श्रीमद् भागवत महापुराण स्कन्ध 10 अध्याय 6
श्रीमद्भागवतपुराणम्/स्कन्धः १०/पूर्वार्धः/अध्यायः ६
पूतनावधः –
( अनुष्टुप् )
श्रीशुक उवाच ।
नन्दः पथि वचः शौरेः न मृषेति विचिन्तयन् ।
हरिं जगाम शरणं उत्पातागमशङ्कितः ॥ १ ॥
श्रीशुकदेवजी कहते हैं-परीक्षित्! नन्दबाबा जब मथुरासे चले, तब रास्तेमें विचार करने लगे कि वसुदेवजीका कथन झूठा नहीं हो सकता। इससे उनके मनमें उत्पात होनेकी आशंका हो गयी। तब उन्होंने मन-ही-मन ‘भगवान ही शरण हैं, वे ही रक्षा करेंगे’ ऐसा निश्चय किया ।।१।।
कंसेन प्रहिता घोरा पूतना बालघातिनी ।
शिशूंश्चचार निघ्नन्ती पुरग्रामव्रजादिषु ॥ २ ॥
पूतना नामकी एक बड़ी क्रूर राक्षसी थी। उसकाएक ही काम था-बच्चोंको मारना। कंसकी आज्ञासे वह नगर, ग्राम और अहीरोंकी बस्तियों में बच्चोंको मारनेके लिये घूमा करती थी ।।२||
न यत्र श्रवणादीनि रक्षोघ्नानि स्वकर्मसु ।
कुर्वन्ति सात्वतां भर्तुः यातुधान्यश्च तत्र हि ॥ ३ ॥
जहाँके लोग अपने प्रतिदिनके कामोंमें राक्षसोंके भयको दूर भगानेवाले भक्तवत्सल भगवान्के नाम, गुण और लीलाओंका श्रवण, कीर्तन और स्मरण नहीं करते-वहीं ऐसी राक्षसियोंका बल चलता है ||३||
सा खेचर्येकदोत्पत्य पूतना नन्दगोकुलम् ।
योषित्वा माययाऽऽत्मानं प्राविशत् कामचारिणी ॥ ४ ॥
वह पूतना आकाशमार्गसे चल सकती थी और अपनी इच्छाके अनुसार रूप भी बना लेती थी। एक दिन नन्दबाबाके गोकुलके पास आकर उसने मायासे अपनेको एक सुन्दरी युवती बना लिया और गोकुलके भीतर घुस गयी ।।४।।
तां केशबन्ध व्यतिषक्तमल्लिकां
( मिश्र )
बृहन्नितंब स्तनकृच्छ्रमध्यमाम् ।
सुवाससं कल्पितकर्णभूषण
त्विषोल्लसत् कुन्तलमण्डिताननाम् ॥ ५ ॥
उसने बड़ा सुन्दर रूप बनाया था। उसकी चोटियोंमें बेलेके फूल गुंथे हुए थे। सुन्दर वस्त्र पहने हुए थी। जब उसके कर्णफूल हिलते थे, तब उनकी चमकसे मुखकी ओर लटकी हुई अलकें और भी शोभायमान हो जाती थीं। उसके नितम्ब और कुच-कलश ऊँचे-ऊँचे थे और कमर पतली थी ||५||
वल्गुस्मितापाङ्ग विसर्गवीक्षितैः
मनो हरन्तीं वनितां व्रजौकसाम् ।
अमंसताम्भोजकरेण रूपिणीं
गोप्यः श्रियं द्रष्टुमिवागतां पतिम् ॥ ६ ॥
वह अपनी मधुर मुसकान और कटाक्षपूर्ण चितवनसे व्रजवासियोंका चित्त चुरा रही थी। उस रूपवती रमणीको हाथमें कमल लेकर आते देख गोपियाँ ऐसी उत्प्रेक्षा करने लगीं, मानो स्वयं लक्ष्मीजी अपने पतिका दर्शन करनेके लिये आ रही हैं ।।६।।
बालग्रहस्तत्र विचिन्वती शिशून्
यदृच्छया नन्दगृहेऽसदन्तकम् ।
बालं प्रतिच्छन्ननिजोरुतेजसं
ददर्श तल्पेऽग्निमिवाहितं भसि ॥ ७ ॥
