श्रीमद् भागवत महापुराण स्कन्ध 10 अध्याय 34
34 CHAPTER
श्रीमद्भागवतपुराणम्/स्कन्धः १०/पूर्वार्धः/अध्यायः ३४
अजगरमुखात् अनन्दस्य मोचनम्,अजगरस्य पूर्वविद्याधरप्राप्ति; शंखचूड वधः
श्रीशुक उवाच
एकदा देवयात्रायां गोपाला जातकौतुकाः
अनोभिरनडुद्युक्तैः प्रययुस्तेऽम्बिकावनम् १
श्रीशुकदेवजी कहते हैं-परीक्षित्! एक बार नन्दबाबा आदि गोपोंने शिवरात्रिके अवसरपर बड़ी उत्सुकता, कौतूहल और आनन्दसे भरकर बैलोंसे जुती हुई गाड़ियोंपर सवार होकर अम्बिकावनकी यात्रा की ।।१।।
तत्र स्नात्वा सरस्वत्यां देवं पशुपतिं विभुम्
आनर्चुरर्हणैर्भक्त्या देवीं च णृपतेऽम्बिकाम् २
राजन्! वहाँ उन लोगोंने सरस्वती नदीमें स्नान किया और सर्वान्तर्यामी पशुपति भगवान् शंकरजीका तथा भगवती अम्बिकाजीका बड़ी भक्तिसेअनेक प्रकारकी सामग्रियोंके द्वारा पूजन किया ।।२।।
गावो हिरण्यं वासांसि मधु मध्वन्नमादृताः
ब्राह्मणेभ्यो ददुः सर्वे देवो नः प्रीयतामिति ३
वहाँ उन्होंने आदरपूर्वक गौएँ, सोना, वस्त्र, मधु और मधुर अन्न ब्राह्मणोंको दिये तथा उनको खिलाया-पिलाया। वे केवल यही चाहते थे कि इनसे देवाधिदेव भगवान् शंकर हमपर प्रसन्न हों ||३||
ऊषुः सरस्वतीतीरे जलं प्राश्य यतव्रताः
रजनीं तां महाभागा नन्दसुनन्दकादयः ४
उस दिन परम भाग्यवान् नन्द-सुनन्द आदि गोपोंने उपवास कर रखा था, इसलिये वे लोग केवल जल पीकर रातके समय सरस्वती नदीके तटपर ही बेखटके सो गये ।।४।।
कश्चिन्महानहिस्तस्मिन्विपिनेऽतिबुभुक्षितः
यदृच्छयागतो नन्दं शयानमुरगोऽग्रसीत् ५
उस अम्बिकावनमें एक बड़ा भारी अजगर रहता था। उस दिन वह भूखा भी बहुत था। दैववश वह उधर ही आ निकला और उसने सोये हुए नन्दजीको पकड़ लिया ।।५।।
स चुक्रोशाहिना ग्रस्तः कृष्ण कृष्ण महानयम्
सर्पो मां ग्रसते तात प्रपन्नं परिमोचय ६
अजगरके पकड़ लेनेपर नन्दरायजी चिल्लाने लगे—’बेटा कृष्ण! कृष्ण! दौड़ो, दौड़ो। देखो बेटा! यह अजगर मुझे निगल रहा है। मैं तुम्हारी शरणमें हूँ। जल्दी मुझे इस संकटसे बचाओ’ ||६||
तस्य चाक्रन्दितं श्रुत्वा गोपालाः सहसोत्थिताः
ग्रस्तं च दृष्ट्वा विभ्रान्ताः सर्पं विव्यधुरुल्मुकैः ७
नन्दबाबाका चिल्लाना सुनकर सब-के-सब गोप एकाएक उठ खड़े हुए और उन्हें अजगरके मुँहमें देखकर घबड़ा गये। अब वे लुकाठियों (अधजली लकड़ियों) से उस अजगरको मारने लगे ।।७।।
अलातैर्दह्यमानोऽपि नामुञ्चत्तमुरङ्गमः
तमस्पृशत्पदाभ्येत्य भगवान्सात्वतां पतिः ८
किन्तु लुकाठियोंसे मारे जाने और जलनेपर भी अजगरने नन्दबाबाको छोड़ा नहीं। इतनेमें ही भक्तवत्सल भगवान् श्रीकृष्णने वहाँ पहुँचकर अपने चरणोंसे उस अजगरको छू दिया ।।८।।
स वै भगवतः श्रीमत्पादस्पर्शहताशुभः
भेजे सर्पवपुर्हित्वा रूपं विद्याधरार्चितम् ९
