श्रीमद् भागवत महापुराण स्कन्ध 10 अध्याय 51
51 CHAPTER
श्रीमद्भागवतपुराणम्/स्कन्धः १०/उत्तरार्धः/अध्यायः ५१
श्रीशुक उवाच
तं विलोक्य विनिष्क्रान्तमुज्जिहानमिवोडुपम्
दर्शनीयतमं श्यामं पीतकौशेयवाससम् १
श्रीवत्सवक्षसं भ्राजत्कौस्तुभामुक्तकन्धरम्
पृथुदीर्घचतुर्बाहुं नवकञ्जारुणेक्षणम् २
नित्यप्रमुदितं श्रीमत्सुकपोलं शुचिस्मितम्
मुखारविन्दं बिभ्राणं स्फुरन्मकरकुण्डलम् ३
वासुदेवो ह्ययमिति पुमान्श्रीवत्सलाञ्छनः
चतुर्भुजोऽरविन्दाक्षो वनमाल्यतिसुन्दरः ४
लक्षणैर्नारदप्रोक्तैर्नान्यो भवितुमर्हति
निरायुधश्चलन्पद्भ्यां योत्स्येऽनेन निरायुधः ५
श्रीशुकदेवजी कहते हैं-प्रिय परीक्षित्! जिस समय भगवान् श्रीकृष्ण मथुरा नगरके मुख्य द्वारसे निकले, उस समय ऐसा मालूम पड़ा मानो पूर्व दिशासे चन्द्रोदय हो रहा हो। उनका श्यामल शरीर अत्यन्त ही दर्शनीय था, उसपर रेशमी पीताम्बरकी छटा निराली ही थी; वक्षःस्थलपर स्वर्णरेखाके रूपमें श्रीवत्सचिह्न शोभा पा रहा था और गलेमें कौस्तुभमणि जगमगा रही थी। चार भुजाएँ थीं, जो लम्बी-लम्बी और कुछ मोटी-मोटी थीं। हालके खिले हुए कमलके समान कोमल और रतनारे नेत्र थे। मुखकमलपर राशि-राशि आनन्द खेल रहा था। कपोलोंकी छटा निराली ही थी। मन्द-मन्द मुसकान देखनेवालोंका मन चुराये लेती थी। कानोमे मकराकृत कुण्डल झिलमिल-झिलमिल झलक रहे थे। उन्हें देखकर कालयवनने निश्चय किया कि ‘यही पुरुष वासुदेव है। क्योंकि नारदजीने जो-जो लक्षण बतलाये थेवक्षःस्थलपर श्रीवत्सका चिह्न, चार भुजाएँ, कमलके-से नेत्र, गलेमें वनमाला और सुन्दरताकी सीमा; वे सब इसमें मिल रहे हैं। इसलिये यह कोई दूसरा नहीं हो सकता। इस समय यह बिना किसी अस्त्र-शस्त्रके पैदल ही इस ओर चला आ रहा है, इसलिये मैं भी इसके साथ बिना अस्त्र-शस्त्रके ही लगा ‘ ||१-५||
इति निश्चित्य यवनः प्राद्रवन्तं पराङ्मुखम्
अन्वधावज्जिघृक्षुस्तं दुरापमपि योगिनाम् ६
ऐसा निश्चय करके जब कालयवन भगवान् श्रीकृष्णकी ओर दौड़ा, तब वे दूसरी ओर मुँह करके रणभूमिसे भाग चले और उन योगिदुर्लभ प्रभुको पकड़नेके लिये कालयवन उनके पीछे-पीछे दौड़ने लगा ||६||
हस्तप्राप्तमिवात्मानं हरिणा स पदे पदे
नीतो दर्शयता दूरं यवनेशोऽद्रिकन्दरम् ७
रणछोड़ भगवान् लीला करते हुए भाग रहे थे; कालयवन पगपगपर यही समझता था कि अब पकड़ा, तब पकड़ा। इस प्रकार भगवान् उसे बहुत दूर एक पहाड़की गुफामें ले गये ।।७।।
पलायनं यदुकुले जातस्य तव नोचितम्
इति क्षिपन्ननुगतो नैनं प्रापाहताशुभः ८
कालयवन पीछेसे बार-बार आक्षेप करता कि ‘अरे भाई! तुम परम यशस्वी यदुवंशमें पैदा हुए हो, तुम्हारा इस प्रकार युद्ध छोड़कर भागना उचित नहीं है।’ परन्तु अभी उसके अशुभ निःशेष नहीं हुए थे, इसलिये वह भगवान्को पानेमें समर्थ न हो सका ।।८।।
एवं क्षिप्तोऽपि भगवान्प्राविशद्गिरिकन्दरम्
सोऽपि प्रविष्टस्तत्रान्यं शयानं ददृशे नरम् ९
