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इंटरनेट पर श्रीरामजी का सबसे बड़ा विश्वकोश | RamCharitManas Ramayana in Hindi English | रामचरितमानस रामायण हिंदी अनुवाद अर्थ सहित

श्रीमद् भागवत महापुराण दशम स्कन्ध

श्रीमद् भागवत महापुराण स्कन्ध 10 अध्याय 44

Spread the Glory of Sri SitaRam!

44 CHAPTER
श्रीमद्भागवतपुराणम्/स्कन्धः १०/पूर्वार्धः/अध्यायः ४४
चाणूरमुष्टिकादीनां मल्लानां निधनं कंसस्य वधश्च –

श्रीशुक उवाच –
( अनुष्टुप् )
एवं चर्चितसङ्‌कल्पो भगवान् मधुसूदनः ।
आससादाथ चणूरं मुष्टिकं रोहिणीसुतः ॥ १ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैं-परीक्षित्! भगवान् श्रीकृष्णने चाणूर आदिके वधका निश्चित संकल्प कर लिया। जोड़ बद दिये जानेपर श्रीकृष्ण चाणूरसे और बलरामजी मुष्टिकसे जा भिड़े ||१||

हस्ताभ्यां हस्तयोर्बद्ध्वा पद्‍भ्यामेव च पादयोः ।
विचकर्षतुरन्योन्यं प्रसह्य विजिगीषया ॥ २ ॥

वे लोग एक-दूसरेको जीत लेनेकी इच्छासे हाथसे हाथ बाँधकर और पैरोंमें पैर अड़ाकर बलपूर्वक अपनी-अपनी ओर खींचने लगे ||२||

अरत्‍नी द्वे अरत्‍निभ्यां जानुभ्यां चैव जानुनी ।
शिरः शीर्ष्णोरसोरस्तौ अन्योन्यं अभिजघ्नतुः ॥ ३ ॥

वे पंजोंसे पंजे, घुटनोंसे घुटने, माथेसे माथा
और छातीसे छाती भिड़ाकर एक-दूसरेपर चोट करने लगे ||३||

परिभ्रामणविक्षेप परिरम्भावपातनैः ।
उत्सर्पणापसर्पणैः चान्योन्यं प्रत्यरुन्धताम् ॥ ४ ॥

उत्थापनैरुन्नयनैः चालनैः स्थापनैरपि ।
परस्परं जिगीषन्तौ अपचक्रतुरात्मनः ॥ ५ ॥

इस प्रकार दाँव-पेंच करतेकरते अपने-अपने जोड़ीदारको पकड़कर इधर-उधर घुमाते, दूर ढकेल देते, जोरसे जकड़ लेते, लिपट जाते, उठाकर पटक देते, छूटकर निकल भागते और कभी छोड़कर पीछे हट जाते थे। इस प्रकार एक-दूसरेको रोकते, प्रहार करते और अपने जोड़ीदारको पछाड़ देनेकी चेष्टा करते। कभी कोई नीचे गिर जाता, तो दूसरा उसे घुटनों और पैरोंमें दबाकर उठा लेता। हाथोंसे पकड़कर ऊपर ले जाता। गलेमें लिपट जानेपर ढकेल देता और आवश्यकता होनेपर हाथ-पाँव इकट्ठे करके गाँठ बाँध देता ।।४-५।।

तद्‍बलाबलवद् युद्धं समेताः सर्वयोषितः ।
ऊचुः परस्परं राजन् सानुकम्पा वरूथशः ॥ ६ ॥

परीक्षित्! इस दंगलको देखनेके लिये नगरकी बहुत-सी महिलाएँ भी आयी हुई थीं। उन्होंने जब देखा कि बड़े-बड़े पहलवानोंके साथ ये छोटे-छोटे बलहीन बालक लड़ाये जा रहे हैं, तब वे अलग-अलग टोलियाँ बनाकर करुणावश आपसमें बातचीत करने लगीं- ||६||

