श्रीमद् भागवत महापुराण स्कन्ध 10 अध्याय 46
46 CHAPTER
श्रीमद्भागवतपुराणम्/स्कन्धः १०/पूर्वार्धः/अध्यायः ४६
स्वविरहार्तगोपगोपीनां सान्त्वनाय भगवतोद्धवस्य प्रस्थापनम्, नन्दोद्धवसंवादश्च –
श्रीशुक उवाच
वृष्णीनां प्रवरो मन्त्री कृष्णस्य दयितः सखा
शिष्यो बृहस्पतेः साक्षादुद्धवो बुद्धिसत्तमः १
श्रीशुकदेवजी कहते हैं-परीक्षित्! उद्धवजी वृष्णिवंशियोंमें एक प्रधान पुरुष थे। वे साक्षात् बृहस्पतिजीके शिष्य और परम बुद्धिमान् थे। उनकी महिमाके सम्बन्धमें इससे बढ़कर और कौन-सी बात कही जा सकती है कि वे भगवान् श्रीकृष्णके प्यारे सखा तथा मन्त्री भी थे ।।१।।
तमाह भगवान्प्रेष्ठं भक्तमेकान्तिनं क्वचित्
गृहीत्वा पाणिना पाणिं प्रपन्नार्तिहरो हरिः २
एक दिन शरणागतोंके सारे दुःख हर लेनेवाले भगवान् श्रीकृष्णने अपने प्रिय भक्त और एकान्तप्रेमी उद्धवजीका हाथ अपने हाथमें लेकर कहा- ||२||
गच्छोद्धव व्रजं सौम्य पित्रोर्नौ प्रीतिमावह
गोपीनां मद्वियोगाधिं मत्सन्देशैर्विमोचय ३
‘सौम्यस्वभाव उद्धव! तुम व्रजमें जाओ। वहाँ मेरे पिता-माता नन्दबाबा और यशोदा मैया हैं, उन्हें आनन्दित करो; और गोपियाँ मेरे विरहकी व्याधिसे बहुत ही दुःखी हो रही हैं, उन्हें मेरे सन्देश सुनाकर उस वेदनासे मुक्त करो ।।३।।
ता मन्मनस्का मत्प्राणा मदर्थे त्यक्तदैहिकाः
मामेव दयितं प्रेष्ठमात्मानं मनसा गताः
ये त्यक्तलोकधर्माश्च मदर्थे तान्बिभर्म्यहम् ४
प्यारे उद्धव! गोपियोंका मन नित्य-निरन्तर मुझमें ही लगा रहता है। उनके प्राण, उनका जीवन, उनका सर्वस्व मैं ही हूँ। मेरे लिये उन्होंने अपने पति-पुत्र आदि सभी सगेसम्बन्धियोंको छोड़ दिया है। उन्होंने बुद्धिसे भी मुझीको अपना प्यारा, अपना प्रियतम-नहीं, नहीं; अपना आत्मा मान रखा है। मेरा यह व्रत है कि जो लोग मेरे लिये लौकिक और पारलौकिक धर्मोको छोड़ देते हैं, उनका भरण-पोषण मैं स्वयं करता हूँ ।।४।।
मयि ताः प्रेयसां प्रेष्ठे दूरस्थे गोकुलस्त्रियः
स्मरन्त्योऽङ्ग विमुह्यन्ति विरहौत्कण्ठ्यविह्वलाः ५
प्रिय उद्धव! मैं उन गोपियोंका परम प्रियतम हँ। मेरे यहाँ चले आनेसे वे मझे दरस्थ मानती हैं और मेरा स्मरण करके अत्यन्त मोहित हो रही हैं, बार-बार मूर्च्छित हो जाती हैं। वे मेरे विरहकी व्यथासे विह्वल हो रही हैं, प्रतिक्षण मेरे लिये उत्कण्ठित रहती हैं ।।५।।
धारयन्त्यतिकृच्छ्रेण प्रायः प्राणान्कथञ्चन
प्रत्यागमनसन्देशैर्बल्लव्यो मे मदात्मिकाः ६
मेरी गोपियाँ, मेरी प्रेयसियाँ इस समय बड़े ही कष्ट और यत्नसे अपने प्राणोंको किसी प्रकार रख रही हैं। मैंने उनसे कहा था कि ‘मैं आऊँगा।’ वही उनके जीवनका आधार है। उद्धव! और तो क्या कहूँ, मैं ही उनकी आत्मा हूँ। वे नित्य-निरन्तर मुझमें ही तन्मय रहती हैं’ ||६||