उसके आक्षेप करते रहनेपर भी भगवान् उस पर्वतकी गुफामें घुस गये। उनके पीछे कालयवन भी घुसा। वहाँ उसने एक दूसरे ही मनुष्यको सोते हुए देखा ||९||
नन्वसौ दूरमानीय शेते मामिह साधुवत्
इति मत्वाच्युतं मूढस्तं पदा समताडयत् १०
उसे देखकर कालयवनने सोचा ‘देखो तो सही, यह मुझे इस प्रकार इतनी दूर ले आया और अब इस तरह-मानो इसे कुछ पता ही न हो–साधुबाबा बनकर सो रहा है।’ यह सोचकर उस मूढ़ने उसे कसकर एक लात मारी ।।१०।।
स उत्थाय चिरं सुप्तः शनैरुन्मील्य लोचने
दिशो विलोकयन्पार्श्वे तमद्राक्षीदवस्थितम् ११
वह पुरुष वहाँ बहुत दिनोंसे सोया हुआ था। पैरकी ठोकर लगनेसे वह उठ पड़ा और धीरे-धीरे उसने अपनी आँखें खोलीं। इधर-उधर देखनेपर पास ही कालयवन खड़ा हुआ दिखायी दिया ।।११।।
स तावत्तस्य रुष्टस्य दृष्टिपातेन भारत
देहजेनाग्निना दग्धो भस्मसादभवत्क्षणात् १२
परीक्षित्! वह पुरुष इस प्रकार ठोकर मारकर जगाये जानेसे कुछ रुष्ट हो गया था। उसकी दृष्टि पड़ते ही कालयवनके शरीरमें आग पैदा हो गयी और वह क्षणभरमें जलकर राखका ढेर हो गया ।।१२।।
श्रीराजोवाच
को नाम स पुमान्ब्रह्मन्कस्य किं वीर्य एव च
कस्माद्गुहां गतः शिष्ये किं तेजो यवनार्दनः १३
राजा परीक्षित्ने पूछा-भगवन्! जिसके दृष्टिपातमात्रसे कालयवन जलकर भस्म हो गया, वह पुरुष कौन था? किस वंशका था? उसमें कैसी शक्ति थी और वह किसका पुत्र था? आप कृपा करके यह भी बतलाइये कि वह पर्वतकी गुफामें जाकर क्यों सो रहा था? ||१३।।
श्रीशुक उवाच
स इक्ष्वाकुकुले जातो मान्धातृतनयो महान्
मुचुकुन्द इति ख्यातो ब्रह्मण्यः सत्यसङ्गरः १४
श्रीशुकदेवजी कहते हैं-परीक्षित्! वे इक्ष्वाकुवंशी महाराजा मान्धाताके पुत्र राजा मुचुकुन्द थे। वे ब्राह्मणोंके परम भक्त, सत्यप्रतिज्ञ, संग्रामविजयी और महापुरुष थे ।।१४।।
स याचितः सुरगणैरिन्द्राद्यैरात्मरक्षणे
असुरेभ्यः परित्रस्तैस्तद्रक्षां सोऽकरोच्चिरम् १५
एक बार इन्द्रादि देवता असुरोंसे अत्यन्त भयभीत हो गये थे। उन्होंने अपनी रक्षाके लिये राजा मुचुकुन्दसे प्रार्थना की और उन्होंने बहुत दिनोंतक उनकी रक्षा की ।।१५।।
लब्ध्वा गुहं ते स्वःपालं मुचुकुन्दमथाब्रुवन्
राजन्विरमतां कृच्छ्राद्भवान्नः परिपालनात् १६
जब बहुत दिनोंके बाद देवताओंको सेनापतिके रूपमें स्वामि-कार्तिकेय मिल गये, तब उन लोगोंने राजा मुचुकुन्दसे कहा-‘राजन्! आपने हमलोगोंकी रक्षाके लिये बहुत श्रम और कष्ट उठाया है। अब आप विश्राम कीजिये ।।१६।।
नरलोकं परित्यज्य राज्यं निहतकण्टकम्
अस्मान्पालयतो वीर कामास्ते सर्व उज्झिताः १७
वीरशिरोमणे! आपने हमारी रक्षाके लिये मनुष्यलोकका अपना अकण्टक राज्य छोड़ दिया और जीवनकी अभिलाषाएँ तथा भोगोंका भी परित्यागकर दिया ।।१७।।
सुता महिष्यो भवतो ज्ञातयोऽमात्यमन्त्रिणः
प्रजाश्च तुल्यकालीना नाधुना सन्ति कालिताः १८
अब आपके पुत्र, रानियाँ, बन्धु-बान्धव और अमात्य-मन्त्री तथा आपके समयकी प्रजामेंसे कोई नहीं रहा है। सब-के-सब कालके गालमें चले गये ।।१८।।
कालो बलीयान्बलिनां भगवानीश्वरोऽव्ययः
प्रजाः कालयते क्रीडन्पशुपालो यथा पशून् १९
काल समस्त बलवानोंसे भी बलवान् है। वह स्वयं परम समर्थ अविनाशी और भगवत्स्वरूप है। जैसे ग्वाले पशुओंको अपने वशमें रखते हैं, वैसे ही वह खेल-खेलमें सारी प्रजाको अपने अधीन रखता है ||१९||
वरं वृणीष्व भद्रं ते ऋते कैवल्यमद्य नः
एक एवेश्वरस्तस्य भगवान्विष्णुरव्ययः २०
राजन! आपका कल्याण हो। आपकी जो इच्छा हो हमसे माँग लीजिये। हम कैवल्य-मोक्षके अतिरिक्त आपको सब कुछ दे सकते हैं। क्योंकि कैवल्य-मोक्ष देनेकी सामर्थ्य तो केवल अविनाशी भगवान् विष्णुमें ही है ।।२०।।
एवमुक्तः स वै देवानभिवन्द्य महायशाः
अशयिष्ट गुहाविष्टो निद्रया देवदत्तया २१
परम यशस्वी राजा मुचुकुन्दने देवताओंके इस प्रकार कहनेपर उनकी वन्दना की और बहुत थके होनेके कारण निद्राका ही वर माँगा तथा उनसे वर पाकर वे नींदसे भरकर पर्वतकी गुफामें जा सोये ।।२१।।
यवने भस्मसान्नीते भगवान्सात्वतर्षभः
आत्मानं दर्शयामास मुचुकुन्दाय धीमते २२
उस समय देवताओंने कह दिया था कि ‘राजन्! सोते समय यदि आपको कोई मूर्ख बीचमें ही जगा देगा तो वह आपकी दृष्टि पड़ते ही उसी क्षण भस्म हो जायगा’ ।।२२।।
तमालोक्य घनश्यामं पीतकौशेयवाससम्
श्रीवत्सवक्षसं भ्राजत्कौस्तुभेन विराजितम् २३
चतुर्भुजं रोचमानं वैजयन्त्या च मालया
चारुप्रसन्नवदनं स्फुरन्मकरकुण्डलम् २४
प्रेक्षणीयं नृलोकस्य सानुरागस्मितेक्षणम्
अपीच्यवयसं मत्तमृगेन्द्रोदारविक्रमम् २५
पर्यपृच्छन्महाबुद्धिस्तेजसा तस्य धर्षितः
शङ्कितः शनकै राजा दुर्धर्षमिव तेजसा २६
श्रीमुचुकुन्द उवाच
को भवानिह सम्प्राप्तो विपिने गिरिगह्वरे
पद्भ्यां पद्मपलाशाभ्यां विचरस्युरुकण्टके २७
परीक्षित्! जब कालयवन भस्म हो गया, तब यदुवंशशिरोमणि भगवान् श्रीकृष्णने परम बुद्धिमान् राजा मुचुकुन्दको अपना दर्शन दिया। भगवान् श्रीकृष्णका श्रीविग्रह वर्षाकालीन मेघके समान साँवला था। रेशमी पीताम्बर धारण किये हुए थे। वक्षःस्थलपर श्रीवत्स और गलेमें कौस्तुभमणि अपनी दिव्य ज्योति बिखेर रहे थे। चार भुजाएँ थीं। वैजयन्तीमाला अलग ही घुटनोंतक लटक रही थी। मुखकमल अत्यन्त सुन्दर और प्रसन्नतासे खिला हुआ था। कानोंमें मकराकृति कुण्डल जगमगा रहे थे। होठोंपर प्रेमभरी मुसकराहट थी और नेत्रोंकी चितवन अनुरागकी वर्षा कर रही थी। अत्यन्त दर्शनीय तरुण-अवस्था और मतवाले सिंहके समान निर्भीक चाल! राजा मुचुकुन्द यद्यपि बड़े बुद्धिमान् और धीर पुरुष थे, फिर भी भगवानकी यह दिव्य ज्योतिर्मयी मूर्ति देखकर कुछ चकित हो गये—उनके तेजसे हतप्रतिभ हो सकपका गये। भगवान् अपने तेजसे दुर्द्धर्ष जान पड़ते थे; राजाने तनिक शंकित होकर पूछा ।।२३-२७।।
किं स्वित्तेजस्विनां तेजो भगवान्वा विभावसुः
सूर्यः सोमो महेन्द्रो वा लोकपालो परोऽपि वा २८
राजा मुचुकुन्दने कहा-‘आप कौन हैं? इस काँटोंसे भरे हए घोर जंगलमें आप कमलके समान कोमल चरणोंसे क्यों विचर रहे हैं? और इस पर्वतकी गुफामें ही पधारनेका क्या प्रयोजन था? ||२८||
मन्ये त्वां देवदेवानां त्रयाणां पुरुषर्षभम्
यद्बाधसे गुहाध्वान्तं प्रदीपः प्रभया यथा २९
क्या आप समस्त तेजस्वियोंके मूर्तिमान् तेज अथवा भगवान् अग्निदेव तो नहीं हैं? क्या आप सूर्य, चन्द्रमा, देवराज इन्द्र या कोई दूसरे लोकपाल हैं? ||२९।।
शुश्रूषतामव्यलीकमस्माकं नरपुङ्गव
स्वजन्म कर्म गोत्रं वा कथ्यतां यदि रोचते ३०
मैं तो ऐसा समझता हूँ कि आप देवताओंके आराध्यदेव ब्रह्मा, विष्णु तथा शंकर -इन तीनोंमेंसे पुरुषोत्तम भगवान् नारायण ही हैं। क्योंकि जैसे श्रेष्ठ दीपक अँधेरेको दूर कर देता है, वैसे ही आप अपनी अंगकान्तिसे इस गुफाका अँधेरा भगा रहे हैं ||३०||
वयं तु पुरुषव्याघ्र ऐक्ष्वाकाः क्षत्रबन्धवः
मुचुकुन्द इति प्रोक्तो यौवनाश्वात्मजः प्रभो ३१
पुरुषश्रेष्ठ! यदि आपको रुचे तो हमें अपना जन्म, कर्म और गोत्र बतलाइये; क्योंकि हम सच्चे हृदयसे उसे सुननेके इच्छुक हैं ||३१||
चिरप्रजागरश्रान्तो निद्रयापहतेन्द्रियः
शयेऽस्मिन्विजने कामं केनाप्युत्थापितोऽधुना ३२
और पुरुषोत्तम! यदि आप हमारे बारेमें पूछे तो हम इक्ष्वाकुवंशी क्षत्रिय हैं, मेरा नाम है मुचुकुन्द। और प्रभु! मैं युवनाश्वनन्दन महाराज मान्धाताका पुत्र हूँ ||३२||
सोऽपि भस्मीकृतो नूनमात्मीयेनैव पाप्मना
अनन्तरं भवान्श्रीमांल्लक्षितोऽमित्रशासनः ३३
बहुत दिनोंतक जागते रहनेके कारण मैं थक गया था। निद्राने मेरी समस्त इन्द्रियोंकी शक्ति छीन ली थी, उन्हें बेकाम कर दिया था, इसीसे मैं इस निर्जन स्थानमें निर्द्वन्द्व सो रहा था। अभी-अभी किसीने मुझे जगा दिया ।।३३।।
तेजसा तेऽविषह्येण भूरि द्रष्टुं न शक्नुमः
हतौजसा महाभाग माननीयोऽसि देहिनाम् ३४
अवश्य उसके पापोंने ही उसे जलाकर भस्म कर दिया है। इसके बाद शत्रुओंके नाश करनेवाले परम सुन्दर आपने मुझे दर्शन दिया ||३४।।
एवं सम्भाषितो राज्ञा भगवान्भूतभावनः
प्रत्याह प्रहसन्वाण्या मेघनादगभीरया ३५
महाभाग! आप समस्त प्राणियोंके माननीय हैं। आपके परम दिव्य और असह्य तेजसे मेरी शक्ति खो गयी है। मैं आपको बहुत देरतक देख भी नहीं सकता ||३५।।
श्रीभगवानुवाच
जन्मकर्माभिधानानि सन्ति मेऽङ्ग सहस्रशः
न शक्यन्तेऽनुसङ्ख्यातुमनन्तत्वान्मयापि हि ३६
जब राजा मचकुन्दने इस प्रकार कहा, तब समस्त प्राणियोंके जीवनदाता भगवान् श्रीकृष्णने हँसते हुए मेघध्वनिके समान गम्भीर वाणीसे कहा- ||३६||
क्वचिद्रजांसि विममे पार्थिवान्युरुजन्मभिः
गुणकर्माभिधानानि न मे जन्मानि कर्हिचित् ३७
भगवान् श्रीकृष्णने कहा-प्रिय मुचुकुन्द! मेरे हजारों जन्म, कर्म और नाम हैं। वे अनन्त हैं, इसलिये मैं भी उनकी गिनती करके नहीं बतला सकता ||३७।।
कालत्रयोपपन्नानि जन्मकर्माणि मे नृप
अनुक्रमन्तो नैवान्तं गच्छन्ति परमर्षयः ३८
यह सम्भव है कि कोई पुरुष अपने अनेक जन्मोंमें पृथ्वीके छोटे-छोटे धूल-कणोंकी गिनती कर डाले; परन्तु मेरे जन्म, गुण, कर्म और नामोंको कोई कभी किसी प्रकार नहीं गिन सकता ||३८||
तथाप्यद्यतनान्यङ्ग शृणुष्व गदतो मम
विज्ञापितो विरिञ्चेन पुराहं धर्मगुप्तये ३९
राजन्! सनक-सनन्दन आदि परमर्षिगण मेरे त्रिकालसिद्ध जन्म और कर्मोंका वर्णन करते रहते हैं, परन्तु कभी उनका पार नहीं पाते ।।३९।।
भूमेर्भारायमाणानामसुराणां क्षयाय च
अवतीर्णो यदुकुले गृह आनकदुन्दुभेः
वदन्ति वासुदेवेति वसुदेवसुतं हि माम् ४०
प्रिय मुचुकुन्द! ऐसा होनेपर भी मैं अपने वर्तमान जन्म, कर्म और नामोंका वर्णन करता हूँ, सुनो। पहले ब्रह्माजीने मुझसे धर्मकी रक्षा औरपृथ्वीके भार बने हुए असुरोंका संहार करनेके लिये प्रार्थना की थी ।।४०।।
कालनेमिर्हतः कंसः प्रलम्बाद्याश्च सद्द्विषः
अयं च यवनो दग्धो राजंस्ते तिग्मचक्षुषा ४१
उन्हींकी प्रार्थनासे मैंने यदुवंशमें वसुदेवजीके यहाँ अवतार ग्रहण किया है। अब मैं वसुदेवजीका पुत्र हूँ, इसलिये लोग मुझे ‘वासुदेव’ कहते हैं ।।४१।।
सोऽहं तवानुग्रहार्थं गुहामेतामुपागतः
प्रार्थितः प्रचुरं पूर्वं त्वयाहं भक्तवत्सलः ४२
अबतक मैं कालनेमि असुरका, जो कंसके रूपमें पैदा हुआ था, तथा प्रलम्ब आदि अनेकों साधुद्रोही असुरोंका संहार कर चुका हूँ। राजन्! यह कालयवन था, जो मेरी ही प्रेरणासे तुम्हारी तीक्ष्ण दृष्टि पड़ते ही भस्म हो गया ।।४२।।
वरान्वृणीष्व राजर्षे सर्वान्कामान्ददामि ते
मां प्रसन्नो जनः कश्चिन्न भूयोऽर्हति शोचितुम् ४३
वही मैं तुमपर कृपा करनेके लिये ही इस गुफामें आया हूँ। तुमने पहले मेरी बहुत आराधना की है
और मैं हूँ भक्तवत्सल ।।४३||
श्रीशुक उवाच
इत्युक्तस्तं प्रणम्याह मुचुकुन्दो मुदान्वितः
ज्ञात्वा नारायणं देवं गर्गवाक्यमनुस्मरन् ४४
इसलिये राजर्षे! तुम्हारी जो अभिलाषा हो, मुझसे माँग लो। मैं तुम्हारी सारी लालसा, अभिलाषाएँ पूर्ण कर दूंगा। जो पुरुष मेरी शरणमें आ जाता है उसके लिये फिर ऐसी कोई वस्तु नहीं रह जाती, जिसके लिये वह शोक करे ।।४४।।
श्रीमुचुकुन्द उवाच
विमोहितोऽयं जन ईश मायया त्वदीयया त्वां न भजत्यनर्थदृक्
सुखाय दुःखप्रभवेषु सज्जते गृहेषु योषित्पुरुषश्च वञ्चितः ४५
श्रीशुकदेवजी कहते हैं-जब भगवान् श्रीकृष्णने इस प्रकार कहा, तब राजा मुचुकुन्दको वृद्ध गर्गका यह कथन याद आ गया कि यदुवंशमें भगवान् अवतीर्ण होनेवाले हैं। वे जान गये कि ये स्वयं भगवान् नारायण हैं। आनन्दसे भरकर उन्होंने भगवान्के चरणोंमेंप्रणाम किया और इस प्रकार स्तुति की ।।४५।।
लब्ध्वा जनो दुर्लभमत्र मानुषं
कथञ्चिदव्यङ्गमयत्नतोऽनघ
पादारविन्दं न भजत्यसन्मतिर्
गृहान्धकूपे पतितो यथा पशुः ४६
मुचुकुन्दने कहा-‘प्रभो! जगत्के सभी प्राणी आपकी मायासे अत्यन्त मोहित हो रहे हैं। वे आपसे विमुख होकर अनर्थमें ही फंसे रहते हैं और आपका भजन नहीं करते। वे सुखके लिये घर-गृहस्थीके उन झंझटोंमें फँस जाते हैं, जो सारे दुःखोंके मूल स्रोत हैं। इस तरह स्त्री और पुरुष सभी ठगे जा रहे हैं ।।४६।।
ममैष कालोऽजित निष्फलो गतो राज्यश्रियोन्नद्धमदस्य भूपतेः
मर्त्यात्मबुद्धेः सुतदारकोशभूष्वासज्जमानस्य दुरन्तचिन्तया ४७
इस पापरूप संसारसे सर्वथा रहित प्रभो! यह भूमि अत्यन्त पवित्र कर्मभूमि है, इसमें मनुष्यका जन्म होना अत्यन्त दुर्लभ है। मनुष्यजीवन इतना पूर्ण है कि उसमें भजनके लिये कोई भी असुविधा नहीं है। अपने परम सौभाग्य और भगवान्की अहैतुक कृपासे उसे अनायास ही प्राप्त करके भी जो अपनी मति, गति असत् संसारमें ही लगा देते हैं और तुच्छ विषयसुखके लिये ही सारा प्रयत्न करते हुए घरगृहस्थीके अँधेरे कूऍमें पड़े रहते हैं-भगवान्के चरणकमलोंकी उपासना नहीं करते, भजन नहीं करते, वे तो ठीक उस पशुके समान हैं, जो तुच्छ तृणके लोभसे अँधेरे कूऍमें गिर जाता है ।।४७||
कलेवरेऽस्मिन्घटकुड्यसन्निभे
निरूढमानो नरदेव इत्यहम्
वृतो रथेभाश्वपदात्यनीकपैर्
गां पर्यटंस्त्वागणयन्सुदुर्मदः ४८
भगवन! मैं राजा था, राज्यलक्ष्मीके मदसे मैं मतवाला हो रहा था। इस मरनेवाले शरीरको ही तो मैं आत्मा-अपना स्वरूप समझ रहा था और राजकुमार, रानी, खजाना तथा पृथ्वीके लोभ-मोहमें ही फँसा हुआ था। उन वस्तुओंकी चिन्ता दिन-रात मेरे गले लगी रहती थी। इस प्रकार मेरे जीवनका यह अमूल्य समय बिलकुल निष्फल-व्यर्थ चला गया ।।४८।।
प्रमत्तमुच्चैरितिकृत्यचिन्तया प्रवृद्धलोभं विषयेषु लालसम्
त्वमप्रमत्तः सहसाभिपद्यसे क्षुल्लेलिहानोऽहिरिवाखुमन्तकः ४९
जो शरीर प्रत्यक्ष ही घड़े और भीतके समान मिट्टीका है और दृश्य होनेके कारण उन्हींके समान अपनेसे अलग भी है, उसीको मैंने अपना स्वरूप मान लिया था और फिर अपनेको मान बैठा था ‘नरदेव’! इस प्रकार मैंने मदान्ध होकर आपको तो कुछ समझा ही नहीं। रथ, हाथी, घोड़े और पैदलकी चतुरंगिणी सेना तथा सेनापतियोंसे घिरकर मैं पृथ्वीमें इधर-उधर घूमता रहता ।।४९।।
पुरा रथैर्हेमपरिष्कृतैश्चरन्
मतंगजैर्वा नरदेवसंज्ञितः
स एव कालेन दुरत्ययेन ते
कलेवरो विट्कृमिभस्मसंज्ञितः ५०
मुझे यह करना चाहिये और यह नहीं करना चाहिये, इस प्रकार विविध कर्तव्य और अकर्तव्योंकी चिन्तामें पड़कर मनुष्य अपने एकमात्र कर्तव्य भगवत्प्राप्तिसे विमुख होकर प्रमत्त हो जाता है, असावधान हो जाता है। संसारमें बाँध रखनेवाले विषयोंके लिये उसकी लालसा दिन दूनी रात चौगुनी बढ़ती ही जाती है। परन्तु जैसे भूखके कारण जीभ लपलपाता हुआ साँप असावधान चूहेको दबोच लेता है, वैसे ही कालरूपसे सदा-सर्वदा सावधान रहनेवाले आप एकाएक उस प्रमादग्रस्त प्राणीपर टूट पड़ते हैं और उसे ले बीतते हैं ||५०||
निर्जित्य दिक्चक्रमभूतविग्रहो वरासनस्थः समराजवन्दितः
गृहेषु मैथुन्यसुखेषु योषितां क्रीडामृगः पूरुष ईश नीयते ५१
जो पहले सोनेके रथोंपर अथवा बड़े-बड़े गजराजोंपर चढ़कर चलता था और नरदेव कहलाता था, वही शरीर आपके अबाध कालका ग्रास बनकर बाहर फेंक देनेपर पक्षियोंकी विष्ठा, धरतीमें गाड़ देनेपर सड़कर कीड़ा और आगमें जला देनेपर राखका ढेर बन जाता है ||५१।।
करोति कर्माणि तपःसुनिष्ठितो निवृत्तभोगस्तदपेक्षयाददत्
पुनश्च भूयासमहं स्वराडिति प्रवृद्धतर्षो न सुखाय कल्पते ५२
प्रभो! जिसने सारी दिशाओंपर विजय प्राप्त कर ली है और जिससे लड़नेवाला संसारमें कोई रह नहीं गया है, जो श्रेष्ठ सिंहासनपर बैठता है और बड़े-बड़े नरपति, जो पहले उसके समान थे, अब जिसके चरणोंमें सिर झुकाते हैं, वही पुरुष जब विषय-सुख भोगनेके लिये, जो घर-गृहस्थीकी एक विशेष वस्तु है, स्त्रियोंके पास जाता है, तब उनके हाथका खिलौना, उनका पालतू पशु बन जाता है ||५२||
भवापवर्गो भ्रमतो यदा भवेज्जनस्य तर्ह्यच्युत सत्समागमः
सत्सङ्गमो यर्हि तदैव सद्गतौ परावरेशे त्वयि जायते मतिः ५३
बहुत-से लोग विषयभोग छोड़कर पुनः राज्यादि भोग मिलनेकी इच्छासे ही दान-पुण्य करते हैं और ‘मैं फिर जन्म लेकर सबसे बड़ा परम स्वतन्त्र सम्राट होऊँ।’ ऐसी कामना रखकर तपस्यामें भलीभाँति स्थितहो शुभकर्म करते हैं। इस प्रकार जिसकी तृष्णा बढ़ी हुई है, वह कदापि सुखी नहीं हो सकता ।।५३||
मन्ये ममानुग्रह ईश ते कृतो राज्यानुबन्धापगमो यदृच्छया
यः प्रार्थ्यते साधुभिरेकचर्यया वनं विविक्षद्भिरखण्डभूमिपैः ५४
अपने स्वरूपमें एकरस स्थित रहनेवाले भगवन्! जीव अनादिकालसे जन्ममृत्युरूप संसारके चक्करमें भटक रहा है। जब उस चक्करसे छूटनेका समय आता है, तब उसे सत्संग प्राप्त होता है। यह निश्चय है कि जिस क्षण सत्संग प्राप्त होता है, उसी क्षण संतोंके आश्रय, कार्य-कारणरूप जगत्के एकमात्र स्वामी आपमें जीवकी बुद्धि अत्यन्त दृढ़तासे लग जाती है ।।५४।।
न कामयेऽन्यं तव पादसेवनादकिञ्चनप्रार्थ्यतमाद्वरं विभो
आराध्य कस्त्वां ह्यपवर्गदं हरे वृणीत आर्यो वरमात्मबन्धनम् ५५
भगवन्! मैं तो ऐसा समझता हूँ कि आपने मेरे ऊपर परम अन्ग्रहकी वर्षा की, क्योंकि बिना किसी परिश्रमके-अनायास ही मेरे राज्यका बन्धन टूट गया। साधु-स्वभावके चक्रवर्ती राजा भी जब अपना राज्य छोड़कर एकान्तमें भजन-साधन करनेके उद्देश्यसे वनमें जाना चाहते हैं, तब उसके ममता-बन्धनसे मुक्त होनेके लिये बड़े प्रेमसे आपसे प्रार्थना किया करते हैं ।।५५||
तस्माद्विसृज्याशिष ईश सर्वतो रजस्तमःसत्त्वगुणानुबन्धनाः
निरञ्जनं निर्गुणमद्वयं परं त्वां ज्ञाप्तिमात्रं पुरुषं व्रजाम्यहम् ५६
अन्तर्यामी प्रभो! आपसे क्या छिपा है? मैं आपके चरणोंकी सेवाके अतिरिक्त और कोई भी वर नहीं चाहता; क्योंकि जिनके पास किसी प्रकारका संग्रह-परिग्रह नहीं है अथवा जो उसके अभिमानसे रहित हैं, वे लोग भी केवल उसीके लिये प्रार्थना करते रहते हैं। भगवन्! भला, बतलाइये तो सही-मोक्ष देनेवाले आपकी आराधना करके ऐसा कौन श्रेष्ठ पुरुष होगा, जो अपनेको बाँधनेवाले सांसारिक विषयोंका वर माँगे ।।५६।।
चिरमिह वृजिनार्तस्तप्यमानोऽनुतापैर्
अवितृषषडमित्रोऽलब्धशान्तिः कथञ्चित्
शरणद समुपेतस्त्वत्पदाब्जं परात्मन्
अभयमृतमशोकं पाहि मापन्नमीश ५७
इसलिये प्रभो! मैं सत्त्वगुण, रजोगुण और तमोगुणसे सम्बन्ध रखनेवाली समस्त कामनाओंको छोड़कर केवल मायाके लेशमात्र सम्बन्धसे रहित, गुणातीत, एक–अद्वितीय, चित्स्वरूप परमपुरुष आपकी शरण ग्रहण करता हूँ ।।५७।।
श्रीभगवानुवाच
सार्वभौम महाराज मतिस्ते विमलोर्जिता
वरैः प्रलोभितस्यापि न कामैर्विहता यतः ५८
भगवन्! मैं अनादिकालसे अपने कर्मफलोंको भोगते-भोगते अत्यन्त आर्त हो रहा था, उनकी दुःखद ज्वाला रात-दिन मुझेजलाती रहती थी। मेरे छः शत्रु (पाँच इन्द्रिय और एक मन) कभी शान्त न होते थे, उनकी विषयोंकी प्यास बढ़ती ही जा रही थी। कभी किसी प्रकार एक क्षणके लिये भी मुझे शान्ति न मिली। शरणदाता! अब मैं आपके भय, मत्य और शोकसे रहित चरणकमलोंकी शरणमें आया हूँ। सारे जगत्के एकमात्र स्वामी! परमात्मन्! आप मुझ शरणागतकी रक्षा कीजिये ।।५८।।
प्रलोभितो वरैर्यत्त्वमप्रमादाय विद्धि तत्
न धीरेकान्तभक्तानामाशीर्भिर्भिद्यते क्वचित् ५९
भगवान् श्रीकृष्णने कहा-‘सार्वभौम महाराज! तुम्हारी मति, तुम्हारा निश्चय बड़ा ही पवित्र और ऊँची कोटिका है। यद्यपि मैंने तुम्हें बार-बार वर देनेका प्रलोभन दिया, फिर भी तुम्हारी बुद्धि कामनाओंके अधीन न हुई ।।५९।।
युञ्जानानामभक्तानां प्राणायामादिभिर्मनः
अक्षीणवासनं राजन्दृश्यते पुनरुत्थितम् ६०
मैंने तुम्हें जो वर देनेका प्रलोभन दिया, वह केवल तुम्हारी सावधानीकी परीक्षाके लिये। मेरे जो अनन्य भक्त होते हैं, उनकी बुद्धि कभी कामनाओंसे इधर-उधर नहीं भटकती ।।६०||
विचरस्व महीं कामं मय्यावेशितमानसः
अस्त्वेवं नित्यदा तुभ्यं भक्तिर्मय्यनपायिनी ६१
जो लोग मेरे भक्त नहीं होते, वे चाहे प्राणायाम आदिके द्वारा अपने मनको वशमें करनेका कितना ही प्रयत्न क्यों न करें, उनकी वासनाएँ क्षीण नहीं होती और राजन्! उनका मन फिरसे विषयोंके लिये मचल पड़ता है ।।६१।।
क्षात्रधर्मस्थितो जन्तून्न्यवधीर्मृगयादिभिः
समाहितस्तत्तपसा जह्यघं मदुपाश्रितः ६२
तुम अपने मन और सारे मनोभावोंको मुझे समर्पित कर दो, मुझमें लगा दो और फिर स्वच्छन्दरूपसे पृथ्वीपर विचरण करो। मुझमें तुम्हारी विषय-वासनाशून्य निर्मल भक्ति सदाबनी रहेगी ||६२।।
जन्मन्यनन्तरे राजन्सर्वभूतसुहृत्तमः
भूत्वा द्विजवरस्त्वं वै मामुपैष्यसि केवलम् ६३
तुमने क्षत्रियधर्मका आचरण करते समय शिकार आदिके अवसरोंपर बहुत-से पशुओंका वध किया है। अब एकाग्रचित्तसे मेरी उपासना करते हुए तपस्याके द्वारा उस पापको धो डालो ||६३||
राजन्! अगले जन्ममें तुम ब्राह्मण बनोगे और समस्त प्राणियोंके सच्चे हितैषी, परम सुहृद् होओगे तथा फिर मुझ विशुद्ध विज्ञानघन परमात्माको प्राप्त करोगे’ ||६४।।
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां दशमस्कन्धे उत्तरार्धे मुचुकुन्दस्तुतिर्नामैकपञ्चाशत्तमोऽध्यायः