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इंटरनेट पर श्रीरामजी का सबसे बड़ा विश्वकोश | RamCharitManas Ramayana in Hindi English | रामचरितमानस रामायण हिंदी अनुवाद अर्थ सहित

श्रीमद् भागवत महापुराण दशम स्कन्ध

श्रीमद् भागवत महापुराण स्कन्ध 10 अध्याय 45

Spread the Glory of Sri SitaRam!

45 CHAPTER
श्रीमद्भागवतपुराणम्
स्कन्धः १०, पूर्वार्धः, अध्यायः ४५

वसुदेवदेवकी सान्त्वनम्; उग्रसेनस्य राज्याभिषेकः; रामकृष्णयोरुपनयनं विद्याध्ययनं, गुरुर्मृतपुत्रस्यानयनं च –

अथ पञ्चचत्वारिंशोऽध्यायः
श्रीशुक उवाच
पितरावुपलब्धार्थौ विदित्वा पुरुषोत्तमः
मा भूदिति निजां मायां ततान जनमोहिनीम् १

श्रीशुकदेवजी कहते हैं-परीक्षित्! भगवान् श्रीकृष्णने देखा कि माता-पिताको मेरे ऐश्वर्यका, मेरे भगवद्भावका ज्ञान हो गया है, परंतु इन्हें ऐसा ज्ञान होना ठीक नहीं, (इससे तो ये पुत्र-स्नेहका सुख नहीं पा सकेंगे-) ऐसा सोचकर उन्होंने उनपर अपनी वह योगमाया फैला दी, जो उनके स्वजनोंको मुग्ध रखकर उनकी लीलामें सहायक होती है ||१||

उवाच पितरावेत्य साग्रजः सात्वर्षभः
प्रश्रयावनतः प्रीणन्नम्ब तातेति सादरम् २

यवंशशिरोमणि भगवान् श्रीकृष्ण बड़े भाई बलरामजीके साथ अपने माँ-बापके पास जाकर आदरपूर्वक और विनयसे झुककर ‘मेरी अम्मा! मेरे पिताजी!’ इन शब्दोंसे उन्हें प्रसन्न करते हुए कहने लगे- ||२||

नास्मत्तो युवयोस्तात नित्योत्कण्ठितयोरपि
बाल्यपौगण्डकैशोराः पुत्राभ्यामभवन्क्वचित् ३

‘पिताजी! माताजी! हम आपके पुत्र हैं और आप हमारे लिये सर्वदा उत्कण्ठित रहे हैं, फिर भी आप हमारे बाल्य, पौगण्ड और किशोर-अवस्थाका सुख हमसे नहीं पा सके ||३||

न लब्धो दैवहतयोर्वासो नौ भवदन्तिके
यां बालाः पितृगेहस्था विन्दन्ते लालिता मुदम् ४

दर्दैववश हमलोगोंको आपके पास रहनेका सौभाग्य ही नहीं मिला। इसीसे बालकोंको माता-पिताके घरमें रहकर जो लाड़-प्यारका सुख मिलता है, वह हमें भी नहीं मिल सका ||४||

सर्वार्थसम्भवो देहो जनितः पोषितो यतः
न तयोर्याति निर्वेशं पित्रोर्मर्त्यः शतायुषा ५
पिता और माता ही इस शरीरको जन्म देते हैं और इसका लालनपालन करते हैं। तब कहीं जाकर यह शरीर धर्म, अर्थ, काम अथवा मोक्षकी प्राप्तिका साधन बनता है। यदि कोई मनुष्य सौ वर्षतक जीकर माता और पिताकी सेवा करता रहे, तब भी वहउनके उपकारसे उऋण नहीं हो सकता ||५||

यस्तयोरात्मजः कल्प आत्मना च धनेन च
वृत्तिं न दद्यात्तं प्रेत्य स्वमांसं खादयन्ति हि ६

जो पुत्र सामर्थ्य रहते भी अपने माँ-बापकी शरीर और धनसे सेवा नहीं करता, उसके मरनेपर यमदूत उसे उसके अपने शरीरका मांस खिलाते हैं ।।६।।

