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इंटरनेट पर श्रीरामजी का सबसे बड़ा विश्वकोश | RamCharitManas Ramayana in Hindi English | रामचरितमानस रामायण हिंदी अनुवाद अर्थ सहित

श्रीमद् भागवत महापुराण दशम स्कन्ध

श्रीमद् भागवत महापुराण स्कन्ध 10 अध्याय 39

Spread the Glory of Sri SitaRam!

39 CHAPTER
श्रीमद्भागवतपुराणम्/स्कन्धः १०/पूर्वार्धः/अध्यायः ३९

श्रीकृष्णबलरामयोर्मथुरायां प्रति प्रस्थानं विरहकातर गोपीनां करुणोद्‌गारः कालिंद्यां अक्रूरकर्तृकं भगवद्‌धाम दर्शनं च –

श्रीशुक उवाच –
( अनुष्टुप् )
सुखोपविष्टः पर्यङ्‌के रमकृष्णोरुमानितः ।
लेभे मनोरथान् सर्वान् पन्पथि यान् स चकार ह ॥ १ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैं-भगवान् श्रीकृष्ण और बलरामजीने अक्रूरजीका भलीभाँति सम्मान किया। वे आरामसे पलँगपर बैठ गये। उन्होंने मार्गमें जो-जो अभिलाषाएँ की थीं, वे सब पूरी हो गयीं ||१||

किमलभ्यं भगवति प्रसन्ने श्रीनिकेतने ।
तथापि तत्परा राजन् न हि वाञ्छन्ति किञ्चन ॥ २ ॥

परीक्षित्! लक्ष्मीके आश्रयस्थान भगवान् श्रीकृष्णके प्रसन्न होनेपर ऐसी कौन-सी वस्तु है, जो प्राप्त नहीं हो सकती? फिर भी भगवान्के परमप्रेमी भक्तजन किसी भी वस्तुकी कामना नहीं करते ।।२।।

सायंतनाशनं कृत्वा भगवान् देवकीसुतः ।
सुहृत्सु वृत्तं कंसस्य पप्रच्छान्यच्चिकीर्षितम् ॥ ३ ॥

देवकीनन्दन भगवान् श्रीकृष्णने सायंकालका भोजन करनेके बाद अक्रूरजीके पास जाकर अपने स्वजन-सम्बन्धियों के साथ कंसके व्यवहार और उसके अगले कार्यक्रमके सम्बन्धमें पूछा ।।३।।

श्रीभगवानुवाच –
तात सौम्यागतः कच्चित् स्वागतं भद्रमस्तु वः ।
अपि स्वज्ञातिबन्धूनां अनमीवमनामयम् ॥ ४ ॥

भगवान श्रीकृष्णने कहा-चाचाजी! आपका हृदय बड़ा शुद्ध है। आपको यात्रामें कोई कष्ट तो नहीं हुआ? स्वागत है। मैं आपकी मंगलकामना करता हूँ। मथुराके हमारे आत्मीय सुहृद, कुटुम्बी तथा अन्य सम्बन्धी सब सकुशल और स्वस्थ हैं न? ||४||

किं नु नः कुशलं पृच्छे एधमाने कुलामये ।
कंसे मातुलनाम्न्यङ्‌ग स्वानां नस्तत्प्रजासु च ॥ ५ ॥

हमारा नाममात्रका मामा कंस तो हमारे कुलके लिये एक भयंकर व्याधि है। जबतक उसकी बढ़ती हो रही है, तबतक हम अपने वंशवालों और उनके बाल-बच्चोंका कुशल-मंगल क्या पूछे ||५||

अहो अस्मदभूद् भूरि पित्रोर्वृजिनमार्ययोः ।
यद्धेतोः पुत्रमरणं यद्धेतोर्बन्धनं तयोः ॥ ६ ॥

चाचाजी! हमारे लिये यह बड़े खेदकी बात है कि मेरे ही कारण मेरे निरपराध और सदाचारी माता-पिताको अनेकों प्रकारकी यातनाएँ झेलनी पड़ीं-तरह-तरहके कष्ट उठाने पड़े। औरतो क्या कहूँ, मेरे ही कारण उन्हें हथकड़ी-बेड़ीसे जकड़कर जेलमें डाल दिया गया तथा मेरे ही कारण उनके बच्चे भी मार डाले गये ।।६।।

दिष्ट्याद्य दर्शनं स्वानां मह्यं वः सौम्य काङ्‌क्षितम् ।
सञ्जातं वर्ण्यतां तात तवागमनकारणम् ॥ ७ ॥

मैं बहत दिनोंसे चाहता था कि आप-लोगोंमेंसे किसी-न-किसीका दर्शन हो। यह बड़े सौभाग्यकी बात है कि आज मेरी वह अभिलाषा पूरी हो गयी। सौम्य-स्वभाव चाचाजी! अब आप कृपा करके यह बतलाइये कि आपका शुभागमन किस निमित्तसे हुआ? ||७||

