श्रीमद् भागवत महापुराण स्कन्ध 10 अध्याय 66
66 CHAPTER
श्रीमद्भागवतपुराणम्
स्कन्धः १०/उत्तरार्धः/अध्यायः ६६
अथ षट्षष्टितमोऽध्यायः
श्रीशुक उवाच
नन्दव्रजं गते रामे करूषाधिपतिर्नृप
वासुदेवोऽहमित्यज्ञो दूतं कृष्णाय प्राहिणोत् १
श्रीशकदेवजी कहते हैं-परीक्षित! जब भगवान् बलरामजी नन्दबाबाके व्रजमें गये हए थे, तब पीछेसे करूष देशके अज्ञानी राजा पौण्ड्रकने भगवान् श्रीकृष्णके पास एक दूत भेजकर यह कहलाया कि ‘भगवान् वासुदेव मैं हूँ’ ।।१।।
त्वं वासुदेवो भगवानवतीऋनो जगत्पतिः
इति प्रस्तोभितो बालैर्मेन आत्मानमच्युतम् २
मूर्खलोग उसे बहकाया करते थे कि’आप ही भगवान् वासुदेव हैं और जगत्की रक्षाके लिये पृथ्वीपर अवतीर्ण हुए हैं।’ इसका फल यह हुआ कि वह मूर्ख अपनेको ही भगवान् मान बैठा ।।२।।
दूतं च प्राहिणोन्मन्दः कृष्णायाव्यक्तवर्त्मने
द्वारकायां यथा बालो नृपो बालकृतोऽबुधः ३
जैसे बच्चे आपसमें खेलते समय किसी बालकको ही राजा मान लेते हैं और वह राजाकी तरह उनके साथ व्यवहार करने लगता है, वैसे ही मन्दमति अज्ञानी पौण्ड्रकने अचिन्त्यगति भगवान् श्रीकृष्णकी लीला और रहस्य न जानकर द्वारकामें उनके पास दूत भेज दिया ।।३।।
दूतस्तु द्वारकामेत्य सभायामास्थितं प्रभुम्
कृष्णं कमलपत्राक्षं राजसन्देशमब्रवीत् ४
पौण्ड्रकका दूत द्वारका आया और राजसभामें बैठे हुए कमलनयन भगवान् श्रीकृष्णको उसने अपने राजाका यह सन्देश कह सुनाया– ||४||
वासुदेवोऽवतीर्णोहमेक एव न चापरः
भूतानामनुकम्पार्थं त्वं तु मिथ्याभिधां त्यज ५
‘एकमात्र मैं ही वासुदेव हूँ। दूसरा कोई नहीं है। प्राणियोंपर कृपा करनेके लिये मैंने ही अवतार ग्रहण किया है। तुमने झूठ-मूठ अपना नाम वासुदेव रख लिया है, अब उसे छोड़ दो ||५||
यानि त्वमस्मच्चिह्नानि मौढ्याद्बिभर्षि सात्वत
त्यक्त्वैहि मां त्वं शरणं नो चेद्देहि ममाहवम् ६
यदुवंशी! तुमने मूर्खतावश मेरे चिह्न धारण कर रखे हैं। उन्हें छोड़कर मेरी शरणमें आओ और यदि मेरी बात तुम्हें स्वीकार न हो, तो मुझसे युद्ध करो’ ||६||
श्रीशुक उवाच
कत्थनं तदुपाकर्ण्य पौण्ड्रकस्याल्पमेधसः
उग्रसेनादयः सभ्या उच्चकैर्जहसुस्तदा ७
श्रीशकदेवजी कहते हैं-परीक्षित! मन्दमति पौण्डककी यह बहक सुनकर उग्रसेन आदि सभासद् जोर-जोरसे हँसने लगे ।।७।।
उवाच दूतं भगवान्परिहासकथामनु
उत्स्रक्ष्ये मूढ चिह्नानि यैस्त्वमेवं विकत्थसे ८