मातरं पितरं वृद्धं भार्यां साध्वीं सुतं शिशुम्
गुरुं विप्रं प्रपन्नं च कल्पोऽबिभ्रच्छ्वसन्मृतः ७

जो पुरुष समर्थ होकर भी बूढ़े माता-पिता, सती पत्नी, बालक, सन्तान, गुरु, ब्राह्मण और शरणागतका भरण-पोषण नहीं करता—वह जीता हुआ भी मुर्देके समान ही है! ||७||

तन्नावकल्पयोः कंसान्नित्यमुद्विग्नचेतसोः
मोघमेते व्यतिक्रान्ता दिवसा वामनर्चतोः ८

पिताजी! हमारे इतने दिन व्यर्थ ही बीत गये। क्योंकि कंसके भयसे सदा उद्विग्नचित्त रहनेके कारण हम आपकी सेवा करने में असमर्थ रहे ||८||

तत्क्षन्तुमर्हथस्तात मातर्नौ परतन्त्रयोः
अकुर्वतोर्वां शुश्रूषां क्लिष्टयोर्दुर्हृदा भृशम् ९

मेरी माँ और मेरे पिताजी! आप दोनों हमें क्षमा करें। हाय! दुष्ट कंसने आपको इतने-इतने कष्ट दिये, परंतु हम परतन्त्र रहनेके कारण आपकी कोई सेवा-शुश्रूषा न कर सके’ ||९||

श्रीशुक उवाच
इति मायामनुष्यस्य हरेर्विश्वात्मनो गिरा
मोहितावङ्कमारोप्य परिष्वज्यापतुर्मुदम् १०

श्रीशुकदेवजी कहते हैं-परीक्षित्! अपनी लीलासे मनुष्य बने हुए विश्वात्मा श्रीहरिकी इस वाणीसे मोहित हो देवकी-वसुदेवने उन्हें गोदमें उठा लिया और हृदयसे चिपकाकर परमानन्द प्राप्त किया ।।१०।।

सिञ्चन्तावश्रुधाराभिः स्नेहपाशेन चावृतौ
न किञ्चिदूचतू राजन्बाष्पकण्ठौ विमोहितौ ११

राजन्! वे स्नेह-पाशसे बँधकर पूर्णतः मोहित हो गये और आँसुओंकी धारासे उनका अभिषेक करने लगे। यहाँतक कि आँसुओंके कारण गला रुंध जानेसे वे कुछ बोल भी न सके ।।११।।

एवमाश्वास्य पितरौ भगवान्देवकीसुतः
मातामहं तूग्रसेनं यदूनामकरोन्नृपम् १२

देवकीनन्दन भगवान् श्रीकृष्णने इस प्रकार अपने माता-पिताको सान्त्वना देकर अपने नाना उग्रसेनको यदुवंशियोंका राजा बना दिया ।।१२।।

आह चास्मान्महाराज प्रजाश्चाज्ञप्तुमर्हसि
ययातिशापाद्यदुभिर्नासितव्यं नृपासने १३

और उनसे कहा—’महाराज! हम आपकी प्रजा हैं। आप हमलोगोंपर शासन कीजिये। राजा ययातिका शाप होनेके कारण यदुवंशी राजसिंहासनपर नहीं बैठ सकते; (परंतु मेरी ऐसी ही इच्छा है, इसलिये आपको कोई दोष न होगा ||१३||

मयि भृत्य उपासीने भवतो विबुधादयः
बलिं हरन्त्यवनताः किमुतान्ये नराधिपाः १४

जब मैं सेवक बनकर आपकी सेवा करता रहूँगा, तब बड़े-बड़े देवता भी सिर झुकाकर आपको भेंट देंगे।’ दूसरे नरपतियोंके बारेमें तो कहना ही क्या है ।।१४।।

सर्वान्स्वान्ज्ञातिसम्बन्धान्दिग्भ्यः कंसभयाकुलान्
यदुवृष्ण्यन्धकमधु दाशार्हकुकुरादिकान् १५