पूतना बालकोंके लिये ग्रहके समान थी। वह इधर-उधर बालकोंको ढूंढती हई अनायास ही नन्द-बाबाके घरमें घुस गयी। वहाँ उसने देखा कि बालक श्रीकृष्ण शय्यापर सोये हुए हैं। परीक्षित्! भगवान् श्रीकृष्ण दुष्टोंके काल हैं। परन्तु जैसे आग राखकी ढेरीमें अपनेको छिपाये हुए हो, वैसे ही उस समय उन्होंने अपने प्रचण्ड तेजको छिपा रखा था ।।७।।
विबुध्य तां बालक मारिकाग्रहं
चराचरात्मा स निमीलितेक्षणः ।
अनन्तमारोपयदङ्कमन्तकं
यथोरगं सुप्तमबुद्धिरज्जुधीः ॥ ८ ॥
भगवान् श्रीकृष्ण चर-अचर सभी प्राणियोंके आत्मा हैं। इसलिये उन्होंने उसी क्षण जान लिया कि यह बच्चोंको मार डालनेवाला पूतना-ग्रह है और अपने नेत्र बंद कर लिये।* जैसे कोई पुरुष भ्रमवश सोये हुए साँपको रस्सी समझकर उठा ले, वैसे ही अपने कालरूप भगवान् श्रीकृष्णको पूतनाने अपनी गोदमें उठा लिया ।।८।।
तां तीक्ष्णचित्तामतिवामचेष्टितां
वीक्ष्यान्तरा कोषपरिच्छदासिवत् ।
वरस्त्रियं तत्प्रभया च धर्षिते
निरीक्ष्यमाणे जननी ह्यतिष्ठताम् ॥ ९ ॥
मखमली म्यानके भीतर छिपी हुई तीखी धारवाली तलवारके समान पूतनाका हृदय तो बड़ा कुटिल था; किन्तु ऊपरसे वह बहुत मधुर और सुन्दर व्यवहार कर रही थी। देखने में वह एक भद्र महिलाके समान जान पड़ती थी। इसलिये रोहिणी और यशोदाजीने उसे घरके भीतर आयी देखकर भी उसकी सौन्दर्यप्रभासे हतप्रतिभ-सी होकर कोई रोक-टोक नहीं की, चुपचाप खड़ी-खड़ी देखती रहीं ।।९।।
तस्मिन् स्तनं दुर्जरवीर्यमुल्बणं ।
घोराङ्कमादाय शिशोर्ददावथ ।
गाढं कराभ्यां भगवान् प्रपीड्य तत्
प्राणैः समं रोषसमन्वितोऽपिबत् ॥ १० ॥
इधर भयानक राक्षसी पूतनाने बालक श्रीकृष्णको अपनी गोदमें लेकर उनके मुँहमें अपना स्तन दे दिया, जिसमें बड़ा भयंकर और किसी प्रकार भी पच न सकनेवाला विष लगा हुआ था। भगवान्ने क्रोधको अपना साथी बनाया और दोनों हाथोंसे उसके स्तनोंको जोरसे दबाकर उसके प्राणोंके साथ उसका दूध पीने लगे (वे उसका दूध पीने लगे और उनका साथी क्रोध प्राण पीने लगा!)* ||१०||
सा मुञ्च मुञ्चालमिति प्रभाषिणी
निष्पीड्य मानाखिलजीवमर्मणि ।
विवृत्य नेत्रे चरणौ भुजौ मुहुः
प्रस्विन्नगात्रा क्षिपती रुरोद ह ॥ ११ ॥
अब तो पूतनाके प्राणोंके आश्रयभूत सभी मर्मस्थान फटने लगे। वह पुकारने लगी—’अरे छोड़ दे, छोड़ दे, अब बस कर!’ वह बार-बार अपने हाथ और पैर पटक-पटककर रोने लगी। उसके नेत्र उलट गये। उसका
सारा शरीर पसीनेसे लथपथ हो गया ।।११।।
तस्याः स्वनेनातिगभीररंहसा
साद्रिर्मही द्यौश्च चचाल सग्रहा ।
रसा दिशश्च प्रतिनेदिरे जनाः
पेतुः क्षितौ वज्रनिपात शङ्कया ॥ १२ ॥
उसकी चिल्लाहटका वेग बड़ा भयंकर था। उसके प्रभावसे पहाड़ोंके साथ पृथ्वी और ग्रहोंके साथ अन्तरिक्ष डगमगा उठा। सातों पाताल और दिशाएँ गूंज उठीं। बहुत-से लोग वज्रपातकी आशंकासे पृथ्वीपर गिर पड़े ||१२||
