RamCharitManas (RamCharit.in)

इंटरनेट पर श्रीरामजी का सबसे बड़ा विश्वकोश | RamCharitManas Ramayana in Hindi English | रामचरितमानस रामायण हिंदी अनुवाद अर्थ सहित

श्रीमद् भागवत महापुराण दशम स्कन्ध

श्रीमद् भागवत महापुराण स्कन्ध 10 अध्याय 57

Spread the Glory of Sri SitaRam!

57 CHAPTER
श्रीमद्भागवतपुराणम्/स्कन्धः १०/उत्तरार्धः/अध्यायः ५७
अथ सप्तपञ्चाशत्तमोऽध्यायः 10.57

सत्राजितं हत्वा शतधन्वनः स्यमन्तकहरणं, तस्य च वधः अक्रूरस्य च पलायनं पुनर्द्वारकायां आगमनं च –
श्रीबादरायणिरुवाच
विज्ञातार्थोऽपि गोविन्दो दग्धानाकर्ण्य पाण्डवान्
कुन्तीं च कुल्यकरणे सहरामो ययौ कुरून् १

श्रीशुकदेवजी कहते हैं-परीक्षित्! यद्यपि भगवान् श्रीकृष्णको इस बातका पता था कि लाक्षागृहकी आगसे पाण्डवोंका बाल भी बाँका नहीं हुआ है, तथापि जब उन्होंने सुना कि कुन्ती और पाण्डव जल मरे, तब उस समयका कुल-परम्परोचित व्यवहार करनेके लिये वे बलरामजीके साथ हस्तिनापुर गये ||१||

भीष्मं कृपं स विदुरं गान्धारीं द्रोणमेव च
तुल्यदुःखौ च सङ्गम्य हा कष्टमिति होचतुः २

वहाँ जाकर भीष्मपितामह, कृपाचार्य, विदुर, गान्धारी और द्रोणाचार्यसे मिलकर उनके साथ समवेदना-सहानुभूति प्रकट की और उन लोगोंसे कहने लगे—’हाय-हाय! यह तो बड़े ही दुःखकी बात हुई’ ||२||

लब्ध्वैतदन्तरं राजन्शतधन्वानमूचतुः
अक्रूरकृतवर्माणौ मणिः कस्मान्न गृह्यते ३

भगवान् श्रीकृष्णके हस्तिनापुर चले जानेसे द्वारकामें अक्रूर और कृतवर्माको अवसर मिल गया। उन लोगोंने शतधन्वासे आकर कहा—’तुम सत्राजित्से मणि क्यों नहीं छीन लेते? ||३||

योऽस्मभ्यं सम्प्रतिश्रुत्य कन्यारत्नं विगर्ह्य नः
कृष्णायादान्न सत्राजित्कस्माद्भ्रातरमन्वियात् ४

सत्राजित्ने अपनी श्रेष्ठ कन्या सत्यभामाका विवाह हमसे करनेका वचन दिया था और अब उसने हमलोगोंका तिरस्कार करके उसे श्रीकृष्णके साथ व्याह दिया है। अब सत्राजित् भी अपने भाई प्रसेनकी तरह क्यों न यमपुरीमें जाय?’ ||४||

एवं भिन्नमतिस्ताभ्यां सत्राजितमसत्तमः
शयानमवधील्लोभात्स पापः क्षीणजीवितः ५

शतधन्वा पापी था और अब तो उसकी मृत्यु भी उसके सिरपर नाच रही थी। अक्रूर और कृतवर्माके इस प्रकार बहकानेपर शतधन्वा उनकी बातोंमें आ गया और उस महादुष्टने लोभवश सोये हुए सत्राजित्को मार डाला ||५||

स्त्रीणां विक्रोशमानानां क्रन्दन्तीनामनाथवत्
हत्वा पशून्सौनिकवन्मणिमादाय जग्मिवान् ६

इस समय स्त्रियाँ अनाथके समान रोने-चिल्लाने लगीं; परन्तु शतधन्वाने उनकी ओर तनिक भी ध्यान न दिया; जैसे कसाई पशुओंकी हत्या कर डालता है, वैसे ही वह सत्राजित्को मारकर और मणि लेकर वहाँसे चम्पत हो गया ।।६।।