श्रीशुक उवाच –
पृष्टो भगवता सर्वं वर्णयामास माधवः ।
वैरानुबन्धं यदुषु वसुदेववधोद्यमम् ॥ ८ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैं-परीक्षित्! जब भगवान् श्रीकृष्णने अक्रूरजीसे इस प्रकार प्रश्न किया, तब उन्होंने बतलाया कि ‘कंसने तो सभी यदुवंशियोंसे घोर वैर ठान रखा है। वह वसुदेवजीको मार डालनेका भी उद्यम कर चुका है’ ||८||

यत्सन्देशो यदर्थं वा दूतः सम्प्रेषितः स्वयम् ।
यदुक्तं नारदेनास्य स्वजन्मानकदुन्दुभेः ॥ ९ ॥

अक्रूरजीने कंसका सन्देश और जिस उद्देश्यसे उसने स्वयं अक्रूरजीको दूत बनाकर भेजा था और नारदजीने जिस प्रकार वसुदेवजीके घर श्रीकृष्णके जन्म लेनेका वृत्तान्त उसको बता दिया था, सो सब कहसुनाया ।।९।।

श्रुत्वाक्रूरवचः कृष्णो बलश्च परवीरहा ।
प्रहस्य नन्दं पितरं राज्ञा दिष्टं विजज्ञतुः ॥ १० ॥

अक्रूरजीकी यह बात सुनकर विपक्षी शत्रुओंका दमन करनेवाले भगवान् श्रीकृष्ण और बलरामजी हँसने लगे और इसके बाद उन्होंने अपने पिता नन्दजीको कंसकी आज्ञा सुना दी ।।१०।।

गोपान् समादिशत् सोऽपि गृह्यतां सर्वगोरसः ।
उपायनानि गृह्णीध्वं युज्यन्तां शकटानि च ॥ ११ ॥

तब नन्दबाबाने सब गोपोंको आज्ञा दी कि ‘सारा गोरस एकत्र करो। भेंटकी सामग्री ले लो और छकड़े जोड़ो ।।११।।

यास्यामः श्वो मधुपुरीं दास्यामो नृपते रसान् ।
द्रक्ष्यामः सुमहत्पर्व यान्ति जानपदाः किल ।
एवमाघोषयत्क्षत्रा नन्दगोपः स्वगोकुले ॥ १२ ॥

कल प्रातःकाल ही हम सब मथुराकी यात्रा करेंगे और वहाँ चलकर राजा कंसको गोरस देंगे। वहाँ एक बहुत बड़ा उत्सव हो रहा है। उसे देखनेके लिये देशकी सारी प्रजा इकट्ठी हो रही है। हमलोग भी उसे देखेंगे।’ नन्दबाबाने गाँवके कोतवालके द्वारा यह घोषणा सारे व्रजमें करवा दी ।।१२।।

गोप्यस्तास्तद् उपश्रुत्य बभूवुर्व्यथिता भृशम् ।
रामकृष्णौ पुरीं नेतुं अक्रूरं व्रजमागतम् ॥ १३ ॥

परीक्षित्! जब गोपियोंने सुना कि हमारे मनमोहन श्यामसुन्दर और गौरसुन्दर बलरामजीको मथुरा ले जानेके लिये अक्रूरजी व्रजमें आये हैं तब उनके हृदयमें बड़ी व्यथा हुई। वे व्याकुल हो गयीं ।।१३।।

काश्चित् तत्कृतहृत्ताप श्वासम्लानमुखश्रियः ।
स्रंसद्‌दुद्दुकूलवलय केशग्रंथ्यश्च काश्चन ॥ १४ ॥

भगवान् श्रीकृष्णके मथुरा जानेकी बात सुनते ही बहुतोंके हृदयमें ऐसी जलन हुई कि गरम साँस चलने लगी, मुखकमल कुम्हला गया। और बहुतोंकी ऐसी दशा हुई-वे इस प्रकार अचेत हो गयीं कि उन्हें खिसकी हुई ओढ़नी, गिरते हुए कंगन और ढीले हए जड़ोंतकका पता न रहा ।।१४।।

अन्याश्च तदनुध्यान निवृत्ताशेषवृत्तयः ।
नाभ्यजानन् इमं लोकं आत्मलोकं गता इव ॥ १५ ॥

भगवान्के स्वरूपका ध्यान आते ही बहुत-सी गोपियोंकी चित्तवृत्तियाँ सर्वथा निवृत्त हो गयीं, मानो वे समाधिस्थ-आत्मामें स्थित हो गयी हों, और उन्हें अपने शरीर और संसारका कुछ ध्यान ही न रहा ||१५||

