श्रीमद् भागवत महापुराण स्कन्ध 10 अध्याय 69
69 CHAPTER
श्रीमद्भागवतपुराणम्
स्कन्धः १०/उत्तरार्धः/अध्यायः ६९
देवर्षिनारदकर्तृकं भगवतो गृहचर्यादर्शनम् –
श्रीशुक उवाच –
( अनुष्टुप् )
नरकं निहतं श्रुत्वा तथोद्वाहं च योषिताम् ।
कृष्णेनैकेन बह्वीनां तद् दिदृक्षुः स्म नारदः ॥ १ ॥
श्रीशुकदेवजी कहते हैं-परीक्षित्! जब देवर्षि नारदने सुना कि भगवान् श्रीकृष्णने नरकासुर (भौमासुर) को मारकर अकेले ही हजारों राज-कुमारियोंके साथ विवाह कर लिया है, तब उनके मनमें भगवानकी रहन-सहन देखनेकी बड़ी अभिलाषा हई ।।१।।
चित्रं बतैतदेकेन वपुषा युगपत् पृथक् ।
गृहेषु द्व्यष्टसाहस्रं स्त्रिय एक उदावहत् ॥ २ ॥
वे सोचने लगे -अहो, यह कितने आश्चर्यकी बात है कि भगवान् श्रीकृष्णने एक ही शरीरसे एक ही समय सोलह हजार महलोंमें अलग-अलग सोलह हजार राजकुमारियोंका पाणिग्रहण किया ।।२।।
इत्युत्सुको द्वारवतीं देवर्षिर्द्रष्टुमागमत् ।
पुष्पितोपवनाराम द्विजालिकुलनादिताम् ॥ ३ ॥
देवर्षि नारद इस उत्सुकतासे प्रेरित होकर भगवान्की लीला देखनेके लिये द्वारका आ पहुँचे। वहाँके उपवन और उद्यान खिले हए रंग-बिरंगे पुष्पोंसे लदे वृक्षोंसे परिपूर्ण थे, उनपर तरहतरहके पक्षी चहक रहे थे और भौंरे गुंजार कर रहे थे ||३||
उत्फुल्लेन्दीवराम्भोज कह्लारकुमुदोत्पलैः ।
छुरितेषु सरःसूच्चैः कूजितां हंससारसैः ॥ ४ ॥
निर्मल जलसे भरे सरोवरोंमें नीले, लाल और सफेद रंगके भाँति-भाँतिके कमल खिले हुए थे। कुमुद (कोईं) और नवजात कमलोंकी मानो भीड़ ही लगी हुई थी। उनमें हंस और सारस कलरव कर रहे थे ।।४।।
प्रासादलक्षैर्नवभिः जुष्टां स्फाटिकराजतैः ।
महामरकतप्रख्यैः स्वर्णरत्नपरिच्छदैः ॥ ५ ॥
द्वारकापुरीमें स्फटिकमणि और चाँदीके नौ लाख महल थे। वे फर्श आदिमें जड़ी हुई महामरकतमणि (पन्ने) की प्रभासे जगमगा रहे थे और उनमें सोने तथा हीरोंकी बहुत-सी सामग्रियाँ शोभायमान थीं ||५||
( मिश्र )
विभक्तरथ्यापथचत्वरापणैः
शालासभाभी रुचिरां सुरालयैः ।
संसिक्तमार्गाङ्गनवीथिदेहलीं
पतत्पताका ध्वजवारितातपाम् ॥ ६ ॥
उसके राजपथ (बड़ी-बड़ी सड़कें), गलियाँ, चौराहे और बाजार बहत ही सुन्दर-सुन्दर थे। घुड़साल आदि पशुओंके रहनेके स्थान, सभा-भवन और देव-मन्दिरोंके कारण उसका सौन्दर्य और भी चमक उठा था। उसकी सड़कों, चौक, गली
और दरवाजोंपर छिडकाव किया गया था। छोटी-छोटी झंडियाँ और बड़े-बड़े झंडे जगहजगह फहरा रहे थे, जिनके कारण रास्तोंपर धूप नहीं आ पाती थी ।।६।।
( अनुष्टुप् )
