो हमारे ही पास हैं। इस प्रकार सहस्र-सहस्र गोपियोंसे शोभायमान भगवान् श्रीकृष्णका दिव्य रासोत्सव प्रारम्भ हुआ। उस समय आकाशमें शत-शत विमानोंकी भीड़ लग गयी। सभी देवता अपनी-अपनी पत्नियोंके साथ वहाँ आ पहँचे। रासोत्सवके दर्शनकी लालसासे, उत्सुकतासे उनका मन उनके वशमें नहीं था ||३-४।।

दिवौकसां सदाराणां औत्सुक्यापहृतात्मनाम् ।
ततो दुन्दुभयो नेदुः निपेतुः पुष्पवृष्टयः ।
जगुर्गन्धर्वपतयः सस्त्रीकास्तद् यशोऽमलम् ॥ ५ ॥

स्वर्गकी दिव्य दुन्दुभियाँ अपने-आप बज उठीं। स्वर्गीय पुष्पोंकी वर्षा होने लगी। गन्धर्वगण अपनी-अपनी पत्नियों के साथ भगवान्के निर्मल यशका गान करने लगे ||५||

वलयानां नूपुराणां किङ्‌किणीनां च योषिताम् ।
सप्रियाणामभूत् शब्दः तुमुलो रासमण्डले ॥ ६ ॥

रासमण्डलमें सभी गोपियाँ अपने प्रियतम श्यामसुन्दरके साथ नृत्य करने लगीं। उनकी कलाइयोंके कंगन, पैरोंके पायजेब और करधनीके छोटे-छोटे घुघरू एक साथ बज उठे। असंख्य गोपियाँ थीं, इसलिये यह मधुर ध्वनि भी बड़े ही जोरकी हो रही थी ।।६।।

तत्रातिशुशुभे ताभिः भगवान् देवकीसुतः ।
मध्ये मणीनां हैमानां महामरकतो यथा ॥ ७ ॥

यमुनाजीकी रमणरेतीपर व्रजसन्दरियों के बीचमें भगवान् श्रीकृष्णकी बड़ी अनोखी शोभा हुई। ऐसा जान पड़ता था, मानो अगणित पीलीपीली दमकती हुई सुवर्ण-मणियों के बीच में ज्योतिर्मयी नीलमणि चमक रही हो ।।७।।

( शार्दूलविक्रीडित )
पादन्यासैर्भुजविधुतिभिः
सस्मितैर्भ्रूविलासैः ।
भज्यन्मध्यैश्चलकुचपटैः
कुण्डलैर्गण्डलोलैः ।
स्विद्यन्मुख्यः कवररसना
ग्रन्थयः कृष्णवध्वो ।
गायन्त्यस्तं तडित इव ता
मेघचक्रे विरेजुः ॥ ८ ॥

नृत्यकेसमय गोपियाँ तरह-तरहसे ठुमुक-ठुमुककर अपने पाँव कभी आगे बढ़ातीं और कभी पीछे हटा लेतीं। कभी गतिके अनुसार धीरे-धीरे पाँव रखतीं, तो कभी बड़े वेगसे; कभी चाककी तरह घूम जातीं, कभी अपने हाथ उठा-उठाकर भाव बतातीं, तो कभी विभिन्न प्रकारसे उन्हें चमकातीं। कभी बड़े कलापूर्ण ढंगसे मुसकरातीं, तो कभी भौंहें मटकातीं। नाचते-नाचते उनकी पतली कमर ऐसी लचक जाती थी, मानो टूट गयी हो। झुकने, बैठने, उठने और चलनेकी फुर्तीसे उनके स्तन हिल रहे थे तथा वस्त्र उड़े जा रहे थे। कानोंके कुण्डल हिलहिलकर कपोलोंपर आ जाते थे। नाचनेके परिश्रमसे उनके मुँहपर पसीनेकी बँदें झलकने लगी थीं। केशोंकी चोटियाँ कुछ ढीली पड़ गयी थीं। नीवीकी गाँठें खुली जा रही थीं। इस प्रकार नटवर नन्दलालकी परम प्रेयसी गोपियाँ उनके साथ गा-गाकर नाच रही थीं। परीक्षित! उस
समय ऐसा जान पड़ता था, मानो बहुत-से श्रीकृष्ण तो साँवले-साँवले मेघ-मण्डल हैं और । उनके बीच-बीचमें चमकती हई गोरी गोपियाँ बिजली हैं। उनकी शोभा असीम थी ।।८।।