स्मरन्त्यश्चापराः शौरेः अनुरागस्मितेरिताः ।
हृदिस्पृशश्चित्रपदा गिरः संमुमुहुः स्त्रियः ॥ १६ ॥

बहुत-सी गोपियोंके सामने भगवान् श्रीकृष्णका प्रेम, उनकी मन्द-मन्द मुसकान और हृदयको स्पर्श करनेवाली विचित्र पदोंसे युक्त मधुर वाणी नाचने लगी। वे उसमें तल्लीन हो गयीं। मोहित हो गयीं ।।१६।।

गतिं सुललितां चेष्टां स्निग्धहासावलोकनम् ।
शोकापहानि नर्माणि प्रोद्दामचरितानि च ॥ १७ ॥

चिन्तयन्त्यो मुकुन्दस्य भीता विरहकातराः ।
समेताः सङ्‌घशः प्रोचुः अश्रुमुख्योऽच्युताशयाः ॥ १८ ॥

गोपियाँ मन-ही-मन भगवान्की लटकीली चाल, भाव-भंगी, प्रेमभरी मुसकान, चितवन, सारे शोकोंको मिटा देनेवाली ठिठोलियाँ तथा उदारता-भरी लीलाओंका चिन्तन करने लगीं और उनके विरहके भयसे कातर हो गयीं। उनका हृदय, उनका जीवन-सब कुछ भगवान्के प्रति समर्पित था। उनकी आँखोंसे आँसू बह रहे थे। वे झुंड-की-झुंड इकट्ठी होकर इस प्रकार कहने लगीं ।।१७-१८।।

श्रीगोप्य ऊचुः –
( मिश्र )
अहो विधातस्तव न क्वचिद् दया
संयोज्य मैत्र्या प्रणयेन देहिनः ।
तांश्चाकृतार्थान् वियुनङ्‌क्ष्यपार्थकं
विक्रीडितं तेऽर्भकचेष्टितं यथा ॥ १९ ॥

गोपियोंने कहा-धन्य हो विधाता! तुम सब कुछ विधान तो करते हो, परन्तु तुम्हारे हृदयमें दयाका लेश भी नहीं है। पहले तो तुम सौहार्द और प्रेमसे जगत्के प्राणियोंको एकदूसरेके साथ जोड़ देते हो, उन्हें आपसमें एक कर देते हो; मिला देते हो परन्तु अभी उनकी आशा-अभिलाषाएँ पूरी भी नहीं हो पातीं, वे तृप्त भी नहीं हो पाते कि तुम उन्हें व्यर्थ ही अलग-अलग कर देते हो! सच है, तुम्हारा यह खिलवाड़ बच्चोंके खेलकी तरह व्यर्थ ही है ||१९||

यस्त्वं प्रदर्श्यासितकुन्तलावृतं
मुकुन्दवक्त्रं सुकपोलमुन्नसम् ।
शोकापनोदस्मितलेशसुन्दरं
करोषि पारोक्ष्यमसाधु ते कृतम् ॥ २० ॥

यह कितने दुःखकी बात है! विधाता! तुमने पहले हमें प्रेमका वितरण करनेवाले श्यामसुन्दरका मुखकमल दिखलाया। कितना सुन्दर है वह! काले-काले घुघराले बाल कपोलोंपर झलक रहे हैं। मरकतमणि-से चिकने सुस्निग्ध कपोल और तोतेकी चोंच-सी सन्दर नासिका तथा अधरोंपर मन्द-मन्द मुसकानकी सुन्दर रेखा, जो सारे शोकोंको तत्क्षण भगा देती है। विधाता! तुमने एक बार तो हमें वह परम सुन्दर मुखकमल दिखाया और अब उसे ही हमारी आँखोंसे ओझल कर रहे हो! सचमुच तुम्हारी यह करतूत बहुत ही अनुचित है ।।२०।।

क्रूरस्त्वमक्रूरसमाख्यया स्म नः
चक्षुर्हि दत्तं हरसे बताज्ञवत् ।
येनैकदेशेऽखिलसर्गसौष्ठवं
त्वदीयमद्राक्ष्म वयं मधुद्विषः ॥ २१ ॥

हम जानती हैं, इसमें अक्रूरका दोष नहीं है; यह तो साफ तुम्हारी क्रूरता है। वास्तवमें तुम्हीं अक्रूरके नामसे यहाँ आये हो और अपनी ही दी हुई आँखें तुम हमसे मूर्खकी भाँति छीन रहे हो। इनके द्वारा हम श्यामसुन्दरके एक-एक अंगमें तुम्हारी सृष्टिका सम्पूर्ण सौन्दर्य निहारती रहती थीं। विधाता! तुम्हें ऐसा नहीं चाहिये ।।२१।।

