श्रीमद् भागवत महापुराण स्कन्ध 10 अध्याय 68
68 CHAPTER
श्रीमद्भागवतपुराणम्
स्कन्धः १०/उत्तरार्धः/अध्यायः ६८
सांबविवाहः; बलरामेण हस्तिनापुरकर्षणं च
श्रीशुक उवाच –
( अनुष्टुप् )
दुर्योधनसुतां राजन् लक्ष्मणां समितिंजयः ।
स्वयंवरस्थामहरत् सांबो जाम्बवतीसुतः ॥ १ ॥
श्रीशुकदेवजी कहते हैं-परीक्षित्! जाम्बवती-नन्दन साम्ब अकेले ही बहुत बड़े-बड़े वीरोंपर विजय प्राप्त करनेवाले थे। वे स्वयंवरमें स्थित दुर्योधनकी कन्या लक्ष्मणाको हर लाये ||१||
कौरवाः कुपिता ऊचुः दुर्विनीतोऽयमर्भकः ।
कदर्थीकृत्य नः कन्यां अकामां अहरद् बलात् ॥ २ ॥
इससे कौरवोंको बड़ा क्रोध हुआ, वे बोले—’यह बालक बहुत ढीठ है। देखो तो सही, इसने हमलोगोंको नीचा दिखाकर बलपूर्वक हमारी कन्याका अपहरण कर लिया। वहतो इसे चाहती भी न थी ।।२।।
बध्नीतेमं दुर्विनीतं किं करिष्यन्ति वृष्णयः ।
येऽस्मत् प्रसादोपचितां दत्तां नो भुञ्जते महीम् ॥ ३ ॥
अतः इस ढीठको पकड़कर बाँध लो। यदि यदुवंशीलोग रुष्ट भी होंगे तो वे हमारा क्या बिगाड़ लेंगे? वे लोग हमारी ही कृपासे हमारी ही दी हुई धनधान्यसे परिपूर्ण पृथ्वीका उपभोग कर रहे हैं ।।३।।
निगृहीतं सुतं श्रुत्वा यद्येष्यन्तीह वृष्णयः ।
भग्नदर्पाः शमं यान्ति प्राणा इव सुसंयताः ॥ ४ ॥
यदि वे लोग अपने इस लड़केके बंदी होनेका समाचार सुनकर यहाँ आयेंगे, तो हमलोग उनका सारा घमंड चूर-चूर कर देंगे और उन लोगोंके मिजाज वैसे ही ठंडे हो जायेंगे, जैसे संयमी पुरुषके द्वारा प्राणायाम आदि उपायोंसे वशमें की हुई इन्द्रियाँ’ ।।४।।
इति कर्णः शलो भूरिः यज्ञकेतुः सुयोधनः ।
साम्बमारेभिरे बद्धुं कुरुवृद्धानुमोदिताः ॥ ५ ॥
ऐसा विचार करके कर्ण, शल, भूरिश्रवा, यज्ञकेतु और दुर्योधनादि वीरोंने कुरुवंशके बड़े-बूढ़ोंकी अनुमति ली तथा साम्बको पकड़ लेनेकी तैयारी की ||५||
दृष्ट्वानुधावतः साम्बो धार्तराष्ट्रान् महारथः ।
प्रगृह्य रुचिरं चापं तस्थौ सिंह इवैकलः ॥ ६ ॥
जब महारथी साम्बने देखा कि धृतराष्ट्रके पुत्र मेरा पीछा कर रहे हैं, तब वे एक सुन्दर धनुष चढ़ाकर सिंहके समान अकेले ही रणभूमिमें डट गये ।।६।।
तं ते जिघृक्षवः क्रुद्धाः तिष्ठ तिष्ठेति भाषिणः ।
आसाद्य धन्विनो बाणैः कर्णाग्रण्यः समाकिरन् ॥ ७ ॥
इधर कर्णको मुखिया बनाकर कौरववीर धनुष चढ़ाये हुए साम्बके पास आ पहुँचे और क्रोधमें भरकर उनको पकड़ लेनेकी इच्छासे ‘खड़ा रह! खड़ा रह!’ इस प्रकार ललकारते हुए बाणोंकी वर्षा करने लगे ।।७।।
सोऽपविद्धः कुरुश्रेष्ठ कुरुभिर्यदुनन्दनः ।
नामृष्यत् तदचिन्त्यार्भः सिंह क्षुद्रमृगैरिव ॥ ८ ॥
परीक्षित्! यदुनन्दन साम्ब अचिन्त्यैश्वर्यशाली भगवान् श्रीकृष्णके पुत्र थे। कौरवोंके प्रहारसे वे उनपर चिढ़ गये, जैसे सिंह तुच्छ हरिनोंका पराक्रम देखकर चिढ़ जाता है ।।८।।
विस्फूर्ज्य रुचिरं चापं सर्वान् विव्याध सायकैः ।
कर्णादीन् षड्रथान् वीरः तावद्भिर्युगपत् पृथक् ॥ ९ ॥
साम्बने अपने सुन्दर धनुषका टंकार करके कर्ण आदि छः वीरोंपर, जो अलग-अलग छः रथोंपर सवार थे, छ:-छः बाणोंसे एक साथ अलग-अलग प्रहार किया ।।९।।
चतुर्भिश्चतुरो वाहान् एकैकेन च सारथीन् ।
रथिनश्च महेष्वासान् तस्य तत्तेऽभ्यपूजयन् ॥ १० ॥
उनमेंसे चार-चार बाण उनके चार-चार घोडोंपर, एक-एक उनके सारथियोंपर और एक एक उन महान् धनुषधारी रथी वीरोंपर छोड़ा। साम्बके इस अद्भुत हस्तलाघवको देखकर विपक्षी वीर भी मुक्त-कण्ठसे उनकी प्रशंसा करने लगे ।।१०।।
तं तु ते विरथं चक्रुः चत्वारश्चतुरो हयान् ।
एकस्तु सारथिं जघ्ने चिच्छेदान्यः शरासनम् ॥ ११ ॥
इसके बाद उन छहों वीरोंने एक साथ मिलकर साम्बको रथहीन कर दिया। चार वीरोंने एक-एक बाणसे उनके चार घोड़ोंको मारा, एकने सारथिको और एकने साम्बका धनुष काट डाला ।।११।।
तं बद्ध्वा विरथीकृत्य कृच्छ्रेण कुरवो युधि ।
कुमारं स्वस्य कन्यां च स्वपुरं जयिनोऽविशन् ॥ १२ ॥
इस प्रकार कौरवोंने युद्धमें बड़ी कठिनाई और कष्टसे साम्बको रथहीन करके बाँध लिया। इसके बाद वे उन्हें तथा अपनी कन्या लक्ष्मणाको लेकर जय मनाते हुए हस्तिनापुर लौट आये ।।१२।।
तच्छ्रुत्वा नारदोक्तेन राजन् सञ्जातमन्यवः ।
कुरून् प्रत्युद्यमं चक्रुः उग्रसेनप्रचोदिताः ॥ १३ ॥
परीक्षित्! नारदजीसे यह समाचार सुनकर यदुवंशियोंको बड़ा क्रोध आया। वे महाराज उग्रसेनकी आज्ञासे कौरवोंपर चढ़ाई करनेकी तैयारी करने लगे ||१३||
सान्त्वयित्वा तु तान् रामः सन्नद्धान् वृष्णिपुङ्गवान् ।
नैच्छय् कुरूणां वृष्णीनां कलिं कलिमलापहः ॥ १४ ॥
जगाम हास्तिनपुरं रथेनादित्यवर्चसा ।
ब्राह्मणैः कुलवृद्धैश्च वृतश्चन्द्र इव ग्रहैः ॥ १५ ॥
बलरामजी कलहप्रधान कलियुगके सारे पाप-तापको मिटानेवाले हैं। उन्होंने कुरुवंशियों और यदुवंशियोंके लड़ाई-झगड़ेको ठीक न समझा। यद्यपि यदुवंशी अपनी तैयारी पूरी कर चुके थे, फिर भी उन्होंने उन्हें शान्त कर दिया और स्वयं सूर्यके समान तेजस्वी रथपर सवार होकर हस्तिनापुर गये। उनके साथ कुछ ब्राह्मण और यदुवंशके बड़े-बूढ़े भी गये। उनके बीच में बलरामजीकी ऐसी शोभा हो रही थी, मानो चन्द्रमा ग्रहोंसे घिरे हुए हों ।।१४-१५।।
गत्वा गजाह्वयं रामो बाह्योपवनमास्थितः ।
उद्धवं प्रेषयामास धृतराष्ट्रं बुभुत्सया ॥ १६ ॥
हस्तिनापुर पहुँचकर बलरामजी नगरके बाहर एक उपवनमें ठहर गये और कौरवलोग क्या करना चाहते हैं, इस बातका पता लगानेके लिये उन्होंने उद्धवजीको धृतराष्ट्रके पास भेजा ।।१६।।
सोऽभिवन्द्याम्बिकापुत्रं भीष्मं द्रोणं च बाह्लिकम् ।
दुर्योधनं च विधिवद् राममागतमब्रवीत् ॥ १७ ॥
उद्धवजीने कौरवोंकी सभामें जाकर धृतराष्ट्र, भीष्मपितामह, द्रोणाचार्य, बाह्नीक और दुर्योधनकी विधिपूर्वक अभ्यर्थना-वन्दना की और निवेदन किया कि ‘बलरामजी पधारे हैं’ ।।१७।।
तेऽतिप्रीतास्तमाकर्ण्य प्राप्तं रामं सुहृत्तमम् ।
तमर्चयित्वाभिययुः सर्वे मङ्गलपाणयः ॥ १८ ॥
अपने परम हितैषी और प्रियतम बलरामजीका आगमन सुनकर कौरवोंकी प्रसन्नताकी सीमा न रही। वे उद्धवजीका विधिपूर्वक सत्कार करके अपने हाथोंमें मांगलिक सामग्री लेकर बलरामजीकी अगवानी करने चले ।।१८।।
तं सङ्गम्य यथान्यायं गामर्घ्यं च न्यवेदयन् ।
तेषां ये तत्प्रभावज्ञाः प्रणेमुः शिरसा बलम् ॥ १९ ॥
फिर अपनी-अपनी अवस्था और सम्बन्धके अनुसार सब लोग बलरामजीसे मिले तथा उनके सत्कारके लिये उन्हें गौ अर्पण की एवं अर्घ्य प्रदान किया। उनमें जो लोग भगवान् बलरामजीका प्रभाव जानते थे, उन्होंने सिर झुकाकर उन्हें प्रणाम किया ।।१९।।
बन्धून् कुशलिनः श्रुत्वा पृष्ट्वा शिवमनामयम् ।
परस्परमथो रामो बभाषेऽविक्लवं वचः ॥ २० ॥
तदनन्तर उन लोगोंने परस्पर एक-दूसरेका कुशल-मंगल पूछा और यह सुनकर कि सब भाई-बन्धु सकुशल हैं, बलरामजीने बड़ी धीरता और गम्भीरताके साथ यह बात कही- ||२०||
उग्रसेनः क्षितीशेशो यद् व आज्ञापयत् प्रभुः ।
तद् अव्यग्रधियः श्रुत्वा कुरुध्वं माविलम्बितम् ॥ २१ ॥
‘सर्वसमर्थ राजाधिराज महाराज उग्रसेनने तुमलोगोंको एक आज्ञा दी है। उसे तुमलोग एकाग्रता और सावधानीके साथ सुनो और अविलम्ब उसका पालन करो ।।२१।।
यद् यूयं बहवस्त्वेकं जित्वाधर्मेण धार्मिकम् ।
अबध्नीताथ तन्मृष्ये बन्धूनामैक्यकाम्यया ॥ २२ ॥
उग्रसेनजीने कहा है—हम जानते हैं कि तुमलोगोंने कइयोंने मिलकर अधर्मसे अकेले धर्मात्मा साम्बको हरा दिया और बंदी कर लिया है। यह सब हम इसलिये सह लेते हैं कि हम सम्बन्धियोंमें परस्पर फूट न पड़े, एकता बनी रहे। (अतः अब झगड़ा मत बढ़ाओ, साम्बको उसकी नववधूके साथ हमारे पास भेज दो) ।।२२।।
वीर्यशौर्यबलोन्नद्धं आत्मशक्तिसमं वचः ।
कुरवो बलदेवस्य निशम्योचुः प्रकोपिताः ॥ २३ ॥
परीक्षित्! बलरामजीकी वाणी वीरता, शूरता और बल-पौरुषके उत्कर्षसे परिपूर्ण औरउनकी शक्तिके अनुरूप थी। यह बात सुनकर कुरुवंशी क्रोधसे तिल-मिला उठे। वे कहने लगे – ||२३||
अहो महच्चित्रमिदं कालगत्या दुरत्यया ।
आरुरुक्षत्युपानद् वै शिरो मुकुटसेवितम् ॥ २४ ॥
‘अहो, यह तो बडे आश्चर्यकी बात है! सचमच कालकी चालको कोई टाल नहीं सकता। तभी तो आज पैरोंकी जूती उस सिरपर चढ़ना चाहती है, जो श्रेष्ठ मुकुटसे सुशोभित है ।।२४।।
एते यौनेन संबद्धाः सहशय्यासनाशनाः ।
वृष्णयस्तुल्यतां नीता अस्मद् दत्तनृपासनाः ॥ २५ ॥
इन यदुवंशियोंके साथ किसी प्रकार हमलोगोंने विवाह-सम्बन्ध कर लिया। ये हमारे साथ सोने-बैठने और एक पंक्तिमें खाने लगे। हमलोगोंने ही इन्हें राजसिंहासन देकर राजा बनाया और अपने बराबर बना लिया ।।२५।।
चामरव्यजने शङ्खं आतपत्रं च पाण्डुरम् ।
किरीटमासनं शय्यां भुञ्जन्त्यस्मदुपेक्षया ॥ २६ ॥
ये यदुवंशी चँवर, पंखा, शंख, श्वेतछत्र, मुकुट, राजसिंहासन और राजोचित शय्याका उपयोग-उपभोग इसलिये कर रहे हैं कि हमने जानबूझकर इस विषयमें उपेक्षा कर रखी है ।।२६।।
( इंद्रवंशा )
अलं यदूनां नरदेवलाञ्छनैः
दातुः प्रतीपैः फणिनामिवामृतम् ।
येऽस्मत्प्रसादोपचिता हि यादवा
आज्ञापयन्त्यद्य गतत्रपा बत ॥ २७ ॥
बस-बस, अब हो चुका। यदुवंशियोंके पास अब राजचिह्न रहनेकी आवश्यकता नहीं, उन्हें उनसे छीन लेना चाहिये। जैसे सॉपको दुध पिलाना पिलानेवालेके लिये ही घातक है, वैसे ही हमारे दिये हुए राजचिह्नोंको लेकर ये यदुवंशी हमसे ही विपरीत हो रहे हैं। देखो तो भला हमारे ही कृपा-प्रसादसे तो इनकी बढ़ती हुई और अब ये निर्लज्ज होकर हमीपर हुकुम चलाने चले हैं। शोक है! शोक है! ।।२७।।
( अनुष्टुप् )
कथमिन्द्रोऽपि कुरुभिः भीष्मद्रोणार्जुनादिभिः ।
अदत्तमवरुन्धीत सिंहग्रस्तमिवोरणः ॥ २८ ॥