तस्यामन्तःपुरं श्रीमद् अर्चितं सर्वधिष्ण्यपैः ।
हरेः स्वकौशलं यत्र त्वष्ट्रा कार्त्स्न्येन दर्शितम् ॥ ७ ॥
उसी द्वारकानगरीमें भगवान श्रीकृष्णका बहत ही सुन्दर अन्तःपुर था। बड़े-बड़े लोकपाल उसकी पूजा-प्रशंसा किया करते थे। उसका निर्माण करने में विश्वकर्माने अपना सारा कलाकौशल, सारी कारीगरी लगा दी थी ।।७।।
तत्र षोडशभिः सद्म सहस्रैः समलङ्कृतम् ।
विवेशैकतमं शौरेः पत्नीनां भवनं महत् ॥ ८ ॥
उस अन्तःपुर (रनिवास) में भगवान्की रानियोंके सोलह हजारसे अधिक महल शोभायमान थे, उनमेंसे एक बड़े भवनमें देवर्षि नारदजीने प्रवेश किया ।।८।।
विष्टब्धं विद्रुमस्तंभैः वैदूर्यफलकोत्तमैः ।
इन्द्रनीलमयैः कुड्यैः जगत्या चाहतत्विषा ॥ ९ ॥
उस महलमें मूंगोंके खम्भे, वैदूर्यके उत्तम-उत्तम छज्जे तथा इन्द्रनीलमणिकी दीवारें जगमगा रही थीं और वहाँकी गचें भी ऐसी इन्द्र-नीलमणियोंसे बनी हुई थीं, जिनकी चमक किसी प्रकार कम नहीं होती ||९||
वितानैर्निर्मितैस्त्वष्ट्रा मुक्तादामविलम्बिभिः ।
दान्तैरासनपर्यङ्कैः मण्युत्तमपरिष्कृतैः ॥ १० ॥
विश्वकर्माने बहत-से ऐसे चॅदोवे बना रखे थे, जिनमें मोतीकी लड़ियोंकी झालरें लटक रही थीं। हाथी-दाँतके बने हुए आसन और पलँग थे, जिनमें श्रेष्ठ-श्रेष्ठ मणि जड़ी हुई थी ।।१०।।
दासीभिर्निष्ककण्ठीभिः सुवासोभिरलङ्कृतम् ।
पुम्भिः सकञ्चुकोष्णीष सुवस्त्रमणिकुण्डलैः ॥ ११ ॥
बहुत-सी दासियाँ गलेमें सोनेका हार पहने और सुन्दर वस्त्रोंसे सुसज्जित होकर तथा बहत-से सेवक भी जामा-पगड़ी और सुन्दर-सुन्दर वस्त्र पहने तथा जड़ाऊ कुण्डल धारण किये अपने-अपने काममें व्यस्त थे और महलकी शोभा बढ़ा रहे थे ।।११।।
( वसंततिलका )
रत्नप्रदीपनिकरद्युतिभिर्निरस्त
ध्वान्तं विचित्रवलभीषु शिखण्डिनोऽङ्ग ।
नृत्यन्ति यत्र विहितागुरुधूपमक्षैः
निर्यान्तमीक्ष्य घनबुद्धय उन्नदन्तः ॥ १२ ॥
अनेकों रत्न-प्रदीप अपनी जगमगाहटसे उसका अन्धकार दूर कर रहे थे। अगरकी धूप देनेके कारण झरोखोंसे धूआँ निकल रहा था। उसे देखकर रंग-बिरंगे मणिमय छज्जोंपरबैठे हुए मोर बादलोंके भ्रमसे कूक-कूककर नाचने लगते ।।१२।।
तस्मिन्समानगुणरूपवयःसुवेष
दासीसहस्रयुतयानुसवं गृहिण्या ।
विप्रो ददर्श चमरव्यजनेन रुक्म
दण्डेन सात्वतपतिं परिवीजयन्त्या ॥ १३ ॥
देवर्षि नारदजीने देखा कि भगवान् श्रीकृष्ण उस महलकी स्वामिनी रुक्मिणीजीके साथ बैठे हुए हैं और वे अपने हाथों भगवानको सोनेकी डाँड़ीवाले चँवरसे हवा कर रही हैं। यद्यपि उस महलमें रुक्मिणीजीके समान ही गुण, रूप, अवस्था और वेष-भूषावाली सहस्रों दासियाँ भी हर समय विद्यमान रहती थीं ।।१३।।