मुखं तदपिधायाज्ञ कङ्कगृध्रवटैर्वृतः
शयिष्यसे हतस्तत्र भविता शरणं शुनाम् ९
उन लोगोंकी हँसी समाप्त होनेके बाद भगवान् श्रीकृष्णने दूतसे कहा—’तुम जाकर अपने राजासे कह देना कि ‘रे मूढ़! मैं अपने चक्र आदि चिह्न यों नहीं छोडूंगा। इन्हें मैं तुझपर छोडूंगा और केवल तुझपर ही नहीं, तेरे उन सब साथियोंपर भी, जिनके बहकानेसे तू इस प्रकार बहक रहा है। उस समय मूर्ख! तू अपना मुँह छिपाकर-औंधे मुँह गिरकर चील, गीध, बटेर आदि मांसभोजी पक्षियोंसे घिरकर सो जायगा और तू मेरा शरणदाता नहीं, उन कुत्तोंकी शरण होगा, जो तेरा मांस चीथ-चींथकर खा जायँगे’ ।।८-९||
इति दूतस्तमाक्षेपं स्वामिने सर्वमाहरत्
कृष्णोऽपि रथमास्थाय काशीमुपजगाम ह १०
परीक्षित्! भगवान्का यह तिरस्कारपूर्ण संवाद लेकर पौण्ड्रकका दूत अपने स्वामीके पास गया और उसे कह सुनाया। इधर भगवान् श्रीकृष्णने भी रथपर सवार होकर काशीपर चढ़ाई कर दी। (क्योंकि वह करूषका राजा उन दिनों वहीं अपने मित्र काशिराजके पास रहता था) ||१०||
पौण्ड्रकोऽपि तदुद्योगमुपलभ्य महारथः
अक्षौहिणीभ्यां संयुक्तो निश्चक्राम पुराद्द्रुतम् ११
भगवान् श्रीकृष्णके आक्रमणका समाचार पाकर महारथी पौण्डक भी दो अक्षौहिणी सेनाके साथ शीघ्र ही नगरसे बाहर निकल आया ।।११।।
तस्य काशीपतिर्मित्रं पार्ष्णिग्राहोऽन्वयान्नृप
अक्षौहिणीभिस्तिसृभिरपश्यत्पौण्ड्रकं हइः! १२
काशीका राजा पौण्ड्रकका मित्र था। अतः वह भी उसकी सहायता करनेके लिये तीन अक्षौहिणी सेनाके साथ उसके पीछेपीछे आया। परीक्षित्! अब भगवान् श्रीकृष्णने पौण्डकको देखा ।।१२।।
शङ्खार्यसिगदाशार्ङ्ग श्रीवत्साद्युपलक्षितम्
बिभ्राणं कौस्तुभमणिं वनमालाविभूषितम् १३
पौण्ड्रकने भी शंख, चक्र, तलवार, गदा, शार्ङ्गधनुष और श्रीवत्सचिह्न आदि धारण कर रखे थे। उसके वक्षःस्थलपर बनावटी कौस्तुभमणि और वनमाला भी लटक रही थी ||१३||
कौशेयवाससी पीते वसानं गरुडध्वजम्
अमूल्यमौल्याभरणं स्फुरन्मकरकुण्डलम् १४
उसने रेशमी पीले वस्त्र पहन रखे थे और रथकी ध्वजापर गरुड़का चिह्न भी लगा रखा था। उसके सिरपर अमूल्य मुकुट था और कानोंमें मकराकृत कुण्डल जगमगा रहे थे ।।१४।।
दृष्ट्वा तमात्मनस्तुल्यं वेषं कृत्रिममास्थितम्
यथा नटं रङ्गगतं विजहास भृशं हरीः १५
उसका यह सारा का-सारा वेष बनावटी था, मानो कोई अभिनेता रंगमंचपर अभिनय करनेके लिये आया हो। उसकी वेष-भूषा अपने समान देखकर भगवान् श्रीकृष्ण खिलखिलाकर हँसने लगे ।।१५।।