( अनुष्टुप् )
उच्चैर्जगुर्नृत्यमाना रक्तकण्ठ्यो रतिप्रियाः ।
कृष्णाभिमर्शमुदिता यद्‍गीतेनेदमावृतम् ॥ ९ ॥

गोपियोंका जीवन भगवान्की रति है, प्रेम है। वे श्रीकृष्णसे सटकर नाचते-नाचते ऊँचे स्वरसे मधुर गान कर रही थीं। श्रीकृष्णका संस्पर्श पा-पाकर और भी आनन्दमग्न हो रही थीं। उनके राग-रागिनियोंसे पूर्ण गानसे यह सारा जगत् अब भी गूंज रहा है ||९||

काचित् समं मुकुन्देन स्वरजातीरमिश्रिताः ।
उन्निन्ये पूजिता तेन प्रीयता साधु साध्विति ।
तदेव ध्रुवमुन्निन्ये तस्यै मानं च बह्वदात् ॥ १० ॥

कोई गोपी भगवानके साथ-उनके स्वरमें स्वर मिलाकर गा रही थी। वह श्रीकृष्णके स्वरकी अपेक्षा और भी ऊँचे स्वरसे राग अलापने लगी। उसके विलक्षण और उत्तम स्वरको सुनकर वे बहुत ही प्रसन्न हुए
और वाह-वाह करके उसकी प्रशंसा करने लगे। उसी रागको एक दूसरी सखीने ध्रुपदमें गाया। उसका भी भगवान्ने बहुत सम्मान किया ||१०||

काचिद् रासपरिश्रान्ता पार्श्वस्थस्य गदाभृतः ।
जग्राह बाहुना स्कन्धं श्लथद्वलयमल्लिका ॥ ११ ॥

एक गोपी नृत्य करते-करते थक गयी। उसकी कलाइयोंसे कंगन और चोटियोंसे बेलाके फूल खिसकने लगे। तब उसने अपने बगलमें ही खड़े मुरलीमनोहर श्यामसुन्दरके कंधेको अपनी बाँहसे कसकर पकड़ लिया ||११||

तत्रैकांसगतं बाहुं कृष्णस्योत्पलसौरभम् ।
चन्दनालिप्तमाघ्राय हृष्टरोमा चुचुम्ब ह ॥ १२ ॥

भगवान् श्रीकृष्णने अपना एक हाथ दूसरी गोपीके कंधेपर रख रखा था। वह स्वभावसे तो कमलके समान सगन्धसे युक्त था ही, उसपर बडा सुगन्धित चन्दनका लेप भी था। उसकी सुगन्धसे वह गोपी पुलकित हो गयी, उसका रोम-रोम खिल उठा। उसने झटसे उसे चूम लिया ।।१२।।

कस्याश्चित् नाट्यविक्षिप्त कुण्डलत्विषमण्डितम् ।
गण्डं गण्डे सन्दधत्याः अदात्ताम्बूलचर्वितम् ॥ १३ ॥

एक गोपी नृत्य कर रही थी। नाचनेके कारण उसके कुण्डल हिल रहे थे, उनकी छटासे उसके कपोल और भी चमक रहे थे। उसने अपने कपोलोंको भगवान् श्रीकृष्णके कपोलसे सटा दिया और भगवान्ने उसके मुँहमें अपना चबाया हुआ पान दे दिया ||१३||

नृत्यती गायती काचित् कूजन् नूपुरमेखला ।
पार्श्वस्थाच्युतहस्ताब्जं श्रान्ताधात् स्तनयोः शिवम् ॥ १४ ॥