सभाजितान्समाश्वास्य विदेशावासकर्शितान्
न्यवासयत्स्वगेहेषु वित्तैः सन्तर्प्य विश्वकृत् १६

परीक्षित! भगवान् श्रीकृष्ण ही सारे विश्वके विधाता हैं। उन्होंने, जो कंसके भयसे व्याकुल होकर इधर-उधर भाग गये थे, उन यदु, वृष्णि, अन्धक, मधु, दाशार्ह और कुकुर आदि वंशोंमें उत्पन्न समस्त सजातीय सम्बन्धियोंको ढूँढ-ढूँढ़कर बुलवाया। उन्हें घरसे बाहर रहनेमें बड़ा क्लेश उठाना पड़ा था। भगवान्ने उनका सत्कार किया, सान्त्वना दी और उन्हें खूब धनसम्पत्ति देकर तप्त किया तथा अपने-अपने घरोंमें बसा दिया ।।१५-१६।।

कृष्णसङ्कर्षणभुजैर्गुप्ता लब्धमनोरथाः
गृहेषु रेमिरे सिद्धाः कृष्णरामगतज्वराः १७

अब सारे-के-सारे यदुवंशी भगवान् श्रीकृष्ण तथा बलरामजीके बाहुबलसे सुरक्षित थे। उनकी कृपासे उन्हें किसी प्रकारकी व्यथा नहीं थी, दुःख नहीं था। उनके सारे मनोरथ सफल हो गये थे। वे कृतार्थ हो गये थे। अब वे अपने-अपने घरोंमें आनन्दसे विहार करने लगे ||१७||

वीक्षन्तोऽहरहः प्रीता मुकुन्दवदनाम्बुजम्
नित्यं प्रमुदितं श्रीमत्सदयस्मितवीक्षणम् १८
भगवान् श्रीकृष्णका वदन आनन्दका सदन है। वह नित्य प्रफुल्लित, कभी न कुम्हलानेवाला कमल है। उसका सौन्दर्य अपार है। सदय हास और चितवन उसपर सदा नाचती रहती है। यदुवंशी दिन-प्रतिदिन उसका दर्शन करके आनन्दमग्न रहते ||१८।।

तत्र प्रवयसोऽप्यासन्युवानोऽतिबलौजसः
पिबन्तोऽक्षैर्मुकुन्दस्य मुखाम्बुजसुधां मुहुः १९

मथुराके वृद्ध पुरुष भी युवकोंके समान अत्यन्त बलवान् और उत्साही हो गये थे; क्योंकि वे अपने नेत्रोंके दोनोंसे बारंबार भगवान्के मुखारविन्दका अमृतमय मकरन्द-रस पान करते रहते थे ।।१९।।

अथ नन्दं समसाद्य भगवान्देवकीसुतः
सङ्कर्षणश्च राजेन्द्र परिष्वज्येदमूचतुः २०

प्रिय परीक्षित! अब देवकीनन्दन भगवान श्रीकष्ण और बलरामजी दोनों ही नन्दबाबाके पास आये और गले लगनेके बाद उनसे कहने लगे- ||२०||

पितर्युवाभ्यां स्निग्धाभ्यां पोषितौ लालितौ भृशम्
पित्रोरभ्यधिका प्रीतिरात्मजेष्वात्मनोऽपि हि २१

‘पिताजी! आपने और माँ यशोदाने बड़े स्नेह और दुलारसे हमारा लालन-पालन किया है। इसमें कोई सन्देह नहीं कि माता-पिता सन्तानपर अपने शरीरसे भी अधिक स्नेह करते हैं ||२१||

स पिता सा च जननी यौ पुष्णीतां स्वपुत्रवत्
शिशून्बन्धुभिरुत्सृष्टानकल्पैः पोषरक्षणे २२

जिन्हें पालन-पोषण न कर सकनेके कारण स्वजन-सम्बन्धियोंने त्याग दिया है, उन बालकोंको जो लोग अपने पुत्रके समान लाड़-प्यारसे पालते हैं, वे ही वास्तवमें उनके माँ-बाप हैं ||२२।।