शूलैर्गदाभिः परिघैः शक्त्यृष्टिप्रासतोमरैः
असिभिः पट्टिशैर्बाणैः प्राहरन्नरयो हरिम् १६
अब शत्रुओंने भगवान् श्रीकृष्णपर त्रिशूल, गदा, मुद्गर, शक्ति, ऋष्टि, प्रास, तोमर, तलवार, पटिश और बाण आदि अस्त्र-शस्त्रोंसे प्रहार किया ।।१६।।
कृष्णस्तु तत्पौण्ड्रककाशिराजयोर्
बलं गजस्यन्दनवाजिपत्तिमत्
गदासिचक्रेषुभिरार्दयद्भृशं
यथा युगान्ते हुतभुक्पृथक्प्रजाः १७
प्रलयके समय जिस प्रकार आग सभी प्रकारके प्राणियोंको जला देती है, वैसे ही भगवान् श्रीकृष्णने भी गदा, तलवार, चक्र और बाण आदि शस्त्रास्त्रोंसे पौण्डक तथा काशि-राजके हाथी, रथ, घोड़े और पैदलकी चतुरंगिणी सेनाको तहस-नहस कर दिया ।।१७।।
आयोधनं तद्र थवाजिकुञ्जर द्विपत्खरोष्ट्रैररिणावखण्डितैः
बभौ चितं मोदवहं मनस्विनामाक्रीडनं भूतपतेरिवोल्बणम् १८
वह रणभूमि भगवान्के चक्रसे खण्ड-खण्ड हए रथ, घोडे, हाथी, मनुष्य, गधे और ऊँटोंसे पट गयी। उस समय ऐसा मालूम हो रहा था, मानो वह भूतनाथ शंकरकी भयंकर क्रीडास्थली हो। उसे देख-देखकर शूरवीरोंका उत्साहऔर भी बढ़ रहा था ।।१८।।
अथाह पौण्ड्रकं शौरिर्भो भो पौण्ड्रक यद्भवान्
दूतवाक्येन मामाह तान्यस्त्राण्युत्सृजामि ते १९
अब भगवान् श्रीकृष्णने पौण्ड्रकसे कहा—’रे पौण्ड्रक! तूने दूतके द्वारा कहलाया था कि मेरे चिह्न अस्त्र-शस्त्रादि छोड़ दो। सो अब मैं उन्हें तुझपर छोड़ रहा हूँ ।।१९।।
त्याजयिष्येऽभिधानं मे यत्त्वयाज्ञ मृषा धृतम्
व्रजामि शरणं तेऽद्य यदि नेच्छामि संयुगम् २०
तूने झूठ-मूठ मेरा नाम रख लिया है। अतः मूर्ख! अब मैं तुझसे उन नामोंको भी छुड़ाकर रहूँगा। रही तेरे शरणमें आनेकी बात; सो यदि मैं तुझसे युद्ध न कर सकूँगा तो तेरी शरण ग्रहणकरूँगा’ ||२०||
इति क्षिप्त्वा शितैर्बाणैर्विरथीकृत्य पौण्ड्रकम्
शिरोऽवृश्चद्रथाङ्गेन वज्रेणेन्द्रो यथा गिरेः २१
भगवान् श्रीकृष्णने इस प्रकार पौण्ड्रकका तिरस्कार करके अपने तीखे बाणोंसे उसके रथको तोड़-फोड़ डाला और चक्रसे उसका सिर वैसे ही उतार लिया, जैसे इन्द्रने अपने वज्रसे पहाड़की चोटियोंको उड़ा दिया था ।।२१।।
तथा काशीपतेः कायाच्छिर उत्कृत्य पत्रिभिः
न्यपातयत्काशीपुर्यां पद्मकोशमिवानिलः २२
इसी प्रकार भगवान्ने अपने बाणोंसे काशिनरेशका सिर भी धड़से ऊपर उड़ाकर काशीपुरीमें गिरा दिया, जैसे वाय कमलका पुष्प गिरा देती है ।।२२।।