कोई गोपी नपर और करधनीके घुघरुओंको झनकारती हुई नाच और गा रही थी। वह जब बहुत थक गयी, तब उसने अपने बगलमें ही खड़े श्यामसुन्दरके शीतल करकमलको अपने दोनों स्तनोंपर रख लिया ।।१४।।

गोप्यो लब्ध्वाच्युतं कान्तं श्रिय एकान्तवल्लभम् ।
गृहीतकण्ठ्यस्तद्दोर्भ्यां गायन्त्यस्तं विजह्रिरे ॥ १५ ॥

परीक्षित! गोपियोंका सौभाग्य लक्ष्मीजीसे भी बढ़कर है। लक्ष्मीजीके परम प्रियतम एकान्तवल्लभ भगवान् श्रीकृष्णको अपने परम प्रियतमके रूपमें पाकर गोपियाँ गान करती हुई उनके साथ विहार करने लगीं। भगवान् श्रीकृष्णने उनके गलोंको अपने भुजपाशमें बाँध रखा था, उस समय गोपियोंकी बड़ी अपूर्व शोभा थी ।।१५।।

( वसंततिलका )
कर्णोत्पलालकविटङ्‌ककपोलघर्म
वक्त्रश्रियो वलयनूपुरघोषवाद्यैः ।
गोप्यः समं भगवता ननृतुः स्वकेश
स्रस्तस्रजो भ्रमरगायकरासगोष्ठ्याम् ॥ १६ ॥

उनके कानोंमें कमलके कुण्डल शोभायमान थे। घुघराली अलकें कपोलोंपर लटक रही थीं। पसीनेकी बूंदें झलकनेसे उनके मुखकी छटा निराली ही हो गयी थी। वे रासमण्डलमें भगवान् श्रीकृष्णके साथ नृत्य कर रही थीं। उनके कंगन और पायजेबोंके बाजे बज रहे थे। भौंरे उनके ताल-सुरमें अपना सुर मिलाकर गा रहे थे। और उनके जूड़ों तथा चोटियोंमें गुंथे हुए फूल गिरते जा रहे थे ।।१६।।

( मिश्र )
एवं परिष्वङ्‌गकराभिमर्श
स्निग्धेक्षणोद्दामविलासहासैः ।
रेमे रमेशो व्रजसुन्दरीभिः
यथार्भकः स्वप्रतिबिम्बविभ्रमः ॥ १७ ॥

परीक्षित्! जैसे नन्हा-सा शिशु निर्विकारभावसे अपनी परछाईंके साथ खेलता है, वैसे ही रमारमण भगवान् श्रीकृष्ण कभी उन्हें अपने हृदयसे लगा लेते, कभी हाथसे उनका अंगस्पर्श करते, कभी प्रेमभरी तिरछी चितवनसे उनकी ओर देखते तो कभी लीलासे उन्मुक्त हँसी हँसने लगते। इस प्रकार उन्होंने व्रजसुन्दरियोंके साथ क्रीडा की, विहार किया ।।१७।।

तदङ्‌गसङ्‌गप्रमुदाकुलेन्द्रियाः
केशान् दूकूलं कुचपट्टिकां वा ।
नाञ्जः प्रतिव्योढुमलं व्रजस्त्रियो
विस्रस्तमालाभरणाः कुरूद्वह ॥ १८ ॥

परीक्षित! भगवानके अंगोंका संस्पर्श प्राप्त करके गोपियोंकी इन्द्रियाँ प्रेम और आनन्दसे विह्वल हो गयीं। उनके केश बिखर गये। फूलोंके हार टूट गये और गहने अस्त-व्यस्त हो गये। वे अपने केश, वस्त्र और कंचुकीको भी पूर्णतया सँभालनेमें असमर्थ हो गयीं ।।१८।।

( अनुष्टुप् )
कृष्णविक्रीडितं वीक्ष्य मुमुहुः खेचरस्त्रियः ।
कामार्दिताः शशाङ्‌कश्च सगणो विस्मितोऽभवत् ॥ १९ ॥

भगवान् श्रीकृष्णकी यह रासक्रीडा देखकर स्वर्गकी देवांगनाएँ भी मिलनकी कामनासे मोहित हो गयीं और समस्त तारों तथा ग्रहोंके साथ चन्द्रमा चकित, विस्मित हो गये ||१९||