जैसे सिंहका ग्रास कभी भेड़ा नहीं छीन सकता, वैसे ही यदि भीष्म, द्रोण, अर्जुन आदि कौरववीर जान-बूझकर न छोड़ दें, न दे दें तो स्वयं देवराज इन्द्र भी किसी वस्तुका उपभोग कैसे कर सकते हैं? ||२८||
श्रीबादरायणिरुवाच –
जन्मबन्धुश्रीयोन्नद्ध मदास्ते भरतर्षभ ।
आश्राव्य रामं दुर्वाच्यं असभ्याः पुरमाविशन् ॥ २९ ॥
श्रीशुकदेवजी कहते हैं-परीक्षित्! कुरुवंशी अपनी कुलीनता, बान्धवों-परिवारवालों (भीष्मादि) के बल और धनसम्पत्तिके घमंडमें चूर हो रहे थे। उन्होंने साधारण शिष्टाचारकी भी परवा नहीं की और वे भगवान् बलरामजीको इस प्रकार दुर्वचन कहकर हस्तिनापुर लौट गये ||२९||
दृष्ट्वा कुरूनां दौःशील्यं श्रुत्वावाच्यानि चाच्युतः ।
अवोचत् कोपसंरब्धो दुष्प्रेक्ष्यः प्रहसन् मुहुः ॥ ३० ॥
बलरामजीने कौरवोंकी दुष्टता-अशिष्टता देखी और उनके दुर्वचन भी सुने। अब उनका चेहरा क्रोधसे तमतमा उठा। उस समय उनकी ओर देखातक नहीं जाता था। वे बारबार जोर-जोरसे हँसकर कहने लगे- ||३०||
नूनं नानामदोन्नद्धाः शान्तिं नेच्छन्त्यसाधवः ।
तेषां हि प्रशमो दण्डः पशूनां लगुडो यथा ॥ ३१ ॥
‘सच है, जिन दुष्टोंको अपनी कुलीनता, । बलपौरुष और धनका घमंड हो जाता है, वे शान्ति नहीं चाहते। उनको दमन करनेका, रास्तेपर लानेका उपाय समझाना-बुझाना नहीं, बल्कि दण्ड देना है-ठीक वैसे ही, जैसे पशुओंको ठीक करनेके लिये डंडेका प्रयोग आवशयक होता है ।।३१।।
अहो यदून् सुसंरब्धाम् कृष्णं च कुपितं शनैः ।
सान्त्वयित्वाहमेतेषां शममिच्छन् इहागतः ॥ ३२ ॥
भला, देखो तो सही -सारे यदुवंशी और श्रीकृष्ण भी क्रोधसे भरकर लड़ाईके लिये तैयार हो रहे थे। मैं उन्हें शनैः-शनैः समझा-बुझाकर इन लोगोंको शान्त करनेके लिये, सुलह करनेके लिये यहाँ आया ||३२||
त इमे मन्दमतयः कलहाभिरताः खलाः ।
तं मामवज्ञाय मुहुः दुर्भाषान् मानिनोऽब्रुवन् ॥ ३३ ॥
फिर भी ये मुर्ख ऐसी दुष्टता कर रहे हैं! इन्हें शान्ति प्यारी नहीं, कलह प्यारी है।
ये इतने घमंडी हो रहे हैं कि बार-बार मेरा तिरस्कार करके गालियाँ बक गये हैं ।।३३।।
नोग्रसेनः किल विभुः भोजवृष्ण्यन्धकेश्वरः ।
शक्रादयो लोकपाला यस्यादेशानुवर्तिनः ॥ ३४ ॥
ठीक है, भाई! ठीक है। पृथ्वीके राजाओंकी तो बात ही क्या, त्रिलोकीके स्वामी इन्द्र आदि लोकपाल जिनकी आज्ञाका पालन करते हैं, वे उग्रसेन राजाधिराज नहीं हैं; वे तो केवल भोज, वष्णि और अन्धकवंशी यादवोंके ही स्वामी हैं! ||३४।।
सुधर्माऽऽक्रम्यते येन पारिजातोऽमराङ्घ्रिपः ।
आनीय भुज्यते सोऽसौ न किलाध्यासनार्हणः ॥ ३५ ॥
क्यों? जो सुधर्मासभाको अधिकारमें करके उसमें विराजते हैं और जो देवताओंके वृक्ष पारिजातको उखाड़कर ले आते
और उसका उपभोग करते हैं, वे भगवान् श्रीकृष्ण भी राजसिंहासनके अधिकारी नहीं हैं! अच्छी बात है! ||३५||
यस्य पादयुगं साक्षात् श्रीरुपास्तेऽखिलेश्वरी ।
स नार्हति किल श्रीशो नरदेवपरिच्छदान् ॥ ३६ ॥
सारे जगतकी स्वामिनी भगवती लक्ष्मी स्वयं जिनके चरण-कमलोंकी उपासना करती हैं, वे लक्ष्मीपति भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र छत्र, चँवर आदि राजोचित सामग्रियोंको नहीं रख सकते ||३६।।
( वसंततिलका )
यस्याङ्घ्रिपङ्कजरजोऽखिललोकपालैः
मौल्युत्तमैर्धृतमुपासिततीर्थतीर्थम् ।
ब्रह्मा भवोऽहमपि यस्य कलाः कलायाः
श्रीश्चोद्वहेम चिरमस्य नृपासनं क्व ॥ ३७ ॥
ठीक है भाई! जिनके चरण-कमलोंकी धूल संत पुरुषोंके द्वारा सेवित गंगा आदि तीर्थों को भी तीर्थ बनानेवाली है, सारे लोकपाल अपने-अपने श्रेष्ठ मुकुटपर जिनके चरणकमलोंकी धूल धारण करते हैं; ब्रह्मा, शंकर, मैं और लक्ष्मीजी जिनकी कलाकी भी कला हैं और जिनके चरणोंकी धूल सदा-सर्वदा धारण करते हैं; उन भगवान् श्रीकृष्णके लिये भला; राजसिंहासन कहाँ रखा है! ||३७||
( अनुष्टुप् )
भुञ्जते कुरुभिर्दत्तं भूखण्डं वृष्णयः किल ।
उपानहः किल वयं स्वयं तु कुरवः शिरः ॥ ३८ ॥
बेचारे यदुवंशी तो कौरवोंका दिया हुआ पृथ्वीका एक टुकड़ा भोगते हैं। क्या खूब! हमलोग जूती हैं और ये कुरुवंशी स्वयं सिर हैं ।।३८।।
अहो ऐश्वर्यमत्तानां मत्तानामिव मानिनाम् ।
असंबद्धा गिरो रुक्षाः कः सहेतानुशासीता ॥ ३९ ॥
ये लोग ऐश्वर्यसे उन्मत्त, घमंडी कौरव पागल-सरीखे हो रहे हैं। इनकी एक-एक बात कटुतासे भरी और बेसिर-पैरकी है। मेरे जैसा पुरुष-जो इनका शासन कर सकता है, इन्हें दण्ड देकर इनके होश ठिकाने ला सकता है—भला इनकी बातोंको कैसे सहन कर सकता है? ||३९।।
अद्य निष्कौरवं पृथ्वीं करिष्यामीत्यमर्षितः ।
गृहीत्वा हलमुत्तस्थौ दहन्निव जगत्त्रयम् ॥ ४० ॥
आज मैं सारी पृथ्वीको कौरवहीन कर डालूँगा, इस प्रकार कहते-कहते बलरामजी क्रोधसे ऐसे भर गये, मानो त्रिलोकीको भस्म कर देंगे। वे अपना हल लेकर खड़े हो गये ।।४०।।
लाङ्गलाग्रेण नगरं उद्विदार्य गजाह्वयम् ।
विचकर्ष स गङ्गायां प्रहरिष्यन्नमर्षितः ॥ ४१ ॥
उन्होंने उसकी नोकसे बार-बार चोट करके हस्तिनापुरको उखाड़ लिया और उसे डुबानेके लिये बड़े क्रोधसे गंगाजीकी ओर खींचने लगे ।।४१।।
जलयानमिवाघूर्णं गङ्गायां नगरं पतत् ।
आकृष्यमाणमालोक्य कौरवाः जातसंभ्रमाः ॥ ४२ ॥
हलसे खींचनेपर हस्तिनापुर इस प्रकार काँपने लगा, मानो जलमें कोई नाव डगमगा रही हो। जब कौरवोंने देखा कि हमारा नगर तो गंगाजीमें गिर रहा है, तब वे घबड़ा उठे ।।४२।।
तमेव शरणं जग्मुः सकुटुम्बा जिजीविषवः ।
सलक्ष्मणं पुरस्कृत्य साम्बं प्राञ्जलयः प्रभुम् ॥ ४३ ॥
फिर उन लोगोंने लक्ष्मणाके साथ साम्बको आगे किया और अपने प्राणोंकी रक्षाके लिये कुटुम्बके साथ हाथ जोड़कर सर्वशक्तिमान् उन्हीं भगवान् बलरामजीकी शरणमें गये ।।४३।।
राम रामाखिलाधार प्रभावं न विदाम ते ।
मूढानां नः कुबुद्धीनां क्षन्तुमर्हस्यतिक्रमम् ॥ ४४ ॥
और कहने लगे—’लोकाभिराम बलरामजी! आप सारे जगतके आधार शेषजी हैं। हम आपका प्रभाव नहीं जानते। प्रभो! हमलोग मूढ़ हो रहे हैं, हमारी बुद्धि बिगड़ गयी है; इसलिये आप हमलोगोंका अपराध क्षमा कर दीजिये ।।४४।।
स्थित्युत्पत्त्यप्ययानां त्वमेको हेतुर्निराश्रयः ।
लोकान् क्रीडनकानीश क्रीडतस्ते वदन्ति हि ॥ ४५ ॥
आप जगत्की स्थिति, उत्पत्ति और प्रलयके एकमात्र कारण हैं और स्वयं निराधार स्थित हैं। सर्वशक्तिमान प्रभो! बड़े-बड़े ऋषि-मुनि कहते हैं कि आप खिलाड़ी हैं और ये सब-के-सब लोग आपके खिलौने हैं ।।४५।।
( मिश्र )
त्वमेव मूर्ध्नीदमनन्त लीलया
भूमण्डलं बिभर्षि सहस्रमूर्धन् ।
अन्ते च यः स्वात्मनि रुद्धविश्वः
शेषेऽद्वितीयः परिशिष्यमाणः ॥ ४६ ॥
अनन्त! आपके सहस्र-सहस्र सिर हैं और आप खेल-खेलमें ही इस भूमण्डलको अपनेसिरपर रखे रहते हैं। जब प्रलयका समय आता है, तब आप सारे जगत्को अपने भीतर लीन कर लेते हैं और केवल आप ही बचे रहकर अद्वितीयरूपसे शयन करते हैं ।।४६||
( अनुष्टुप् )
कोपस्तेऽखिलशिक्षार्थं न द्वेषान्न च मत्सरात् ।
बिभ्रतो भगवन् सत्त्वं स्थितिपालनतत्परः ॥ ४७ ॥
भगवन्! आप जगत्की स्थिति और पालनके लिये विशुद्ध सत्त्वमय शरीर ग्रहण किये हुए हैं। आपका यह क्रोध द्वेष या मत्सरके कारण नहीं है। यह तो समस्त प्राणियोंको शिक्षा देनेके लिये है ।।४७||
नमस्ते सर्वभूतात्मन् सर्वशक्तिधराव्यय ।
विश्वकर्मन् नमस्तेऽस्तु त्वां वयं शरणं गताः ॥ ४८ ॥
समस्त शक्तियोंको धारण करनेवाले सर्वप्राणिस्वरूप अविनाशी भगवन! आपको हम नमस्कार करते हैं। समस्त विश्वके रचयिता देव! हम आपको बार-बार नमस्कार करते हैं। हम आपकी शरणमें हैं। आप कृपा करके हमारी रक्षा कीजिये’ ||४८।।
श्रीशुक उवाच –
एवं प्रपन्नैः संविग्नैः वेपमानायनैर्बलः ।
प्रसादितः सुप्रसन्नो मा भैष्टेत्यभयं ददौ ॥ ४९ ॥
श्रीशुकदेवजी कहते हैं- परीक्षित्! कौरवोंका नगर डगमगा रहा था और वे अत्यन्त घबराहटमें पड़े हुए थे। जब सब-के-सब कुरुवंशी इस प्रकार भगवान् बलरामजीकी शरणमें आये और उनकी स्तुति-प्रार्थना की, तब वे प्रसन्न हो गये और ‘डरो मत’ ऐसा कहकर उन्हें अभयदान दिया ।।४९।।
दुर्योधनः पारिबर्हं कुञ्जरान् षष्टिहायनान् ।
ददौ च द्वादशशतानि अयुतानि तुरङ्गमान् ॥ ५० ॥
रथानां षट्सहस्राणि रौक्माणां सूर्यवर्चसाम् ।
दासीनां निष्ककण्ठीनां सहस्रं दुहितृवत्सलः ॥ ५१ ॥
परीक्षित्! दुर्योधन अपनी पुत्री लक्ष्मणासे बड़ा प्रेम करता था। उसने दहेजमें साठ-साठ वर्षके बारह सौ हाथी, दस हजार घोड़े, सूर्यके समान चमकते हुए सोनेके छ: हजार रथ और सोनेके हार पहनी हुई एक हजार दासियाँ दी ||५०-५१।।
प्रतिगृह्य तु तत्सर्वं भगवान् सात्वतर्षभः ।
ससुतः सस्नुषः प्रायात् सुहृद्भिरभिनन्दितः ॥ ५२ ॥
यदुवंशशिरोमणि भगवान् बलरामजीने यह सब दहेज स्वीकार किया और नवदम्पति लक्ष्मणा तथा साम्बके साथ कौरवोंका अभिनन्दन स्वीकार करके द्वारकाकी यात्रा की ।।५२||
( मिश्र )
ततः प्रविष्टः स्वपुरं हलायुधः
समेत्य बन्धूननुरक्तचेतसः ।
शशंस सर्वं यदुपुङ्गवानां
मध्ये सभायां कुरुषु स्वचेष्टितम् ॥ ५३ ॥
अब बलरामजी द्वारकापुरीमें पहुँचे और अपने प्रेमी तथा समाचार जाननेके लिये उत्सुक बन्धुबान्धवोंसे मिले। उन्होंने यदुवंशियोंकी भरी सभामें अपना वह सारा चरित्र कह सुनाया, जो हस्तिनापुरमें उन्होंने कौरवोंके साथ किया था ।।५३||
( अनुष्टुप् )
अद्यापि च पुरं ह्येतत् सूचयद् रामविक्रमम् ।
समुन्नतं दक्षिणतो गङ्गायां अनुदृश्यते ॥ ५४ ॥
परीक्षित्! यह हस्तिनापुर आज भी दक्षिणकी ओर ऊँचा और गंगाजीकी ओर कुछ झुका हुआ है और इस प्रकार यह भगवान् बलरामजीके पराक्रमकी सूचना दे रहा है ।।५४।।
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां
संहितायां दशमस्कन्धे उत्तरार्धे
हस्तिनपुरकर्षणरूपसंकर्षणविजयो नाम अष्टषष्टितमोऽध्यायः ॥ ६८ ॥
हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