श्रीशुक उवाच
इत्युक्त उद्धवो राजन्सन्देशं भर्तुरादृतः
आदाय रथमारुह्य प्रययौ नन्दगोकुलम् ७
श्रीशुकदेवजी कहते हैं-परीक्षित्! जब भगवान् श्रीकृष्णने यह बात कही, तब उद्धवजी बड़े आदरसे अपने स्वामीका सन्देश लेकर रथपर सवार हुए और नन्दगाँवके लिये चल पड़े ।।७।।
प्राप्तो नन्दव्रजं श्रीमान्निम्लोचति विभावसौ
छन्नयानः प्रविशतां पशूनां खुररेणुभिः ८
परम सुन्दर उद्धवजी सूर्यास्तके समय नन्दबाबाके व्रजमें पहुँचे। उस समय जंगलसे गौएँ लौट रही थीं। उनके खुरोंके आघातसे इतनी धूल उड़ रही थी कि उनका रथ ढक गया था ।।८।।
वासितार्थेऽभियुध्यद्भिर्नादितं शुष्मिभिर्वृषैः
धावन्तीभिश्च वास्राभिरूधोभारैः स्ववत्सकान् ९
व्रजभूमिमें ऋतुमती गौओंके लिये मतवाले साँड़ आपसमें लड़ रहे थे। उनकी गर्जनासे सारा व्रज गूंज रहा था। थोड़े दिनोंकी ब्यायी हुई गौएँ अपने थनोंके भारी भारसे दबी होनेपर भी अपने-अपने बछड़ोंकी ओर दौड़ रही थीं ।।९।।
इतस्ततो विलङ्घद्भिर्गोवत्सैर्मण्डितं सितैः
गोदोहशब्दाभिरवं वेणूनां निःस्वनेन च १०
सफेद रंगके बछड़े इधर-उधर उछल-कूद मचाते हुए बहुत ही भले मालूम होते थे। गाय दुहनेकी ‘घर-घर’ ध्वनिसे और बाँसुरियोंकी मधुर टेरसे अब भी व्रजकी अपूर्व शोभा हो रही थी ।।१०।।
गायन्तीभिश्च कर्माणि शुभानि बलकृष्णयोः
स्वलङ्कृताभिर्गोपीभिर्गोपैश्च सुविराजितम् ११
गोपी और गोप सुन्दर-सुन्दर वस्त्र तथा गहनोंसे सज-धजकर श्रीकृष्ण तथा बलरामजीके मंगलमय चरित्रोंका गान कर रहे थे और इस प्रकार व्रजकी शोभा और भी बढ़ गयी थी ।।११।।
अग्न्यर्कातिथिगोविप्र पितृदेवार्चनान्वितैः
धूपदीपैश्च माल्यैश्च गोपावासैर्मनोरमम् १२
गोपोंके घरोंमें अग्नि, सूर्य, अतिथि, गौ, ब्राह्मण और देवता-पितरोंकी पूजा की हई थी। धूपकी सुगन्ध चारों ओर फैल रही थी और दीपक जगमगा रहे थे। उन घरोंको पुष्पोंसे सजाया गया था। ऐसे मनोहर गृहोंसे सारा व्रज और भी मनोरम हो रहा था ||१२||
सर्वतः पुष्पितवनं द्विजालिकुलनादितम्
हंसकारण्डवाकीर्णैः पद्मषण्डैश्च मण्डितम् १३
चारों ओर वन-पंक्तियाँ फूलोंसे लद रही थीं। पक्षी चहक रहे थे और भौंरे गुंजार कर रहे थे। वहाँ जल और स्थल दोनों ही कमलोंके वनसे शोभायमान थे और हंस, बत्तख आदि पक्षी वनमें विहार कर रहे थे ।।१३।।
तमागतं समागम्य कृष्णस्यानुचरं प्रियम्
नन्दः प्रीतः परिष्वज्य वासुदेवधियार्चयत् १४
जब भगवान् श्रीकृष्णके प्यारे अनुचर उद्धवजी व्रजमें आये, तब उनसे मिलकर नन्दबाबा बहुत ही प्रसन्न हुए। उन्होंने उद्धवजीको गले लगाकर उनका वैसे ही सम्मान किया, मानो स्वयं भगवान् श्रीकृष्ण आ गये हों ।।१४।।