सत्यभामा च पितरं हतं वीक्ष्य शुचार्पिता
व्यलपत्तात तातेति हा हतास्मीति मुह्यती ७

सत्यभामाजीको यह देखकर कि मेरे पिता मार डाले गये हैं, बड़ा शोक हुआ और वे ‘हाय पिताजी! हाय पिताजी! मैं मारी गयी’—इस प्रकार पुकार-पुकारकर विलाप करने लगीं। बीच-बीचमें वे बेहोश हो जातीं और होशमें आनेपर फिर विलाप करने लगतीं ।।७।।

तैलद्रोण्यां मृतं प्रास्य जगाम गजसाह्वयम्
कृष्णाय विदितार्थाय तप्ताऽऽचख्यौ पितुर्वधम् ८

इसके बाद उन्होंने अपने पिताके शवको तेलके कड़ाहेमें रखवा दिया और आप हस्तिनापुरको गयीं। उन्होंने बड़े दुःखसे भगवान् श्रीकृष्णको अपने पिताकी हत्याका वृत्तान्त सुनाया–यद्यपि इन बातोंको भगवान् श्रीकृष्ण पहलेसे ही जानते थे ||८||

तदाकर्ण्येश्वरौ राजन्ननुसृत्य नृलोकताम्
अहो नः परमं कष्टमित्यस्राक्षौ विलेपतुः ९

परीक्षित! सर्वशक्तिमान् भगवान् श्रीकृष्ण और बलरामजीने सब सुनकर मनुष्योंकी-सी लीला करते हुए अपनी आँखोंमें आँसू भर लिये और विलाप करने लगे कि ‘अहो! हम लोगोंपर तो यह बहुत बड़ी विपत्ति आ पड़ी!’ ||९||

आगत्य भगवांस्तस्मात्सभार्यः साग्रजः पुरम्
शतधन्वानमारेभे हन्तुं हर्तुं मणिं ततः १०

इसके बाद भगवान् श्रीकृष्ण सत्यभामाजी और बलरामजीके साथ हस्तिनापुरसे द्वारका लौट आये और शतधन्वाको मारने तथा उससे मणि छीननेका उद्योग करने लगे ।।१०।।

सोऽपि कृतोद्यमं ज्ञात्वा भीतः प्राणपरीप्सया
साहाय्ये कृतवर्माणमयाचत स चाब्रवीत् ११

जब शतधन्वाको यह मालूम हुआ कि भगवान् श्रीकृष्ण मुझे मारनेका उद्योग कर रहे हैं, तब वह बहुत डर गया और अपने प्राण बचानेके लिये उसने कृतवर्मासे सहायता माँगी। तबकृतवर्माने कहा- ||११||

नाहमीश्वरयोः कुर्यां हेलनं रामकृष्णयोः
को नु क्षेमाय कल्पेत तयोर्वृजिनमाचरन् १२

‘भगवान् श्रीकृष्ण और बलरामजी सर्व-शक्तिमान् ईश्वर हैं। मैं उनका सामना नहीं कर सकता। भला, ऐसा कौन है, जो उनके साथ वैर बाँधकर इस लोक और परलोकमें सकुशल रह सके? ||१२||

कंसः सहानुगोऽपीतो यद्द्वेषात्त्याजितः श्रिया
जरासन्धः सप्तदश संयुगाद्विरथो गतः १३

तुम जानते हो कि कंस उन्हींसे द्वेष करनेके कारण राज्यलक्ष्मीको खो बैठा और अपने अनुयायियों के साथ मारा गया। जरासन्ध-जैसे शूरवीरको भी उनके सामने सत्रह बार मैदानमें हारकर बिना रथके ही अपनी राजधानीमें लौट जाना पड़ा था’ ||१३||

प्रत्याख्यातः स चाक्रूरं पार्ष्णिग्राहमयाचत
सोऽप्याह को विरुध्येत विद्वानीश्वरयोर्बलम् १४