भगवान्के श्रीचरणोंका स्पर्श होते ही अजगरके सारे अशुभ भस्म हो गये और वह उसी क्षण अजगरका शरीर छोड़कर विद्याधरार्चित सर्वांग-सुन्दर रूपवान् बन गया ।।९।।
तमपृच्छद्धृषीकेशः प्रणतं समवस्थितम्
दीप्यमानेन वपुषा पुरुषं हेममालिनम् १०
उस पुरुषके शरीरसे दिव्य ज्योति निकल रही थी। वह सोनेके हार पहने हुए था। जब वह प्रणाम करनेके बाद हाथ जोड़कर भगवान्के सामने खड़ा हो गया, तब उन्होंने उससे पूछा – ||१०||
को भवान्परया लक्ष्म्या रोचतेऽद्भुतदर्शनः
कथं जुगुप्सितामेतां गतिं वा प्रापितोऽवशः ११
‘तुम कौन हो? तुम्हारे अंग-अंगसे सुन्दरता फूटी पड़ती है। तुम देखनेमें बड़े अद्भुत जान पड़ते हो। तुम्हें यह अत्यन्त निन्दनीय अजगरयोनि क्यों प्राप्त हुई थी? अवश्य ही तुम्हें विवश होकर इसमें आना पड़ा होगा’ ||११||
सर्प उवाच
अहं विद्याधरः कश्चित्सुदर्शन इति श्रुतः
श्रिया स्वरूपसम्पत्त्या विमानेनाचरन्दिशः १२
अजगरके शरीरसे निकला हआ पुरुष बोला-भगवन्! मैं पहले एक विद्याधर था। मेरा नाम था सुदर्शन। मेरे पास सौन्दर्य तो था ही, लक्ष्मी भी बहत थी। इससे मैं विमानपर चढ़कर यहाँ-से-वहाँ घूमता रहता था ।।१२।।
ऋषीन्विरूपाङ्गिरसः प्राहसं रूपदर्पितः
तैरिमां प्रापितो योनिं प्रलब्धैः स्वेन पाप्मना १३
एक दिन मैंने अंगिरा गोत्रके कुरूप ऋषियोंको देखा। अपने सौन्दर्यके घमंडसे मैंने उनकी हँसी उड़ायी। मेरे इस अपराधसे कुपित होकर उन लोगोंने मुझे अजगरयोनिमें जानेका शाप दे दिया। यह मेरे पापोंका ही फल था ।।१३।।
शापो मेऽनुग्रहायैव कृतस्तैः करुणात्मभिः
यदहं लोकगुरुणा पदा स्पृष्टो हताशुभः १४
उन कृपालु ऋषियोंने अनुग्रहके लिये ही मुझे शाप दिया था। क्योंकि यह उसीका प्रभाव है कि आज चराचरके गुरु स्वयं आपने अपने चरणकमलोंसे मेरा स्पर्श किया है, इससे मेरे सारे अशुभ नष्ट हो गये ||१४||
तं त्वाहं भवभीतानां प्रपन्नानां भयापहम्
आपृच्छे शापनिर्मुक्तः पादस्पर्शादमीवहन् १५
समस्त पापोंका नाश करनेवाले प्रभो! जो लोग जन्म-मृत्युरूप संसारसे भयभीत होकर आपके चरणोंकी शरण ग्रहण करते हैं, उन्हें आप समस्त भयोंसे मुक्त कर देते हैं। अब मैं आपके श्रीचरणोंके स्पर्शसे शापसे छूट गया हूँ और अपने लोकमें जानेकी अनुमति चाहता हूँ ||१५||
प्रपन्नोऽस्मि महायोगिन्महापुरुष सत्पते
अनुजानीहि मां देव सर्वलोकेश्वरेश्वर १६
भक्तवत्सल! महायोगेश्वर पुरुषोत्तम! मैं आपकी शरणमें हूँ। इन्द्रादि समस्त लोकेश्वरोंके परमेश्वर! स्वयंप्रकाश परमात्मन्! मुझे आज्ञा दीजिये ।।१६।।
ब्रह्मदण्डाद्विमुक्तोऽहं सद्यस्तेऽच्युत दर्शनात्
यन्नाम गृह्णन्नखिलान्श्रोतॄनात्मानमेव च
सद्यः पुनाति किं भूयस्तस्य स्पृष्टः पदा हि ते १७
अपने स्वरूपमें नित्य-निरन्तर एकरस रहनेवाले अच्युत! आपके दर्शनमात्रसे मैं ब्राह्मणोंके शापसे मुक्त हो गया, यह कोई आश्चर्यकी बात नहीं है; क्योंकि जो पुरुष आपके नामोंका उच्चारण करता है, वह अपने-आपको और समस्त श्रोताओंको भी तुरंत पवित्र कर देता है। फिर मुझे तो आपने स्वयं अपने चरणकमलोंसे स्पर्श किया है। तब भला, मेरी मुक्तिमें क्या सन्देह हो सकता है? ||१७||
इत्यनुज्ञाप्य दाशार्हं परिक्रम्याभिवन्द्य च
सुदर्शनो दिवं यातः कृच्छ्रान्नन्दश्च मोचितः १८
इस प्रकार सुदर्शनने भगवान् श्रीकृष्णसे विनती की, परिक्रमा की और प्रणाम किया। फिर उनसे आज्ञा लेकर वह अपने लोकमें चला गया और नन्दबाबा इस भारी संकटसे छुट गये ।।१८।।
निशाम्य कृष्णस्य तदात्मवैभवं
व्रजौकसो विस्मितचेतसस्ततः
समाप्य तस्मिन्नियमं पुनर्व्रजं
नृपाययुस्तत्कथयन्त आदृताः १९
राजन्! जब व्रजवासियोंने भगवान् श्रीकृष्णका यह अद्भुत प्रभाव देखा, तब उन्हें बड़ा विस्मय हुआ। उन लोगोंने उस क्षेत्रमें जो नियम ले रखे थे, उनको पूर्ण करके वे बड़े आदर और प्रेमसे श्रीकृष्णकी उस लीलाका गान करते हुए पुनः व्रजमें लौट आये ।।१९।।
कदाचिदथ गोविन्दो रामश्चाद्भुतविक्रमः
विजह्रतुर्वने रात्र्यां मध्यगौ व्रजयोषिताम् २०
एक दिनकी बात है, अलौकिक कर्म करनेवाले भगवान् श्रीकृष्ण और बलरामजी रात्रिके समय वनमें गोपियों के साथ विहार कर रहे थे ।।२०।।
उपगीयमानौ ललितं स्त्रीजनैर्बद्धसौहृदैः
स्वलङ्कृतानुलिप्ताङ्गौ स्रग्विनौ विरजोऽम्बरौ २१
भगवान् श्रीकृष्ण निर्मल पीताम्बर और बलरामजी नीलाम्बर धारण किये हुए थे। दोनोंके गलेमें फूलोंके सुन्दर-सुन्दर हार लटक रहे थे तथा शरीरमें अंगराग, सुगन्धित चन्दन लगा हुआ था और सुन्दर-सुन्दर आभूषण पहने हुए थे। गोपियाँ बड़े प्रेम और आनन्दसे ललित स्वरमें उन्हींके गुणोंका गान कर रही थीं ।।२१।।
निशामुखं मानयन्तावुदितोडुपतारकम्
मल्लिकागन्धमत्तालि जुष्टं कुमुदवायुना २२
जगतुः सर्वभूतानां मनःश्रवणमङ्गलम्
तौ कल्पयन्तौ युगपत्स्वरमण्डलमूर्च्छितम् २३
अभी-अभी सायंकाल हुआ था। आकाशमें तारे उग आये थे और चाँदनी छिटक रही थी। बेलाके सुन्दर गन्धसे मतवाले होकर भौंरे इधर-उधर गनगना रहे थे तथा जलाशयमें खिली हुई कुमुदिनीकी सुगन्ध लेकर वायु मन्द-मन्द चल रही थी। उस समय उनका सम्मान करते हुए भगवान् श्रीकृष्ण और बलरामजीने एक ही साथ मिलकर राग अलापा। उनका राग आरोह-अवरोह स्वरोंके चढ़ाव-उतारसे बहुत ही सुन्दर लग रहा था। वह जगत्के समस्त प्राणियोंके मन और कानोंको आनन्दसे भर देनेवाला था ।।२२-२३||
गोप्यस्तद्गीतमाकर्ण्य मूर्च्छिता नाविदन्नृप
स्रंसद्दुकूलमात्मानं स्रस्तकेशस्रजं ततः २४