भोजितं परमान्नेन संविष्टं कशिपौ सुखम्
गतश्रमं पर्यपृच्छत्पादसंवाहनादिभिः १५
समयपर उत्तम अन्नका भोजन कराया और जब वे आरामसे पलँगपर बैठ गये, सेवकोंने पाँव दबाकर, पंखा झलकर उनकी थकावट दूर कर दी ||१५||
कच्चिदङ्ग महाभाग सखा नः शूरनन्दनः
आस्ते कुशल्यपत्याद्यैर्युक्तो मुक्तः सुहृद्व्रतः १६
तब नन्दबाबाने उनसे पूछा-‘परम भाग्यवान् उद्धवजी! अब हमारे सखा वसुदेवजी जेलसे छुट गये। उनके आत्मीय स्वजन तथा पुत्र आदि उनके साथ हैं। इस समय वे सब कुशलसे तो हैं न? ||१६||
दिष्ट्या कंसो हतः पापः सानुगः स्वेन पाप्मना
साधूनां धर्मशीलानां यदूनां द्वेष्टि यः सदा १७
यह बड़े सौभाग्यकी बात है कि अपने पापोंके फलस्वरूपपापी कंस अपने अनुयायियोंके साथ मारा गया। क्योंकि स्वभावसे ही धार्मिक परम साधु यदुवंशियोंसे वह सदा द्वेष करता था ।।१७।।
अपि स्मरति नः कृष्णो मातरं सुहृदः सखीन्
गोपान्व्रजं चात्मनाथं गावो वृन्दावनं गिरिम् १८
अच्छा उद्धवजी! श्रीकृष्ण कभी हमलोगोंकी भी याद करते हैं? यह उनकी माँ हैं, स्वजन-सम्बन्धी हैं, सखा हैं, गोप हैं; उन्हींको अपना स्वामी और सर्वस्व माननेवाला यह व्रज है; उन्हींकी गौएँ, वृन्दावन और यह गिरिराज है, क्या वे कभी इनका स्मरण करते हैं? ||१८।।
अप्यायास्यति गोविन्दः स्वजनान्सकृदीक्षितुम्
तर्हि द्रक्ष्याम तद्वक्त्रं सुनसं सुस्मितेक्षणम् १९
आप यह तो बतलाइये कि हमारे गोविन्द अपने सुहृद-बान्धवोंको देखनेके लिये एक बार भी यहाँ आयेंगे क्या? यदि वे यहाँ आ जाते तो हम उनकी वह सुघड़ नासिका, उनका मधुर हास्य और मनोहर चितवनसे युक्त मुखकमल देख तो लेते ||१९||
दावाग्नेर्वातवर्षाच्च वृषसर्पाच्च रक्षिताः
दुरत्ययेभ्यो मृत्युभ्यः कृष्णेन सुमहात्मना २०
उद्धवजी! श्रीकृष्णका हृदय उदार है, उनकी शक्ति अनन्त है, उन्होंने दावानलसे, आँधी-पानीसे, वृषासुर और अजगर आदि अनेकों मत्यके निमित्तोंसे—जिन्हें टालनेका कोई उपाय न था—एक बार नहीं, अनेक बार हमारी रक्षा की है ||२०||
स्मरतां कृष्णवीर्याणि लीलापाङ्गनिरीक्षितम्
हसितं भाषितं चाङ्ग सर्वा नः शिथिलाः क्रियाः २१
उद्धवजी! हम श्रीकृष्णके विचित्र चरित्र, उनकी विलासपूर्ण तिरछी चितवन, उन्मुक्त हास्य, मधुर भाषण आदिका स्मरण करते रहते हैं और उसमें इतने तन्मय रहते हैं कि अब हमसे कोई काम-काज नहीं हो पाता ।।२१।।
सरिच्छैलवनोद्देशान्मुकुन्दपदभूषितान्
आक्रीडानीक्ष्यमाणानां मनो याति तदात्मताम् २२
जब हम देखते हैं कि यह वही नदी है, जिसमें श्रीकृष्ण जलक्रीडा करते थे; यह वही गिरिराज है, जिसे उन्होंने अपने एक हाथपर उठा लिया था; ये वे ही वनके प्रदेश हैं, जहाँ श्रीकृष्ण गौएँ चरातेहुए बाँसुरी बजाते थे, और ये वे ही स्थान हैं, जहाँ वे अपने सखाओंके साथ अनेकों प्रकारके खेल खेलते थे; और साथ ही यह भी देखते हैं कि वहाँ उनके चरणचिह्न अभी मिटे नहीं हैं, तब उन्हें देखकर हमारा मन श्रीकृष्णमय हो जाता है ।।२२।।
मन्ये कृष्णं च रामं च प्राप्ताविह सुरोत्तमौ
सुराणां महदर्थाय गर्गस्य वचनं यथा २३
इसमें सन्देह नहीं कि मैं श्रीकष्ण और बलरामको देवशिरोमणि मानता हूँ और यह भी मानता हूँ कि वे देवताओंका कोई बहुत बड़ा प्रयोजन सिद्ध करनेके लिये यहाँ आये हुए हैं। स्वयं भगवान् गर्गाचार्यजीने मुझसे ऐसा ही कहा था ।।२३।।
कंसं नागायुतप्राणं मल्लौ गजपतिं यथा
अवधिष्टां लीलयैव पशूनिव मृगाधिपः २४
जैसे सिंह बिना किसी परिश्रमके पशुओंको मार डालता है, वैसे ही उन्होंने खेल-खेलमें ही दस हजार हाथियोंका बल रखनेवाले कंस, उसके दोनों अजेय पहलवानों और महान् बलशाली गजराज कुवलयापीडाको मार डाला ||२४।।
तालत्रयं महासारं धनुर्यष्टिमिवेभराट्
बभञ्जैकेन हस्तेन सप्ताहमदधाद्गिरिम् २५
उन्होंने तीन ताल लंबे और अत्यन्त दृढ़ धनुषको वैसे ही तोड़ डाला, जैसे कोई हाथी किसी छडीको तोड़ डाले। हमारे प्यारे श्रीकृष्णने एक हाथसे सात दिनोंतक गिरिराजको उठाये रखा था ।।२५||
प्रलम्बो धेनुकोऽरिष्टस्तृणावर्तो बकादयः
दैत्याः सुरासुरजितो हता येनेह लीलया २६
यहीं सबके देखते-देखते खेल-खेलमें उन्होंने प्रलम्ब, धेनुक, अरिष्ट, तृणावर्त और बक आदि उन बड़े-बड़े दैत्योंको मार डाला, जिन्होंने समस्त देवता और असुरोंपर विजय प्राप्त कर ली थी’ ||२६||
श्रीशुक उवाच
इति संस्मृत्य संस्मृत्य नन्दः कृष्णानुरक्तधीः
अत्युत्कण्ठोऽभवत्तूष्णीं प्रेमप्रसरविह्वलः २७
श्रीशुकदेवजी कहते हैं-परीक्षित्! नन्दबाबाका हृदय यों ही भगवान् श्रीकृष्णके अनुराग-रंगमें रँगा हुआ था। जब इस प्रकार वे उनकी लीलाओंका एक-एक करके स्मरण करने लगे, तब तो उनमें प्रेमकी बाढ़ ही आ गयी, वे विह्वल हो गये और मिलनेकी अत्यन्त उत्कण्ठा होनेके कारण उनका गला रुंध गया। वे चुप हो गये ।।२७।।
यशोदा वर्ण्यमानानि पुत्रस्य चरितानि च
शृण्वन्त्यश्रूण्यवास्राक्षीत्स्नेहस्नुतपयोधरा २८
यशोदारानी भी वहीं बैठकर नन्दबाबाकी बातें सुन रही थीं, श्रीकृष्णकी एक-एक लीला सुनकर उनके नेत्रोंसे आँसू बहते जाते थे और पुत्रस्नेहकी बाढ़से उनके स्तनोंसे दूधकी धारा बहती जा रही थी ।।२८।।
तयोरित्थं भगवति कृष्णे नन्दयशोदयोः
वीक्ष्यानुरागं परमं नन्दमाहोद्धवो मुदा २९
उद्धवजी नन्दबाबा और यशोदारानीके हृदयमें श्रीकृष्णके प्रति कैसा अगाध अनुराग हैयह देखकर आनन्दमग्न हो गये और उनसे कहने लगे ||२९||
श्रीउद्धव उवाच
युवां श्लाघ्यतमौ नूनं देहिनामिह मानद
नारायणेऽखिलगुरौ यत्कृता मतिरीदृशी ३०
उद्धवजीने कहा-हे मानद! इसमें सन्देह नहीं कि आप दोनों समस्त शरीरधारियोंमें अत्यन्त भाग्यवान् हैं, सराहना करनेयोग्य हैं। क्योंकि जो सारे चराचर जगत्के बनानेवाले और उसे ज्ञान देनेवाले नारायण हैं, उनके प्रति आपके हृदयमें ऐसा वात्सल्यस्नेह-पुत्रभाव है ।।३०।।
एतौ हि विश्वस्य च बीजयोनी रामो मुकुन्दः पुरुषः प्रधानम्
अन्वीय भूतेषु विलक्षणस्य ज्ञानस्य चेशात इमौ पुराणौ ३१
बलराम और श्रीकृष्ण पुराणपुरुष हैं; वे सारे संसारके उपादानकारण और निमित्तकारण भी हैं। भगवान् श्रीकृष्ण पुरुष हैं तो बलरामजी प्रधान (प्रकृति)। ये ही दोनों समस्त शरीरोंमें प्रविष्ट होकर उन्हें जीवनदान देते हैं और उनमें उनसे अत्यन्त विलक्षण जो ज्ञानस्वरूप जीव है, उसका नियमन करते हैं ।।३१।।
यस्मिन्जनः प्राणवियोगकाले क्षणं समावेश्य मनोऽविशुद्धम्
निर्हृत्य कर्माशयमाशु याति परां गतिं ब्रह्ममयोऽर्कवर्णः ३२
जो जीव मृत्युके समय अपने शुद्ध मनको एक क्षणके लिये भी उनमें लगा देता है, वह समस्त कर्म-वासनाओंको धो बहाता है और शीघ्र ही सूर्यके समान तेजस्वी तथा ब्रह्ममय होकर परमगतिको प्राप्त होता है ||३२||
तस्मिन्भवन्तावखिलात्महेतौ नारायणे कारणमर्त्यमूर्तौ
भावं विधत्तां नितरां महात्मन्किं वावशिष्टं युवयोः सुकृत्यम् ३३
वे भगवान् ही, जो सबके आत्मा और परम कारण हैं, भक्तोंकी अभिलाषा पूर्ण करने और पृथ्वीका भार उतारनेके लिये मनुष्यका-सा शरीर ग्रहण करके प्रकट हुए हैं। उनके प्रति आप दोनोंका ऐसा सुदृढ़ वात्सल्यभाव है; फिर महात्माओ! आप दोनोंके लिये अब कौन-सा शुभ कर्म करना शेष रह जाता है ।।३३।।
आगमिष्यत्यदीर्घेण कालेन व्रजमच्युतः
प्रियं विधास्यते पित्रोर्भगवान्सात्वतां पतिः ३४
भक्तवत्सल यदुवंशशिरोमणि भगवान् श्रीकृष्ण थोड़े ही दिनोंमें व्रजमें आयेंगे और आप दोनोंको अपने माँ-बापको आनन्दित करेंगे ||३४।।
हत्वा कंसं रङ्गमध्ये प्रतीपं सर्वसात्वताम्
यदाह वः समागत्य कृष्णः सत्यं करोति तत् ३५
जिस समय उन्होंने समस्त यदुवंशियोंके द्रोही कंसको रंगभूमिमें मार डाला और आपके पास आकर कहा कि ‘मैं व्रजमें आऊँगा’ उस कथनको वे सत्य करेंगे ।।३५।।
मा खिद्यतं महाभागौ द्रक्ष्यथः कृष्णमन्तिके
अन्तर्हृदि स भूतानामास्ते ज्योतिरिवैधसि ३६
नन्दबाबा और माता यशोदाजी! आप दोनों परम भाग्यशाली हैं। खेद न करें। आप श्रीकृष्णको अपने पास ही देखेंगे; क्योंकि जैसे काष्ठमें अग्नि सदा ही व्यापक रूपसे रहती है, वैसे ही वे समस्त प्राणियोंके हृदयमें सर्वदा विराजमान रहते हैं ।।३६।।