एवं मत्सरिणम्हत्वा पौण्ड्रकं ससखं हरिः
द्वारकामाविशत्सिद्धैर्गीयमानकथामृतः २३
इस प्रकार अपने साथ डाह रखनेवाले पौण्ड्रकको और उसके सखा काशिनरेशको मारकर भगवान् श्रीकृष्ण अपनी राजधानी द्वारकामें लौट आये। उस समय सिद्धगण भगवान्की अमृतमयी कथाका गान कर रहे थे ||२३||
स नित्यं भगवद्ध्यान प्रध्वस्ताखिलबन्धनः
बिभ्राणश्च हरे राजन्स्वरूपं तन्मयोऽभवत् २४
परीक्षित्! पौण्ड्रक भगवान्के रूपका, चाहे वह किसी भावसे हो, सदा चिन्तन करता रहता था। इससे उसके सारे बन्धन कट गये। वह भगवान्का बनावटी वेष धारण किये रहता था, इससे बारबार उसीका स्मरण होनेके कारण वह भगवान्के सारूप्यको ही प्राप्त हुआ ।।२४।।
शिरः पतितमालोक्य राजद्वारे सकुण्डलम्
किमिदं कस्य वा वक्त्रमिति संशिशिरे जनाः २५
इधर काशीमें राजमहलके दरवाजेपर एक कुण्डल-मण्डित मुण्ड गिरा देखकर लोग तरह-तरहका सन्देह करने लगे और सोचने लगे कि ‘यह क्या है, यह किसका सिर है?’ ||२५||
राज्ञः काशीपतेर्ज्ञात्वा महिष्यः पुत्रबान्धवाः
पौराश्च हा हता राजन्नाथ नाथेति प्रारुदन् २६
जब यह मालूम हुआ कि वह तो काशिनरेशका ही सिर है, तब रानियाँ, राजकुमार, राजपरिवारके लोग तथा नागरिक रो-रोकर विलाप करने लगे–’हा नाथ! हा राजन्! हायहाय! हमारा तो सर्वनाश हो गया’ ||२६||
सुदक्षिणस्तस्य सुतः कृत्वा संस्थाविधिं पतेः
निहत्य पितृहन्तारं यास्याम्यपचितिं पितुः २७
इत्यात्मनाभिसन्धाय सोपाध्यायो महेश्वरम्
सुदक्षिणोऽर्चयामास परमेण समाधिना २८
काशिनरेशका पुत्र था सुदक्षिण। उसने अपने पिताका अन्त्येष्टि-संस्कार करके मन-ही-मन यह निश्चय किया कि अपने पितघातीको मारकर ही मैं पिताके ऋणसे ऊऋण हो सकूँगा। निदान वह अपने कुलपुरोहित और आचार्योंके साथ अत्यन्त एकाग्रतासे भगवान् शंकरकी आराधना करने लगा ||२७-२८।।
प्रीतोऽविमुक्ते भगवांस्तस्मै वरमदाद्विभुः
पितृहन्तृवधोपायं स वव्रे वरमीप्सितम् २९
काशी नगरीमें उसकी आराधनासे प्रसन्न होकर भगवान् शंकरने वर देनेको कहा। सुदक्षिणने यह अभीष्ट वर माँगा कि मुझे मेरे पितृघातीके वधका उपाय बतलाइये ।।२९।।
दक्षिणाग्निं परिचर ब्राह्मणैः सममृत्विजम्
अभिचारविधानेन स चाग्निः प्रमथैर्वृतः ३०
साधयिष्यति सङ्कल्पमब्रह्मण्ये प्रयोजितः
इत्यादिष्टस्तथा चक्रेकृष्णायाभिचरन्व्रती ३१