निशाचरीत्थं व्यथितस्तना व्यसुः
व्यादाय केशांश्चरणौ भुजावपि ।
प्रसार्य गोष्ठे निजरूपमास्थिता
वज्राहतो वृत्र इवापतन्नृप ॥ १३ ॥
परीक्षित्! इस प्रकार निशाचरी पूतनाके स्तनोंमें इतनी पीड़ा हुई कि वह अपनेको छिपा न सकी, राक्षसीरूपमें प्रकट हो गयी। उसके शरीरसे प्राण निकल गये, मुँह फट गया, बाल बिखर गये और हाथ-पाँव फैल गये। जैसे इन्द्रके वज्रसे घायल होकर वृत्रासुर गिर पड़ा था, वैसे ही वह बाहर गोष्ठमें आकर गिर पड़ी ||१३||
( अनुष्टुप् )
पतमानोऽपि तद्देह त्रिगव्यूत्यन्तरद्रुमान् ।
चूर्णयामास राजेन्द्र महदासीत् तदद्भुतम् ॥ १४ ॥
राजेन्द्र! पूतनाके शरीरने गिरते-गिरते भी छ: कोसके भीतरके वृक्षोंको कुचल डाला। यह बड़ी ही अदभुत घटना हुई ||१४||
ईषामात्रोग्रदंष्ट्रास्यं गिरिकन्दर नासिकम् ।
गण्डशैलस्तनं रौद्रं प्रकीर्णारुणमूर्धजम् ॥ १५ ॥
पूतनाका शरीर बड़ा भयानक था, उसका मुँह हलके समान तीखी और भयंकर दाढ़ोंसे युक्त था। उसके नथुने पहाड़की गुफाके समान गहरे थे और स्तन पहाड़से गिरी हुई चट्टानोंकी तरह बड़े-बड़े थे। लाललाल बाल चारों ओर बिखरे हुए थे ।।१५।।
अन्धकूपगभीराक्षं पुलिनारोह भीषणम् ।
बद्धसेतुभुजोर्वङ्घ्रि शून्यतोय ह्रदोदरम् ॥ १६ ॥
आँखें अंधे कूएँके समान गहरी नितम्ब नदीके करारकी तरह भयंकर; भुजाएँ, जाँघे और पैर नदीके पुलके समान तथा पेट सूखे हुए सरोवरकी भाँति जान पड़ता था ||१६||
सन्तत्रसुः स्म तद्वीक्ष्य गोपा गोप्यः कलेवरम् ।
पूर्वं तु तन्निःस्वनित भिन्नहृत्कर्ण मस्तकाः ॥ १७ ॥
पूतनाके उस शरीरको देखकर सबके-सब ग्वाल और गोपी डर गये। उसकी भयंकर चिल्लाहट सुनकर उनके हृदय, कान और सिर तो पहले ही फट-से रहे थे ।।१७।।
बालं च तस्या उरसि क्रीडन्तं अकुतोभयम् ।
गोप्यस्तूर्णं समभ्येत्य जगृहुर्जातसंभ्रमाः ॥ १८ ॥
जब गोपियोंने देखा कि बालक श्रीकृष्ण उसकी छातीपर निर्भय होकर खेल रहे हैं, तब वे बड़ी घबराहट और उतावलीके साथ झटपट वहाँ पहुँच गयीं तथा श्रीकृष्णको उठा लिया ।।१८।।-
यशोदा रोहिणीभ्यां ताः समं बालस्य सर्वतः ।
रक्षां विदधिरे सम्यक् गोपुच्छभ्रमणादिभिः ॥ १९ ॥
इसके बाद यशोदा और रोहिणीके साथ गोपियोंने गायकी पूँछ घुमाने आदि उपायोंसे बालक श्रीकृष्णके अंगोंकी सब प्रकारसे रक्षा की ।।१९।।
गोमूत्रेण स्नापयित्वा पुनर्गोरजसार्भकम् ।
रक्षां चक्रुश्च शकृता द्वादशाङ्गेषु नामभिः ॥ २० ॥
उन्होंने पहले बालक श्रीकृष्णको गोमत्रसे स्नान कराया, फिर सब अंगोंमें गो-रज लगायी और फिर बारहों अंगोंमें गोबर लगाकर भगवान्के केशव आदि नामोंसे रक्षा की ||२०||
गोप्यः संस्पृष्टसलिला अङ्गेषु करयोः पृथक् ।