कृत्वा तावन्तमात्मानं यावतीर्गोपयोषितः ।
रेमे स भगवान् ताभिः आत्मारामोऽपि लीलया ॥ २० ॥

परीक्षित्! यद्यपि भगवान् आत्माराम हैं उन्हें अपने अतिरिक्त और किसीकी भी आवश्यकता नहीं है—फिर भी उन्होंने जितनी गोपियाँ थीं, उतने ही रूप धारण किये और खेल-खेलमें उनके साथ इस प्रकार विहार किया ||२०||

तासां अतिविहारेण श्रान्तानां वदनानि सः ।
प्रामृजत् करुणः प्रेम्णा शन्तमेनाङ्‌ग पाणिना ॥ २१ ॥

जब बहत देरतक गान और नत्य आदि विहार करनेके कारण गोपियाँ थक गयीं, तब करुणामय भगवान् श्रीकृष्णने बड़े प्रेमसे स्वयं अपने सुखद करकमलोंके द्वारा उनके मुँह पोंछे ||२१||

( वसंततिलका )
गोप्यः स्फुरत्पुरटकुण्डलकुन्तलत्विड्
गण्डश्रिया सुधितहासनिरीक्षणेन ।
मानं दधत्य ऋषभस्य जगुः कृतानि
पुण्यानि तत्कररुहस्पर्शप्रमोदाः ॥ २२ ॥

परीक्षित्! भगवान्के करकमल और नखस्पर्शसे गोपियोंको बड़ा आनन्द हुआ। उन्होंने अपने उन कपोलोंके सौन्दर्यसे, जिनपर सोनेके कुण्डल झिल-मिला रहे थे और घुघराली अलकें लटक रही थीं, तथा उस प्रेमभरी चितवनसे, जो सुधासे भी मीठी मुसकानसे उज्ज्वल हो रही थी, भगवान् श्रीकृष्णका सम्मान किया और प्रभकी परम पवित्र लीलाओंका गान करने लगीं ।।२२।।

ताभिर्युतः श्रममपोहितुमङ्‌गसङ्‌ग
घृष्टस्रजः स कुचकुङ्‌कुमरञ्जितायाः ।
गन्धर्वपालिभिरनुद्रुत आविशद् वा
श्रान्तो गजीभिरिभराडिव भिन्नसेतुः ॥ २३ ॥

इसके बाद जैसे थका हआ गजराज वेदकी मर्यादाका अतिक्रमण करनेवाले भगवान्ने अपनी थकान दूर करनेके लिये गोपियोंके साथ जलक्रीडा करनेके उद्देश्यसे यमुनाके जलमें प्रवेश किया। उस समय भगवानकी वनमाला गोपियोंके अंगकी रगड़से कुछ कुचल-सी गयी थी और उनके वक्षःस्थलकी केसरसे वह रँग भी गयी थी। उसके चारों ओर गुनगुनाते हुए भौंरे उनके पीछे-पीछे इस प्रकार चल रहे थे, मानो गन्धर्वराज उनकी कीर्तिका गान करते हुए पीछे-पीछे चल रहे हों ।।२३।।

सोऽम्भस्यलं युवतिभिः परिषिच्यमानः
प्रेम्णेक्षितः प्रहसतीभिरितस्ततोऽङ्‌ग ।
वैमानिकैः कुसुमवर्षिभिरीड्यमानो
रेमे स्वयं स्वरतिरत्र गजेन्द्रलीलः ॥ २४ ॥

परीक्षित्! यमुनाजलमें गोपियोंने प्रेमभारी चितवनसे भगवान्की ओर देख-देखकर तथा हँस-हँसकर उनपर इधर-उधरसे जलकी खूब बौछारें डालीं। जल उलीच-उलीचकर उन्हें खूब नहलाया। विमानोंपर चढ़े हुए देवता पुष्पोंकी वर्षा करके उनकी स्तुति करने लगे। इस प्रकार यमुनाजलमें स्वयं आत्माराम भगवान् श्रीकृष्णने गजराजके समान जलविहार किया ||२४||