य इदं लीलया विश्वं सृजत्यवति हन्ति च
चेष्टां विश्वसृजो यस्य न विदुर्मोहिताजया १५

यः सप्तहायनः शैलमुत्पाट्यैकेन पाणिना
दधार लीलया बाल उच्छिलीन्ध्रमिवार्भकः १६

नमस्तस्मै भगवते कृष्णायाद्भुतकर्मणे
अनन्तायादिभूताय कूटस्थायात्मने नमः १७

जब कृतवर्माने उसे इस प्रकार टका-सा जवाब दे दिया, तब शतधन्वाने सहायताके लिये अक्रूरजीसे प्रार्थना की। उन्होंने कहा—’भाई! ऐसा कौन है, जो सर्वशक्तिमान् भगवानका बल-पौरुष जानकर भी उनसे वैर-विरोध ठाने। जो भगवान् खेलखेलमें ही इस विश्वकी रचना, रक्षा और संहार करते हैं तथा जो कब क्या करना चाहते हैंइस बातको मायासे मोहित ब्रह्मा आदि विश्वविधाता भी नहीं समझ पाते; जिन्होंने सात वर्षकी अवस्थामें जब वे निरे बालक थे, एक हाथसे ही गिरिराज गोवर्द्धनको उखाड़ लिया और जैसे नन्हे-नन्हे बच्चे बरसाती छत्तेको उखाड़कर हाथमें रख लेते हैं, वैसे ही खेल-खेलमें सात दिनोंतक उसे उठाये रखा; मैं तो उन भगवान् श्रीकृष्णको नमस्कार करता हूँ। उनके कर्म अद्भुत हैं। वे अनन्त, अनादि, एकरस और आत्मस्वरूप हैं। मैं उन्हें नमस्कार करता हूँ’ ||१४-१७||

प्रत्याख्यातः स तेनापि शतधन्वा महामणिम्
तस्मिन्न्यस्याश्वमारुह्य शतयोजनगं ययौ १८

जब इस प्रकार अक्रूरजीने भी उसे कोरा जवाब दे दिया, तब शतधन्वाने स्यमन्तक-मणि उन्हींके पास रख दी और आप चार सौ कोस लगातार चलनेवाले घोड़ेपर सवार होकर वहाँसे बड़ी फुर्तीसे भागा ।।१८।।

गरुडध्वजमारुह्य रथं रामजनार्दनौ
अन्वयातां महावेगैरश्वै राजन्गुरुद्रुहम् १९

परीक्षित्! भगवान् श्रीकृष्ण और बलराम दोनों भाई अपने उस रथपर सवार हुए, जिसपर गरुड़चिह्नसे चिह्नित ध्वजा फहरा रही थी और बड़े वेगवाले घोड़े जुते हुए थे। अब उन्होंने अपने श्वशुर सत्राजित्को मारनेवाले शतधन्वाका पीछा किया ।।१९।।

मिथिलायामुपवने विसृज्य पतितं हयम्
पद्भ्यामधावत्सन्त्रस्तः कृष्णोऽप्यन्वद्रवद्रुषा २०

मिथिलापरीके निकट एक उपवनमें शतधन्वाका घोड़ा गिर पड़ा, अब वह उसे छोड़कर पैदल ही भागा। वह अत्यन्त भयभीत हो गया था। भगवान् श्रीकृष्ण भी क्रोध करके उसके पीछे दौड़े ||२०||

पदातेर्भगवांस्तस्य पदातिस्तिग्मनेमिना
चक्रेण शिर उत्कृत्य वाससोर्व्यचिनोन्मणिम् २१

शतधन्वा पैदल ही भाग रहा था, इसलिये भगवान्ने भी पैदल ही दौड़कर अपने तीक्ष्ण धारवाले चक्रसे उसका सिर उतार लिया और उसके वस्त्रोंमें स्यमन्तकमणिको ढूँढ़ा ||२१||

अलब्धमणिरागत्य कृष्ण आहाग्रजान्तिकम्
वृथा हतः शतधनुर्मणिस्तत्र न विद्यते २२

परन्तु जब मणि मिली नहीं तब भगवान श्रीकृष्णने बड़े भाई बलरामजीके पास आकर कहा—’हमने शतधन्वाको व्यर्थ ही मारा। क्योंकि उसके पास स्यमन्तकमणि तो है ही नहीं’ ||२२||