न्यस्यात्मन्यथ बालस्य बीजन्यासमकुर्वत ॥ २१ ॥
इसके बाद गोपियोंने आचमन करके ‘अज’ आदि ग्यारह बीज-मन्त्रोंसे अपने शरीरोंमें अलग अलग अंगन्यास एवं करन्यास किया और फिर बालकके अंगोंमें बीजन्यास किया ।।२१।।
( वसंततिलका )
अव्यादजोऽङ्घ्रि मणिमांस्तव जान्वथोरू
यज्ञोऽच्युतः कटितटं जठरं हयास्यः ।
हृत्केशवस्त्वदुर ईश इनस्तु कण्ठं
विष्णुर्भुजं मुखमुरुक्रम ईश्वरः कम् ॥ २२ ॥
वे कहने लगीं-‘अजन्मा भगवान् तेरे पैरोंकी रक्षा करें, मणिमान् घुटनोंकी, यज्ञपुरुष जाँघोंकी, अच्यत कमरकी, हयग्रीव पेटकी, केशव हृदयकी, ईश वक्षःस्थलकी, सूर्य कण्ठकी, विष्णु बाँहोंकी, उरुक्रम मुखकी और ईश्वर सिरकी रक्षा करें ||२२||
चक्र्यग्रतः सहगदो हरिरस्तु पश्चात् ।
त्वत्पार्श्वयोर्धनुरसी मधुहाजनश्च ।
कोणेषु शङ्ख उरुगाय उपर्युपेन्द्रः
तार्क्ष्यः क्षितौ हलधरः पुरुषः समन्तात् ॥ २३ ॥
चक्रधर भगवान् रक्षाके लिये तेरे आगे रहें, गदाधारी श्रीहरि पीछे, क्रमशः धनुष और खड्ग धारण करनेवाले भगवान् मधुसूदन और अजन दोनों बगलमें, शंखधारी उरुगाय चारों कोनोंमें, उपेन्द्र ऊपर, हलधर पृथ्वीपर और भगवान् परमपुरुष तेरे सब ओर रक्षाके लिये रहें ||२३||
( अनुष्टुप् )
इन्द्रियाणि हृषीकेशः प्राणान्नारायणोऽवतु ।
श्वेतद्वीपपतिश्चित्तं मनो योगेश्वरोऽवतु ॥ २४ ॥
हृषीकेशभगवान् इन्द्रियोंकी और नारायण प्राणोंकी रक्षा करें। श्वेतद्वीपके अधिपति चित्तकी और योगेश्वर मनकी रक्षा करें ||२४।।
पृश्निगर्भस्तु ते बुद्धिं आत्मानं भगवान्परः ।
क्रीडन्तं पातु गोविन्दः शयानं पातु माधवः ॥ २५ ॥
पृश्निगर्भ तेरी बुद्धिकी और परमात्मा भगवान् तेरे अहंकारकी रक्षा करें। खेलते समय गोविन्द रक्षा करें, सोते समय माधव रक्षा करें ||२५||
व्रजन्तमव्याद् वैकुण्ठ आसीनं त्वां श्रियः पतिः ।
भुञ्जानं यज्ञभुक् पातु सर्वग्रहभयङ्करः ॥ २६ ॥
चलते समय भगवान् वैकुण्ठ और बैठते समय भगवान् श्रीपति तेरी रक्षा करें। भोजनके समय समस्त ग्रहोंको भयभीत करनेवालेयज्ञभोक्ता भगवान् तेरी रक्षा करें ||२६||
डाकिन्यो यातुधान्यश्च कुष्माण्डा येऽर्भकग्रहाः ।
भूतप्रेत पिशाचाश्च यक्षरक्षो विनायकाः ॥ २७ ॥
कोटरा रेवती ज्येष्ठा पूतना मातृकादयः ।
उन्मादा ये ह्यपस्मारा देह प्राणेन्द्रियद्रुहः ॥ २८ ॥
स्वप्नदृष्टा महोत्पाता वृद्धा बालग्रहाश्च ये ।
सर्वे नश्यन्तु ते विष्णोः नामग्रहणभीरवः ॥ २९ ॥
डाकिनी, राक्षसी और कूष्माण्डा आदि बालग्रह; भूत, प्रेत, पिशाच, यक्ष, राक्षस और विनायक, कोटरा, रेवती, ज्येष्ठा, पूतना, मातृका आदि; शरीर, प्राण तथा इन्द्रियोंका नाश करनेवाले उन्माद (पागलपन) एवं अपस्मार (मगी) आदि रोग; स्वप्नमें देखे हुए महान् उत्पात, वृद्धग्रह और बालग्रह आदि -ये सभी अनिष्ट भगवान् विष्णुका नामोच्चारण करनेसे भयभीत होकर नष्ट हो जायँ ।।२७-२९।।
