श्रीमद् भागवत महापुराण स्कन्ध 10 अध्याय 4
श्रीमद्भागवतपुराणम्/स्कन्धः
१०/पूर्वार्धः/अध्यायः ४
जिघांसोः कंसस्य हस्तात् उन्मुक्ताया देव्या भगवद्
अवतार सूचनं कंसानुतापः,तदीय दुर्मंत्रिणां दुर्मंत्रणं च –
श्रीशुक उवाच ।
( अनुष्टुप् )
बहिरन्तःपुरद्वारः सर्वाः पूर्ववदावृताः ।
ततो बालध्वनिं श्रुत्वा गृहपालाः समुत्थिताः ॥ १ ॥
श्रीशुकदेवजी कहते हैं-परीक्षित! जब वसुदेवजी लौट आये, तब नगरके बाहरी और भीतरी सब दरवाजे अपने-आप ही पहलेकी तरह बंद हो गये। इसके बाद नवजात शिशुके रोनेकी ध्वनि सुनकर द्वारपालोंकी नींद टूटी ||१||
ते तु तूर्णं उपव्रज्य देवक्या गर्भजन्म तत् ।
आचख्युः भोजराजाय यदुद्विग्नः प्रतीक्षते ॥ २ ॥
वे तुरन्त भोजराज कंसके पास गये और देवकीको सन्तान होनेकी बात कही। कंस तो बड़ी आकुलता और घबराहटके साथ इसी बातकी प्रतीक्षा कर रहा था ।।२।।
स तल्पात् तूर्णमुत्थाय कालोऽयमिति विह्वलः ।
सूतीगृहं अगात् तूर्णं प्रस्खलन् मुक्तमूर्धजः ॥ ३ ॥
द्वारपालोंकी बात सुनते ही वह झटपट पलँगसे उठ खड़ा हुआ और बड़ी शीघ्रतासे सूतिकागृहकी ओर झपटा। इस बार तो मेरे कालका ही जन्म हुआ है, यह सोचकर वह विह्वल हो रहा था और यही कारण है कि उसे इस बातका भी ध्यान न रहा कि उसके बाल बिखरे हुए हैं। रास्तेमें कई जगह वह लड़खड़ाकर गिरते-गिरते बचा ||३||
तं आह भ्रातरं देवी कृपणा करुणं सती ।
स्नुषेयं तव कल्याण स्त्रियं मा हन्तुमर्हसि ॥ ४ ॥
बंदीगृहमें पहुँचनेपर सती देवकीने बड़े दुःख और करुणाके साथ अपने भाई कंससे कहा-‘मेरे हितैषी भाई! यह कन्या तो तुम्हारी पुत्रवधूके समान है। स्त्रीजातिकी है; तुम्हें स्त्रीकी हत्या कदापि नहीं करनी चाहिये ।।४।।
बहवो हिंसिता भ्रातः शिशवः पावकोपमाः ।
त्वया दैवनिसृष्टेन पुत्रिकैका प्रदीयताम् ॥ ५ ॥
भैया! तुमने दैववश मेरे बहुत-से अग्निके समान तेजस्वी बालक मार डाले। अब केवल यही एक कन्या बची है, इसे तो मुझे दे दो ||५||
नन्वहं ते ह्यवरजा दीना हतसुता प्रभो ।
दातुमर्हसि मन्दाया अङ्गेमां चरमां प्रजाम् ॥ ६ ॥
अवश्य ही मैं तुम्हारी छोटी बहिन हूँ। मेरे बहुत-से बच्चे मर गये हैं, इसलिये मैं अत्यन्त दीन हूँ। मेरे प्यारे और समर्थ भाई! तुम मुझ मन्दभागिनीको यह अन्तिम सन्तान अवश्य दे दो’ ||६||
श्रीशुक उवाच ।
उपगुह्य आत्मजां एवं रुदत्या दीन अदीनवत् ।
याचितस्तां विनिर्भर्त्स्य हस्ताद् आचिच्छिदे खलः ॥ ७ ॥
श्रीशुकदेवजी कहते हैं-परीक्षित्! कन्याको अपनी गोदमें छिपाकर देवकीजीने अत्यन्त दीनताके साथ रोते-रोते याचना की। परन्तु कंस बड़ा दुष्ट था। उसने देवकीजीको झिड़ककर उनके हाथसे वह कन्या छीन ली ||७||