तत आह बलो नूनं स मणिः शतधन्वना
कस्मिंश्चित्पुरुषे न्यस्तस्तमन्वेष पुरं व्रज २३

बलरामजीने कहा-‘इसमें सन्देह नहीं कि शतधन्वाने स्यमन्तकमणिको किसी-न-किसीके पास रख दिया है। अब तुम द्वारका जाओ और उसका पता लगाओ ।।२३।।

अहं वैदेहमिच्छामि द्रष्टुं प्रियतमं मम
इत्युक्त्वा मिथिलां राजन्विवेश यदुनन्दनः २४

मैं विदेहराजसे मिलना चाहता हूँ; क्योंकि वे मेरे बहुत ही प्रिय मित्र हैं।’ परीक्षित्! यह कहकर यदुवंशशिरोमणि बलरामजी मिथिला नगरीमें चले गये ||२४||

तं दृष्ट्वा सहसोत्थाय मैथिलः प्रीतमानसः
अर्हयां आस विधिवदर्हणीयं समर्हणैः २५

जब मिथिलानरेशने देखा कि पूजनीय बलरामजी महाराज पधारे हैं, तब उनका हृदय आनन्दसे भर गया। उन्होंने झटपट अपने आसनसे उठकर अनेक सामग्रियोंसे उनकी पूजा की ||२५||

उवास तस्यां कतिचिन्मिथिलायां समा विभुः
मानितः प्रीतियुक्तेन जनकेन महात्मना
ततोऽशिक्षद्गदां काले धार्तराष्ट्रः सुयोधनः २६

इसके बाद भगवान बलरामजी कई वर्षोंतक मिथिलापुरीमें ही रहे। महात्मा जनकने बड़े प्रेम और सम्मानसे उन्हें रखा। इसके बाद समयपर धृतराष्ट्रके पुत्र दुर्योधनने बलरामजीसे गदायुद्धकी शिक्षा ग्रहण की ।।२६।।

केशवो द्वारकामेत्य निधनं शतधन्वनः
अप्राप्तिं च मणेः प्राह प्रियायाः प्रियकृद्विभुः २७

अपनी प्रिया सत्यभामाका प्रिय कार्य करके भगवान् श्रीकृष्ण द्वारका लौट आये और उनको यह समाचार सुना दिया कि शतधन्वाको मार डाला गया, परन्तु स्यमन्तकमणि उसके पास न मिली ।।२७।।

ततः स कारयामास क्रिया बन्धोर्हतस्य वै
साकं सुहृद्भिर्भगवान्या याः स्युः साम्परायिकीः २८

इसके बाद उन्होंने भाई-बन्धुओंके साथ अपने श्वशुर सत्राजित्की वे सब और्ध्वदैहिक क्रियाएँ करवायीं, जिनसे मृतक प्राणीका परलोक सुधरता है ।।२८।।

अक्रूरः कृतवर्मा च श्रुत्वा शतधनोर्वधम्
व्यूषतुर्भयवित्रस्तौ द्वारकायाः प्रयोजकौ २९

अक्रूर और कृतवर्माने शतधन्वाको सत्राजित्के वधके लिये उत्तेजित किया था। इसलिये जब उन्होंने सुना कि भगवान् श्रीकृष्णने शतधन्वाको मार डाला है, तब वे अत्यन्त भयभीत होकर द्वारकासे भाग खड़े हुए ।।२९।।

अक्रूरे प्रोषितेऽरिष्टान्यासन्वै द्वारकौकसाम्
शारीरा मानसास्तापा मुहुर्दैविकभौतिकाः ३०

इत्यङ्गोपदिशन्त्येके विस्मृत्य प्रागुदाहृतम्
मुनिवासनिवासे किं घटेतारिष्टदर्शनम् ३१