श्रीशुक उवाच ।
इति प्रणयबद्धाभिः गोपीभिः कृतरक्षणम् ।
पाययित्वा स्तनं माता संन्यवेशयदात्मजम् ॥ ३० ॥
श्रीशुकदेवजी कहते हैं-परीक्षित्! इस प्रकार गोपियोंने प्रेमपाशमें बँधकर भगवान् श्रीकृष्णकी रक्षा की। माता यशोदाने अपने पुत्रको स्तन पिलाया और फिर पालनेपर सुला दिया ||३०||
तावन्नन्दादयो गोपा मथुराया व्रजं गताः ।
विलोक्य पूतनादेहं बभूवुः अतिविस्मिताः ॥ ३१ ॥
इसी समय नन्दबाबा और उनके साथी गोप मथुरासे गोकुलमें पहँचे। जब उन्होंने पूतनाका भयंकर शरीर देखा, तब वे आश्चर्यचकित हो गये ||३१||
नूनं बतर्षिः सञ्जातो योगेशो वा समास सः ।
स एव दृष्टो ह्युत्पातो यद् आहानकदुन्दुभिः ॥ ३२ ॥
वे कहने लगे—’यह तो बड़े आश्चर्यकी बात है, अवश्य ही वसुदेवके रूपमें किसी ऋषिने जन्म ग्रहण किया है। अथवा सम्भव है वसुदेवजी पूर्वजन्ममें कोई योगेश्वर रहे हों; क्योंकि उन्होंने जैसा कहा था, वैसा ही उत्पात यहाँ देखने में आ रहा है ।।३२।।
कलेवरं परशुभिः छित्त्वा तत्ते व्रजौकसः ।
दूरे क्षिप्त्वावयवशो न्यदहन् काष्ठवेष्टितम् ॥ ३३ ॥
तबतक व्रजवासियोंने कुल्हाड़ीसे पूतनाके शरीरको टुकड़े-टुकड़े कर डाला और गोकुलसे दूर ले जाकर लकड़ियोंपर रखकर जला दिया ।।३३।।
दह्यमानस्य देहस्य धूमश्चागुरुसौरभः ।
उत्थितः कृष्णनिर्भुक्त सपद्याहतपाप्मनः ॥ ३४ ॥
जब उसका शरीर जलने लगा, तब उसमेंसे ऐसा धुंआ निकला, जिसमेंसे अगरकी-सी सुगन्ध आ रही थी। क्यों न हो, भगवान्ने जो उसका दूध पी लिया था जिससे उसके सारे पाप तत्काल ही नष्ट हो गये थे ||३४||
पूतना लोकबालघ्नी राक्षसी रुधिराशना ।
जिघांसयापि हरये स्तनं दत्त्वाप सद्गतिम् ॥ ३५ ॥
पूतना एक राक्षसी थी। लोगोंके बच्चोंको मार डालना और उनका खून पी जाना—यही उसका काम था। भगवान्को भी उसने मार डालनेकी इच्छासे ही स्तन पिलाया था। फिर भी उसे वह परमगति मिली, जो सत्पुरुषोंको मिलती है ।।३५।।
किं पुनः श्रद्धया भक्त्या कृष्णाय परमात्मने ।
यच्छन्प्रियतमं किं नु रक्तास्तन्मातरो यथा ॥ ३६ ॥
ऐसी स्थितिमें जो परब्रह्म परमात्मा भगवान श्रीकृष्णको श्रद्धा और भक्तिसे माताके समान अनुरागपूर्वक अपनी प्रिय-से-प्रिय वस्तु और उनको प्रिय लगनेवाली वस्तु समर्पित करते हैं, उनके सम्बन्धमें तो कहना ही क्या है ।।३६।।
पद्भ्यां भक्तहृदिस्थाभ्यां वन्द्याभ्यां लोकवन्दितैः ।
अङ्गं यस्याः समाक्रम्य भगवान् अपिबत् स्तनम् ॥ ३७ ॥