तां गृहीत्वा चरणयोः जातमात्रां स्वसुः सुताम् ।
अपोथयत् शिलापृष्ठे स्वार्थोन्मूलितसौहृदः ॥ ८ ॥
अपनी उस नन्ही-सी नवजात भानजीके पैर पकड़कर कंसने उसे बड़े जोरसे एक चट्टानपर दे मारा। स्वार्थने उसके हृदयसे सौहार्दको समूल उखाड़ फेंका था ।।८।।
सा तद्हस्तात् समुत्पत्य सद्यो देव्यंबरं गता ।
अदृश्यतानुजा विष्णोः सायुधाष्टमहाभुजा ॥ ९ ॥
परन्तु श्रीकृष्णकी वह छोटी बहिन साधारण कन्या तो थी नहीं, देवी थी; उसके हाथसे छूटकर तुरन्त आकाशमें चली गयी और अपने बड़े-बड़े आठ हाथोंमें आयुध लिये हुए दीख पड़ी ।।९।।
दिव्यस्रग् अंबरालेप रत्नाभरणभूषिता ।
धनुःशूलेषुचर्मासि शंखचक्रगदाधरा ॥ १० ॥
वह दिव्य माला, वस्त्र, चन्दन और मणिमय आभूषणोंसे विभूषित थी। उसके हाथोंमें धनुष, त्रिशूल, बाण, ढाल, तलवार, शंख, चक्र और गदा ये आठ आयुध थे ।।१०।।
सिद्धचारणगन्धर्वैः अप्सरःकिन्नरोरगैः ।
उपाहृतोरुबलिभिः स्तूयमानेदमब्रवीत् ॥ ११ ॥
सिद्ध, चारण, गन्धर्व, अप्सरा, किन्नर और नागगण बहुत-सी भेंटकीसामग्री समर्पित करके उसकी स्तुति कर रहे थे। उस समय देवीने कंससे यह कहा- ||११।।
किं मया हतया मन्द जातः खलु तवान्तकृत् ।
यत्र क्वं वा पूर्वशत्रुः मा हिंसीः कृपणान्वृथा ॥ १२ ॥
‘रे मूर्ख! मुझे मारनेसे तुझे क्या मिलेगा? तेरे पूर्वजन्मका शत्रु तुझे मारनेके लिये किसी स्थानपर पैदा हो चुका है। अब तू व्यर्थ निर्दोष बालकोंकी हत्या न किया कर’ ।।१२।।
इति प्रभाष्य तं देवी माया भगवती भुवि ।
बहुनामनिकेतेषु बहुनामा बभूव ह ॥ १३ ॥
कंससे इस प्रकार कहकर भगवती योगमाया वहाँसे अन्तर्धान हो गयीं और पृथ्वीके अनेक स्थानोंमें विभिन्न नामोंसे प्रसिद्ध हुईं ।।१३।।
तया अभिहितं आकर्ण्य कंसः परमविस्मितः ।
देवकीं वसुदेवं च विमुच्य प्रश्रितोऽब्रवीत् ॥ १४ ॥
देवीकी यह बात सुनकर कंसको असीम आश्चर्य हुआ। उसने उसी समय देवकी और वसुदेवको कैदसे छोड़ दिया और बड़ी नम्रतासे उनसे कहा- ||१४।।
अहो भगिन्यहो भाम मया वां बत पाप्मना ।
पुरुषाद इवापत्यं बहवो हिंसिताः सुताः ॥ १५ ॥
‘मेरी प्यारी बहिन और बहनोईजी! हाय-हाय, मैं बड़ा पापी हूँ। राक्षस जैसे अपने ही बच्चोंको मार डालता है, वैसे ही मैंने तुम्हारे बहत-से लड़के मार डाले। इस बातका मुझे बड़ा खेद है* ||१५||
स त्वहं त्यक्तकारुण्यः त्यक्तज्ञातिसुहृत् खलः ।
कान् लोकान् वै गमिष्यामि ब्रह्महेव मृतः श्वसन् ॥ १६ ॥
मैं इतना दुष्ट हूँ कि करुणाका तो मुझमें लेश भी नहीं है। मैंने अपने भाई-बन्धु और हितैषियोंतकका त्याग कर दिया। पता नहीं, अब मुझे किस नरकमें जाना पड़ेगा। वास्तवमें तो मैं ब्रह्मघातीके समान जीवित होनेपर भी मुर्दा ही हूँ ।।१६।।