परीक्षित्! कुछ लोग ऐसा मानते हैं कि अक्रूरके द्वारकासे चले जानेपर द्वारकावासियोंको बहुत प्रकारके अनिष्टों और अरिष्टोंका सामना करना पड़ा। दैविक और भौतिक निमित्तोंसे बार-बार वहाँके नागरिकोंको शारीरिक और मानसिक कष्ट सहना पड़ा। परन्तु जो लोग ऐसा कहते हैं, वे पहले कही हुई बातोंको भूल जाते हैं। भला, यह भी कभी सम्भव है कि जिन भगवान् श्रीकृष्णमें समस्त ऋषि-मुनि निवास करते हैं, उनके निवासस्थान द्वारकामें उनके रहते कोई उपद्रव खड़ा हो जाय ।।३०-३१।।

देवेऽवर्षति काशीशः श्वफल्कायागताय वै
स्वसुतां गान्दिनीं प्रादात्ततोऽवर्षत्स्म काशिषु ३२

तत्सुतस्तत्प्रभावोऽसावक्रूरो यत्र यत्र ह
देवोऽभिवर्षते तत्र नोपतापा न मारिकाः ३३

इति वृद्धवचः श्रुत्वा नैतावदिह कारणम्
इति मत्वा समानाय्य प्राहाक्रूरं जनार्दनः ३४

उस समय नगरके बड़े-बूढ़े लोगोंने कहा-‘एक बार काशी-नरेशके राज्यमें वर्षा नहीं हो रहीथी, सूखा पड़ गया था। तब उन्होंने अपने राज्यमें आये हुए अक्रूरके पिता श्वफल्कको अपनी पुत्री गान्दिनी ब्याह दी। तब उस प्रदेशमें वर्षा हुई। अक्रूर भी श्वफल्कके ही पुत्र हैं और इनका प्रभाव भी वैसा ही है। इसलिये जहाँ-जहाँ अक्रूर रहते हैं, वहाँ-वहाँ खूब वर्षा होती है तथा किसी प्रकारका कष्ट और महामारी आदि उपद्रव नहीं होते।’ परीक्षित्! उन लोगोंकी बात सुनकर भगवानने सोचा कि ‘इस उपद्रवका यही कारण नहीं है’ यह जानकर भी भगवानने दूत भेजकर अक्रूरजीको ढूँढ़वाया और आनेपर उनसे बातचीत की ||३२-३४।।

पूजयित्वाभिभाष्यैनं कथयित्वा प्रियाः कथाः
विज्ञताखिलचित्तज्ञः स्मयमान उवाच ह ३५

भगवान्ने उनका खब स्वागत-सत्कार किया और मीठी-मीठी प्रेमकी बातें कहकर उनसे सम्भाषण किया। परीक्षित्! भगवान् सबके चित्तका एक-एक संकल्प देखते रहते हैं। इसलिये उन्होंने मुसकराते हुए अक्रूरसे कहा- ||३५||

ननु दानपते न्यस्तस्त्वय्यास्ते शतधन्वना
स्यमन्तको मणिः श्रीमान्विदितः पूर्वमेव नः ३६

‘चाचाजी! आप दान-धर्मके पालक हैं। हमें यह बात पहलेसे ही मालूम है कि शतधन्वा आपके पास वह स्यमन्तकमणि छोड़ गया है, जो बड़ी ही प्रकाशमान और धन देनेवाली है ||३६||

सत्राजितोऽनपत्यत्वाद्गृह्णीयुर्दुहितुः सुताः
दायं निनीयापः पिण्डान्विमुच्यर्णं च शेषितम् ३७

आप जानते ही हैं कि सत्राजित्के कोई पुत्र नहीं है। इसलिये उनकी लड़कीके लड़के-उनके नाती ही उन्हें तिलांजलि और पिण्डदान करेंगे, उनका ऋण चुकायेंगे और जो कुछ बच रहेगा, उसके उत्तराधिकारी होंगे ||३७।।

तथापि दुर्धरस्त्वन्यैस्त्वय्यास्तां सुव्रते मणिः
किन्तु मामग्रजः सम्यङ्न प्रत्येति मणिं प्रति ३८