भगवान् शंकरने कहा–’तुम ब्राह्मपोंके साथ मिलकर यज्ञके देवता ऋत्विग्भूत दक्षिणाग्निकी अभिचारविधिसे आराधना करो। इससे वह अग्नि प्रमथगणोंके साथ प्रकट होकर यदि ब्राह्मणोंके अभक्तपर प्रयोग करोगे तो वह तुम्हारा संकल्प सिद्ध करेगा।’ भगवान् शंकरकी ऐसी आज्ञा प्राप्त करके सुदक्षिणने अनुष्ठानके उपयुक्त नियम ग्रहण किये और वह भगवान् श्रीकृष्णके लिये अभिचार (मारणका पुरश्चरण) करने लगा ||३०-३१।।
ततोऽग्निरुत्थितः कुण्डान्मूर्तिमानतिभीषणः
तप्तताम्रशिखाश्मश्रुरङ्गारोद्गारिलोचनः ३२
अभिचार पूर्ण होते ही यज्ञकुण्डसे अति भीषण अग्नि मूर्तिमान् होकर प्रकट हुआ। उसके केश और दाढ़ी-मूंछ तपे हुए ताँबेके समान लाल-लाल थे। आँखोंसे अंगारे बरस रहे थे ।।३२।।
दंष्ट्रोग्रभ्रुकुटीदण्ड कठोरास्यः स्वजिह्वया
आलिहन्सृक्वणी नग्नो विधुन्वंस्त्रिशिखं ज्वलत् ३३
उग्र दाढ़ों और टेढ़ी भृकुटियोंके कारण उसके मुखसे क्रूरता टपक रही थी। वह अपनी जीभसे मुँहके दोनों कोने चाट रहा था। शरीर नंग-धडंग था। हाथमें त्रिशूल लिये हुए था, जिसे वह बार-बार घुमाता जाता था और उसमें से अग्निकी लपटें निकल रही थीं ।।३३।।
पद्भ्यां तालप्रमाणाभ्यां कम्पयन्नवनीतलम्
सोऽयधावद्वृतो भूतैर्द्वारकां प्रदहन्दिशः ३४
ताड़के पेड़के समान बड़ी-बड़ी टाँगें थीं। वह अपने वेगसे धरतीको कँपाता हुआ और ज्वालाओंसे दसों दिशाओंको दग्ध करता हुआ द्वारकाकी ओर दौड़ा और बात-की-बातमें द्वारकाके पास जा पहुंचा। उसके साथ बहुत-से भूत भी थे ।।३४।।
तमाभिचारदहनमायान्तं द्वारकौकसः
विलोक्य तत्रसुः सर्वे वनदाहे मृगा यथा ३५
उस अभिचारकी आगको बिलकुल पास आयी हई देख द्वारकावासी वैसे ही डर गये, जैसे जंगलमें आग लगनेपर हरिन डर जाते हैं ||३५||
अक्षैः सभायां क्रीडन्तं भगवन्तं भयातुराः
त्राहि त्राहि त्रिलोकेश वह्नेः प्रदहतः पुरम् ३६
वे लोग भयभीत होकर भगवान्के पास दौड़े हुएआये; भगवान् उस समय सभामें चौसर खेल रहे थे, उन लोगोंने भगवान्से प्रार्थना की —’तीनों लोकोंके एकमात्र स्वामी! द्वारका नगरी इस आगसे भस्म होना चाहती है। आप हमारी रक्षा कीजिये। आपके सिवा इसकी रक्षा और कोई नहीं कर सकता’ ||३६।।
श्रुत्वा तज्जनवैक्लव्यं दृष्ट्वा स्वानां च साध्वसम्
शरण्यः सम्प्रहस्याह मा भैष्टेत्यवितास्म्यहम् ३७
शरणागतवत्सल भगवान्ने देखा कि हमारे स्वजन भयभीत हो गये हैं और पुकार-पुकारकर विकलताभरे स्वरसे हमारी प्रार्थना कर रहे हैं; तब उन्होंने हँसकर कहा–’डरो मत, मैं तुमलोगोंकी रक्षा करूँगा’ ||३७।।