न नन्दसूनुः क्षणभङ्‌गसौहृदः
समीक्षते नः स्वकृतातुरा बत ।
विहाय गेहान् स्वजनान् तान् पतीन्
तद्दास्यमद्धोपगता नवप्रियः ॥ २२ ॥

अहो! नन्दनन्दन श्यामसुन्दरको भी नये-नये लोगोंसे नेह लगानेकी चाट पड़ गयी है। देखो तो सही-इनका सौहार्द, इनका प्रेम एक क्षणमें ही कहाँ चला गया? हम तो अपने घरद्वार, स्वजन-सम्बन्धी, पति-पुत्र आदिको छोड़कर इनकी दासी बनीं और इन्हीं के लिये आज हमारा हृदय शोकातुर हो रहा है, परन्तु ये ऐसे हैं कि हमारी ओर देखतेतक नहीं ||२२||

सुखं प्रभाता रजनीयमाशिषः
सत्या बभूवुः पुरयोषितां ध्रुवम् ।
याः संप्रविष्टस्य मुखं व्रजस्पतेः
पास्यन्त्यपाङ्‌गोत् कलितस्मितासवम् ॥ २३ ॥

आजकी रातका प्रातःकाल मथराकी स्त्रियोंके लिये निश्चय ही बडा मंगलमय होगा। आज उनकी बहुत दिनोंकी अभिलाषाएँ अवश्य ही पूरी हो जायँगी। जब हमारे व्रजराज श्यामसुन्दर अपनी तिरछी चितवन और मन्द-मन्द मुसकानसे युक्त मुखारविन्दका मादक मधु वितरण करते हुए मथुरापुरीमें प्रवेश करेंगे, तब वे उसका पान करके धन्य-धन्य हो जायँगी ||२३||

तासां मुकुन्दो मधुमञ्जुभाषितैरः
गृहीतचित्तः परवान् मनस्व्यपि ।
कथं पुनर्नः प्रतियास्यतेऽबला
ग्राम्याः सलज्जस्मितविभ्रमैर्भ्रमन् ॥ २४ ॥

यद्यपि हमारे श्यामसुन्दर धैर्यवान् होनेके साथ ही नन्दबाबा आदि गुरुजनोंकी आज्ञामें रहते हैं, तथापि मथुराकी युवतियाँ अपने मधुके समान मधुर वचनोंसे इनका चित्त बरबस अपनी ओर खींच लेंगी और ये उनकी सलज्ज मुसकान तथा विलासपूर्ण भाव-भंगीसे वहीं रम जायँगे। फिर हम गँवार ग्वालिनोंके पास ये लौटकर क्यों आने लगे ।।२४।।

अद्य ध्रुवं तत्र दृशो भविष्यते
दाशार्हभोजान्धक वृष्णिसात्वताम् ।
महोत्सवः श्रीरमणं गुणास्पदं
द्रक्ष्यन्ति ये चाध्वनि देवकीसुतम् ॥ २५ ॥

धन्य है आज हमारे श्यामसुन्दरका दर्शन करके मथुराके दाशार्ह, भोज, अन्धक और वृष्णिवंशी यादवोंके नेत्र अवश्य ही परमानन्दका साक्षात्कार करेंगे। आज उनके यहाँ महान् उत्सव होगा। साथ ही जो लोग यहाँसे मथुरा जाते हुए रमारमण गुणसागर नटनागर देवकीनन्दन श्यामसुन्दरका मार्गमें दर्शन करेंगे, वे भी निहाल हो जायँगे ||२५||

मैतद्विधस्याकरुणस्य नाम भूद्
अक्रूर इत्येतदतीव दारुणः ।
योऽसावनाश्वास्य सुदुःखितं जनं
प्रियात्प्रियं नेष्यति पारमध्वनः ॥ २६ ॥

देखो सखी! यह अक्रूर कितना निठुर, कितना हृदयहीन है। इधर तो हम गोपियाँ इतनी दुःखित हो रही हैं और यह हमारे परम प्रियतम नन्ददुलारे श्यामसुन्दरको हमारी आँखोंसे ओझल करके बहुत दूर ले जाना चाहता है और दो बात कहकर हमें धीरज भी नहीं बँधाता, आश्वासन भी नहीं देता। सचमुच ऐसे अत्यन्त क्रूर पुरुषका ‘अक्रूर’ नाम नहीं होना चाहिये था ।।२६||

अनार्द्रधीरेष समास्थितो रथं
तमन्वमी च त्वरयन्ति दुर्मदाः ।
गोपा अनोभिः स्थविरैरुपेक्षितं
दैवं च नोऽद्य प्रतिकूलमीहते ॥ २७ ॥