दैवं अपि अनृतं वक्ति न मर्त्या एव केवलम् ।
यद् विश्रंभाद् अहं पापः स्वसुर्निहतवान् शिशून् ॥ १७ ॥
केवल मनुष्य ही झूठ नहीं बोलते, विधाता भी झूठ बोलते हैं। उसीपर विश्वास करके मैंने अपनी बहिनके बच्चे मार डाले। ओह! मैं कितना पापी हूँ ।।१७।।
मा शोचतं महाभागौ आत्मजान् स्वकृतंभुजः ।
जन्तवो न सदैकत्र दैवाधीनास्तदाऽऽसते ॥ १८ ॥
तुम दोनों महात्मा हो। अपने पुत्रोंके लिये शोक मत करो। उन्हें तो अपने कर्मका ही फल मिला है। सभी प्राणी प्रारब्धके अधीन हैं। इसीसे वे सदा-सर्वदा एक साथ नहीं रह सकते ||१८||
भुवि भौमानि भूतानि यथा यान्ति अपयान्ति च ।
नायमात्मा तथैतेषु विपर्येति यथैव भूः ॥ १९ ॥
जैसे मिट्टीके बने हुए पदार्थ बनते और बिगड़ते रहते हैं, परन्तु मिट्टी में कोई अदल-बदल नहीं होती-वैसे ही शरीरका तो बनना-बिगड़ना होता ही रहता है; परन्तु आत्मापर इसका कोई प्रभाव नहीं पड़ता ।।१९।।
यथानेवंविदो भेदो यत आत्मविपर्ययः ।
देहयोगवियोगौ च संसृतिर्न निवर्तते ॥ २० ॥
जो लोग इस तत्त्वको नहीं जानते, वे इस अनात्मा शरीरको ही आत्मा मान बैठते हैं। यही उलटी बद्धि अथवा अज्ञान है। इसीके कारण जन्म और मत्य होते हैं। और जबतक यह अज्ञान नहीं मिटता, तबतक सुख-दुःखरूप संसारसे छुटकारा नहीं मिलता ।।२०।।
तस्माद्भद्रे स्वतनयान् मया व्यापादितानपि ।
मानुशोच यतः सर्वः स्वकृतं विन्दतेऽवशः ॥ २१ ॥
मेरी प्यारी
बहिन! यद्यपि मैंने तुम्हारे पुत्रोंको मार डाला है, फिर भी तुम उनके लिये शोक न करो। क्योंकि सभी प्राणियोंको विवश होकर अपने कर्मोंका फल भोगना पड़ता है ।।२१।।
यावद्धतोऽस्मि हन्तास्मीति आत्मानं मन्यतेऽस्वदृक् ।
तावत् तद् अभिमान्यज्ञो बाध्यबाधकतामियात् ॥ २२ ॥
अपने स्वरूपको न जाननेके कारण जीव जबतक यह मानता रहता है कि ‘मैं मारनेवाला हूँ या मारा जाता हूँ’, तबतक शरीरके जन्म और मृत्युका अभिमान करनेवाला वह अज्ञानी बाध्य और बाधक-भावको प्राप्त होता है। अर्थात् वह दूसरोंको दुःख देता है और स्वयं दुःख भोगता है ।।२२।।
क्षमध्वं मम दौरात्म्यं साधवो दीनवत्सलाः ।
इत्युक्त्वाश्रुमुखः पादौ श्यालः स्वस्रोः अथाग्रहीत् ॥ २३ ॥
मेरी यह दुष्टता तुम दोनों क्षमा करो; क्योंकि तुम बड़े ही साधुस्वभाव और दीनोंके रक्षक हो।’ ऐसा कहकर कंसने अपनी बहिन देवकी और वसुदेवजीके चरण पकड़ लिये। उसकी आँखोंसे आँसू बह-बहकर मुँहतक आ रहे थे ।।२३।।
मोचयामास निगडात् विश्रब्धः कन्यकागिरा ।
देवकीं वसुदेवं च दर्शयन् आत्मसौहृदम् ॥ २४ ॥
इसके बाद उसने योगमायाके वचनोंपर विश्वास करके देवकी और वसुदेवको कैदसे छोड़ दिया और वह तरह-तरहसे उनके प्रति अपना प्रेम प्रकट करने लगा ||२४||
भ्रातुः समनुतप्तस्य क्षान्त्वा रोषं च देवकी ।
व्यसृजत् वसुदेवश्च प्रहस्य तमुवाच ह ॥ २५ ॥
जब देवकीजीने देखा कि भाई कंसको पश्चात्ताप हो रहा है, तब उन्होंने उसे क्षमा कर दिया। वे उसके पहले अपराधोंको भूल गयीं और वसुदेवजीने हँसकर कंससे कहा- ||२५||
एवमेतन्महाभाग यथा वदसि देहिनाम् ।
अज्ञानप्रभवाहंधीः स्वपरेति भिदा यतः ॥ २६ ॥
‘मनस्वी कंस! आप जो कहते हैं, वह ठीक वैसा ही है। जीव अज्ञानके कारण ही शरीर आदिको ‘मैं’ मान बैठते हैं। इसीसे अपने परायेका भेद हो जाता है ।।२६।।
शोकहर्षभयद्वेष लोभमोहमदान्विताः ।
मिथो घ्नन्तं न पश्यन्ति भावैर्भावं पृथग्दृशः ॥ २७ ॥
और यह भेददृष्टि हो जानेपर तो वे शोक, हर्ष, भय, द्वेष, लोभ, मोह और मदसे अन्धे हो जाते हैं। फिर तो उन्हें इस बातका पता ही नहीं रहता कि सबके प्रेरक भगवान् ही एक भावसे दूसरे भावका, एक वस्तुसे दूसरी वस्तुका नाश करा रहे हैं’ ||२७||
श्रीशुक उवाच ।
कंस एवं प्रसन्नाभ्यां विशुद्धं प्रतिभाषितः ।
देवकी वसुदेवाभ्यां अनुज्ञातो आविशत् गृहम् ॥ २८ ॥
श्रीशुकदेवजी कहते हैं-परीक्षित्! जब वसुदेव और देवकीने इस प्रकार प्रसन्न होकर निष्कपटभावसे कंसके साथ बातचीत की, तब उनसे अनुमति लेकर वह अपने महलमें चला गया ।।२८।।
तस्यां रात्र्यां व्यतीतायां कंस आहूय मंत्रिणः ।
तेभ्य आचष्ट तत् सर्वं यदुक्तं योगनिद्रया ॥ २९ ॥
वह रात्रि बीत जानेपर कंसने अपने मन्त्रियोंको बुलाया और योगमायाने जो कुछ कहा था, वह सब उन्हें कह सुनाया ।।२९।।
आकर्ण्य भर्तुर्गदितं तं ऊचुः देवशत्रवः ।
देवान् प्रति कृतामर्षा दैतेया नातिकोविदाः ॥ ३० ॥
कंसके मन्त्री पूर्णतया नीतिनिपुण नहीं थे। दैत्य होनेके कारण स्वभावसे ही वे देवताओंके प्रति शत्रुताका भाव रखते थे। अपने स्वामी कंसकी बात सुनकर वे देवताओंपर और भी चिढ़ गये और कंससे कहने लगे- ||३०||
एवं चेत्तर्हि भोजेन्द्र पुरग्राम व्रजादिषु ।
अनिर्दशान् निर्दशांश्च हनिष्यामोऽद्य वै शिशून् ॥ ३१ ॥
‘भोजराज! यदि ऐसी बात है तो हम आज ही बड़े-बड़े नगरोंमें, छोटे-छोटे गाँवोंमें, अहीरोंकी बस्तियोंमें और दूसरे स्थानोंमें जितने बच्चे हुए हैं, वे चाहे दस दिनसे अधिकके हों या कमके, सबको आज ही मार डालेंगे ||३१||
किं उद्यमैः करिष्यन्ति देवाः समरभीरवः ।
नित्यं उद्विग्नमनसो ज्याघोषैर्धनुषस्तव ॥ ३२ ॥
समरभीरु देवगण युद्धोद्योग करके ही क्या करेंगे? वे तो आपके धनुषकी टंकार सुनकर ही सदा-सर्वदा घबराये रहते हैं ||३२||
अस्यतस्ते शरव्रातैः हन्यमानाः समन्ततः ।
जिजीविषव उत्सृज्य पलायनपरा ययुः ॥ ३३ ॥
जिस समय युद्धभूमिमें आप चोट-पर-चोट करने लगते हैं, बाण-वर्षासे घायल होकर अपने प्राणोंकी रक्षाके लिये समरांगण छोड़कर देवतालोग पलायन-परायण होकर इधर-उधर भाग जाते हैं ।।३३।।
केचित् प्राञ्जलयो दीना न्यस्तशस्त्रा दिवौकसः ।
मुक्तकच्छशिखाः केचिद् भीताः स्म इति वादिनः ॥ ३४ ॥
कुछ देवता तो अपने अस्त्र-शस्त्र जमीनपर डाल देते हैं और हाथ जोड़कर आपके सामने अपनी दीनता प्रकट करने लगते हैं। कोई-कोई अपनी चोटीके बाल तथा कच्छ खोलकर आपकी शरणमें आकर कहते हैं कि-‘हम भयभीत हैं, हमारी रक्षा कीजिये’ ||३४||
न त्वं विस्मृतशस्त्रास्त्रान् विरथान् भयसंवृतान् ।
हंस्यन्यासक्तविमुखान् भग्नचापानयुध्यतः ॥ ३५ ॥
आप उन शत्रुओंको नहीं मारते जो अस्त्र-शस्त्र भूल गये हों, जिनका रथ टूट गया हो, जो डर गये हों, जो लोग युद्ध छोड़कर अन्यमनस्क हो गये हों, जिनका धनुष टूट गया हो या जिन्होंने युद्धसे अपना मुख मोड़ लिया हो-उन्हें भी आप नहीं मारते ।।३५।।
किं क्षेमशूरैर्विबुधैः असंयुगविकत्थनैः ।
रहोजुषा किं हरिणा शंभुना वा वनौकसा ।
किं इंद्रेणाल्पवीर्येण ब्रह्मणा वा तपस्यता ॥ ३६ ॥
देवता तो बस वहीं वीर बनते हैं, जहाँ कोई लड़ाई-झगड़ा न हो। रणभूमिके बाहर वे बड़ीबड़ी डींग हाँकते हैं। उनसे तथा एकान्तवासी विष्णु, वनवासी शंकर, अल्पवीर्य इन्द्र और तपस्वी ब्रह्मासे भी हमें क्या भय हो सकता है ||३६||
तथापि देवाः सापत्न्यान् नोपेक्ष्या इति मन्महे ।
ततः तन्मूलखनने नियुंक्ष्वास्मान् अनुव्रतान् ॥ ३७ ॥
फिर भी देवताओंकी उपेक्षा नहीं करनी चाहिये-ऐसी हमारी राय है। क्योंकि हैं तो वे शत्रु ही। इसलिये उनकी जड़ उखाड़ फेंकनेके लिये आप हम-जैसे विश्वासपात्र सेवकोंको नियुक्त कर दीजिये ।।३७।।
( वंशस्थ )
यथामयोंऽगे समुपेक्षितो नृभिः
न शक्यते रूढपदश्चिकित्सितुम् ।
यथेन्द्रियग्राम उपेक्षितस्तथा
रिपुर्महान् बद्धबलो न चाल्यते ॥ ३८ ॥
जब मनुष्यके शरीरमें रोग हो जाता है और उसकी चिकित्सा नहीं की जाती उपेक्षा कर दी जाती है, तब रोग अपनी जड़ जमा लेता है और फिर वह असाध्य हो जाता है। अथवा जैसे इन्द्रियोंकी उपेक्षा कर देनेपर उनका दमन असम्भव हो जाता है, वैसे ही यदि पहले शत्रकी उपेक्षा कर दी जाय और वह अपना पाँव जमा ले, तो फिर उसको हराना कठिन हो जाता है ।।३८।।
( अनुष्टुप् )
मूलं हि विष्णुः देवानां यत्र धर्मः सनातनः ।
तस्य च ब्रह्मगोविप्राः तपो यज्ञाः सदक्षिणाः ॥ ३९ ॥
देवताओंकी जड़ है विष्णु और वह वहाँ रहता है, जहाँ सनातनधर्म है। सनातनधर्मकी जड़ हैं—वेद, गौ, ब्राह्मण, तपस्या और वे यज्ञ, जिनमें दक्षिणा दी जाती है ।।३९।।
तस्मात्सर्वात्मना राजन् ब्राह्मणान् ब्रह्मवादिनः ।
तपस्विनो यज्ञशीलान् गाश्च हन्मो हविर्दुघाः ॥ ४० ॥
इसलिये भोजराज! हमलोग वेदवादी ब्राह्मण, तपस्वी, याज्ञिक और यज्ञके लिये घी आदि हविष्य पदार्थ देनेवाली गायोंका पूर्णरूपसे नाश कर डालेंगे ।।४०||
विप्रा गावश्च वेदाश्च तपः सत्यं दमः शमः ।
श्रद्धा दया तितिक्षा च क्रतवश्च हरेस्तनूः ॥ ४१ ॥
ब्राह्मण, गौ, वेद, तपस्या, सत्य, इन्द्रियदमन, मनोनिग्रह, श्रद्धा, दया, तितिक्षा और यज्ञ विष्णुके शरीर हैं ||४१||
स हि सर्वसुराध्यक्षो ह्यसुरद्विड् गुहाशयः ।
तन्मूला देवताः सर्वाः सेश्वराः सचतुर्मुखाः ।
अयं वै तद्वधोपायो यद्ऋषीणां विहिंसनम् ॥ ४२ ॥
वह विष्णु ही सारे देवताओंका स्वामी तथा असुरोंका प्रधान द्वेषी है। परन्तु वह किसी गुफामें छिपा रहता है। महादेव, ब्रह्मा और सारे देवताओंकी जड़ वही है। उसको मार डालनेका उपाय यह है कि ऋषियोंको मार डाला जाय’ ||४२।।
श्रीशुक उवाच ।
एवं दुर्मंत्रिभिः कंसः सह सम्मन्त्र्य दुर्मतिः ।
ब्रह्महिंसां हितं मेने कालपाशावृतोऽसुरः ॥ ४३ ॥
श्रीशुकदेवजी कहते हैं-परीक्षित्! एक तो कंसकी बुद्धि स्वयं ही बिगड़ी हुई थी; फिर उसे मन्त्री ऐसे मिले थे, जो उससे भी बढ़कर दुष्ट थे। इस प्रकार उनसे सलाह करके कालके फंदेमें फँसे हुए असुर कंसने यही ठीक समझा कि ब्राह्मणोंको ही मार डाला जाय ।।४३।।
सन्दिश्य साधुलोकस्य कदने कदनप्रियान् ।
कामरूपधरान् दिक्षु दानवान् गृहमाविशत् ॥ ४४ ॥
उसने हिंसाप्रेमी राक्षसोंको संतपुरुषोंकी हिंसा करनेका आदेश दे दिया। वे इच्छानुसार रूप धारण कर सकते थे। जब वे इधर-उधर चले गये, तब कंसने अपने महलमें प्रवेशकिया ।।४४।।
ते वै रजःप्रकृतयः तमसा मूढचेतसः ।
सतां विद्वेषमाचेरुः आरात् आगतमृत्यवः ॥ ४५ ॥
उन असुरोंकी प्रकृति थी रजोगुणी। तमोगुणके कारण उनका चित्त उचित और अनुचितके विवेकसे रहित हो गया था। उनके सिरपर मौत नाच रही थी। यही कारण है कि उन्होंने सन्तोंसे द्वेष किया ।।४५||
आयुः श्रियं यशो धर्मं लोकानाशिष एव च ।
हन्ति श्रेयांसि सर्वाणि पुंसो महदतिक्रमः ॥ ४६ ॥
परीक्षित्! जो लोग महान् सन्त पुरुषोंका अनादर करते हैं, उनका वह कुकर्म उनकी आयु, लक्ष्मी, कीर्ति, धर्म, लोक-परलोक, विषय-भोग और सब-के सब कल्याणके साधनोंको नष्ट कर देता है ।।४६||
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां
संहितायां दशमस्कन्धे पूर्वार्धे चतुर्थोऽध्यायः ॥ ४ ॥
हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥
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