सर्वस्यान्तर्बहिःसाक्षी कृत्यां माहेश्वरीं विभुः
विज्ञाय तद्विघातार्थं पार्श्वस्थं चक्रमादिशत् ३८
परीक्षित्! भगवान् सबके बाहर-भीतरकी जाननेवाले हैं। वे जान गये कि यह काशीसे चली हुई माहेश्वरी कृत्या है। उन्होंने उसके प्रतीकारके लिये अपने पास ही विराजमान चक्रदर्शनको आज्ञा दी ||३८||
तत्सूर्यकोटिप्रतिमं सुदर्शनं जाज्वल्यमानं प्रलयानलप्रभम्
स्वतेजसा खं ककुभोऽथ रोदसी चक्रं मुकुन्दास्त्रं अथाग्निमार्दयत् ३९
भगवान मुकुन्दका प्यारा अस्त्र सुदर्शनचक्र कोटि-कोटि सूर्योंके समान तेजस्वी और प्रलयकालीन अग्निके समान जाज्वल्यमान है। उसके तेजसे आकाश, दिशाएँ और अन्तरिक्ष चमक उठे और अब उसने उस अभिचार-अग्निको कुचल डाला ||३९।।
कृत्यानलः प्रतिहतः स रथान्गपाणेर्
अस्त्रौजसा स नृप भग्नमुखो निवृत्तः
वाराणसीं परिसमेत्य सुदक्षिणं तं
सर्त्विग्जनं समदहत्स्वकृतोऽभिचारः ४०
भगवान् श्रीकृष्णके अस्त्र सुदर्शनचक्रकी शक्तिसे कृत्यारूप आगका मुँह टूटफूट गया, उसका तेज नष्ट हो गया, शक्ति कुण्ठित हो गयी और वह वहाँसे लौटकर काशी आ गयी तथा उसने ऋत्विज आचार्यों के साथ सुदक्षिणको जलाकर भस्म कर दिया। इस प्रकार उसका अभिचार उसीके विनाशका कारण हुआ ।।४०।।
चक्रं च विष्णोस्तदनुप्रविष्टं वाराणसीं साट्टसभालयापणाम्
सगोपुराट्टालककोष्ठसङ्कुलां सकोशहस्त्यश्वरथान्नशालिनीम् ४१
दग्ध्वा वाराणसीं सर्वां विष्णोश्चक्रं सुदर्शनम्
भूयः पार्श्वमुपातिष्ठत्कृष्णस्याक्लिष्टकर्मणः ४२
कृत्याके पीछे-पीछे सुदर्शनचक्र भी काशी पहुँचा। काशी बड़ी विशाल नगरी थी। वह बड़ी-बड़ी अटारियों, सभाभवन, बाजार, नगरद्वार, द्वारोंके शिखर, चहारदीवारियों, खजाने, हाथी, घोड़े, रथ और अन्नोंके गोदामसे सुसज्जित थी। भगवान् श्रीकृष्णके सुदर्शनचक्रने सारी काशीको जलाकर भस्म कर दिया और फिर वह परमानन्दमयी लीला करनेवाले भगवान् श्रीकृष्णके पास लौटआया ।।४१-४२|
य एनं श्रावयेन्मर्त्य उत्तमःश्लोकविक्रमम्
समाहितो वा शृणुयात्सर्वपापैः प्रमुच्यते ४३
जो मनुष्य पुण्यकीर्ति भगवान् श्रीकृष्णके इस चरित्रको एकाग्रताके साथ सुनता या सुनाता है, वह सारे पापोंसे छूट जाता है ।।४३।।
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां दशमस्कन्धे उत्तरार्धे पौण्ड्रकादिवधो नाम षट्षष्टितमोऽध्यायः