सखी! हमारे ये श्यामसुन्दर भी तो कम निठुर नहीं हैं। देखो-देखो, वे भी रथपर बैठ गये। और मतवाले गोपगण छकड़ोंद्वारा उनके साथ जानेके लिये कितनी जल्दी मचा रहे हैं। सचमुच ये मूर्ख हैं। और हमारे बड़े-बूढ़े! उन्होंने तो इन लोगोंकी जल्दबाजी देखकर उपेक्षा कर दी है कि ‘जाओ जो मनमें आवे, करो!’ अब हम क्या करें? आज विधाता सर्वथा हमारे प्रतिकूल चेष्टा कर रहा है ||२७||

निवारयामः समुपेत्य माधवं
किं नोऽकरिष्यन् कुलवृद्धबान्धवाः ।
मुकुन्दसङ्‌गान्निमिषार्धदुस्त्यजाद्
दैवेन विध्वंसितदीनचेतसाम् ॥ २८ ॥

चलो, हम स्वयं ही चलकर अपने प्राणप्यारे श्यामसुन्दरको रोकेंगी; कुलके बड़े-बूढ़े और बन्धुजन हमारा क्या कर लेंगे? अरी सखी! हम आधे क्षणके लिये भी प्राणवल्लभ नन्दनन्दनका संग छोड़नेमें असमर्थ थीं। आज हमारेदुर्भाग्यने हमारे सामने उनका वियोग उपस्थित करके हमारे चित्तको विनष्ट एवं व्याकुल कर दिया है ।।२८।।

( वसंततिलका )
यस्यानुरागललितस्मितवल्गुमन्त्र
लीलावलोकपरिरम्भणरासगोष्ठाम् ।
नीताः स्म नः क्षणमिव क्षणदा विना तं
गोप्यः कथं न्वतितरेम तमो दुरन्तम् ॥ २९ ॥

सखियो! जिनकी प्रेमभरी मनोहर मुसकान, रहस्यकी मीठी-मीठी बातें, विलासपूर्ण चितवन और प्रेमालिंगनसे हमने रासलीलाकी वे रात्रियाँ जो बहत विशाल थीं -एक क्षणके समान बिता दी थीं। अब भला, उनके बिना हम उन्हींकी दी हई अपार विरहव्यथाका पार कैसे पावेंगी ।।२९।।

योऽह्नः क्षये व्रजमनन्तसखः परीतो
गोपैर्विशन् खुररजश्छुरितालकस्रक् ।
वेणुं क्वणन् स्मितकटाक्षनिरीक्षणेन
चित्तं क्षिणोत्यमुमृते नु कथं भवेम ॥ ३० ॥

एक दिनकी नहीं, प्रतिदिनकी बात है, सायंकालमें प्रतिदिन वे ग्वालबालोंसे घिरे हुए बलरामजीके साथ वनसे गौएँ चराकर लौटते हैं। उनकी काली-काली घुघराली अलकें और गलेके पुष्पहार गौओंके खुरकी रजसे ढके रहते हैं। वे बाँसरी बजाते हए अपनी मन्द-मन्द मुसकान और तिरछी चितवनसे देख-देखकर हमारे हृदयको बेध डालते हैं। उनके बिना भला, हम कैसे जी सकेंगी? ||३०||

श्रीशुक उवाच –
( मिश्र )
एवं ब्रुवाणा विरहातुरा भृशं
व्रजस्त्रियः कृष्णविषक्तमानसाः ।
विसृज्य लज्जां रुरुदुः स्म सुस्वरं
गोविन्द दामोदर माधवेति ॥ ३१ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैं-परीक्षित्! गोपियाँ वाणीसे तो इस प्रकार कह रही थीं; परन्तु उनका एक-एक मनोभाव भगवान् श्रीकृष्णका स्पर्श, उनका आलिंगन कर रहा था। वे विरहकी सम्भावनासे अत्यन्त व्याकुल हो गयीं और लाज छोड़कर ‘हे गोविन्द! हे दामोदर! हे माधव!’-इस प्रकार ऊँची आवाजसे पुकार-पुकारकर सुललित स्वरसे रोने लगीं ।।३१।।

( अनुष्टुप् )
स्त्रीणामेवं रुदन्तीनां उदिते सवितर्यथ ।
अक्रूरश्चोदयामास कृतमैत्रादिको रथम् ॥ ३२ ॥

गोपियाँ इस प्रकार रो रही थीं! रोते-रोते सारी रात बीत गयी, सूर्योदय हुआ। अक्रूरजी सन्ध्यावन्दन आदि नित्य कर्मोंसे निवृत्त होकर रथपर सवार हुए और उसे हाँक ले चले ||३२||

गोपास्तमन्वसज्जन्त नन्दाद्याः शकटैस्ततः ।
आदायोपायनं भूरि कुम्भान् गोरससम्भृतान् ॥ ३३ ॥

नन्दबाबा आदि गोपोंने भी दूध, दही, मक्खन, घी आदिसे भरे मटके और भेंटकी बहुत-सी सामग्रियाँ ले लीं तथा वे छकड़ोंपर चढ़कर उनके पीछे-पीछे चले ।।३३।।

गोप्यश्च दयितं कृष्णं अनुव्रज्यानुरञ्जिताः ।
प्रत्यादेशं भगवतः काङ्‌क्षन्त्यश्चावतस्थिरे ॥ ३४ ॥

इसी समय अनुरागके रंगमें रँगी हई गोपियाँ अपने प्राणप्यारे श्रीकृष्णके पास गयीं और उनकी चितवन, मुसकान आदि निरखकर कुछ-कुछ सुखी हुईं। अब वे अपने प्रियतम श्यामसुन्दरसे कुछ सन्देश पानेकी आकांक्षासे वहीं खड़ी हो गयीं ||३४।।

तास्तथा तप्यतीर्वीक्ष्य स्वप्रस्थाणे यदूत्तमः ।
सान्त्वयामस सप्रेमैः आयास्य इति दौत्यकैः ॥ ३५ ॥

यदुवंशशिरोमणि भगवान् श्रीकृष्णने देखा कि मेरे मथुरा जानेसे गोपियोंके हृदयमें बड़ी जलन हो रही है, वे सन्तप्त हो रही हैं, तब उन्होंने दूतके द्वारा ‘मैं आऊँगा’ यह प्रेम-सन्देश भेजकर उन्हें धीरज बँधाया ||३५||

यावदालक्ष्यते केतुः यावद्रेणू रथस्य च ।
अनुप्रस्थापितात्मानो लेख्यानीवोपलक्षिताः ॥ ३६ ॥

गोपियोंको जबतक रथकी ध्वजा और पहियोंसे उड़ती हई धुल दीखती रही तबतक उनके शरीर चित्रलिखित-से वहीं ज्यों-के-त्यों खड़े रहे। परन्तु उन्होंने अपना चित्त तो मनमोहन प्राणवल्लभ श्रीकृष्णके साथ ही भेज दिया था ||३६।।

ता निराशा निववृतुः गोविन्दविनिवर्तने ।
विशोका अहनी निन्युः गायन्त्यः प्रियचेष्टितम् ॥ ३७ ॥

अभी उनके मनमें आशा थी कि शायद श्रीकृष्ण कुछ दूर जाकर लौट आयें! परन्तु जब नहीं लौटे, तब वे निराश हो गयीं और अपने-अपने घर चली आयीं। परीक्षित्! वे रात-दिन अपने प्यारे श्यामसुन्दरकी लीलाओंका गान करती रहतीं और इस प्रकार अपने शोकसन्तापको हलका करतीं ।।३७।।

भगवानपि सम्प्राप्तो रामाक्रूरयुतो नृप ।
रथेन वायुवेगेन कालिन्दीं अघनाशिनीम् ॥ ३८ ॥

परीक्षित्! इधर भगवान् श्रीकृष्ण भी बलरामजी और अक्रूरजीके साथ वायुके समान वेगवाले रथपर सवार होकर पापनाशिनी यमुनाजीके किनारे जा पहुँचे ।।३८।।

तत्रोपस्पृश्य पानीयं पीत्वा मृष्टं मणिप्रभम् ।
वृक्षषण्डमुपव्रज्य सरामो रथमाविशत् ॥ ३९ ॥

वहाँ उन लोगोंने हाथ-मुँह धोकर यमुनाजीका मरकत-मणिके समान नीला और अमृतके समान मीठा जल पिया। इसके बाद बलरामजीके साथ भगवान् वृक्षोंके झुरमुटमें खड़े रथपर सवार हो गये ||३९||

अक्रूरस्तावुपामन्त्र्य निवेश्य च रथोपरि ।
कालिन्द्या ह्रदमागत्य स्नानं विधिवदाचरत् ॥ ४० ॥

अक्रूरजीने दोनों भाइयोंको रथपर बैठाकर उनसे आज्ञा ली और यमुनाजीके कुण्ड (अनन्त–तीर्थ या ब्रह्मह्रद) पर आकर वे विधिपूर्वक स्नान करने लगे ।।४०।।

निमज्ज्य तस्मिन् सलिले जपन् ब्रह्म सनातनम् ।
तावेव ददृशेऽक्रूरो रामकृष्णौ समन्वितौ ॥ ४१ ॥

उस कुण्डमें स्नान करनेके बाद वे जल में डुबकी लगाकर गायत्रीका जप करने लगे। उसी समय जलके भीतर अक्रूरजीने देखा कि श्रीकृष्ण और बलराम दोनों भाई एक साथ ही बैठे हुए हैं ।।४१।।

तौ रथस्थौ कथमिह सुतौ आनकदुन्दुभेः ।
तर्हि स्वित् स्यन्दने न स्त इत्युन्मज्ज्य व्यचष्ट सः ॥ ४२ ॥

अब उनके मनमें यह शंका हुई कि ‘वसुदेवजीके पुत्रोंको तो मैं रथपर बैठा आया हूँ, अब वे यहाँ जलमें कैसे आ गये? जब यहाँ हैं तो शायद रथपर नहीं होंगे।’ ऐसा सोचकर उन्होंने सिर बाहर निकालकर देखा ||४२।।

तत्रापि च यथापूर्वं आसीनौ पुनरेव सः ।
न्यमज्जद् दर्शनं यन्मे मृषा किं सलिले तयोः ॥ ४३ ॥

वे उस रथपर भी पूर्ववत् बैठे हुए थे। उन्होंने यह सोचकर कि मैंने उन्हें जो जलमें देखा था, वह भ्रम ही रहा होगा, फिर डुबकी लगायी ।।४३।।

भूयस्तत्रापि सोऽद्राक्षीत् स्तूयमानमहीश्वरम् ।
सिद्धचारणगन्धर्वैः असुरैर्नतकन्धरैः ॥ ४४ ॥

परन्तु फिर उन्होंने वहाँ भी देखा कि साक्षात् अनन्तदेव श्रीशेषजी विराजमान हैं और सिद्ध, चारण, गन्धर्व एवं असुर अपने-अपने सिर झुकाकर उनकी स्तुति कर रहे हैं ।।४४।।

सहस्रशिरसं देवं सहस्रफणमौलिनम् ।
नीलाम्बरं विसश्वेतं शृङ्‌गैः श्वेतमिव स्थितम् ॥ ४५ ॥

शेषजीके हजार सिर हैं और प्रत्येक फणपर मुकुट सुशोभित है। कमलनालके समान उज्ज्वल शरीरपर नीलाम्बर धारण किये हुए हैं और उनकी ऐसी शोभा हो रही है, मानो सहस्रशिखरोंसे युक्त श्वेतगिरि कैलास शोभायमान हो ।।४५||

तस्योत्सङ्‌गे घनश्यामं पीतकौशेयवाससम् ।
पुरुषं चतुर्भुजं शान्तं पद्मपत्रारुणेक्षणम् ॥ ४६ ॥

अक्रूरजीने देखा कि शेषजीकी गोदमें श्याम मेघके समान घनश्याम विराजमान हो रहे हैं। वे रेशमी पीताम्बर पहने हए हैं। बडी ही शान्त चतुर्भुज मूर्ति है और कमलके रक्तदलके समान रतनारे नेत्र हैं ||४६||

चारुप्रसन्नवदनं चारुहासनिरीक्षणम् ।
सुभ्रून्नसं चरुकर्णं सुकपोलारुणाधरम् ॥ ४७ ॥

उनका वदन बड़ा ही मनोहर और प्रसन्नताका सदन है। उनका मधुर हास्य और चारु चितवन चित्तको चुराये लेती है। भौंहें सुन्दर और नासिका तनिक ऊँची तथा बड़ी ही सुघड़ है। सुन्दर कान, कपोल और लाल-लाल अधरोंकी छटा निराली ही है ।।४७।।

प्रलम्बपीवरभुजं तुङ्‌गांसोरःस्थलश्रियम् ।
कम्बुकण्ठं निम्ननाभिं वलिमत्पल्लवोदरम् ॥ ४८ ॥

बाँहें घुटनोंतक लंबी और हृष्टपुष्ट हैं। कंधे ऊँचे और वक्षःस्थल लक्ष्मीजीका आश्रय-स्थान है। शंखके समान उतारचढ़ाववाला सुडौल गला, गहरी नाभि और त्रिवलीयुक्त उदर पीपलके पत्तेके समान शोभायमान है ।।४८||

बृहत्कतिततश्रोणि करभोरुद्वयान्वितम् ।
चारुजानुयुगं चारु जङ्‌घायुगलसंयुतम् ॥ ४९ ॥

तुङ्‌गगुल्फारुणनख व्रातदीधितिभिर्वृतम् ।
नवाङ्‌गुल्यङ्‌गुष्ठदलैः विलसत् पादपङ्‌कजम् ॥ ५० ॥

स्थूल कटिप्रदेश और नितम्ब, हाथीकी सैंडके समान जाँ, सुन्दर घुटने एवं पिंडलियाँ हैं। एड़ीके ऊपरकी गाँठें उभरी हुई हैं और लाल-लाल नखोंसे दिव्य ज्योतिर्मय किरणें फैल रही हैं। चरणकमलकी अंगुलियाँ और अंगूठे नयी और कोमल पँखुड़ियोंके समान सुशोभित हैं ||४९-५०||

सुमहार्हमणिव्रात किरीटकटकाङ्‌गदैः ।
कटिसूत्रब्रह्मसूत्र हारनूपुरकुण्डलैः ॥ ५१ ॥

भ्राजमानं पद्मकरं शङ्‌खचक्रगदाधरम् ।
श्रीवत्सवक्षसं भ्राजत् कौस्तुभं वनमालिनम् ॥ ५२ ॥

अत्यन्त बहमूल्य मणियोंसे जड़ा हआ मुकट, कडे, बाजूबंद, करधनी, हार, नपुर और कुण्डलोंसे तथा यज्ञोपवीतसे वह दिव्य मूर्ति अलंकृत हो रही है। एक हाथमें पद्म शोभा पा रहा है और शेष तीन हाथोंमें शंख, चक्र और गदा, वक्षःस्थलपर श्रीवत्सका चिह्न, गलेमें कौस्तुभमणि और वनमाला लटक रही है ।।५१-५२।।

सुनन्दनन्दप्रमुखैः पर्षदैः सनकादिभिः ।
सुरेशैर्ब्रह्मरुद्राद्यैः नवभिश्च द्विजोत्तमैः ॥ ५३ ॥

प्रह्रादनारदवसु प्रमुखैर्भागवतोत्तमैः ।
स्तूयमानं पृथग्भावैः वचोभिरमलात्मभिः ॥ ५४ ॥

नन्द-सुनन्द आदि पार्षद अपने ‘स्वामी’, सनकादि परमर्षि ‘परब्रह्म’, ब्रह्मा, महादेव आदि देवता ‘सर्वेश्वर’, मरीचि आदि नौ ब्राह्मण ‘प्रजापति’ और प्रह्लाद-नारद आदि भगवान्के परमप्रेमी भक्त तथा आठों वसु अपने परम प्रियतम ‘भगवान्’ समझकर भिन्न-भिन्न भावोंके अनुसार निर्दोष वेदवाणीसे भगवान्की स्तुति कर रहे हैं ।।५३-५४।।

श्रिया पुष्ट्या गिरा कान्त्या कीर्त्या तुष्ट्येलयोर्जया ।
विद्ययाविद्यया शक्त्या मायया च निषेवितम् ॥ ५५ ॥

साथ ही लक्ष्मी, पुष्टि, सरस्वती, कान्ति, कीर्ति और तुष्टि (अर्थात् ऐश्वर्य, बल, ज्ञान, श्री, यश और वैराग्य–ये षडैश्वर्यरूप शक्तियाँ), इला (सन्धिनीरूप पृथ्वी-शक्ति), ऊर्जा (लीलाशक्ति), विद्या-अविद्या (जीवोंके मोक्ष और बन्धनमें कारणरूपा बहिरंग शक्ति), ह्लादिनी, संवित् (अन्तरंगा शक्ति) और माया आदि शक्तियाँ मूर्तिमान् होकर उनकी सेवा कर रही हैं ।।५५।।

विलोक्य सुभृशं प्रीतो भक्त्या परमया युतः ।
हृष्यत्तनूरुहो भाव परिक्लिन्नात्मलोचनः ॥ ५६ ॥

भगवान्की यह झाँकी निरखकर अक्रूरजीका हृदय परमानन्दसे लबालब भर गया। उन्हें परम भक्ति प्राप्त हो गयी। सारा शरीर हर्षावेशसे पुलकित हो गया। प्रेमभावका उद्रेक होनेसे उनके नेत्र आँसूसे भर गये ।।५६।।

गिरा गद्‍गदयास्तौषीत् सत्त्वमालम्ब्य सात्वतः ।
प्रणम्य मूर्ध्नावहितः कृताञ्जलिपुटः शनैः ॥ ५७ ॥

अब अक्रूरजीने अपना साहस बटोरकर भगवान्के चरणोंमें सिर रखकर प्रणाम किया और वे उसके बाद हाथ जोड़कर बड़ी सावधानीसे धीरेधीरे गदगद स्वरसे भगवानकी स्तुति करने लगे ।।५७।।

इति श्रीमद्‍भागवते महापुराणे पारमहंस्यां
संहितायां दशमस्कन्धे पूर्वार्धे अक्रूरप्रतियाने एकोन्चत्वारिंशोऽध्यायः ॥ ३९ ॥
हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥


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Shweta Srinet

गरिमा जी संस्कृत भाषा में परास्नातक एवं राष्ट्रीय पात्रता परीक्षा उत्तीर्ण हैं। यह RamCharit.in हेतु 2018 से सतत पूर्णकालिक सदस्य के रूप में कार्य कर रही हैं। धार्मिक ग्रंथों को उनके मूल आध्यात्मिक रूप में सरलता से उपलब्ध कराने का कार्य इसके द्वारा ही निष्पादित होता है।

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