न ह्यस्यास्ति प्रियः कश्चिन्नाप्रियो वास्त्यमानिनः
नोत्तमो नाधमो वापि समानस्यासमोऽपि वा ३७
एक शरीरके प्रति अभिमान न होनेके कारण न तो कोई उनका प्रिय है और न तो अप्रिय। वे सबमें और सबके प्रति समान हैं; इसलिये उनकी दृष्टिमें न तो कोई उत्तम है और न तो अधम। यहाँतक कि विषमताका भाव रखनेवाला भी उनके लिये विषम नहीं है ।।३७।।
न माता न पिता तस्य न भार्या न सुतादयः
नात्मीयो न परश्चापि न देहो जन्म एव च ३८
न तो उनकी कोई माता है और न पिता। न पत्नी है और न तो पुत्र आदि। न अपना है और न तो पराया। न देह है और न तो जन्म ही ।।३८।।
न चास्य कर्म वा लोके सदसन्मिश्रयोनिषु
क्रीडार्थं सोऽपि साधूनां परित्राणाय कल्पते ३९
इस लोकमें उनका कोई कर्म नहीं है फिर भी वे साधुओंके परित्राणके लिये, लीला करनेके लिये देवादि सात्त्विक, मत्स्यादि तामस एवं मनुष्य आदि मिश्र योनियोंमें शरीर धारण करते हैं ।।३९।।
सत्त्वं रजस्तम इति भजते निर्गुणो गुणान्
क्रीडन्नतीतोऽपि गुणैः सृजत्यवन्हन्त्यजः ४०
भगवान् अजन्मा हैं। उनमें प्राकृत सत्त्व, रज आदिमेंसे एक भी गुण नहीं है। इस प्रकार इन गुणोंसे अतीत होनेपर भी लीलाके लिये खेल-खेलमें वे सत्त्व, रज और तम-इन तीनों गुणोंको स्वीकार कर लेते हैं और उनके द्वारा जगत्की रचना, पालन और संहार करते हैं ।।४०||
यथा भ्रमरिकादृष्ट्या भ्राम्यतीव महीयते
चित्ते कर्तरि तत्रात्मा कर्तेवाहंधिया स्मृतः ४१
जब बच्चे घुमरीपरेता खेलने लगते हैं यामनुष्य वेगसे चक्कर लगाने लगते हैं, तब उन्हें सारी पृथ्वी घूमती हुई जान पड़ती है। वैसे ही वास्तवमें सब कुछ करनेवाला चित्त ही है; परन्तु उस चित्तमें अहंबुद्धि हो जानेके कारण, भ्रमवश उसे आत्मा-अपना ‘मैं’ समझ लेनेके कारण, जीव अपनेको कर्ता समझने लगता है ।।४१।।
युवयोरेव नैवायमात्मजो भगवान्हरिः
सर्वेषामात्मजो ह्यात्मा पिता माता स ईश्वरः ४२
भगवान् श्रीकृष्ण केवल आप दोनोंके ही पुत्र नहीं हैं, वे समस्त प्राणियोंके आत्मा, पुत्र, पिता-माता और स्वामी भी हैं ।।४२।।
दृष्टं श्रुतं भूतभवद्भविष्यत्
स्थास्नुश्चरिष्णुर्महदल्पकं च
विनाच्युताद्वस्तुतरां न वाच्यं
स एव सर्वं परमात्मभूतः ४३
बाबा! जो कुछ देखा या सुना जाता है—वह चाहे भूतसे सम्बन्ध रखता हो, वर्तमानसे अथवा भविष्यसे; स्थावर हो या जंगम हो, महान हो अथवा अल्प हो-ऐसी कोई वस्तु ही नहीं है जो भगवान् श्रीकृष्णसे पृथक् हो। बाबा! श्रीकृष्णके अतिरिक्त ऐसी कोई वस्तु नहीं है, जिसे वस्तु कह सकें। वास्तवमैं सब वे ही हैं, वे ही परमार्थ सत्य हैं ।।४३।।
एवं निशा सा ब्रुवतोर्व्यतीता नन्दस्य कृष्णानुचरस्य राजन्
गोप्यः समुत्थाय निरूप्य दीपान्वास्तून्समभ्यर्च्य दौधीन्यमन्थुन् ४४
परीक्षित्! भगवान् श्रीकृष्णके सखा उद्धव और नन्दबाबा इसी प्रकार आपसमें बात करते रहे और वह रात बीत गयी। कछ रात शेष रहनेपर गोपियाँ उठीं, दीपक जलाकर उन्होंने घरकी देहलियोंपर वास्तुदेवका पूजन किया, अपने घरोंको झाड़-बुहारकर साफ किया और फिर दही मथने लगीं ।।४४।।
ता दीपदीप्तैर्मणिभिर्विरेजू रज्जूर्विकर्षद्भुजकङ्कणस्रजः
चलन्नितम्बस्तनहारकुण्डल त्विषत्कपोलारुणकुङ्कुमाननाः ४५
गोपियोंकी कलाइयोंमें कंगन शोभायमान हो रहे थे, रस्सी खींचते समय वे बहत भली मालूम हो रही थीं। उनके नितम्ब, स्तन और गलेके हार हिल रहे थे। कानोंके कुण्डल हिलहिलकर उनके कुंकुम-मण्डित कपोलोंकी लालिमा बढ़ा रहे थे। उनके आभूषणोंकी मणियाँ दीपककी ज्योतिसे और भी जगमगा रही थीं और इस प्रकार वे अत्यन्त शोभासे सम्पन्न होकर दही मथ रही थीं ।।४५||
उद्गायतीनामरविन्दलोचनं व्रजाङ्गनानां दिवमस्पृशद्ध्वनिः
दध्नश्च निर्मन्थनशब्दमिश्रितो निरस्यते येन दिशाममङ्गलम् ४६
उस समय गोपियाँ–कमलनयन भगवान् श्रीकृष्णके मंगलमय चरित्रोंका गान कर रही थीं। उनका वह संगीत दही मथनेकी ध्वनिसे मिलकर और भी अद्भुत हो गया तथा स्वर्गलोकतक जा पहुँचा, जिसकी स्वर-लहरी सब ओर फैलकर दिशाओंका अमंगल मिटा देती है ।।४६||
भगवत्युदिते सूर्ये नन्दद्वारि व्रजौकसः
दृष्ट्वा रथं शातकौम्भं कस्यायमिति चाब्रुवन् ४७
जब भगवान् भुवनभास्करका उदय हुआ, तब व्रजांगनाओंने देखा कि नन्दबाबाके दरवाजेपर एक सोनेका रथ खड़ा है। वे एक-दूसरेसे पूछने लगीं ‘यह किसका रथ है?’ ||४७।।
अक्रूर आगतः किं वा यः कंसस्यार्थसाधकः
येन नीतो मधुपुरीं कृष्णः कमललोचनः ४८
किसी गोपीने कहा- ‘कंसका प्रयोजन सिद्ध करनेवाला अक्रूर ही तो कहीं फिर नहीं आ गया है? जो कमलनयन प्यारे श्यामसुन्दरको यहाँसे मथुरा ले गया था’ ||४८।।
किं साधयिष्यत्यस्माभिर्भर्तुः प्रीतस्य निष्कृतिम्
ततः स्त्रीणां वदन्तीनामुद्धवोऽगात्कृताह्निकः ४९
किसी दूसरी गोपीने कहा—’क्या अब वह हमें ले जाकर अपने मरे हुए स्वामी कंसका पिण्डदान करेगा? अब यहाँ उसके आनेका और क्या प्रयोजन हो सकता है?’ व्रजवासिनी स्त्रियाँ इसी प्रकार आपसमें बातचीत कर रही थीं कि उसी समय नित्यकर्मसे निवृत्त होकर उद्धवजी आ पहुँचे ।।४९।।
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां दशमस्कन्धे पूर्वार्धे नन्दशोकापनयनं नाम षट्चत्वारिंशोऽध्यायः
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