उनका वह गान सुनकर गोपियाँ मोहित हो गयीं। परीक्षित्! उन्हें अपने शरीरकी भी सुधि नहीं रही कि वे उसपरसे खिसकते हुए वस्त्रों और चोटियोंसे बिखरते हुए पुष्पोंको सँभाल सकें ।।२४।।
एवं विक्रीडतोः स्वैरं गायतोः सम्प्रमत्तवत्
शङ्खचूड इति ख्यातो धनदानुचरोऽभ्यगात् २५
जिस समय बलराम और श्याम दोनों भाई इस प्रकार स्वच्छन्द विहार कर रहे थे और उन्मत्तकी भाँति गा रहे थे, उसी समय वहाँ शंखचूड नामक एक यक्ष आया। वह कुबेरका अनुचर था ।।२५।।
तयोर्निरीक्षतो राजंस्तन्नाथं प्रमदाजनम्
क्रोशन्तं कालयामास दिश्युदीच्यामशङ्कितः २६
परीक्षित्! दोनों भाइयोंके देखते-देखते वह उन गोपियोंको लेकर बेखटके उत्तरकी ओर भाग चला। जिनके एकमात्र स्वामी भगवान् श्रीकृष्ण ही हैं, वे गोपियाँ उस समय रो-रोकर चिल्लाने लगीं ।।२६।।
क्रोशन्तं कृष्ण रामेति विलोक्य स्वपरिग्रहम्
यथा गा दस्युना ग्रस्ता भ्रातरावन्वधावताम् २७
दोनों भाइयोंने देखा कि जैसे कोई डाक गौओंको लूट ले जाय, वैसे ही यह यक्ष हमारी प्रेयसियोंको लिये जा रहा है और वे ‘हा कृष्ण! हा राम!’ पुकारकर रो-पीट रही हैं। उसी समय दोनों भाई उसकी ओर दौड़ पड़े ।।२७।।
मा भैष्टेत्यभयारावौ शालहस्तौ तरस्विनौ
आसेदतुस्तं तरसा त्वरितं गुह्यकाधमम् २८
‘डरो मत, डरो मत’ इस प्रकार अभयवाणी कहते हुए हाथमें शालका वृक्ष लेकर बड़े वेगसे क्षणभरमें ही उस नीच यक्षके पास पहुँच गये ।।२८।।
स वीक्ष्य तावनुप्राप्तौ कालमृत्यू इवोद्विजन्
विसृज्य स्त्रीजनं मूढः प्राद्रवज्जीवितेच्छया २९
यक्षने देखा कि काल और मृत्युके समान ये दोनों भाई मेरे पास आ पहँचे। तब वह मूढ़ घबड़ा गया। उसने गोपियोंको वहीं छोड़ दिया, स्वयं प्राण बचानेके लिये भागा ||२९||
तमन्वधावद्गोविन्दो यत्र यत्र स धावति
जिहीर्षुस्तच्छिरोरत्नं तस्थौ रक्षन्स्त्रियो बलः ३०
तब स्त्रियोंकी रक्षा करनेके लिये बलरामजी तो वहीं खड़े रह गये, परन्तु भगवान् श्रीकृष्ण जहाँ-जहाँ वह भागकर गया, उसके पीछे-पीछे दौड़ते गये। वे चाहते थे कि उसके सिरकी चूड़ामणि निकाल लें ।।३०।।
अविदूर इवाभ्येत्य शिरस्तस्य दुरात्मनः
जहार मुष्टिनैवाङ्ग सहचूडमणिं विभुः ३१
कुछ ही दूर जानेपर भगवान्ने उसे पकड़ लिया और उस दुष्टके सिरपर कसकर एक चूसा जमाया और चूड़ामणिके साथ उसका सिर भी धड़से अलग कर दिया ।।३१।।
शङ्खचूडं निहत्यैवं मणिमादाय भास्वरम्
अग्रजायाददात्प्रीत्या पश्यन्तीनां च योषिताम् ३२
इस प्रकार भगवान् श्रीकृष्ण शंखचूडको मारकर और वह चमकीली मणि लेकर लौट आये तथा सब गोपियोंके सामने ही उन्होंने बड़े प्रेमसे वह मणि बड़े भाई बलरामजीको दे दी ||३२||
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां दशमस्कन्धे पूर्वार्धे शङ्खचूडवधो नाम चतुस्त्रिंशोऽध्यायः