भगवान्के चरणकमल सबके वन्दनीय ब्रह्मा, शंकर आदि देवताओंके द्वारा भी वन्दित हैं। वे भक्तोंके हृदयकी पूँजी हैं। उन्हीं चरणोंसे भगवान्ने पूतनाका शरीर दबाकर उसका स्तनपान किया था ।।३७।।
यातुधान्यपि सा स्वर्गं अवाप जननीगतिम् ।
कृष्णभुक्तस्तनक्षीराः किमु गावोऽनुमातरः ॥ ३८ ॥
माना कि वह राक्षसी थी, परन्तु उसे उत्तमसे-उत्तम गति–जो माताको मिलनी चाहिये—प्राप्त हुई। फिर जिनके स्तनका दूध भगवान्ने बड़े प्रेमसे पिया, उन गौओं और माताओंकी तो बात ही क्या है ।।३८।।
पयांसि यासामपिबत् पुत्रस्नेहस्नुतान्यलम् ।
भगवान् देवकीपुत्रः कैवल्याद्यखिलप्रदः ॥ ३९ ॥
परीक्षित्! देवकीनन्दन भगवान् कैवल्य आदि सब प्रकारकी मुक्ति और सब कुछ देनेवाले हैं। उन्होंने व्रजकी गोपियों और गौओंका वह दूध, जो भगवान्के प्रति पुत्र-भाव होनेसे वात्सल्य-स्नेहकी अधिकताके कारण स्वयं ही झरता रहता था, भरपेट पान किया ||३९||
तासामविरतं कृष्णे कुर्वतीनां सुतेक्षणम् ।
न पुनः कल्पते राजन् संसारोऽज्ञानसंभवः ॥ ४० ॥
राजन! वे गौएँ और गोपियाँ, जो नित्य-निरन्तर भगवान श्रीकृष्णको अपने पुत्रके ही रूपमें देखती थीं, फिर जन्म-मृत्युरूप संसारके चक्रमें कभी नहीं पड़ सकतीं; क्योंकि यह संसार तो अज्ञानके कारण ही है ।।४०।।
कटधूमस्य सौरभ्यं अवघ्राय व्रजौकसः ।
किमिदं कुत एवेति वदन्तो व्रजमाययुः ॥ ४१ ॥
नन्दबाबाके साथ आनेवाले व्रजवासियोंकी नाकमें जब चिताके धूएँकी सुगन्ध पहँची, तब ‘यह क्या है? कहाँसे ऐसी सुगन्ध आ रही है?’ इस प्रकार कहते हए वे व्रजमें पहुँचे ।।४१।।
ते तत्र वर्णितं गोपैः पूतना गमनादिकम् ।
श्रुत्वा तन्निधनं स्वस्ति शिशोश्चासन् सुविस्मिताः ॥ ४२ ॥
वहाँ गोपोंने उन्हें पूतनाके आनेसे लेकर मरनेतकका सारा वृत्तान्त कह सुनाया। वे लोग पूतनाकी मृत्यु और श्रीकृष्णके कुशलपूर्वक बच जानेकी बात सुनकर बड़े ही आश्चर्यचकित हुए ।।४२।।
नन्दः स्वपुत्रमादाय प्रेत्यागतमुदारधीः ।
मूर्ध्न्युपाघ्राय परमां मुदं लेभे कुरूद्वह ॥ ४३ ॥
परीक्षित्! उदारशिरोमणि नन्दबाबाने मृत्युके मुखसे बचे हुए अपने लालाको गोदमें उठा लिया और बार-बार उसका सिर सूंघकर मन-ही-मन बहुत आनन्दित हुए ||४३।।
य एतत्पूतनामोक्षं कृष्णस्यार्भकमद्भुतम् ।
श्रृणुयात् श्रद्धया मर्त्यो गोविन्दे लभते रतिम् ॥ ४४ ॥
यह ‘पूतना-मोक्ष’ भगवान् श्रीकृष्णकी अद्भुत बाल-लीला है। जो मनुष्य श्रद्धापूर्वक इसका श्रवण करता है, उसे भगवान् श्रीकृष्णके प्रति प्रेम प्राप्त होता है ।।४४।।
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां
संहितायां दशमस्कन्धे पूर्वार्धे षष्ठोऽध्यायः ॥ ६ ॥
हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥
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