यात यूयं व्रजं तात वयं च स्नेहदुःखितान्
ज्ञातीन्वो द्रष्टुमेष्यामो विधाय सुहृदां सुखम् २३

पिताजी! अब आपलोग व्रजमें जाइये। इसमें सन्देह नहीं कि हमारे बिना वात्सल्य-स्नेहके कारण आपलोगोंको बहुत दुःख होगा। यहाँके सुहृद्-सम्बन्धियोंको सुखी करके हम आपलोगोंसे मिलनेके लिये आयेंगे’ ||२३।।

एवं सान्त्वय्य भगवान्नन्दं सव्रजमच्युतः
वासोऽलङ्कारकुप्याद्यैरर्हयामास सादरम् २४

भगवान् श्रीकृष्णने नन्दबाबा और दूसरे व्रजवासियोंको इस प्रकार समझा-बुझाकर बड़े आदरके साथ वस्त्र, आभूषण और अनेक धातुओंके बने बरतन आदि देकर उनका सत्कार किया ।।२४।।

इत्युक्तस्तौ परिष्वज्य नन्दः प्रणयविह्वलः
पूरयन्नश्रुभिर्नेत्रे सह गोपैर्व्रजं ययौ २५

भगवान्की बात सुनकर नन्द-बाबाने प्रेमसे अधीर होकर दोनों भाइयोंको गले लगा लिया और फिर नेत्रोंमें आँसू भरकर गोपोंके साथ व्रजके लिये प्रस्थान किया ।।२५।।

अथ शूरसुतो राजन्पुत्रयोः समकारयत्
पुरोधसा ब्राह्मणैश्च यथावद्द्विजसंस्कृतिम् २६

हे राजन्! इसके बाद वसुदेवजीने अपने पुरोहित गर्गाचार्य तथा दूसरे ब्राह्मणोंसे दोनों पुत्रोंका विधिपूर्वक द्विजाति-समुचित यज्ञोरवीत संस्कार करवाया ।।२६।।

तेभ्योऽदाद्दक्षिणा गावो रुक्ममालाः स्वलङ्कृताः
स्वलङ्कृतेभ्यः सम्पूज्य सवत्साः क्षौममालिनीः २७

उन्होंने विविध प्रकारके वस्त्र और आभूषणोंसे ब्राह्मणोंका सत्कार करके उन्हें बहुत-सी दक्षिणा तथा बछड़ोंवाली गौएँ दीं। सभी गौएँ गलेमें सोनेकी माला पहने हुए थीं तथा और भी बहुतसे आभूषणों एवं रेशमी वस्त्रोंकी मालाओंसे विभूषित थीं ।।२७।।

याः कृष्णरामजन्मर्क्षे मनोदत्ता महामतिः
ताश्चाददादनुस्मृत्य कंसेनाधर्मतो हृताः २८

महामति वसुदेवजीने भगवान् श्रीकृष्ण और बलरामजीके जन्म-नक्षत्रमें जितनी गौएँ मन-ही-मन संकल्प करके दी थीं, उन्हें पहले कंसने अन्यायसे छीन लिया था। अब उनका स्मरण करके उन्होंने ब्राह्मणोंको वे फिरसे दीं ||२८||

ततश्च लब्धसंस्कारौ द्विजत्वं प्राप्य सुव्रतौ
गर्गाद्यदुकुलाचार्याद्गायत्रं व्रतमास्थितौ २९

इस प्रकार यदुवंशके आचार्य गर्गजीसे संस्कार कराकर बलरामजी और भगवान् श्रीकृष्ण द्विजत्वको प्राप्त हुए। उनका ब्रह्मचर्यव्रत अखण्ड तो था ही, अब उन्होंने गायत्रीपूर्वक अध्ययन करनेके लिये उसे नियमतः स्वीकार किया ।।२९।।

प्रभवौ सर्वविद्यानां सर्वज्ञौ जगदीश्वरौ
नान्यसिद्धामलं ज्ञानं गूहमानौ नरेहितैः ३०

श्रीकृष्ण और बलराम जगत्के एकमात्र स्वामी हैं। सर्वज्ञ हैं। सभी विद्याएँ उन्हींसे निकली हैं। उनका निर्मल ज्ञान स्वतःसिद्ध है। फिर भी उन्होंने मनुष्यकी-सी लीला करके उसे छिपा रखा था ।।३०।।

अथो गुरुकुले वासमिच्छन्तावुपजग्मतुः
काश्यं सान्दीपनिं नाम ह्यवन्तिपुरवासिनम् ३१

अब वे दोनों गुरुकुलमें निवास करनेकी इच्छासे काश्यपगोत्री सान्दीपनि मुनिके पास गये, जो अवन्तीपुर (उज्जैन) में रहते थे ।।३१।।

यथोपसाद्य तौ दान्तौ गुरौ वृत्तिमनिन्दिताम्
ग्राहयन्तावुपेतौ स्म भक्त्या देवमिवादृतौ ३२

वे दोनों भाई विधिपूर्वक गुरुजीके पास रहने लगे। उस समय वे बड़े ही सुसंयत, अपनी चेष्टाओंको सर्वथा नियमित रखे हुए थे। गुरुजी तो उनका आदर करते ही थे, भगवान् श्रीकृष्ण और बलरामजी भी गुरुकी उत्तम सेवा कैसे करनी चाहिये, इसका आदर्श लोगोंके सामने रखते हुए बड़ी भक्तिसे इष्टदेवके समान उनकी सेवा करने लगे ।।३२।।

तयोर्द्विजवरस्तुष्टः शुद्धभावानुवृत्तिभिः
प्रोवाच वेदानखिलान् साङ्गोपनिषदो गुरुः ३३

गुरुवर सान्दीपनिजी उनकी शुद्धभावसे युक्त सेवासे बहुत प्रसन्न हुए।उन्होंने दोनों भाइयोंको छहों अंग और उपनिषदोंके सहित सम्पूर्ण वेदोंकी शिक्षा दी ।।३३।।

सरहस्यं धनुर्वेदं धर्मान्न्यायपथांस्तथा
तथा चान्वीक्षिकीं विद्यां राजनीतिं च षड्विधाम् ३४

इनके सिवा मन्त्र और देवताओंके ज्ञानके साथ धनुर्वेद, मनुस्मृति आदि धर्मशास्त्र, मीमांसा आदि, वेदोंका तात्पर्य बतलानेवाले शास्त्र, तर्कविद्या (न्यायशास्त्र) आदिकी भी शिक्षा दी। साथ ही सन्धि, विग्रह, यान, आसन, द्वैध और आश्रय-इन छ: भेदोंसे युक्त राजनीतिका भी अध्ययन कराया ।।३४।।

सर्वं नरवरश्रेष्ठौ सर्वविद्याप्रवर्तकौ
सकृन्निगदमात्रेण तौ सञ्जगृहतुर्नृप ३५

परीक्षित्! भगवान् श्रीकृष्ण और बलराम सारी विद्याओंके प्रवर्तक हैं। इस समय केवल श्रेष्ठ मनुष्यका-सा व्यवहार करते हुए ही वे अध्ययन कर रहे थे। उन्होंने गुरुजीके केवल एक बार कहनेमात्रसे सारी विद्याएँ सीख लीं ||३५||

अहोरात्रैश्चतुःषष्ट्या संयत्तौ तावतीः कलाः*
गुरुदक्षिणयाचार्यं छन्दयामासतुर्नृप ३६

केवल चौंसठ दिनरातमें ही संयमीशिरोमणि दोनों भाइयोंने चौंसठों कलाओंका* ज्ञान प्राप्त कर लिया। इस प्रकार अध्ययन समाप्त होनेपर उन्होंने सान्दीपनि मुनिसे प्रार्थना की कि ‘आपकी जो इच्छा हो, गुरू-दक्षिणा माँग लें’ ||३६||

द्विजस्तयोस्तं महिमानमद्भुतं
संलक्ष्य राजन्नतिमानुषीं मतिम्
सम्मन्त्र्य पत्न्या स महार्णवे मृतं
बालं प्रभासे वरयां बभूव ह ३७

महाराज! सान्दीपनि मुनिने उनकी अद्भुत महिमा और अलौकिक बुद्धिका अनुभव कर लिया था। इसलिये उन्होंने अपनी पत्नीसे सलाह करके यह गुरुदक्षिणा माँगी कि ‘प्रभासक्षेत्रमें हमारा बालक समुद्रमें डूबकर मर गया था, उसे तुमलोग ला दो’ ||३७।।

तथेत्यथारुह्य महारथौ रथं
प्रभासमासाद्य दुरन्तविक्रमौ
वेलामुपव्रज्य निषीदतुः क्षणं
सिन्धुर्विदित्वार्हणमाहरत्तयोः ३८

बलरामजी और श्रीकृष्णका पराक्रम अनन्त था। दोनों ही महारथी थे। उन्होंने ‘बहुत अच्छा’ कहकर गुरुजीकी आज्ञा स्वीकार की और रथपर सवार होकर प्रभासक्षेत्रमें गये। वे समुद्रतटपर जाकर क्षणभर बैठे रहे। उस समय यह जानकर कि ये साक्षात् परमेश्वर हैं, अनेक प्रकारकी पूजा-सामग्री लेकर समुद्र उनके सामने उपस्थित हुआ ।।३८।।

तमाह भगवानाशु गुरुपुत्रः प्रदीयताम्
योऽसाविह त्वया ग्रस्तो बालको महतोर्मिणा ३९

भगवान्ने समुद्रसे कहा-‘समुद्र! तुम यहाँ अपनी बड़ी-बड़ी तरंगोंसे हमारे जिस गुरुपुत्रको बहा ले गये थे, उसे लाकर शीघ्र हमें दो’ ||३९||

श्रीसमुद्र उवाच
न चाहार्षमहं देव दैत्यः पञ्चजनो महान्
अन्तर्जलचरः कृष्ण शङ्खरूपधरोऽसुरः ४०

मनुष्यवेषधारी समुद्रने कहा-‘देवाधिदेव श्रीकृष्ण! मैंने उस बालकको नहीं लिया है। मेरे जलमें पंचजन नामका एक बड़ा भारी दैत्य जातिका असुर शंखके रूपमें रहता है। अवश्य ही उसीने वह बालक चुरा लिया होगा’ ||४०।।

आस्ते तेनाहृतो नूनं तच्छ्रुत्वा सत्वरं प्रभुः
जलमाविश्य तं हत्वा नापश्यदुदरेऽर्भकम् ४१

समुद्रकी बात सुनकर भगवान् तुरंत ही जलमें जा घुसे और शंखासुरको मार डाला। परन्तु वह बालक उसके पेटमें नहीं मिला ।।४१।।

तदङ्गप्रभवं शङ्खमादाय रथमागमत्
ततः संयमनीं नाम यमस्य दयितां पुरीम् ४२

गत्वा जनार्दनः शङ्खं प्रदध्मौ सहलायुधः
शङ्खनिर्ह्रादमाकर्ण्य प्रजासंयमनो यमः ४३

तयोः सपर्यां महतीं चक्रे भक्त्युपबृंहिताम्
उवाचावनतः कृष्णं सर्वभूताशयालयम्
लीलामनुष्ययोर्विष्णो युवयोः करवाम किम् ४४

तब उसके शरीरका शंख लेकर भगवान् रथपर चले आये। वहाँसे बलरामजीके साथ श्रीकृष्णने यमराजकी प्रिय पुरी संयमनीमें जाकर अपना शंख बजाया। शंखका शब्द सुनकर सारी प्रजाका शासन करनेवाले यमराजने उनका स्वागत किया और भक्तिभावसे भरकर विधिपूर्वक उनकी बहुत बड़ी पूजा की। उन्होंने नम्रतासे झुककर समस्त प्राणियोंके हृदयमे विराजमान सच्चिदानन्द-खरूप भगवान् श्रीकृष्णसे कहा—’लीलासे ही मनुष्य बने हुए सर्वव्यापक परमेश्वर! मैं आप दोनोंकी क्या सेवा करूँ?’ ||४२–४४।।

श्रीभगवानुवाच
गुरुपुत्रमिहानीतं निजकर्मनिबन्धनम्
आनयस्व महाराज मच्छासनपुरस्कृतः ४५

श्रीभगवानने कहा-‘यमराज! यहाँ अपने कर्मबन्धनके अनुसार मेरा गुरुपुत्र लाया गया है। तुम मेरी आज्ञा स्वीकार करो और उसके कर्मपर ध्यान न देकर उसे मेरे पास ले आओ ।।४५||

तथेति तेनोपानीतं गुरुपुत्रं यदूत्तमौ
दत्त्वा स्वगुरवे भूयो वृणीष्वेति तमूचतुः ४६

यमराजने ‘जो आज्ञा’ कहकर भगवान्का आदेश स्वीकार किया और उनका गुरुपुत्र ला दिया। तब यदवंशशिरोमणि भगवान श्रीकृष्ण और बलरामजी उस बालकको लेकर उज्जैन लौट आये और उसे अपने गुरुदेवको सौंपकर कहा कि ‘आप और जो कुछ चाहें, माँग लें’ ||४६||

श्रीगुरुरुवाच
सम्यक्सम्पादितो वत्स भवद्भ्यां गुरुनिष्क्रयः
को नु युष्मद्विधगुरोः कामानामवशिष्यते ४७

गुरुजीने कहा-‘बेटा! तुम दोनोंने भलीभाँति गुरुदक्षिणा दी। अब और क्या चाहिये? जो तुम्हारे जैसे पुरुषोत्तमोंका गुरु है, उसका कौन-सा मनोरथ अपूर्ण रह सकता है? ||४७।।

गच्छतं स्वगृहं वीरौ कीर्तिर्वामस्तु पावनी
छन्दांस्ययातयामानि भवन्त्विह परत्र च ४८

वीरो! अब तुम दोनों अपने घर जाओ। तुम्हें लोकोंको पवित्र करनेवाली कीर्ति प्राप्त हो। तुम्हारी पढ़ी हुई विद्या इस लोक और परलोकमें सदा नवीन बनी रहे, कभी विस्मृत न हो’ ।।४८।।

गुरुणैवमनुज्ञातौ रथेनानिलरंहसा
आयातौ स्वपुरं तात पर्जन्यनिनदेन वै ४९

बेटा परीक्षित्! फिर गुरुजीसे आज्ञा लेकर वायुके समान वेग और मेघके समान शब्दवाले रथपर सवार होकर दोनों भाई मथुरा लौट आये ||४९||

समनन्दन्प्रजाः सर्वा दृष्ट्वा रामजनार्दनौ
अपश्यन्त्यो बह्वहानि नष्टलब्धधना इव ५०

मथुराकी प्रजा बहुत दिनोंतक श्रीकृष्ण और बलरामको न देखनेसे अत्यन्त दुःखी हो रही थी। अब उन्हें आया हुआ देख सब-के-सब परमानन्दमें मग्न हो गये, मानो खोया हुआ धन मिल गया हो ।।५०।।

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां दशमस्कन्धे पूर्वार्धे गुरुपुत्रानयनं नाम पञ्चचत्वारिंशोऽध्यायः


Spread the Glory of Sri SitaRam!

Shweta Srinet

गरिमा जी संस्कृत भाषा में परास्नातक एवं राष्ट्रीय पात्रता परीक्षा उत्तीर्ण हैं। यह RamCharit.in हेतु 2018 से सतत पूर्णकालिक सदस्य के रूप में कार्य कर रही हैं। धार्मिक ग्रंथों को उनके मूल आध्यात्मिक रूप में सरलता से उपलब्ध कराने का कार्य इसके द्वारा ही निष्पादित होता है।

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