महानयं बताधर्म एषां राजसभासदाम् ।
ये बलाबलवद् युद्धं राज्ञोऽन्विच्छन्ति पश्यतः ॥ ७ ॥

‘यहाँ राजा कंसके सभासद बड़ा अन्याय और अधर्म कर रहे हैं। कितने खेदकी बात है कि राजाके सामने ही ये बली पहलवानों और निर्बल बालकोंके युद्धका अनुमोदन करते हैं ।।७।।

क्व वज्रसारसर्वाङ्‌गौ मल्लौ शैलेन्द्रसन्निभौ ।
क्व चातिसुकुमाराङ्‌गौ किशोरौ नाप्तयौवनौ ॥ ८ ॥

बहिन! देखो, इन पहलवानोंका एक-एक अंग वज्रके समान कठोर है। ये देखनेमें बड़े भारी पर्वत-से मालूम होते हैं। परन्तु श्रीकृष्ण और बलराम अभी जवान भी नहीं हुए हैं। इनकी किशोरावस्था है। इनका एक-एक अंग अत्यन्त सुकुमार है। कहाँ ये और कहाँ वे? ||८||

धर्मव्यतिक्रमो ह्यस्य समाजस्य ध्रुवं भवेत् ।
यत्राधर्मः समुत्तिष्ठेत् न स्थेयं तत्र कर्हिचित् ॥ ९ ॥

जितने लोग यहाँ इकटे हुए हैं, देख रहे हैं, उन्हें अवश्य-अवश्य धर्मोल्लंघनका पाप लगेगा। सखी! अब हमें भी यहाँसे चल देना चाहिये। जहाँ अधर्मकी प्रधानता हो, वहाँ कभी न रहे; यही शास्त्रका नियम है ||९||

न सभां प्रविशेत् प्राज्ञः सभ्यदोषान् अनुस्मरन् ।
अब्रुवन् विब्रुवन्नज्ञो नरः किल्बिषमश्नुते ॥ १० ॥

देखो, शास्त्र कहता है कि बुद्धिमान् पुरुषको सभासदोंके दोषोंको जानते हुए सभामें जाना ठीक नहीं है। क्योंकि वहाँ जाकर उन अवगुणोंको कहना, चुप रह जाना अथवा मैं नहीं जानता ऐसा कह देना—ये तीनों ही बातें मनुष्यको दोषभागी बनाती हैं ।।१०।।

वल्गतः शत्रुमभितः कृष्णस्य वदनाम्बुजम् ।
वीक्ष्यतां श्रमवार्युप्तं पद्मकोशमिवाम्बुभिः ॥ ११ ॥

देखो, देखो, श्रीकृष्ण शत्रुके चारों ओर पैंतरा बदल रहे हैं। उनके मुखपर पसीनेकी बँदें ठीक वैसे ही शोभा दे रही हैं, जैसे कमलकोशपर जलकी बूंदें ।।११।।

किं न पश्यत रामस्य मुखमाताम्रलोचनम् ।
मुष्टिकं प्रति सामर्षं हाससंरम्भशोभितम् ॥ १२ ॥

सखियो! क्या तुम नहीं देख रही हो कि बलरामजीका मुख मुष्टिकके प्रति क्रोधके कारण कुछ-कुछ लाल लोचनोंसे युक्त हो रहा है! फिर भी हास्यका अनिरुद्ध आवेग कितना सुन्दर लग रहा है ।।१२।।

( वसंततिलका )
पुण्या बत व्रजभुवो यदयं नृलिङ्‌ग
गूढः पुराणपुरुषो वनचित्रमाल्यः ।
गाः पालयन्सहबलः क्वणयंश्च वेणुं
विक्रीदयाञ्चति गिरित्ररमार्चिताङ्‌घ्रिः ॥ १३ ॥

सखी! सच पूछो तो व्रजभूमि ही परम पवित्र और धन्य है। क्योंकि वहाँ ये पुरुषोत्तम मनुष्यके वेषमें छिपकर रहते हैं। स्वयं भगवान् शंकर और लक्ष्मीजी जिनके चरणोंकी पूजा करती हैं, वे ही प्रभु वहाँ रंग-बिरंगे जंगली पुष्पोंकी माला धारण कर लेते हैं तथा बलरामजीके साथ बाँसुरी बजाते, गौएँ चराते और तरह-तरहके खेल खेलते हुए आनन्दसे विचरते हैं ।।१३।।

गोप्यस्तपः किमचरन् यदमुष्य रूपं
लावण्यसारमसमोर्ध्वमनन्यसिद्धम् ।
दृग्भिः पिबन्त्यनुसवाभिनवं दुरापम्
एकान्तधाम यशसः श्रीय ऐश्वरस्य ॥ १४ ॥

सखी! पता नहीं, गोपियोंने कौन-सी तपस्या की थी, जो नेत्रोंके दोनोंसे नित्य-निरन्तर इनकी रूप-माधुरीका पान करती रहती हैं। इनका रूप क्या है, लावण्यका सार! संसारमें या उससे परे किसीका भी रूप इनके रूपके समान नहीं है, फिर बढ़कर होनेकी तो बात ही क्या है! सो भी किसीके सँवारने-सजानेसे नहीं, गहने-कपड़ेसे भी नहीं, बल्कि स्वयंसिद्ध है। इस रूपको देखते-देखते तप्ति भी नहीं होती। क्योंकि यह प्रतिक्षण नया होता जाता है, नित्य नूतन है। समग्र यश, सौन्दर्य और ऐश्वर्य इसीके आश्रित हैं। सखियो! परन्तु इसका दर्शन तो औरोंके लिये बड़ा ही दुर्लभ है। वह तो गोपियोंके ही भाग्यमें बदा है ।।१४।।

या दोहनेऽवहनने मथनोपलेप
प्रेङ्‌खेङ्‌खनार्भरुदितो-क्षणमार्जनादौ ।
गायन्ति चैनमनुरक्तधियोऽश्रुकण्ठ्यो
धन्या व्रजस्त्रिय उरुक्रमचित्तयानाः ॥ १५ ॥

सखी! व्रजकी गोपियाँ धन्य हैं। निरन्तर श्रीकष्णमें ही चित्त लगा रहनेके कारण प्रेमभरे हृदयसे, आँसुओंके कारण गदगद कण्ठसे वे इन्हींकी लीलाओंका गान करती रहती हैं। वे दूध दुहते, दही मथते, धान कूटते, घर लीपते, बालकोंको झूला झुलाते, रोते हुए बालकोंको चुप कराते, उन्हें नहलाते-धुलाते, घरोंको झाड़ते-बुहारते-कहाँतक कहें, सारे काम-काज करते समय श्रीकृष्णके गुणोंके गानमें ही मस्त रहती हैं ||१५||

प्रातर्व्रजाद् व्रजत आविशतश्च सायं
गोभिः समं क्वणयतोऽस्य निशम्य वेणुम् ।
निर्गम्य तूर्णमबलाः पथि भूरिपुण्याः
पश्यन्ति सस्मितमुखं सदयावलोकम् ॥ १६ ॥

ये श्रीकृष्ण जब प्रातःकाल गौओंको चरानेके लिये व्रजसे वनमें जाते हैं और सायंकाल उन्हें लेकर व्रजमें लौटते हैं, तब बड़े मधुर स्वरसे बाँसुरी बजाते हैं। उसकी टेर सुनकर गोपियाँ घरका सारा कामकाज छोड़कर झटपट रास्तेमें दौड़ आती हैं और श्रीकृष्णका मन्द-मन्द मुसकान एवं दयाभरी चितवनसे युक्त मुखकमल निहार-निहारकर निहाल होती हैं। सचमुच गोपियाँ ही परम पुण्यवती हैं’ ||१६||

( अनुष्टुप् )
एवं प्रभाषमाणासु स्त्रीषु योगेश्वरो हरिः ।
शत्रुं हन्तुं मनश्चक्रे भगवान् भरतर्षभ ॥ १७ ॥

भरतवंशशिरोमणे! जिस समय पुरवासिनी स्त्रियाँ इस प्रकार बातें कर रही थीं, उसी समय योगेश्वर भगवान् श्रीकृष्णने मन-ही-मन शत्रुको मार डालनेका निश्चय किया ।।१७।।

सभयाः स्त्रीगिरः श्रुत्वा पुत्रस्नेहशुचाऽऽतुरौ ।
पितरौ अन्वतप्येतां पुत्रयोरबुधौ बलम् ॥ १८ ॥

स्त्रियोंकी ये भयपूर्ण बातें माता-पिता देवकी-वसुदेव भी सुन रहे थे। वे पुत्रस्नेहवश शोकसे विह्वल हो गये। उनके हृदयमें बड़ी जलन, बड़ी पीड़ा होने लगी। क्योंकि वे अपने पत्रोंके बलवीर्यको नहीं जानते थे ।।१८।।

तैस्तैर्नियुद्धविधिभिः विविधैरच्युतेतरौ ।
युयुधाते यथान्योन्यं तथैव बलमुष्टिकौ ॥ १९ ॥

भगवान् श्रीकृष्ण और उनसे भिड़नेवाला चाणूर दोनों ही भिन्न-भिन्न प्रकारके दाँव-पेंचका प्रयोग करते हुए परस्पर जिस प्रकार लड़ रहे थे, वैसे ही बलरामजी और मुष्टिक भी भिड़े हुए थे ।।१९।।

भगवद्‍गात्रनिष्पातैः वज्रनीष्पेषनिष्ठुरैः ।
चाणूरो भज्यमानाङ्‌गो मुहुर्ग्लानिमवाप ह ॥ २० ॥

भगवान्के अंग-प्रत्यंग वज्रसे भी कठोर हो रहे थे। उनकी रगड़से चाणूरकी रग-रग ढीली पड़ गयी। बार-बार उसे ऐसा मालूम हो रहा था मानो उसके शरीरके सारे बन्धन टूट रहे हैं। उसे बड़ी ग्लानि, बड़ी व्यथा हई ||२०||

स श्येनवेग उत्पत्य मुष्टीकृत्य करावुभौ ।
भगवन्तं वासुदेवं क्रुद्धो वक्षस्यबाधत ॥ २१ ॥

अब वह अत्यन्त क्रोधित होकर बाजकी तरह झपटा और दोनों हाथोंके चूंसे बाँधकर उसने भगवान्श्रीकृष्णकी छातीपर प्रहार किया ।।२१।।

नाचलत् तत्प्रहारेण मालाहत इव द्विपः ।
बाह्वोर्निगृह्य चाणूरं बहुशो भ्रामयन् हरिः ॥ २२ ॥

भूपृष्ठे पोथयामास तरसा क्षीण जीवितम् ।
विस्रस्ताकल्पकेशस्रग् इन्द्रध्वज इवापतत् ॥ २३ ॥

परन्तु उसके प्रहारसे भगवान् तनिक भी विचलित न हुए, जैसे फूलोंके गजरेकी मारसे गजराज। उन्होंने चाणूरकी दोनों भुजाएँ पकड़ ली और उसे अन्तरिक्षमें बड़े वेगसे कई बार घुमाकर धरतीपर दे मारा। परीक्षित्! चाणूरके प्राण तो घुमानेके समय ही निकल गये थे। उसकी वेष-भूषा अस्त-व्यस्त हो गयी, केश और मालाएँ बिखर गयीं, वह इन्द्रध्वज (इन्द्रकी पूजाके लिये खड़े किये गये बड़े झंडे) के समान गिर पड़ा ।।२२-२३।।

तथैव मुष्टिकः पूर्वं स्वमुष्ट्याभिहतेन वै ।
बलभद्रेण बलिना तलेनाभिहतो भृशम् ॥ २४ ॥

इसी प्रकार मुष्टिकने भी पहले बलरामजीको एक चूंसा मारा। इसपर बली बलरामजीने उसे बड़े जोरसे एक तमाचा जड़ दिया ||२४||

प्रवेपितः स रुधिरं उद्‌वमन् मुखतोऽर्दितः ।
व्यसुः पपातोर्व्युपस्थे वाताहत इवाङ्‌घ्रिपः ॥ २५ ॥

तमाचा लगनेसे वह काँप उठा और आँधीसे उखड़े हुए वृक्षके समान अत्यन्त व्यथित और अन्तमें प्राणहीन होकर खून उगलता हआ पृथ्वीपर गिर पड़ा ।।२५||

ततः कूटमनुप्राप्तं रामः प्रहरतां वरः ।
अवधीत् लीलया राजन् सावज्ञं वाममुष्टिना ॥ २६ ॥

हे राजन्! इसके बाद योद्धाओंमें श्रेष्ठ भगवान् बलरामजीने अपने सामने आते ही कूट नामक पहलवानको खेल-खेल में ही बायें हाथके घूसेसे उपेक्षापूर्वक मार डाला ||२६||

तर्ह्येव हि शलः कृष्ण प्रपदाहतशीर्षकः ।
द्विधा विदीर्णस्तोशलक उभावपि निपेततुः ॥ २७ ॥

उसी समय भगवान् श्रीकृष्णने पैरकी ठोकरसे शलका सिर धड़से अलग कर दिया और तोशलको तिनकेकी तरह चीरकर दो टुकड़े कर दिया। इस प्रकार दोनों धराशायी हो गये ।।२७।।

चाणूरे मुष्टिके कूटे शले तोशलके हते ।
शेषाः प्रदुद्रुवुर्मल्लाः सर्वे प्राणपरीप्सवः ॥ २८ ॥

जब चाणूर, मुष्टिक, कूट, शल और तोशल—ये पाँचों पहलवान मर चुके, तब जो बच रहे थे, वे अपने प्राण बचानेके लिये स्वयं वहाँसे भाग खड़े हुए ।।२८।।

गोपान् वयस्यान् आकृष्य तैः संसृज्य विजह्रतुः ।
वाद्यमानेषु तूर्येषु वल्गन्तौ रुतनूपुरौ ॥ २९ ॥

उनके भाग जानेपर भगवान् श्रीकृष्ण और बलरामजी अपने समवयस्क ग्वाल-बालोंको खींच-खींचकर उनके साथ भिड़ने और नाच-नाचकर भेरीध्वनिके साथ अपने नूपुरोंकी झनकारको मिलाकर मल्लक्रीडा-कुश्तीके खेल करने लगे ।।२९।।

जनाः प्रजहृषुः सर्वे कर्मणा रामकृष्णयोः ।
ऋते कंसं विप्रमुख्याः साधवः साधु साध्विति ॥ ३० ॥

भगवान् श्रीकृष्ण और बलरामकी इस अद्रभुत लीलाको देखकर सभी दर्शकोंको बड़ा आनन्द हुआ। श्रेष्ठ ब्राह्मण और साधु पुरुष ‘धन्य है, धन्य है’-इस प्रकार कहकर प्रशंसा करने लगे। परन्तु कंसको इससे बड़ा दुःख हुआ। वह और भी चिढ़ गया ।।३०।।

हतेषु मल्लवर्येषु विद्रुतेषु च भोजराट् ।
न्यवारयत् स्वतूर्याणि वाक्यं चेदमुवाच ह ॥ ३१ ॥

जब उसके प्रधान पहलवान मार डाले गये और बचे हुए सब-के-सब भाग गये, तब भोजराज कंसने अपने बाजे-गाजे बंद करा दिये और अपने सेवकोंको यह आज्ञा दी– ||३१||

निःसारयत दुर्वृत्तौ वसुदेवात्मजौ पुरात् ।
धनं हरत गोपानां नन्दं बध्नीत दुर्मतिम् ॥ ३२ ॥

‘अरे, वसुदेवके इन दुश्चरित्र लड़कोंको नगरसे बाहर निकाल दो। गोपोंका सारा धन छीन लो और दुर्बुद्धि नन्दको कैद कर लो ||३२||

वसुदेवस्तु दुर्मेधा हन्यतामाश्वसत्तमः ।
उग्रसेनः पिता चापि सानुगः परपक्षगः ॥ ३३ ॥

वसुदेव भी बड़ा कुबुद्धि और दुष्ट है। उसे शीघ्र मार डालो और उग्रसेन मेरा पिता होनेपर भी अपने अनुयायियोंके साथ शत्रुओंसे मिला हुआ है। इसलिये उसे भी जीता मत छोडो’ ||३३।।

एवं विकत्थमाने वै कंसे प्रकुपितोऽव्ययः ।
लघिम्नोत्पत्य तरसा मञ्चमुत्तुङ्‌गमारुहत् ॥ ३४ ॥

कंस इस प्रकार बढ़-बढ़कर बकवाद कर रहा था कि अविनाशी श्रीकृष्ण कुपित होकर फुर्तीसे वेगपूर्वक उछलकर लीलासे ही उसके ऊँचे मंचपर जा चढ़े ||३४।।

तं आविशन्तमालोक्य मृत्युमात्मन आसनात् ।
मनस्वी सहसोत्थाय जगृहे सोऽसिचर्मणी ॥ ३५ ॥

जब मनस्वी कंसने देखा कि मेरे मृत्युरूप भगवान् श्रीकृष्ण सामने आ गये, तब वह सहसा अपने सिंहासनसे उठ खड़ा हुआ और हाथमें ढाल तथा तलवार उठा ली ।।३५।।

( मिश्र )
तं खड्गपाणिं विचरन्तमाशु
श्येनं यथा दक्षिणसव्यमम्बरे ।
समग्रहीद् दुर्विषहोग्रतेजा
यथोरगं तार्क्ष्यसुतः प्रसह्य ॥ ३६ ॥

हाथमें तलवार लेकर वह चोट करनेका अवसर ढूँढ़ता हुआ पैंतरा बदलने लगा। आकाशमें उड़ते हुए बाजके समान वह कभी दायीं ओर जाता तो कभी बायीं ओर। परन्तु भगवान्का प्रचण्ड तेज अत्यन्त दुस्सह है। जैसे गरुड़ साँपको पकड़ लेते हैं, वैसे ही भगवान्ने बलपूर्वक उसे पकड़ लिया ।।३६।।

प्रगृह्य केशेषु चलत्किरीतं
निपात्य रङ्‌गोपरि तुङ्‌गमञ्चात् ।
तस्योपरिष्टात् स्वत्स्वयमब्जनाभः
पपात विश्वाश्रय आत्मतन्त्रः ॥ ३७ ॥

इसी समय कंसका मुकुट गिर गया और भगवान्ने उसके केश पकड़कर उसे भी उस ऊँचे मंचसे रंगभूमिमें गिरा दिया। फिर परम स्वतन्त्र और सारे विश्वके आश्रय भगवान् श्रीकृष्ण उसके ऊपर स्वयं कूद पड़े ||३७।।

तं सम्परेतं विचकर्ष भूमौ
हरिर्यथेभं जगतो विपश्यतः ।
हा हेति शब्दः सुमहान् तदाभूद्
उदीरितः सर्वजनैर्नरेन्द्र ॥ ३८ ॥

उनके कूदते ही कंसकी मृत्यु हो गयी। सबके देखते-देखते भगवान् श्रीकृष्ण कंसकी लाशको धरतीपर उसी प्रकार घसीटने लगे, जैसे सिंह हाथीको घसीटे। नरेन्द्र! उस समय सबके मुँहसे ‘हाय! हाय!’ की बड़ी ऊँची आवाज सुनायी पड़ी ।।३८।।

स नित्यदोद्विग्नधिया तमीश्वरं
पिबन् वदन् वा विचरन् स्वपन्श्वसन् ।
ददर्श चक्रायुधमग्रतो यतः
तदेव रूपं दुरवापमाप ॥ ३९ ॥

कंस नित्य-निरन्तर बड़ी घबड़ाहटके साथ श्रीकृष्णका ही चिन्तन करता रहता था। वह खाते-पीते, सोते-चलते, बोलते और साँस लेते-सब समय अपने सामने चक्र हाथमें लिये भगवान् श्रीकृष्णको ही देखता रहता था। इस नित्य चिन्तनके फलस्वरूप-वह चाहे द्वेषभावसे ही क्यों न किया गया हो–उसे भगवान्के उसी रूपकी प्राप्ति हुई, सारूप्य मुक्ति हुई, जिसकी प्राप्ति बड़े-बड़े तपस्वी योगियोंके लिये भी कठिन है ।।३९।।

( अनुष्टुप् )
तस्यानुजा भ्रातरोऽष्टौ कंकन्यग्रोधकादयः ।
अभ्यधावन् अतिक्रुद्धा भ्रातुर्निर्वेशकारिणः ॥ ४० ॥

कंसके कंक और न्यग्रोध आदि आठ छोटे भाई थे। वे अपने बड़े भाईका बदला लेनेकेलिये क्रोधसे आगबबूले होकर भगवान् श्रीकृष्ण और बलरामकी ओर दौड़े ।।४०||

तथातिरभसांस्तांस्तु संयत्तात् रोहिणीसुतः ।
अहन् परिघमुद्यम्य पशूनिव मृगाधिपः ॥ ४१ ॥

जब भगवान् बलरामजीने देखा कि वे बड़े वेगसे युद्ध के लिये तैयार होकर दौड़े आ रहे हैं, तब उन्होंने परिघ उठाकर उन्हें वैसे ही मार डाला, जैसे सिंह पशुओंको मार डालता है ।।४१।।

नेदुर्दुन्दुभयो व्योम्नि ब्रह्मेशाद्या विभूतयः ।
पुष्पैः किरन्तस्तं प्रीताः शशंसुर्ननृतुः स्त्रियः ॥ ४२ ॥

उस समय आकाशमें दुन्दुभियाँ बजने लगीं। भगवान्के विभूतिस्वरूप ब्रह्मा, शंकर आदि देवता बड़े आनन्दसे पुष्पोंकी वर्षा करते हए उनकी स्तुति करने लगे। अप्सराएँ नाचने लगीं ।।४२।।

तेषां स्त्रियो महाराज सुहृन्मरणदुःखिताः ।
तत्राभीयुर्विनिघ्नन्त्यः शीर्षाण्यश्रुविलोचनाः ॥ ४३ ॥

महाराज! कंस और उसके भाइयोंकी स्त्रियाँ अपने आत्मीय स्वजनोंकी मृत्युसे अत्यन्त दुःखित हुईं। वे अपने सिर पीटती हुई आँखोंमें आँसू भरे वहाँ आयीं ।।४३।।

शयानान् न्वीरशय्यायां पतीन् आलिङ्‌ग्य शोचतीः ।
विलेपुः सुस्वरं नार्यो विसृजन्त्यो मुहुः शुचः ॥ ४४ ॥

वीरशय्यापर सोये हुए अपने पतियोंसे लिपटकर वे शोकग्रस्त हो गयीं और बार-बार आँसूबहाती हुई ऊँचे स्वरसे विलाप करने लगीं ।।४४।।

हा नाथ प्रिय धर्मज्ञ करुणानाथवत्सल ।
त्वया हतेन निहता वयं ते सगृहप्रजाः ॥ ४५ ॥

‘हा नाथ! हे प्यारे! हे धर्मज्ञ! हे करुणामय! हे अनाथवत्सल! आपकी मृत्युसे हम सबकी मृत्यु हो गयी। आज हमारे घर उजड़ गये। हमारी सन्तान अनाथ हो गयी ।।४५।।

त्वया विरहिता पत्या पुरीयं पुरुषर्षभ ।
न शोभते वयमिव निवृत्तोत्सवमङ्‌गला ॥ ४६ ॥

पुरुषश्रेष्ठ! इस पुरीके आप ही स्वामी थे। आपके विरहसे इसके उत्सव समाप्त हो गये और मंगलचिह्न उतर गये। यह हमारी ही भाँति विधवा होकर शोभाहीन हो गयी ।।४६||

अनागसां त्वं भूतानां कृतवान् द्रोहमुल्बणम् ।
तेनेमां भो दशां नीतो भूतध्रुक् को लभेत शम् ॥ ४७ ॥

स्वामी! आपने निरपराध प्राणियोंके साथ घोर द्रोह किया था, अन्याय किया था; इसीसे आपकी यह गति हुई। सच है, जो जगत्के जीवोंसे द्रोह करता है, उनका अहित करता है, ऐसा कौन पुरुष शान्ति पा सकता है? ||४७।।

सर्वेषामिह भूतानां एष हि प्रभवाप्ययः ।
गोप्ता च तदवध्यायी न क्वचित् सुखमेधते ॥ ४८ ॥

ये भगवान् श्रीकृष्ण जगतके समस्त प्राणियोंकी उत्पत्ति और प्रलयके आधार हैं। यही रक्षक भी हैं। जो इनका बुरा चाहता है, इनका तिरस्कार करता है; वह कभी सुखी नहीं हो सकता ।।४८।।

श्रीशुक उवाच –
राजयोषित आश्वास्य भगवान् लोकभावनः ।
यामाहुर्लौकिकीं संस्थां हतानां समकारयत् ॥ ४९ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैं-परीक्षित्! भगवान् श्रीकृष्ण ही सारे संसारके जीवनदाता हैं। उन्होंने रानियोंको ढाढ़स बंधाया, सान्त्वना दी; फिर लोक-रीतिके अनुसार मरनेवालोंका जैसा क्रिया-कर्म होता है, वह सब कराया ।।४९।।

मातरं पितरं चैव मोचयित्वाथ बन्धनात् ।
कृष्णरामौ ववन्दाते शिरसा स्पृश्य पादयोः ॥ ५० ॥

तदनन्तर भगवान् श्रीकृष्ण और बल-रामजीने जेलमें जाकर अपने माता-पिताको बन्धनसे छुड़ाया और सिरसे स्पर्श करके उनके चरणोंकी वन्दना की ।।५०||

देवकी वसुदेवश्च विज्ञाय जगदीश्वरौ ।
कृतसंवन्दनौ पुत्रौ सस्वजाते न शङ्‌कितौ ॥ ५१ ॥

किंतु अपने पुत्रोंके प्रणाम करनेपर भी देवकी और वसुदेवने उन्हें जगदीश्वर समझकर अपने हृदयसे नहीं लगाया। उन्हें शंका हो गयी कि हम जगदीश्वरको पुत्र कैसे समझें ।।५१।।

इति श्रीमद्‍भागवते महापुराणे पारमहंस्यां
संहितायां दशमस्कन्धे पूर्वार्धे कंसवधो नाम चतुर्चत्वारिंशोऽध्यायः ॥ ४४ ॥
हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥


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Shweta Srinet

गरिमा जी संस्कृत भाषा में परास्नातक एवं राष्ट्रीय पात्रता परीक्षा उत्तीर्ण हैं। यह RamCharit.in हेतु 2018 से सतत पूर्णकालिक सदस्य के रूप में कार्य कर रही हैं। धार्मिक ग्रंथों को उनके मूल आध्यात्मिक रूप में सरलता से उपलब्ध कराने का कार्य इसके द्वारा ही निष्पादित होता है।

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