इस प्रकार शास्त्रीय दष्टिसे यद्यपि स्यमन्तकमणि हमारे पुत्रोंको ही मिलनी चाहिये, तथापि वह मणि आपके ही पास रहे। क्योंकि आप बड़े व्रतनिष्ठ और पवित्रात्मा हैं तथा दूसरों के लिये उस मणिको रखना अत्यन्त कठिन भी है। परन्तु हमारे सामने एक बहुत बड़ी कठिनाई यह आ गयी है कि हमारे बड़े भाई बलरामजी मणिके सम्बन्धमें मेरी बातका पूरा विश्वास नहीं करते ।।३८||

दर्शयस्व महाभाग बन्धूनां शान्तिमावह
अव्युच्छिन्ना मखास्तेऽद्य वर्तन्ते रुक्मवेदयः ३९

इसलिये महाभाग्यवान् अक्रूरजी! आप वह मणि दिखाकर हमारे इष्ट-मित्रबलरामजी, सत्यभामा और जाम्बवतीका सन्देह दूर कर दीजिये और उनके हृदयमें शान्तिका संचार कीजिये। हमें पता है कि उसी मणिके प्रतापसे आजकल आप लगातार ही ऐसे यज्ञ करते रहते हैं, जिनमें सोनेकी वेदियाँ बनती हैं’ ||३९।।

एवं सामभिरालब्धः श्वफल्कतनयो मणिम्
आदाय वाससाच्छन्नः ददौ सूर्यसमप्रभम् ४०

परीक्षित्! जब भगवान् श्रीकृष्णने इस प्रकार सान्त्वना देकर उन्हें समझाया-बुझाया तब अक्रूरजीने वस्त्रमें लपेटी हुई सूर्यके समान प्रकाशमान वह मणि निकाली और भगवान् श्रीकृष्णको दे दी ।।४०।।

स्यमन्तकं दर्शयित्वा ज्ञातिभ्यो रज आत्मनः
विमृज्य मणिना भूयस्तस्मै प्रत्यर्पयत्प्रभुः ४१

भगवान् श्रीकृष्णने वह स्यमन्तकमणि अपने जाति-भाइयोंको दिखाकर अपना कलंक दूर किया और उसे अपने पास रखने में समर्थ होनेपर भी पुनः अक्रूरजीको लौटा दिया ।।४१।।

यस्त्वेतद्भगवत ईश्वरस्य विष्णोर्
वीर्याढ्यं वृजिनहरं सुमङ्गलं च
आख्यानं पठति शृणोत्यनुस्मरेद्वा
दुष्कीर्तिं दुरितमपोह्य याति शान्तिम् ४२

सर्वशक्तिमान् सर्वव्यापक भगवान् श्रीकृष्णके पराक्रमोंसे परिपूर्ण यह आख्यान समस्त पापों, अपराधों और कलंकोंका मार्जन करनेवाला तथा परम मंगलमय है। जो इसे पढ़ता, सुनता अथवा स्मरण करता है, वह सब प्रकारकी अपकीर्ति और पापोंसे छुटकर शान्तिका अनुभव करता है ।।४२||

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां दशमस्कन्धे उत्तरार्धे स्यमन्तकोपाख्याने सप्तपञ्चाशत्तमोऽध्यायः


Spread the Glory of Sri SitaRam!

Shweta Srinet

गरिमा जी संस्कृत भाषा में परास्नातक एवं राष्ट्रीय पात्रता परीक्षा उत्तीर्ण हैं। यह RamCharit.in हेतु 2018 से सतत पूर्णकालिक सदस्य के रूप में कार्य कर रही हैं। धार्मिक ग्रंथों को उनके मूल आध्यात्मिक रूप में सरलता से उपलब्ध कराने का कार्य इसके द्वारा ही निष्पादित होता है।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

सत्य सनातन फाउंडेशन (रजि.) भारत सरकार से स्वीकृत संस्था है। हिन्दू धर्म के वैश्विक संवर्धन-संरक्षण व निःशुल्क सेवाकार्यों हेतु आपके आर्थिक सहयोग की अति आवश्यकता है! हम धर्मग्रंथों को अनुवाद के साथ इंटरनेट पर उपलब्ध कराने हेतु अग्रसर हैं। कृपया हमें जानें और सहयोग करें!

X
error: