श्रीमद् भागवत महापुराण स्कन्ध 10 अध्याय 52
52 CHAPTER
श्रीमद्भागवतपुराणम्/स्कन्धः १०/उत्तरार्धः/अध्यायः ५२
अथ द्विपञ्चाशत्तमोऽध्यायः 10.52
श्रीशुक उवाच
इत्थं सोऽनुग्रहीतोऽङ्ग कृष्णेनेक्ष्वाकु नन्दनः
तं परिक्रम्य सन्नम्य निश्चक्राम गुहामुखात् १
श्रीशुकदेवजी कहते हैं-प्यारे परीक्षित्! भगवान् श्रीकृष्णने इस प्रकार इक्ष्वाकुनन्दन राजा मुचुकुन्दपर अनुग्रह किया। अब उन्होंने भगवान्की परिक्रमा की, उन्हें नमस्कार किया और गुफासे बाहर निकले ।।१।।
संवीक्ष्य क्षुल्लकान्मर्त्यान्पशून्वीरुद्वनस्पतीन्
मत्वा कलियुगं प्राप्तं जगाम दिशमुत्तराम् २
उन्होंने बाहर आकर देखा कि सब-के-सब मनुष्य, पशु, लता और वृक्ष-वनस्पति पहलेकी अपेक्षा बहुत छोटे-छोटे आकारके हो गये हैं। इससे यह जानकर कि कलियुग आ गया, वे उत्तर दिशाकी ओर चल दिये ।।२।।
तपःश्रद्धायुतो धीरो निःसङ्गो मुक्तसंशयः
समाधाय मनः कृष्णे प्राविशद्गन्धमादनम् ३
महाराज मुचुकुन्द तपस्या, श्रद्धा, धैर्य तथा अनासक्तिसे युक्त एवं संशय-सन्देहसे मुक्त थे। वे अपना चित्त भगवान्श्रीकृष्णमें लगाकर गन्ध-मादन पर्वतपर जा पहुँचे ।।३।।
बदर्याश्रममासाद्य नरनारायणालयम्
सर्वद्वन्द्वसहः शान्तस्तपसाराधयद्धरिम् ४
भगवान् नर-नारायणके नित्य निवासस्थान बदरिकाश्रममें जाकर बड़े शान्त-भावसे गर्मी-सर्दी आदि द्वन्द्व सहते हुए वे तपस्याके द्वारा भगवान्की आराधना करने लगे ।।४।।
भगवान्पुनराव्रज्य पुरीं यवनवेष्टिताम्
हत्वा म्लेच्छबलं निन्ये तदीयं द्वारकां धनम् ५
इधर भगवान् श्रीकृष्ण मथुरापुरीमें लौट आये। अबतक कालयवनकी सेनाने उसे घेर रखा था। अब उन्होंने म्लेच्छोंकी सेनाका संहार किया और उसका सारा धन छीनकर द्वारकाको ले चले ।।५।।
नीयमाने धने गोभिर्नृभिश्चाच्युतचोदितैः
आजगाम जरासन्धस्त्रयोविंशत्यनीकपः ६
जिस समय भगवान् श्रीकृष्णके आज्ञानुसार मनुष्यों और बैलोंपर वह धन ले जाया जाने लगा, उसी समय मगधराज जरासन्ध फिर (अठारहवीं बार) तेईस अक्षौहिणी सेना लेकर आ धमका ||६||
विलोक्य वेगरभसं रिपुसैन्यस्य माधवौ
मनुष्यचेष्टामापन्नौ राजन्दुद्रुवतुर्द्रुतम् ७
परीक्षित्! शत्रु-सेनाका प्रबल वेग देखकर भगवान् श्रीकृष्ण
और बलराम मनुष्योंकी-सी लीला करते हुए उसके सामनेसे बड़ी फुर्तीके साथ भाग निकले ||७||
विहाय वित्तं प्रचुरमभीतौ भीरुभीतवत्
पद्भ्यां पलाशाभ्यां चेलतुर्बहुयोजनम् ८
उनके मनमें तनिक भी भय न था। फिर भी मानो अत्यन्त भयभीत हो गये हों -इस प्रकारका नाट्य करते हुए, वह सब-का-सब धन वहीं छोड़कर अनेक योजनोंतक वे अपने कमलदलके समान सुकोमल चरणोंसे ही–पैदल भागते चले गये ||८||
पलायमानौ तौ दृष्ट्वा मागधः प्रहसन्बली
अन्वधावद्रथानीकैरीशयोरप्रमाणवित् ९
जब महाबली मगधराज जरासन्धने देखा कि श्रीकृष्ण और बलराम तो भाग रहे हैं, तब वह हँसने लगा और अपनी रथ-सेनाके साथ उनका पीछा करने लगा। उसे भगवान् श्रीकृष्ण और बलरामजीके ऐश्वर्य, प्रभाव आदिका ज्ञान न था ।।९।।
प्रद्रुत्य दूरं संश्रान्तौ तुङ्गमारुहतां गिरिम्
प्रवर्षणाख्यं भगवान्नित्यदा यत्र वर्षति १०
बहुत दूरतक दौड़नेके कारण दोनों भाई कुछ थकसे गये। अब वे बहुत ऊँचे प्रवर्षण पर्वतपर चढ़ गये। उस पर्वतका ‘प्रवर्षण’ नाम इसलिये पड़ा था कि वहाँ सदा ही मेघ वर्षा किया करते थे ||१०||
गिरौ निलीनावाज्ञाय नाधिगम्य पदं नृप
ददाह गिरिमेधोभिः समन्तादग्निमुत्सृजन् ११
परीक्षित्! जब जरासन्धने देखा कि वे दोनों पहाड़में छिप गये और बहुत ढूँढ़नेपर भी पता न चला, तब उसने ईंधनसे भरे हुए प्रवर्षण पर्वतके चारों ओर आग लगवाकर उसे जला दिया ।।११।।
तत उत्पत्य तरसा दह्यमानतटादुभौ
दशैकयोजनात्तुङ्गान्निपेततुरधो भुवि १२
जब भगवान्ने देखा कि पर्वतके छोर जलने लगे हैं, तब दोनों भाई जरासन्धकी सेनाके घेरेको लाँघते हुए बड़े वेगसे उस ग्यारह योजन (चौवालीस कोस) ऊँचे पर्वतसे एकदम नीचे धरती-पर कूद आये ।।१२।।
अलक्ष्यमाणौ रिपुणा सानुगेन यदूत्तमौ
स्वपुरं पुनरायातौ समुद्र परिखां नृप १३
राजन्! उन्हें जरासन्धने अथवा उसके किसी सैनिकने देखा नहीं और वे दोनों भाई वहाँसे चलकर फिर अपनी समुद्रसे घिरी हुई द्वारकापुरीमें चले आये ।।१३।।
सोऽपि दग्धाविति मृषा मन्वानो बलकेशवौ
बलमाकृष्य सुमहन्मगधान्मागधो ययौ १४
जरासन्धने झूठमूठ ऐसा मान लिया कि श्रीकृष्ण और बलराम तो जल गये और फिर वह अपनी बहुत बड़ी सेना लौटाकर मगधदेशको चला गया ।।१४।।
आनर्ताधिपतिः श्रीमान्रैवतो रैवतीं सुताम्
ब्रह्मणा चोदितः प्रादाद्बलायेति पुरोदितम् १५
यह बात मैं तुमसे पहले ही (नवम स्कन्धमें कह चुका हूँ कि आनर्तदेशके राजा श्रीमान् रैवतजीने अपनी रेवती नामकी कन्या ब्रह्माजीकी प्रेरणासे बल-रामजीके साथ ब्याह दी ।।१५।।
भगवानपि गोविन्द उपयेमे कुरूद्वह
वैदर्भीं भीष्मकसुतां श्रियो मात्रां स्वयंवरे १६
प्रमथ्य तरसा राज्ञः शाल्वादींश्चैद्यपक्षगान्
पश्यतां सर्वलोकानां तार्क्ष्यपुत्रः सुधामिव १७
परीक्षित्! भगवान् श्रीकृष्ण भी स्वयंवरमें आये हुए शिशुपाल और उसके पक्षपाती शाल्व आदि नरपतियोंको बलपूर्वक हराकर सबके देखते-देखते, जैसे गरुड़ने सुधाका हरण किया था, वैसे ही विदर्भदेशकी राजकुमारी रुक्मिणीको हर लाये और उनसे विवाह कर लिया। रुक्मिणीजी राजा भीष्मककी कन्या और स्वयं भगवती लक्ष्मीजीका अवतार थीं ।।१६-१७।।
श्रीराजोवाच
भगवान्भीष्मकसुतां रुक्मिणीं रुचिराननाम्
राक्षसेन विधानेन उपयेम इति श्रुतम् १८
राजा परीक्षित्ने पूछा-भगवन्! हमने सुना है कि भगवान् श्रीकृष्णने भीष्मकनन्दिनी परमसुन्दरी रुक्मिणीदेवीको बलपूर्वक हरण करके राक्षसविधिसे उनके साथ विवाह किया था ||१८||
भगवन्श्रोतुमिच्छामि कृष्णस्यामिततेजसः
यथा मागधशाल्वादीन्जित्वा कन्यामुपाहरत् १९
महाराज! अब मैं यह सुनना चाहता हूँ कि परम तेजस्वी भगवान् श्रीकृष्णने जरासन्ध, शाल्व आदि नरपतियोंको जीतकर किस प्रकार रुक्मिणीका हरण किया? ||१९।।
ब्रह्मन्कृष्णकथाः पुण्या माध्वीर्लोकमलापहाः
को नु तृप्येत शृण्वानः श्रुतज्ञो नित्यनूतनाः २०
ब्रह्मर्षे! भगवान् श्रीकृष्णकी लीलाओंके सम्बन्धमें क्या कहना है? वे स्वयं तो पवित्र हैं ही, सारे जगत्का मल धो-बहाकर उसे भी पवित्र कर देनेवाली हैं। उनमें ऐसी लोकोत्तर माधुरी है, जिसे दिन-रात सेवन करते रहनेपर भी नित्य नया-नया रस मिलता रहता है। भला ऐसा कौन रसिक, कौन मर्मज्ञ है, जो उन्हें सुनकर तृप्त न हो जाय ।।२०।।
श्रीबादरायणिरुवाच
राजासीद्भीष्मको नाम विदर्भाधिपतिर्महान्
तस्य पञ्चाभवन्पुत्राः कन्यैका च वरानना २१
श्रीशुकदेवजी कहते हैं-परीक्षित्! महाराज भीष्मक विदर्भदेशके अधिपति थे। उनके पाँच पत्र और एक सुन्दरी कन्या थी ।।२१।।
रुक्म्यग्रजो रुक्मरथो रुक्मबाहुरनन्तरः
रुक्मकेशो रुक्ममाली रुक्मिण्येषा स्वसा सती २२
सबसे बड़े पुत्रका नाम था रुक्मी और चार छोटे थे—जिनके नाम थे क्रमशः रुक्मरथ, रुक्मबाहु, रुक्मकेश और रुक्ममाली। इनकी बहिन थी सती रुक्मिणी ।।२२।।
सोपश्रुत्य मुकुन्दस्य रूपवीर्यगुणश्रियः
गृहागतैर्गीयमानास्तं मेने सदृशं पतिम् २३
जब उसने भगवान् श्रीकृष्णके सौन्दर्य, पराक्रम, गुण और वैभवकी प्रशंसा सुनी–जो उसके महलमें आनेवाले अतिथि प्रायः गाया ही करते थे—तब उसने यही निश्चय किया कि भगवान् श्रीकृष्ण ही मेरे अनुरूप पति हैं ।।२३।।
तां बुद्धिलक्षणौदार्य रूपशीलगुणाश्रयाम्
कृष्णश्च सदृशीं भार्यां समुद्वोढुं मनो दधे २४
भगवान् श्रीकृष्ण भी समझते थे कि ‘रुक्मिणीमें बड़े सुन्दर-सुन्दर लक्षण हैं, वह परम बुद्धिमती है; उदारता, सौन्दर्य, शीलस्वभाव और गुणोंमें भी अद्वितीय है। इसलिये रुक्मिणी ही मेरे अनुरूप पत्नी है। अतः भगवान्ने रुक्मिणीजीसे विवाह करनेका निश्चय किया ||२४||
बन्धूनामिच्छतां दातुं कृष्णाय भगिनीं नृप
ततो निवार्य कृष्णद्विड्रुक्मी चैद्यममन्यत २५
रुक्मिणीजीके भाईबन्ध भी चाहते थे कि हमारी बहिनका विवाह श्रीकष्णसे ही हो। परन्त रुक्मी श्रीकष्णसे बडा द्वेष रखता था, उसने उन्हें विवाह करनेसे रोक दिया और शिशुपालको ही अपनी बहिनकेयोग्य वर समझा ।।२५||
तदवेत्यासितापाङ्गी वैदर्भी दुर्मना भृशम्
विचिन्त्याप्तं द्विजं कञ्चित्कृष्णाय प्राहिणोद्द्रुतम् २६
जब परमसुन्दरी रुक्मिणीको यह मालूम हुआ कि मेरा बड़ा भाई रुक्मी शिशुपालके साथ मेरा विवाह करना चाहता है, तब वे बहुत उदास हो गयीं। उन्होंने बहुत कुछ सोच-विचारकर एक विश्वास-पात्र ब्राह्मणको तुरंत श्रीकृष्णके पास भेजा ||२६||
द्वारकां स समभ्येत्य प्रतीहारैः प्रवेशितः
अपश्यदाद्यं पुरुषमासीनं काञ्चनासने २७
जब वे ब्राह्मणदेवता द्वारकापुरीमें पहुंचे तब द्वारपाल उन्हें राजमहलके भीतर ले गये। वहाँ जाकर ब्राह्मण-देवताने देखा कि आदिपुरुष भगवान् श्रीकृष्ण सोनेके सिंहासनपर विराजमान हैं ||२७||
दृष्ट्वा ब्रह्मण्यदेवस्तमवरुह्य निजासनात्
उपवेश्यार्हयां चक्रे यथात्मानं दिवौकसः २८
ब्राह्मणोंके परमभक्त भगवान् श्रीकृष्ण उन ब्राह्मणदेवताको देखते ही अपने आसनसे नीचे उतर गये और उन्हें अपने आसनपर बैठाकर वैसी ही पूजा की जैसे देवतालोग उनकी (भगवान्की) किया करते हैं ||२८||
तं भुक्तवन्तं विश्रान्तमुपगम्य सतां गतिः
पाणिनाभिमृशन्पादावव्यग्रस्तमपृच्छत २९
आदर-सत्कार, कुशल-प्रश्नके अनन्तर जब ब्राह्मणदेवता खा-पी चुके, आराम-विश्राम कर चुके तब संतोंके परम आश्रय भगवान् श्रीकृष्ण उनके पास गये और अपने कोमल हाथोंसे उनके पैर सहलाते हुए बड़े शान्त भावसे पूछने लगे- ||२९||
कच्चिद्द्विजवरश्रेष्ठ धर्मस्ते वृद्धसम्मतः
वर्तते नातिकृच्छ्रेण सन्तुष्टमनसः सदा ३०
‘ब्राह्मणशिरोमणे! आपका चित्त तो सदा-सर्वदा सन्तुष्ट रहता है न? आपको अपने पूर्वपुरुषोंद्वारा स्वीकृत धर्मका पालन करने में कोई कठिनाई तो नहीं होती ||३०||
सन्तुष्टो यर्हि वर्तेत ब्राह्मणो येन केनचित्
अहीयमानः स्वद्धर्मात्स ह्यस्याखिलकामधुक् ३१
ब्राह्मण यदि जो कुछ मिल जाय उसीमें सन्तुष्ट रहे और अपने धर्मका पालन करे, उससे च्युत न हो तो वह सन्तोष ही उसकी सारी कामनाएँ पूर्ण कर देता है ||३१||
असन्तुष्टोऽसकृल्लोकानाप्नोत्यपि सुरेश्वरः
अकिञ्चनोऽपि सन्तुष्टः शेते सर्वाङ्गविज्वरः ३२
यदि इन्द्रका पद पाकर भी किसीको सन्तोष न हो तो उसे सुखके लिये एक लोकसे दूसरे लोकमें बार-बार भटकना पड़ेगा, वह कहीं भी शान्तिसे बैठ नहीं सकेगा। परन्तु जिसके पास तनिक भी संग्रह-परिग्रह नहीं है और जो उसी अवस्था में सन्तुष्ट है, वह सब प्रकारसे सन्तापरहित होकर सुखकी नींद सोता है ||३२||
विप्रान्स्वलाभसन्तुष्टान्साधून्भूतसुहृत्तमान्
निरहङ्कारिणः शान्तान्नमस्ये शिरसा सकृत् ३३
जो स्वयं प्राप्त हुई वस्तुसे सन्तोष कर लेते हैं, जिनका स्वभाव बड़ा ही मधुर है और जो समस्त प्राणियोंके परम हितैषी, अहंकाररहित और शान्त हैं-उन ब्राह्मणोंको मैं सदा सिर झुकाकर नमस्कार करता हूँ ||३३।।
कच्चिद्वः कुशलं ब्रह्मन्राजतो यस्य हि प्रजाः
सुखं वसन्ति विषये पाल्यमानाः स मे प्रियः ३४
ब्राह्मणदेवता! राजाकी ओरसे तो आपलोगोंको सब प्रकारकी सुविधा है न? जिसके राज्यमें प्रजाका अच्छी तरह पालन होता है और वह आनन्दसे रहती है, वह राजा मुझे बहुत ही प्रिय है ।।३४।।
यतस्त्वमागतो दुर्गं निस्तीर्येह यदिच्छया
सर्वं नो ब्रूह्यगुह्यं चेत्किं कार्यं करवाम ते ३५
ब्राह्मणदेवता! आप कहाँसे, किस हेतुसे और किस अभिलाषासे इतना कठिन मार्ग तय करके यहाँ पधारे हैं? यदि कोई बात विशेष गोपनीय न हो तो हमसे कहिये। हम आपकी क्या सेवा करें?’ ||३५||
एवं सम्पृष्टसम्प्रश्नो ब्राह्मणः परमेष्ठिना
लीलागृहीतदेहेन तस्मै सर्वमवर्णयत् ३६
परीक्षित्! लीलासे ही मनुष्यरूप धारण करनेवाले भगवान् श्रीकृष्णने जब इस प्रकार ब्राह्मणदेवतासे पूछा, तब उन्होंने सारी बात कह सुनायी। इसके बाद वे भगवान्से रुक्मिणीजीका सन्देश कहने लगे ।।३६।।
श्रीरुक्मिण्युवाच
श्रुत्वा गुणान्भुवनसुन्दर शृण्वतां ते
निर्विश्य कर्णविवरैर्हरतोऽङ्गतापम्
रूपं दृशां दृशिमतामखिलार्थलाभं
त्वय्यच्युताविशति चित्तमपत्रपं मे ३७
रुक्मिणीजीने कहा है त्रिभुवनसुन्दर! आपके गुणोंको, जो सुननेवालोंके कानोंके रास्ते हृदयमें प्रवेश करके एक-एक अंगके ताप, जन्म-जन्मकी जलन बुझा देते हैं तथा अपने रूप-सौन्दर्यको जो नेत्रवाले जीवोंके नेत्रोंके लिये धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष-चारों पुरुषार्थों के फल एवं स्वार्थ-परमार्थ, सब कुछ हैं, श्रवण करके प्यारे अच्युत! मेरा चित्त लज्जा, शर्म सब कुछ छोड़कर आपमें ही प्रवेश कर रहा है ।।३७||
का त्वा मुकुन्द महती कुलशीलरूप
विद्यावयोद्रविणधामभिरात्मतुल्यम्
धीरा पतिं कुलवती न वृणीत कन्या
काले नृसिंह नरलोकमनोऽभिरामम् ३८
प्रेमस्वरूप श्यामसुन्दर! चाहे जिस दृष्टिसे देखें; कुल, शील, स्वभाव, सौन्दर्य, विद्या, अवस्था, धन-धाम सभीमें आप अद्वितीय हैं, अपने ही समान हैं। मनुष्यलोकमें जितने भी प्राणी हैं, सबका मन आपको देखकर शान्तिका
अनुभव करता है, आनन्दित होता है। अब पुरुषभूषण! आप ही बतलाइये-ऐसी कौन-सी कुलवती महागुणवती और धैर्यवती कन्या होगी, जो विवाहके योग्य समय आनेपर आपको ही पतिके रूपमें वरण न करेगी? ||३८।।
तन्मे भवान्खलु वृतः पतिरङ्ग जायाम्
आत्मार्पितश्च भवतोऽत्र विभो विधेहि
मा वीरभागमभिमर्शतु चैद्य आराद्
गोमायुवन्मृगपतेर्बलिमम्बुजाक्ष ३९
इसीलिये प्रियतम! मैंने आपको पतिरूपसे वरण किया है। मैं आपको आत्मसमर्पण कर चुकी हूँ। आप अन्तर्यामी हैं। मेरे हृदयकी बात आपसे छिपी नहीं है। आप यहाँ पधारकर मुझे अपनी पत्नीके रूपमें स्वीकार कीजिये। कमलनयन! प्राणवल्लभ! मैं आप-सरीखे वीरको समर्पित हो चुकी हूँ, आपकी हूँ। अब जैसे सिंहका भाग सियार छू जाय, वैसे कहीं शिशुपाल निकटसे आकर मेरा स्पर्श न कर जाय ।।३९।।
पूर्तेष्टदत्तनियमव्रतदेवविप्र
गुर्वर्चनादिभिरलं भगवान्परेशः
आराधितो यदि गदाग्रज एत्य पाणिं
गृह्णातु मे न दमघोषसुतादयोऽन्ये ४०
मैंने यदि जन्म-जन्ममें पूर्त (कुआँ, बावली आदि खुदवाना), इष्ट (यज्ञादि करना), दान, नियम, व्रत तथा देवता, ब्राह्मण और गुरु आदिकी पूजाके द्वारा भगवान् परमेश्वरकी ही आराधना की हो और वे मुझपर प्रसन्न हों तो भगवान श्रीकृष्ण आकर मेरा पाणिग्रहण करें; शिशपाल अथवा दूसरा कोई भी पुरुष मेरा स्पर्श न कर सके ।।४०||
श्वो भाविनि त्वमजितोद्वहने विदर्भान्
गुप्तः समेत्य पृतनापतिभिः परीतः
निर्मथ्य चैद्यमगधेन्द्र बलं प्रसह्य
मां राक्षसेन विधिनोद्वह वीर्यशुल्काम् ४१
प्रभो! आप अजित हैं। जिस दिन मेरा विवाह होनेवाला हो उसके एक दिन पहले आप हमारी राजधानीमें गुप्तरूपसे आ जाइये और फिर बड़े-बड़े सेनापतियोंके साथ शिशुपाल तथा जरासन्धकी सेनाओंको मथ डालिये, तहसनहस कर दीजिये और बलपूर्वक राक्षस-विधिसे वीरताका मूल्य देकर मेरा पाणिग्रहण कीजिये ।।४१।।
अन्तःपुरान्तरचरीमनिहत्य बन्धून्
त्वामुद्वहे कथमिति प्रवदाम्युपायम्
पूर्वेद्युरस्ति महती कुलदेवयात्रा
यस्यां बहिर्नववधूर्गिरिजामुपेयात् ४२
यदि आप यह सोचते हों कि ‘तुम तो अन्तःपुरमें-भीतरके जनाने महलोंमें पहरेके अंदर रहती हो, तुम्हारे भाई-बन्धुओंको मारे बिना मैं तुम्हें कैसे ले जा सकता हूँ?’ तो इसका उपाय मैं आपको बतलाये देती हूँ। हमारे कुलका ऐसा नियम है कि विवाहके पहले दिन कुलदेवीका दर्शन करनेके लिये एक बहुत बड़ी यात्रा होती है, जुलूस निकलता हैजिसमें विवाही जानेवाली कन्याको, दुलहिनको नगरके बाहर गिरिजादेवीके मन्दिरमें जाना पड़ता है ||४२।।
यस्याङ्घ्रिपङ्कजरजःस्नपनं महान्तो
वाञ्छन्त्युमापतिरिवात्मतमोऽपहत्यै
यर्ह्यम्बुजाक्ष न लभेय भवत्प्रसादं
जह्यामसून्व्रतकृशान्शतजन्मभिः स्यात् ४३
कमलनयन! उमापति भगवान् शंकरके समान बड़े-बड़े महापुरुष भी आत्मशुद्धिके लिये आपके चरणकमलोंकी धूलसे स्नान करना चाहते हैं। यदि मैं आपका वह प्रसाद, आपकी वह चरणधूल नहीं प्राप्त कर सकी तो व्रतद्वारा शरीरको सुखाकर प्राण छोड़दूंगी। चाहे उसके लिये सैकड़ों जन्म क्यों न लेने पड़ें, कभी-न-कभी तो आपका वह प्रसाद अवश्य ही मिलेगा ।।४३।।
ब्राह्मण उवाच
इत्येते गुह्यसन्देशा यदुदेव मया हृताः
विमृश्य कर्तुं यच्चात्र क्रियतां तदनन्तरम् ४४
ब्राह्मणदेवताने कहा-यदुवंशशिरोमणे! यही रुक्मिणीके अत्यन्त गोपनीय सन्देश हैं, जिन्हें लेकर मैं आपके पास आया हूँ। इसके सम्बन्धमें जो कुछ करना हो, विचार कर लीजिये और तुरंत ही उसके अनुसार कार्य कीजिये ।।४४।।
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां दशमस्कन्धे उत्तरार्धे रुक्मिण्युद्वाहप्रस्तावे द्विपञ्चाशत्तमोऽध्यायः