तं सन्निरीक्ष्य भगवान् सहसोत्थितश्री
पर्यङ्कतः सकलधर्मभृतां वरिष्ठः ।
आनम्य पादयुगलं शिरसा किरीट
जुष्टेन साञ्जलिरवीविशदासने स्वे ॥ १४ ॥
नारदजीको देखते ही समस्त धार्मिकोंके मुकुट-मणि भगवान् श्रीकृष्ण रुक्मिणीजीके पलँगसे सहसा उठ खड़े हुए। उन्होंने देवर्षि नारदके युगलचरणोंमें मुकुटयुक्त सिरसे प्रणाम किया और हाथ जोड़कर उन्हें अपने आसनपर बैठाया ।।१४।।
तस्यावनिज्य चरणौ तदपः स्वमूर्ध्ना
बिभ्रज्जगद्गुरुतमोऽपि सतां पतिर्हि ।
ब्रह्मण्यदेव इति यद्गुणनाम युक्तं
तस्यैव यच्चरणशौचमशेषतीर्थम् ॥ १५ ॥
परीक्षित्! इसमें सन्देह नहीं कि भगवान श्रीकृष्ण चराचर जगतके परम गुरु हैं और उनके चरणोंका धोवन गंगाजल सारे जगत्को पवित्र करनेवाला है। फिर भी वे परमभक्तवत्सल और संतोंके परम आदर्श, उनके स्वामी हैं। उनका एक असाधारण नाम ब्रह्मण्यदेव भी है। वे ब्राह्मणोंको ही अपना आराध्यदेव मानते हैं। उनका यह नाम उनके गुणके अनुरूप एवं उचित ही है। तभी तो भगवान् श्रीकृष्णने स्वयं ही नारदजीके पाँव पखारे और उनका चरणामृत अपने सिरपर धारण किया ||१५||
संपूज्य देवऋषिवर्यमृषिः पुराणो
नारायणो नरसखो विधिनोदितेन ।
वाण्याभिभाष्य मितयामृतमिष्टया तं
प्राह प्रभो भगवते करवाम हे किम् ॥ १६ ॥
नरशिरोमणि नरके सखा सर्वदर्शी पुराणपुरुष भगवान नारायणने शास्त्रोक्त विधिसे देवर्षिशिरोमणि भगवान् नारदकी पूजा की। इसके बाद अमृतसे भी मीठे किन्तु भोड़े शब्दोंमें उनका स्वागत-सत्कार किया और फिर कहा-‘प्रभो! आप तो स्वयं समग्र ज्ञान, वैराग्य, धर्म, यश, श्री और ऐश्वर्यसे पूर्ण हैं। आपकी हम क्या सेवा करें? ||१६||
श्रीनारद उवाच –
नैवाद्भुतं त्वयि विभोऽखिललोकनाथे
मैत्री जनेषु सकलेषु दमः खलानाम् ।
निःश्रेयसाय हि जगत्स्थितिरक्षणाभ्यां
स्वैरावतार उरुगाय विदाम सुष्ठु ॥ १७ ॥
देवर्षि नारदने कहा-भगवन! आप समस्त लोकोंके एकमात्र स्वामी हैं। आपके लिये यह कोई नयी बात नहीं है कि आप अपने भक्तजनोंसे प्रेम करते हैं और दुष्टोंको दण्ड देते हैं। परमयशस्वी प्रभो! आपने जगतकी स्थिति और रक्षाके द्वारा समस्त जीवोंका कल्याण करनेके लिये स्वेच्छासे अवतार ग्रहण किया है। भगवन्! यह बात हम भलीभाँति जानते हैं ||१७||
दृष्टं तवाङ्घ्रियुगलं जनतापवर्गं
ब्रह्मादिभिर्हृदि विचिन्त्यमगाधबोधैः ।
संसारकूपपतितोत्तरणावलम्बं
ध्यायंश्चराम्यनुगृहाण यथा स्मृतिः स्यात् ॥ १८ ॥
यह बड़े सौभाग्यकी बात है कि आज मुझे आपके चरणकमलोंके दर्शन हए हैं। आपके ये चरणकमल सम्पूर्ण जनताको परम साम्य, मोक्ष देने में समर्थ हैं। जिनके ज्ञानकी कोई सीमा ही नहीं है, वे ब्रह्मा, शंकर आदि सदा-सर्वदा अपने हृदयमें उनका चिन्तन करते रहते हैं। वास्तवमें वे श्रीचरण ही संसाररूप कूऍमें गिरे हुए लोगोंको बाहर निकलनेके लिये अवलम्बन हैं। आप ऐसी कृपा कीजिये कि आपके उन चरणकमलोंकी स्मृति सर्वदा बनी रहे और मैं चाहे जहाँ जैसे रहूँ, उनके ध्यानमें तन्मय रहूँ ।।१८।।
( अनुष्टुप् )
ततोऽन्यदाविशद् गेहं कृष्णपत्न्याः स नारदः ।
योगेश्वरेश्वरस्याङ्ग योगमायाविवित्सया ॥ १९ ॥
परीक्षित्! इसके बाद देवर्षि नारदजी योगेश्वरोंके भी ईश्वर भगवान् श्रीकृष्णकी योगमायाका सहस्य जाननेके लिये उनकी दूसरी पत्नीके महल में गये ।।१९।।
दीव्यन्तमक्षैस्तत्रापि प्रियया चोद्धवेन च ।
पूजितः परया भक्त्या प्रत्युत्थानासनादिभिः ॥ २० ॥
वहाँ उन्होंने देखा कि भगवान् श्रीकृष्ण अपनी प्राणप्रिया और उद्धवजीके साथ चौसर खेल रहे हैं। वहाँ भी भगवान्ने खड़े होकर उनका स्वागत किया, आसनपर बैठाया और विविध सामग्रियोंद्वारा बड़ी भक्तिसे उनकी अर्चा-पूजा की ।।२०।।
पृष्टश्चाविदुषेवासौ कदाऽऽयातो भवानिति ।
क्रियते किं नु पूर्णानां अपूर्णैरस्मदादिभिः ॥ २१ ॥
इसके बाद भगवान्ने नापदजीसे अनजानकी तरह पूछा-‘आप यहाँ कब पधारे! आप तो परिपूर्ण आत्माराम-आप्तकाम हैं और हमलोग हैं अपूर्ण। ऐसी अवस्थामें भला हम आपकी क्या सेवा कर सकते हैं ।।२१।।
अथापि ब्रूहि नो ब्रह्मन् जन्मैतच्छोभनं कुरु ।
स तु विस्मित उत्थाय तूष्णीमन्यदगाद् गृहम् ॥ २२ ॥
फिर भी ब्रह्मस्वरूप नारदजी! आप कुछ-न-कुछ आज्ञा अवश्य कीजिये और हमें सेवाका अवसर देकर हमारा जन्म सफल कीजिये।’ नारदजी यह सब देख-सुनकर चकित और विस्मित हो रहे थे। वे वहाँसे उठकर चुपचाप दूसरे महलमें चले गये ।।२२।।
तत्राप्यचष्ट गोविन्दं लालयन्तं सुतान् शिशून् ।
ततोऽन्यस्मिन्गृहेऽपश्यन् मज्जनाय कृतोद्यमम् ॥ २३ ॥
उस महलमें भी देवर्षि नारदने देखा कि भगवान् श्रीकृष्ण अपने नन्हे-नन्हे बच्चोंको दुलार रहे हैं। वहाँसे फिर दूसरे महलमें गये तो क्या देखते हैं कि भगवान् श्रीकृष्ण स्नानकी तैयारी कर रहे हैं ।।२३।।
जुह्वन्तं च वितानाग्नीन् यजन्तं पञ्चभिर्मखैः ।
भोजयन्तं द्विजान् क्वापि भुञ्जानमवशेषितम् ॥ २४ ॥
(इसी प्रकार देवर्षि नारदने विभिन्न महलोंमें भगवान्को भिन्न-भिन्न कार्य करते देखा।) कहीं वे यज्ञकुण्डोंमें हवन कर रहे हैं तो कहीं पंचमहायज्ञोंसे देवता आदिकी आराधना कर रहे हैं। कहीं ब्राह्मणोंको भोजन करा रहे हैं, तो कहीं यज्ञका अवशेष स्वयं भोजन कर रहे हैं ।।२४।।
क्वापि सन्ध्यामुपासीनं जपन्तं ब्रह्म वाग्यतम् ।
एकत्र चासिचर्माभ्यां चरन्तमसिवर्त्मसु ॥ २५ ॥
कहीं सन्ध्या कर रहे हैं, तो कहीं मौन होकर गायत्रीका जप कर रहे हैं। कहीं हाथोंमें ढाल-तलवार लेकर उनको चलानेके पैतरे बदल रहे हैं ||२५||
अश्वैर्गजै रथैः क्वापि विचरन्तं गदाग्रजम् ।
क्वचिच्छयानं पर्यङ्के स्तूयमानं च वन्दिभिः ॥ २६ ॥
कहीं घोड़े, हाथी अथवा रथपर सवार होकर श्रीकृष्ण विचरण कर रहे हैं। कहीं पलंगपर सो रहे हैं, तो कहीं वंदीजन उनकी स्तुति कर रहे हैं ||२६||
मंत्रयन्तं च कस्मिंश्चित् मंत्रिभिश्चोद्धवादिभिः ।
जलक्रीडारतं क्वापि वारमुख्याबलावृतम् ॥ २७ ॥
किसी महलमें उद्धव आदि मन्त्रियोंके साथ किसी गम्भीर विषयपर परामर्श कर रहे हैं, तो कहीं उत्तमोत्तम वारांगनाओंसे घिरकर जलक्रीडा कर रहे हैं ।।२७।।
कुत्रचिद्द्विजमुख्येभ्यो ददतं गाः स्वलङ्कृताः ।
इतिहासपुराणानि श्रृण्वन्तं मङ्गलानि च ॥ २८ ॥
कहीं श्रेष्ठ ब्राह्मणोंको वस्त्राभूषणसे सुसज्जित गौओंका दान कर रहे हैं, तो कहीं मंगलमय इतिहासपुराणोंका श्रवण कर रहे हैं ||२८||
हसन्तं हासकथया कदाचित् प्रियया गृहे ।
क्वापि धर्मं सेवमानं अर्थकामौ च कुत्रचित् ॥ २९ ॥
कहीं किसी पत्नीके महलमें अपनी प्राणप्रियाके साथ हास्य-विनोदकी बातें करके हँस रहे हैं। तो कहीं धर्मका सेवन कर रहे हैं। कहीं अर्थका सेवन कर रहे हैं-धन-संग्रह और धनवृद्धिके कार्यमें लगे हुए हैं, तो कहीं धर्मानुकूल गृहस्थोचित विषयोंका उपभोग कर रहे हैं ।।२९।।
ध्यायन्तमेकमासीनं पुरुषं प्रकृतेः परम् ।
शुश्रूषन्तं गुरून् क्वापि कामैर्भोगैः सपर्यया ॥ ३० ॥
कहीं एकान्तमें बैठकर प्रकृतिसे अतीत पुराण-पुरुषका ध्यान कर रहे हैं, तो कहीं गुरुजनोंको इच्छित भोग-सामग्री समर्पित करके उनकी सेवाशुश्रूषा कर रहे हैं ।।३०।।
कुर्वन्तं विग्रहं कैश्चित् सन्धिं चान्यत्र केशवम् ।
कुत्रापि सह रामेण चिन्तयन्तं सतां शिवम् ॥ ३१ ॥
देवर्षि नारदने देखा कि भगवान् श्रीकृष्ण किसीके साथ युद्धकी बात कर रहे हैं, तो किसीके साथ सन्धिकी। कहीं भगवान् बलरामजीके साथ बैठकर सत्पुरुषों के कल्याणके बारेमें विचार कर रहे हैं ||३१||
पुत्राणां दुहितॄणां च काले विध्युपयापनम् ।
दारैर्वरैस्तत्सदृशैः कल्पयन्तं विभूतिभिः ॥ ३२ ॥
कहीं उचित समयपर पुत्र और कन्याओंका उनके सदृश पत्नी
और वरोंके साथ बड़ी धूमधामसे विधिवत् विवाह कर रहे हैं ।।३२।।
प्रस्थापनोपनयनैः अपत्यानां महोत्सवान् ।
वीक्ष्य योगेश्वरेशस्य येषां लोका विसिस्मिरे ॥ ३३ ॥
कहीं घरसे कन्याओंको विदा कर रहे हैं, तो कहीं बुलानेकी तैयारीमें लगे हुए हैं। योगेश्वरेश्वर भगवान् श्रीकृष्णके इन विराट् उत्सवोंको देखकर सभी लोग विस्मित–चकित हो जाते थे ||३३।।
यजन्तं सकलान् देवान् क्वापि क्रतुभिरूर्जितैः ।
पूर्तयन्तं क्वचिद् धर्मं कूर्पाराममठादिभिः ॥ ३४ ॥
कहीं बड़े-बड़ेयज्ञोंके द्वारा समस्त देवताओंका यजन-पूजन और कहीं कूएँ, बगीचे तथा मठ आदि बनवाकर इष्टापूर्त धर्मका आचरण कर रहे हैं ।।३४।।
चरन्तं मृगयां क्वापि हयमारुह्य सैन्धवम् ।
घ्नन्तं तत्र पशून् मेध्यान् परीतं यदुपुङ्गवैः ॥ ३५ ॥
कहीं श्रेष्ठ यादवोंसे घिरे हुए सिन्धुदेशीय घोडेपर चढ़कर मगया कर रहे हैं, इस प्रकार यज्ञके लिये मेध्य पशुओंका संग्रह कर रहे हैं ||३५||
अव्यक्तलिङ्गं प्रकृतिषु अन्तःपुरगृहादिषु ।
क्वचिच्चरन्तं योगेशं तत्तद्भावबुभुत्सया ॥ ३६ ॥
और कहीं प्रजामें तथा अन्तःपुरके महलोंमें वेष बदलकर छिपे रूपसे सबका अभिप्राय जानने के लिये विचरण कर रहे हैं। क्यों न हो, भगवान् योगेश्वर जो हैं ।।३६।।
अथोवाच हृषीकेशं नारदः प्रहसन्निव ।
योगमायोदयं वीक्ष्य मानुषीं ईयुषो गतिम् ॥ ३७ ॥
परीक्षित्! इस प्रकार मनुष्यकी-सी लीला करते हुए हृषीकेश भगवान् श्रीकृष्णकी योगमायाका वैभव देखकर देवर्षि नारदजीने मुसकराते हुए उनसे कहा- ||३७।।
विदाम योगमायास्ते दुर्दर्शा अपि मायिनाम् ।
योगेश्वरात्मन् निर्भाता भवत्पादनिषेवया ॥ ३८ ॥
‘योगेश्वर! आत्मदेव! आपकी योग-माया ब्रह्माजी आदि बड़े-बड़े मायावियोंके लिये भी अगम्य है। परन्तु हम आपकी योगमायाका रहस्य जानते हैं; क्योंकि आपके चरणकमलोंकी सेवा करनेसे वह । स्वयं ही हमारे सामने प्रकट हो गयी है ||३८||
अनुजानीहि मां देव लोकांस्ते यशसाऽऽप्लुतान् ।
पर्यटामि तवोद्गायन् लीला भुवनपावनीम् ॥ ३९ ॥
देवताओंके भी आराध्यदेव भगवन्! चौदहों भुवन आपके सुयशसे परिपूर्ण हो रहे हैं। अब मुझे आज्ञा दीजिये कि मैं आपकी त्रिभुवनपावनी लीलाका गान करता हआ उन लोकोंमें विचरण करूँ’ ||३९।।
श्रीभगवानुवाच –
ब्रह्मन्धन्नस्य वक्ताहं कर्ता तदनुमोदिता ।
तच्छिक्षयन्लोकमिमं आस्थितः पुत्र मा खिदः ॥ ४० ॥
भगवान् श्रीकृष्णने कहा-देवर्षि नारदजी! मैं ही धर्मका उपदेशक, पालन करनेवाला और उसका अनुष्ठान करनेवालोंका अनुमोदनकर्ता भी हूँ। इसलिये संसारको धर्मकी शिक्षा देनेके उद्देश्यसे ही मैं इस प्रकार धर्मका आचरण करता हूँ। मेरे प्यारे पुत्र! तुम मेरी यह योगमाया देखकर मोहित मत होना ।।४०।।
श्रीशुक उवाच –
इत्याचरन्तं सद्धर्मान् पावनान् गृहमेधिनाम् ।
तमेव सर्वगेहेषु सन्तमेकं ददर्श ह ॥ ४१ ॥
श्रीशुकदेवजी कहते हैं इस प्रकार भगवान् श्रीकृष्ण गृहस्थोंको पवित्र करनेवाले श्रेष्ठ धर्मोंका आचरण कर रहे थे। यद्यपि वे एक ही हैं, फिर भी देवर्षि नारदजीने उनको उनकी प्रत्येक पत्नीके महलमें अलग-अलग देखा ।।४१।।
कृष्णस्यानन्तवीर्यस्य योगमायामहोदयम् ।
मुहुर्दृष्ट्वा ऋषिरभूद् विस्मितो जातकौतुकः ॥ ४२ ॥
भगवान् श्रीकृष्णकी शक्ति अनन्त है। उनकी योगमायाका परम ऐश्वर्य बार-बार देखकर देवर्षि नारदके विस्मय और कौतूहलकी सीमा न रही ।।४२।।
इत्यर्थकामधर्मेषु कृष्णेन श्रद्धितात्मना ।
सम्यक् सभाजितः प्रीतः तमेवानुस्मरन् ययौ ॥ ४३ ॥
द्वारकामें भगवान् श्रीकृष्ण गृहस्थकी भाँति ऐसा आचरण करते थे, मानो धर्म, अर्थ और कामरूप पुरुषार्थों में उनकी बड़ी श्रद्धा हो। उन्होंने देवर्षि नारदका बहुत सम्मान किया। वे अत्यन्त प्रसन्न होकर भगवान्का स्मरण करते हुए वहाँसे चले गये ।।४३।।
( वसंततिलका )
एवं मनुष्यपदवीमनुवर्तमानो
नारायणोऽखिलभवाय गृहीतशक्तिः ।
रेमेऽङ्ग षोडशसहस्रवराङ्गनानां
सव्रीडसौहृदनिरीक्षणहासजुष्टः ॥ ४४ ॥
राजन्! भगवान् नारायण सारे जगत्के कल्याणके लिये अपनी अचिन्त्य महाशक्ति योगमायाको स्वीकार करते हैं और इस प्रकार मनुष्योंकी-सी लीला करते हैं। द्वारकापुरीमें सोलह हजारसे भी अधिक पत्नियाँ अपनी सलज्ज एवं प्रेमभरी चितवन तथा मन्द-मन्द मुसकानसे उनकी सेवा करती थीं और वे उनके साथ विहार करते थे ।।४४।।
यानीह विश्वविलयोद्भववृत्तिहेतुः
कर्माण्यनन्यविषयाणि हरीश्चकार
यस्त्वङ्ग गायति श्रृणोत्यनुमोदते वा
भक्तिर्भवेद्भगवति ह्यपवर्गमार्गे ॥ ४५ ॥
भगवान् श्रीकृष्णने जो लीलाएँ की हैं, उन्हें दूसरा कोई नहीं कर सकता। परीक्षित्! वे विश्वकी उत्पत्ति, स्थिति और प्रलयके परम कारण हैं। जो उनकी लीलाओंका गान, श्रवण और गान-श्रवण करनेवालोंका अनुमोदन करता है, उसे मोक्षके मार्गस्वरूप भगवान् श्रीकृष्णके चरणोंमें परम प्रेममयी भक्ति प्राप्त हो जाती है ।।४५।।
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां
संहितायां दशमस्कन्धे उत्तरार्धे
कृष्णगार्हस्थ्यदर्शनं नाम एकोनसप्ततिमोऽध्यायः ॥ ६९ ॥
हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