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श्रीमद् भागवत महापुराण दशम स्कन्ध

श्रीमद् भागवत महापुराण स्कन्ध 10 अध्याय 36

Spread the Glory of Sri SitaRam!

36 CHAPTER
श्रीमद्भागवतपुराणम्/स्कन्धः १०/पूर्वार्धः/अध्यायः ३६
अरिष्टासुरवधः, कंसस्य अक्रूरं प्रति नन्दगोकुल गमनायादेशश्च –

श्री शुक उवाच –
( अनुष्टुप् )
अथ तर्ह्यागतो गोष्ठं अरिष्टो वृषभासुरः ।
महीं महाककुत्कायः कम्पयन् खुरविक्षताम् ॥ १ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैं-परीक्षित्! जिस समय भगवान् श्रीकृष्ण व्रजमें प्रवेश कर रहे थे और वहाँ आनन्दोत्सवकी धूम मची हुई थी, उसी समय अरिष्टासुर नामका एक दैत्य बैलका रूप धारण करके आया। उसका ककुद (कंधेका पट्टा) या थुआ और डील-डौल दोनों ही बहुत बड़े-बड़े थे। वह अपने खुरोंको इतने जोरसे पटक रहा था कि उससे धरती काँप रही थी ।।१।।

रम्भमाणः खरतरं पदा च विलिखन् महीम् ।
उद्यम्य पुच्छं वप्राणि विषाणाग्रेण चोद्धरन् ॥ २ ॥

वह बड़े जोरसे गर्ज रहा था और पैरोंसे धूल उछालता जाता था। पूँछ खड़ी किये हए था और सींगोंसे चहारदीवारी, खेतोंकी मेंड़ आदि तोड़ता जाता था ।।२।।

किञ्चित्किञ्चित् शकृन् मुञ्चन् मूत्रयन् स्तब्धलोचनः ।
यस्य निर्ह्रादितेनाङ्‌ग निष्ठुरेण गवां नृणाम् ॥ ३ ॥

पतन्त्यकालतो गर्भाः स्रवन्ति स्म भयेन वै ।
निर्विशन्ति घना यस्य ककुद्यचलशङ्‌कया ॥ ४ ॥

बीच-बीचमें बार-बार मूतता और गोबर छोड़ता जाता था। आँखें फाड़कर इधर-उधर दौड़ रहा था। परीक्षित! उसके जोरसे हँकडनेसे—निष्ठर गर्जनासे भयवश स्त्रियों और गौओंके तीन-चार महीनेके गर्भ स्रवित हो जाते थे और पाँच-छ: महीनेके गिर जाते थे। और तो क्या कहूँ, उसके ककुद्को पर्वत समझकर बादल उसपर आकर ठहर जाते थे ।।३-४।।

तं तीक्ष्णशृङ्‌गमुद्वीक्ष्य गोप्यो गोपाश्च तत्रसुः ।
पशवो दुद्रुवुर्भीता राजन् संत्यज्य गोकुलम् ॥ ५ ॥

परीक्षित्! उस तीखे सींगवाले बैलको देखकर गोपियाँ और गोप सभी भयभीत हो गये। पशु तो इतने डर गये कि अपने रहनेका स्थान छोड़कर भाग ही गये ।।५।।

कृष्ण कृष्णेति ते सर्वे गोविन्दं शरणं ययुः ।
भगवानपि तद्वीक्ष्य गोकुलं भयविद्रुतम् ॥ ६ ॥

उस समय सभी व्रजवासी ‘श्रीकृष्ण! श्रीकृष्ण! हमें इस भयसे बचाओ’ इस प्रकार पुकारते हुए भगवान् श्रीकृष्णकी शरणमें आये। भगवान्ने देखा कि हमारा गोकुल अत्यन्त भयातुर हो रहा है ।।६।।

मा भैष्टेति गिराश्वास्य वृषासुरमुपाह्वयत् ।
गोपालैः पशुभिर्मन्द त्रासितैः किमसत्तम ॥ ७ ॥

तब उन्होंने ‘डरनेकी कोई बात नहीं है’ यह कहकर सबको ढाढ़स बंधाया और फिर वृषासुरको ललकारा, ‘अरे मूर्ख! महादुष्ट! तू इन गौओं और ग्वालोंको क्यों डरा रहा है? इससे क्या होगा ||७||

बलदर्पहाहं दुष्टानां त्वद्विधानां दुरात्मनाम् ।
इत्यास्फोट्याच्युतोऽरिष्टं तलशब्देन कोपयन् ॥ ८ ॥

सख्युरंसे भुजाभोगं प्रसार्यावस्थितो हरिः ।
सोऽप्येवं कोपितोऽरिष्टः खुरेणावनिमुल्लिखन् ।
उद्यत्पुच्छभ्रमन्मेघः क्रुद्धः कृष्णमुपाद्रवत् ॥ ९ ॥

देख, तुझ-जैसे दुरात्मा दुष्टोंके बलका घमंड चूर-चूर कर देनेवाला यह मैं हूँ।’ इस प्रकार ललकारकर भगवानने ताल ठोंकी और उसे क्रोधित करनेके लिये वे अपने एक सखाके गलेमें बाँह डालकर खड़े हो गये। भगवान् श्रीकृष्णकी इस चुनौतीसे वह क्रोधके मारे तिलमिला उठा और अपने खुरोंसे बड़े जोरसे धरती खोदता हुआ श्रीकृष्णकी ओर झपटा। उस समय उसकी उठायी हुई पूँछके धक्केसे आकाशके बादल तितर-बितर होने लगे ।।८-९।।

अग्रन्यस्तविषाणाग्रः स्तब्धासृग् लोचनोऽच्युतम् ।
कटाक्षिप्याद्रवत् तूर्ण् इन्द्रमुक्तोऽशनिर्यथा ॥ १० ॥

उसने अपने तीखे सींग आगे कर लिये। लाल-लाल आँखोंसे टकटकी लगाकर श्रीकृष्णकी ओर टेढ़ी नजरसे देखता हुआ वह उनपर इतने वेगसे टूटा, मानो इन्द्रके हाथसे छोड़ा हुआ वज्र हो ।।१०।।

गृहीत्वा शृङ्‌गयोस्तं वा अष्टादश पदानि सः ।
प्रत्यपोवाह भगवान् गजः प्रतिगजं यथा ॥ ११ ॥

भगवान् श्रीकृष्णने अपने दोनों हाथोंसे उसके दोनों सींग पकड़ लिये और जैसे एक हाथी अपनेसे भिड़नेवाले दूसरे हाथीको पीछे हटा देता है, वैसे ही उन्होंने उसे अठारह पग पीछे ठेलकर गिरा दिया ।।११।।

सोऽपविद्धो भगवता पुनरुत्थाय सत्वरम् ।
आपतत् स्विन्नसर्वाङ्‌गो निःश्वसन् क्रोधमूर्च्छितः ॥ १२ ॥

भगवानके इस प्रकार ठेल देनेपर वह फिर तुरंत ही उठ खड़ा हुआ और क्रोधसे अचेत होकर लंबी-लंबी साँस छोड़ता हुआ फिर उनपर झपटा। उससमय उसका सारा शरीर पसीनेसे लथपथ हो रहा था ।।१२।।

( मिश्र )
तं आपतन्तं स निगृह्य शृङ्‌गयोः
पदा समाक्रम्य निपात्य भूतले ।
निष्पीडयामास यथाऽऽर्द्रमम्बरं
कृत्वा विषाणेन जघान सोऽपतत् ॥ १३ ॥

भगवान्ने जब देखा कि वह अब मुझपर प्रहार करना ही चाहता है, तब उन्होंने उसके सींग पकड़ लिये और उसे लात मारकर जमीनपर गिरा दिया और फिर पैरोंसे दबाकर इस प्रकार उसका कचूमर निकाला, जैसे कोई गीला कपड़ा निचोड़ रहा हो। इसके बाद उसीका सींग उखाड़कर उसको खूब पीटा, जिससे वह पड़ा ही रह गया ।।१३।।

असृग् वमन् मूत्रशकृत् समुत्सृजन्
क्षिपंश्च पादाननवस्थितेक्षणः ।
जगाम कृच्छ्रं निर्‌ऋतेरथ क्षयं
पुष्पैः किरन्तो हरिमीडिरे सुराः ॥ १४ ॥

परीक्षित्! इस प्रकार वह दैत्य मुँहसे खून उगलता और गोबर-मूत करता हुआ पैर पटकने लगा। उसकी आँखें उलट गयीं और उसने बड़े कष्टके साथ प्राण छोड़े। अब देवतालोग भगवान्पर फूल बरसा-बरसाकर उनकी स्तुति करने लगे ||१४||

( अनुष्टुप् )
एवं कुकुद्मिनं हत्वा स्तूयमानः द्विजातिभिः ।
विवेश गोष्ठं सबलो गोपीनां नयनोत्सवः ॥ १५ ॥

जब भगवान् श्रीकृष्णने इस प्रकार बैलके रूपमें आने-वाले अरिष्टासुरको मार डाला, तब सभी गोप उनकी प्रशंसा करने लगे। उन्होंने बलरामजीके साथ गोष्ठमें प्रवेश किया और उन्हें देख-देखकर गोपियोंके नयन-मन आनन्दसे भर गये ।।१५।।

अरिष्टे निहते दैत्ये कृष्णेनाद्‍भुतकर्मणा ।
कंसायाथाह भगवान् नारदो देवदर्शनः ॥ १६ ॥

परीक्षित्! भगवान्की लीला अत्यन्त अद्भुत है। इधर जब उन्होंने अरिष्टासुरको मार डाला, तब भगवन्मय नारद, जो लोगोंको शीघ्र-से-शीघ्र भगवान्का दर्शन कराते रहते हैं, कंसके पास पहुंचे। उन्होंने उससे कहा- ||१६||

यशोदायाः सुतां कन्यां देवक्याः कृष्णमेव च ।
रामं च रोहिणीपुत्रं वसुदेवेन बिभ्यता ॥ १७ ॥

न्यस्तौ स्वमित्रे नन्दे वै याभ्यां ते पुरुषा हताः ।
निशम्य तद्‍भोजपतिः कोपात् प्रचलितेन्द्रियः ॥ १८ ॥

‘कंस! जो कन्या तुम्हारे हाथसे छूटकर आकाशमें चली गयी, वह तो यशोदाकी पुत्री थी। और व्रजमें जो श्रीकृष्ण हैं, वे देवकीके पुत्र हैं। वहाँ जो बलरामजी हैं, वे रोहिणीके पुत्र हैं। वसुदेवने तुमसे डरकर अपने मित्र नन्दके पासउन दोनोंको रख दिया है। उन्होंने ही तुम्हारे अनुचर दैत्योंका वध किया है।’ यह बात सुनते ही कंसकी एक-एक इन्द्रिय क्रोधके मारे काँप उठी ।।१७-१८।।

निशातमसिमादत्त वसुदेवजिघांसया
निवारितो नारदेन तत्सुतौ मृत्युमात्मनः ॥ १९ ॥

ज्ञात्वा लोहमयैः पाशैः बबन्ध सह भार्यया ।
प्रतियाते तु देवर्षौ कंस आभाष्य केशिनम् ॥ २० ॥

प्रेषयामास हन्येतां भवता रामकेशवौ ।
ततो मुष्टिकचाणूर शलतोशलकादिकान् ॥ २१ ॥

अमात्यान् हस्तिपांश्चैव समाहूयाह भोजराट् ।
भो भो निशम्यतामेतद् वीरचाणूरमुष्टिकौ ॥ २२ ॥

उसने वसुदेवजीको मार डालनेके लिये तुरंत तीखी तलवार उठा ली, परन्तु नारदजीने रोक दिया। जब कंसको यह मालूम हो गया कि वसुदेवके लड़के ही हमारी मृत्युके कारण हैं, तब उसने देवकी और वसुदेव दोनों ही पति-पत्नीको हथकड़ी और बेड़ीसे जकड़कर फिर जेलमें डाल दिया। जब देवर्षि नारद चले गये, तब कंसने केशीको बुलाया और कहा–’तुम व्रजमें जाकर बलराम और कृष्णको मार डालो।’ वह चला गया। इसके बाद कंसने मष्टिक, चाणूर, शल तोशल आदि पहलवानों, मन्त्रियों और महावतोंको बुलाकर कहा—’वीरवर चाणूर और मुष्टिक! तुमलोग ध्यानपूर्वक मेरी बात सुनो ||१९-२२||

नन्दव्रजे किलासाते सुतावानकदुन्दुभेः ।
रामकृष्णौ ततो मह्यं मृत्युः किल निदर्शितः ॥ २३ ॥

वसुदेवके दो पुत्र बलराम और कृष्ण नन्दके व्रजमें रहते हैं। उन्हींके हाथसे मेरी मृत्यु बतलायी जाती है ||२३||

भवद्‍भ्यामिह सम्प्राप्तौ हन्येतां मल्ललीलया ।
मञ्चाः क्रियन्तां विविधा मल्लरङ्‌गपरिश्रिताः ।
पौरा जानपदाः सर्वे पश्यन्तु स्वैरसंयुगम् ॥ २४ ॥

अतः जब वे यहाँ आवें, तब तुमलोग उन्हें कुश्ती लड़ने-लड़ानेके बहाने मार डालना। अब तुमलोग भाँति-भाँतिके मंच बनाओ और उन्हें अखाड़ेके चारों ओर गोल-गोल सजा दो। उनपर बैठकर नगरवासी और देशकी दूसरी प्रजा इस स्वच्छन्द दंगलको देखें ||२४||

महामात्र त्वया भद्र रङ्‌गद्वार्युपनीयताम् ।
द्विपः कुवलयापीडो जहि तेन ममाहितौ ॥ २५ ॥

महावत! तुम बड़े चतुर हो। देखो भाई! तुम दंगलके घेरेके फाटकपर ही अपने कुवलयापीड हाथीको रखना
और जब मेरे शत्रु उधरसे निकलें, तब उसीके द्वारा उन्हें मरवा डालना ||२५||

आरभ्यतां धनुर्यागः चतुर्दश्यां यथाविधि ।
विशसन्तु पशून् मेध्यान् भूतराजाय मीढुषे ॥ २६ ॥

इसी चतुर्दशीको विधिपूर्वक धनुषयज्ञ प्रारम्भ कर दो और उसकी सफलताके लिये वरदानी भूतनाथ भैरवको बहुत-से पवित्र पशुओंकी बलि चढ़ाओ ।।२६||

इत्याज्ञाप्यार्थतन्त्रज्ञ आहूय यदुपुङ्‌गवम् ।
गृहीत्वा पाणिना पाणिं ततोऽक्रूरमुवाच ह ॥ २७ ॥

परीक्षित्! कंस तो केवल स्वार्थ-साधनका सिद्धान्त जानता था। इसलिये उसने मन्त्री, पहलवान और महावतको इस प्रकार आज्ञा देकर श्रेष्ठ यदुवंशी अक्रूरको बुलवाया और उनका हाथ अपने हाथमें लेकर बोला- ||२७||

भो भो दानपते मह्यं क्रियतां मैत्रमादृतः ।
नान्यस्त्वत्तो हिततमो विद्यते भोजवृष्णिषु ॥ २८ ॥

‘अक्रूरजी! आप तो बड़े उदार दानी हैं। सब तरहसे मेरे आदरणीय हैं। आज आप मेरा एक मित्रोचित काम कर दीजिये; क्योंकि भोजवंशी और वृष्णिवंशी यादवोंमें आपसे बढ़कर मेरी भलाई करनेवाला दूसरा कोई नहीं है ||२८।।

अतस्त्वामाश्रितः सौम्य कार्यगौरवसाधनम् ।
यथेन्द्रो विष्णुमाश्रित्य स्वार्थमध्यगमद् विभुः ॥ २९ ॥

यह काम बहुत बड़ा है, इसलिये मेरे मित्र! मैंने आपका आश्रय लिया है। ठीक वैसे ही, जैसे इन्द्र समर्थ होनेपर भी विष्णुका आश्रय लेकर अपना स्वार्थ साधता रहता है ।।२९।।

गच्छ नन्दव्रजं तत्र सुतौ आवानकदुन्दुभेः ।
आसाते तौ इहानेन रथेनानय मा चिरम् ॥ ३० ॥

आप नन्दरायके व्रजमें जाइये। वहाँ वसुदेवजीके दो पुत्र हैं। उन्हें इसी रथपर चढ़ाकर यहाँ ले आइये। बस, अब इस काममें देर नहीं होनी चाहिये ||३०||

निसृष्टः किल मे मृत्युः देवैर्वैकुण्ठसंश्रयैः ।
तावानय समं गोपैः नन्दाद्यैः साभ्युपायनैः ॥ ३१ ॥

सुनते हैं, विष्णुके भरोसे जीनेवाले देवताओंने उन दोनोंको मेरी मृत्युका कारण निश्चित किया है। इसलिये आप उन दोनोंको तो ले ही आइये, साथ ही नन्द आदि गोपोंको भी बड़ी-बड़ी भेंटोंके साथ ले आइये ||३१||

घातयिष्य इहानीतौ कालकल्पेन हस्तिना ।
यदि मुक्तौ ततो मल्लैः घातये वैद्युतोपमैः ॥ ३२ ॥

यहाँ आनेपर मैं उन्हें अपने कालके समान कुवलयापीड हाथीसे मरवा डालूँगा। यदि वे कदाचित् उस हाथीसे बच गये, तो मैं अपने वज्रके समान मजबूत और फुर्तीले पहलवान मुष्टिक-चाणूर आदिसे उन्हें मरवा डालूँगा ||३२||

तयोर्निहतयोस्तप्तान् वसुदेवपुरोगमान् ।
तद्‍बन्धून् निहनिष्यामि वृष्णिभोजदशार्हकान् ॥ ३३ ॥

उनके मारे जानेपर वसुदेव आदि वृष्णि, भोज और दशाहवंशी उनके भाई-बन्धु शोकाकुल हो जायँगे। फिर उन्हें मैं अपने हाथों मार डालूँगा ।।३३।।

उग्रसेनं च पितरं स्थविरं राज्यकामुकम् ।
तद्‍भ्रातरं देवकं च ये चान्ये विद्विषो मम ॥ ३४ ॥

मेरा पिता उग्रसेन यों तो बूढ़ा हो गया है, परन्तु अभी उसको राज्यका लोभ बना हआ है। यह सब कर चुकनेके बाद मैं उसको, उसके भाई देवकको और दूसरे भी जो-जो मुझसे द्वेष करनेवाले हैं-उन सबको तलवारके घाट उतार दूंगा ।।३४।।

ततश्चैषा मही मित्र भवित्री नष्टकण्टका ।
जरासन्धो मम गुरुः द्विविदो दयितः सखा ॥ ३५ ॥

मेरे मित्र अक्रूरजी! फिर तो मैं होऊँगा और आप होंगे तथा होगा इस पृथ्वीका अकण्टक राज्य। जरासन्ध हमारे बड़े-बूढ़े ससुर हैं और वानरराज द्विविद मेरे प्यारे सखा हैं ||३५||

शम्बरो नरको बाणो मय्येव कृतसौहृदाः ।
तैरहं सुरपक्षीयान् हत्वा भोक्ष्ये महीं नृपान् ॥ ३६ ॥

शम्बरासुर, नरकासुर और बाणासुर-ये तो मुझसे मित्रता करते ही हैं, मेरा मुँह देखते रहते हैं; इन सबकी सहायतासे मैं देवताओंके पक्षपाती नरपतियोंको मारकर पृथ्वीकाअकण्टक राज्य भोगूंगा ।।३६।।

एतज्ज्ञात्वाऽनय क्षिप्रं रामकृष्णाविहार्भकौ ।
धनुर्मखनिरीक्षार्थं द्रष्टुं यदुपुरश्रियम् ॥ ३७ ॥

यह सब अपनी गुप्त बातें मैंने आपको बतला दीं। अब आप जल्दी-से-जल्दी बलराम और कृष्णको यहाँ ले आइये। अभी तो वे बच्चे ही हैं। उनको मार डालने में क्या लगता है? उनसे केवल इतनी ही बात कहियेगा कि वे लोग धनुषयज्ञके दर्शन और यदुवंशियोंकी राजधानी मथुराकी शोभा देखनेके लिये यहाँ आ जायँ’ ||३७।।

श्रीअक्रूर उवाच –
राजन् मनीषितं सध्र्यक् तव स्वावद्यमार्जनम् ।
सिद्ध्यसिद्ध्योः समं कुर्याद् दैवं हि फलसाधनम् ॥ ३८ ॥

अक्रूरजीने कहा-महाराज! आप अपनी मृत्यु, अपना अरिष्ट दूर करना चाहते हैं, इसलिये आपका ऐसा सोचना ठीक ही है। मनुष्यको चाहिये कि चाहे सफलता हो या असफलता, दोनोंके प्रति समभाव रखकर अपना काम करता जाय। फल तो प्रयत्नसे नहीं, दैवी प्रेरणासे मिलते हैं ||३८।।

मनोरथान् करोत्युच्चैः जनो दैवहतानपि ।
युज्यते हर्षशोकाभ्यां तथाप्याज्ञां करोमि ते ॥ ३९ ॥

मनुष्य बड़े-बड़े मनोरथोंके पुल बाँधता रहता है, परन्तु वह यह नहीं जानता कि दैवने, प्रारब्धने इसे पहलेसे ही नष्ट कर रखा है। यही कारण है कि कभी प्रारब्धके अनुकूल होनेपर प्रयत्न सफल हो जाता है तो वह हर्षसे फल उठता है और प्रतिकूल होनेपर विफल हो जाता है तो शोकग्रस्त हो जाता है। फिर भी मैं आपकी आज्ञाका पालन तो कर ही रहा हूँ ।।३९।।

श्रीशुक उवाच –
एवमादिश्य चाक्रूरं मन्त्रिणश्च विषृज्य सः ।
प्रविवेश गृहं कंसः तथाक्रूरः स्वमालयम् ॥ ४० ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैं-कंसने मन्त्रियों और अक्रूरजीको इस प्रकारकी आज्ञा देकर सबको विदा कर दिया। तदनन्तर वह अपने महलमें चला गया और अक्रूरजी अपने घर लौट आये ।।४०||

इति श्रीमद्‍भागवते महापुराणे पारमहंस्यां
संहितायां दशमस्कन्धे पूर्वार्धे अक्रूरसंप्रेषणं नाम षट्‌त्रिंशोऽध्यायः ॥ ३६ ॥
हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥


Spread the Glory of Sri SitaRam!

Shweta Srinet

गरिमा जी संस्कृत भाषा में परास्नातक एवं राष्ट्रीय पात्रता परीक्षा उत्तीर्ण हैं। यह RamCharit.in हेतु 2018 से सतत पूर्णकालिक सदस्य के रूप में कार्य कर रही हैं। धार्मिक ग्रंथों को उनके मूल आध्यात्मिक रूप में सरलता से उपलब्ध कराने का कार्य इसके द्वारा ही निष्पादित होता है।

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