( मिश्र )
ततश्च कृष्णोपवने जलस्थल
प्रसूनगन्धानिलजुष्टदिक्तटे ।
चचार भृङ्‌गप्रमदागणावृतो
यथा मदच्युद् द्विरदः करेणुभिः ॥ २५ ॥

इसके बाद भगवान् श्रीकृष्ण व्रजयुवतियों और भौंरोंकी भीड़से घिरे हुए यमुनातटके उपवनमें गये। वह बड़ा ही रमणीय था। उसके चारों ओर जल और स्थलमें बड़ी सुन्दर सुगन्धवाले फूल खिले हुए थे। उनकी सुवास लेकर मन्द-मन्द वायु चल रही थी। उसमें भगवान् इस प्रकार विचरण करने लगे, जैसे मदमत्त गजराज हथिनियोंके झंडके साथ घूम रहा हो ||२५||

एवं शशाङ्‌कांशुविराजिता निशाः
स सत्यकामोऽनुरताबलागणः ।
सिषेव आत्मन्यवरुद्धसौरतः
सर्वाः शरत्काव्यकथारसाश्रयाः ॥ २६ ॥

परीक्षित्! शरद्की वह रात्रि जिसके रूपमें अनेक रात्रियाँ पुंजीभूत हो गयी थीं, बहुत ही सुन्दर थी। चारों ओर चन्द्रमाकी बड़ी सुन्दर चाँदनी छिटक रही थी। काव्योंमें शरद ऋतुकी जिन रस-सामग्रियोंका वर्णन मिलता है, उन सभीसे वह युक्त थी। उसमें भगवान् श्रीकृष्णने अपनी प्रेयसी गोपियोंके साथ यमनाके पलिन, यमनाजी और उनके उपवनमें विहार किया। यह बात स्मरण रखनी चाहिये कि भगवान् सत्यसंकल्प हैं। यह सब उनके चिन्मय संकल्पकी ही चिन्मयी लीला है। और उन्होंने इस लीलामें कामभावको, उसकी चेष्टाओंको तथा उसकी क्रियाको सर्वथा अपने अधीन कर रखा था, उन्हें अपने-आपमें कैद कर रखा था ।।२६||

श्रीपरीक्षिदुवाच –
( अनुष्टुप् )
संस्थापनाय धर्मस्य प्रशमायेतरस्य च ।
अवतीर्णो हि भगवानंन् अंशेन जगदीश्वरः ॥ २७ ॥

राजा परीक्षित्ने पूछा-भगवन्! भगवान् श्रीकृष्ण सारे जगत्के एकमात्र स्वामी हैं। उन्होंने अपने अंश श्रीबलरामजीके सहित पूर्णरूपमें अवतार ग्रहण किया था। उनके अवतारका उद्देश्य ही यह था कि धर्मकी स्थापना हो और अधर्मका नाश ।।२७।।

स कथं धर्मसेतूनां वक्ता कर्ताभिरक्षिता ।
प्रतीपमाचरद् ब्रह्मन् परदाराभिमर्शनम् ॥ २८ ॥

ब्रह्मन्! वे धर्ममर्यादाके बनानेवाले, उपदेश करनेवाले और रक्षक थे। फिर उन्होंने स्वयं धर्मके विपरीत परस्त्रियोंका स्पर्श कैसे किया ।।२८।।

आप्तकामो यदुपतिः कृतवान् वै जुगुप्सितम् ।
किमभिप्राय एतन्नः संशयं छिन्धि सुव्रत ॥ २९ ॥

मैं मानता हूँ कि भगवान् श्रीकृष्ण पूर्णकाम थे, उन्हें किसी भी वस्तुकी कामना नहीं थी, फिर भी उन्होंने किस अभिप्रायसे यह निन्दनीय कर्म किया? परम ब्रह्मचारी मुनीश्वर! आप कृपा करके मेरा यह सन्देह मिटाइये ||२९||

श्रीशुक उवाच –
धर्मव्यतिक्रमो दृष्ट ईश्वराणां च साहसम् ।
तेजीयसां न दोषाय वह्नेः सर्वभुजो यथा ॥ ३० ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—सूर्य, अग्नि आदि ईश्वर (समर्थ) कभी-कभी धर्मका उल्लंघन और साहसका काम करते देखे जाते हैं। परंतु उन कामोंसे उन तेजस्वी पुरुषोंको कोई दोष नहीं होता। देखो, अग्नि सब कुछ खा जाता है, परन्तु उन पदार्थों के दोषसे लिप्त नहीं होता ||३०||

नैतत्समाचरेज्जातु मनसापि ह्यनीश्वरः ।
विनश्यत्याचरन्मौढ्याद् यथारुद्रोऽब्धिजं विषम् ॥ ३१ ॥

जिन लोगोंमें ऐसी सामर्थ्य नहीं है, उन्हें मनसे भी वैसी बात कभी नहीं सोचनी चाहिये, शरीरसे करना तो दूर रहा। यदि मूर्खतावश कोई ऐसा काम कर बैठे, तो उसका नाश हो जाता है। भगवान् शंकरने हलाहल विष पी लिया था, दूसरा कोई पिये तो वह जलकर भस्म हो जायगा ।।३१।।

ईश्वराणां वचः सत्यं तथैवाचरितं क्वचित् ।
तेषां यत् स्ववचोयुक्तं बुद्धिमांस्तत् समाचरेत् ॥ ३२ ॥

इसलिये इस प्रकारके जो शंकर आदि ईश्वर हैं, अपने अधिकारके अनुसार उनके वचनको ही सत्य मानना और उसीके अनुसार आचरण करना चाहिये। उनके आचरणका अनुकरण तो कहीं-कहीं ही किया जाता है। इसलिये बुद्धिमान् पुरुषको चाहियेकि उनका जो आचरण उनके उपदेशके अनुकूल हो, उसीको जीवनमें उतारे ||३२।।

कुशलाचरितेनैषां इह स्वार्थो न विद्यते ।
विपर्ययेण वानर्थो निरहङ्‌कारिणां प्रभो ॥ ३३ ॥

परीक्षित्! वे सामर्थ्यवान् पुरुष अहंकारहीन होते हैं, शुभकर्म करनेमें उनका कोई सांसारिक स्वार्थ नहीं होता और अशुभ कर्म करने में अनर्थ (नुकसान) नहीं होता। वे स्वार्थ और अनर्थसे ऊपर उठे होते हैं ।।३३।।

किमुताखिलसत्त्वानां तिर्यङ्‌ मर्त्यदिवौकसाम् ।
ईशितुश्चेशितव्यानां कुशलाकुशलान्वयः ॥ ३४ ॥

जब उन्हींके सम्बन्धमें ऐसी बात है तब जो पशु, पक्षी, मनुष्य, देवता आदि समस्त चराचर जीवोंके एकमात्र प्रभु सर्वेश्वर भगवान् हैं, उनके साथ मानवीय शुभ और अशुभका सम्बन्ध कैसे जोड़ा जा सकता है ।।३४।।

( वसंततिलका )
यत्पादपङ्‌कजपरागनिषेवतृप्ता
योगप्रभावविधुताखिलकर्मबन्धाः ।
स्वैरं चरन्ति मुनयोऽपि न नह्यमानाः
तस्येच्छयाऽऽत्तवपुषः कुत एव बन्धः ॥ ३५ ॥

जिनके चरणकमलोंके रजका सेवन करके भक्तजन तृप्त हो जाते हैं, जिनके साथ योग प्राप्त करके उसके प्रभावसे योगीजन अपने सारे कर्मबन्धन काट डालते हैं और विचारशील ज्ञानीजन जिनके तत्त्वका विचार करके तत्स्वरूप हो जाते हैं तथा समस्त कर्म-बन्धनोंसे मुक्त होकर स्वच्छन्द विचरते हैं, वे ही भगवान् अपने भक्तोंकी इच्छासे अपना चिन्मय श्रीविग्रह प्रकट करते हैं; तब भला, उनमें कर्मबन्धनकी कल्पना ही कैसे हो सकती है ||३५||

( अनुष्टुप् )
गोपीनां तत्पतीनां च सर्वेषामेव देहिनाम् ।
योऽन्तश्चरति सोऽध्यक्षः क्रीडनेनेह देहभाक् ॥ ३६ ॥

गोपियोंके, उनके पतियोंके और सम्पूर्ण शरीरधारियोंके अन्तःकरणोंमें जो आत्मारूपसे विराजमान हैं, जो सबके साक्षी और परमपति हैं, वही तो अपना दिव्य-चिन्मय श्रीविग्रह प्रकट करके यह लीला कर रहे हैं ।।३६।।

अनुग्रहाय भूतानां मानुषं देहमास्थितः ।
भजते तादृशीः क्रीड याः श्रुत्वा तत्परो भवेत् ॥ ३७ ॥

भगवान् जीवोंपर कृपा करनेके लिये ही अपनेको मनुष्यरूपमें प्रकट करते हैं और ऐसी लीलाएँ करते हैं, जिन्हें सुनकर जीव भगवत्परायण हो जायँ ||३७।।

नासूयन् खलु कृष्णाय मोहितास्तस्य मायया ।
मन्यमानाः स्वपार्श्वस्थान् स्वान् स्वान् दारान् व्रजौकसः ॥ ३८ ॥

व्रजवासी गोपोंने भगवान् श्रीकृष्णमें तनिक भी दोषबुद्धि नहीं की। वे उनकी योगमायासे मोहित होकर ऐसा समझ रहे थे कि हमारी पत्नियाँ हमारे पास ही हैं ।।३८।।

ब्रह्मरात्र उपावृत्ते वासुदेवानुमोदिताः ।
अनिच्छन्त्यो ययुर्गोप्यः स्वगृहान् भगवत्प्रियाः ॥ ३९ ॥

ब्रह्माकी रात्रिके बराबर वह रात्रि बीत गयी। ब्राह्ममुहूर्त आया। यद्यपि गोपियोंकी इच्छा अपने घर लौटनेकी नहीं थी, फिर भी भगवान् श्रीकृष्णकी आज्ञासे वे अपने-अपने घर चली गयीं। क्योंकि वे अपनी प्रत्येक चेष्टासे, प्रत्येक संकल्पसे केवल भगवान्को ही प्रसन्न करना चाहती थीं ।।३९||

( वसंततिलका )
विक्रीडितं व्रजवधूभिरिदं च विष्णोः
श्रद्धान्वितोऽनुश्रृणुयादथ वर्णयेद्यः ।
भक्तिं परां भगवति प्रतिलभ्य कामं
हृद्रोगमाश्वपहिनोत्यचिरेण धीरः ॥ ४० ॥

परीक्षित्! जो धीर पुरुष व्रजयुवतियोंके साथ भगवान् श्रीकृष्णके इस चिन्मय रासविलासका श्रद्धाके साथ बार-बार श्रवण और वर्णन करता है, उसे भगवानके चरणोंमें परा भक्तिकी प्राप्ति होती है और वह बहुत ही शीघ्र अपने हृदयके रोग-कामविकारसे छुटकारा पा जाता है। उसका कामभाव सर्वदाके लिये नष्ट हो जाता है ।।४०।।

इति श्रीमद्‍भागवते महापुराणे पारमहंस्यां
संहितायां दशमस्कन्धे पूर्वार्धे रासक्रीडावर्णनं नाम त्रयोत्रिंशोऽध्यायः ॥ ३३ ॥
हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥


Spread the Glory of Sri SitaRam!

Shweta Srinet

गरिमा जी संस्कृत भाषा में परास्नातक एवं राष्ट्रीय पात्रता परीक्षा उत्तीर्ण हैं। यह RamCharit.in हेतु 2018 से सतत पूर्णकालिक सदस्य के रूप में कार्य कर रही हैं। धार्मिक ग्रंथों को उनके मूल आध्यात्मिक रूप में सरलता से उपलब्ध कराने का कार्य इसके द्वारा ही निष्पादित होता है।

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