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श्रीमद् भागवत महापुराण दशम स्कन्ध

श्रीमद् भागवत महापुराण स्कन्ध 10 अध्याय 78

Spread the Glory of Sri SitaRam!

78 CHAPTER
श्रीमद्भागवतपुराणम्
स्कन्धः १०/उत्तरार्धः/अध्यायः ७८
दन्तवक्रविदूरथवधः; बलरामद्‌वारा सूतशिरश्छेदश्च –
अथाष्टसप्ततितमोऽध्यायः

श्रीशुक उवाच
शिशुपालस्य शाल्वस्य पौण्ड्रकस्यापि दुर्मतिः
परलोकगतानां च कुर्वन्पारोक्ष्यसौहृदम् १

एकः पदातिः सङ्क्रुद्धो गदापाणिः प्रकम्पयन्
पद्भ्यामिमां महाराज महासत्त्वो व्यदृश्यत २

श्रीशुकदेवजी कहते हैं-परीक्षित्! शिशुपाल, शाल्व और पौण्ड्रकके मारे जानेपर उनकी मित्रताका ऋण चुकानेके लिये मूर्ख दन्तवक्त्र अकेला ही पैदल युद्धभूमिमें आ धमका। वह क्रोधके मारे आग-बबूला हो रहा था। शस्त्रके नामपर उसके हाथमें एकमात्र गदा थी। परन्तु परीक्षित्! लोगोंने देखा, वह इतना शक्तिशाली है कि उसके पैरोंकी धमकसे पृथ्वी हिल रही है ।।१-२।।

तं तथायान्तमालोक्य गदामादाय सत्वरः
अवप्लुत्य रथात्कृष्णः सिन्धुं वेलेव प्रत्यधात् ३

भगवान् श्रीकृष्णने जब उसे इस प्रकार आते देखा, तब झटपट हाथमें गदा लेकर वे रथसे कूद पड़े। फिर जैसे समुद्रके तटकी भूमि उसके ज्वार-भाटेको आगे बढ़नेसे रोक देती है, वैसे ही उन्होंने उसे रोक दिया ||३||

गदामुद्यम्य कारूषो मुकुन्दं प्राह दुर्मदः
दिष्ट्या दिष्ट्या भवानद्य मम दृष्टिपथं गतः ४

घमंडके नशेमें चूर करूषनरेश दन्तवक्त्रने गदा तानकर भगवान् श्रीकृष्णसे कहा—’बड़े सौभाग्य और आनन्दकी बात है कि आज तुम मेरी आँखोंके सामने पड़ गये ।।४।।

त्वं मातुलेयो नः कृष्ण मित्रध्रुङ्मां जिघांससि
अतस्त्वां गदया मन्द हनिष्ये वज्रकल्पया ५

कृष्ण! तुम मेरे मामाके लड़के हो, इसलिये तुम्हें मारना तो नहीं चाहिये; परन्तु एक तो तुमने मेरे मित्रोंको मार डाला है और दूसरे मुझे भी मारना चाहते हो। इसलिये मतिमन्द! आज मैं तुम्हें अपनी वज्रकर्कश गदासे चूर-चूर कर डालूँगा ।।५।।

तर्ह्यानृण्यमुपैम्यज्ञ मित्राणां मित्रवत्सलः
बन्धुरूपमरिं हत्वा व्याधिं देहचरं यथा ६

मूर्ख! वैसे तो तुम मेरे सम्बन्धी हो, फिर भी हो शत्र ही, जैसे अपने ही शरीरमें रहनेवाला कोई रोग हो! मैं अपने मित्रोंसे बड़ा प्रेम करता हूँ, उनका मुझपर ऋण है। अब तुम्हें मारकर ही मैं उनके ऋणसे उऋण हो सकता हूँ ।।६।।

एवं रूक्षैस्तुदन्वाक्यैः कृष्णं तोत्रैरिव द्विपम्
गदयाताडयन्मूर्ध्नि सिंहवद्व्यनदच्च सः ७

जैसे महावत अंकुशसे हाथीको घायल करता है, वैसे ही दन्तवक्त्रने अपनी कड़वी बातोंसे श्रीकृष्णको चोट पहुँचानेकी चेष्टा की और फिर वह उनके सिरपर बड़े वेगसे गदा मारकर सिंहके समान गरज उठा ||७||

गदयाभिहतोऽप्याजौ न चचाल यदूद्वहः
कृष्णोऽपि तमहन्गुर्व्या कौमोदक्या स्तनान्तरे ८

रणभूमिमें गदाकी चोट खाकर भी भगवान् श्रीकृष्ण टस-से-मस न हुए। उन्होंने अपनी बहुत बड़ी कौमोदकी गदा सँभालकर उससे दन्तवक्त्रके वक्षःस्थलपर प्रहार किया ||८||

गदानिर्भिन्नहृदय उद्वमन्रुधिरं मुखात्
प्रसार्य केशबाह्वङ्घ्रीन्धरण्यां न्यपतद्व्यसुः ९

गदाकी चोटसे दन्तवक्त्रका कलेजा फट गया। वह मुँहसे खन उगलने लगा। उसके बाल बिखर गये, भुजाएँ और पैर फैल गये। निदान निष्प्राण होकर वह धरतीपर गिर पड़ा ।।९।।

ततः सूक्ष्मतरं ज्योतिः कृष्णमाविशदद्भुतम्
पश्यतां सर्वभूतानां यथा चैद्यवधे नृप १०

परीक्षित्! जैसा कि शिशुपालकी मृत्युके समय हुआ था, सब प्राणियोंके सामने ही दन्तवक्त्रके मत शरीरसे एक अत्यन्त सूक्ष्म ज्योति निकली और वह बड़ी विचित्र रीतिसे भगवान् श्रीकृष्णमें समा गयी ।।१०।।

विदूरथस्तु तद्भ्राता भ्रातृशोकपरिप्लुतः
आगच्छदसिचर्माभ्यामुच्छ्वसंस्तज्जिघांसया ११

दन्तवक्त्रके भाईका नाम था विदूरथ। वह अपने भाईकी मृत्युसे अत्यन्त शोकाकुल हो गया। अब वह क्रोधके मारे लम्बी-लम्बी साँस लेता हुआ हाथमें ढाल-तलवार लेकर भगवान् श्रीकृष्णको मार डालनेकी इच्छासे आया ।।११।।

तस्य चापततः कृष्णश्चक्रेण क्षुरनेमिना
शिरो जहार राजेन्द्र सकिरीटं सकुण्डलम् १२

राजेन्द्र! जब भगवान श्रीकृष्णने देखा कि अब वह प्रहार करना ही चाहता है, तब उन्होंने अपने छुरेके समान तीखी धारवाले चक्रसे किरीट और कुण्डलके साथ उसका सिर धड़से अलग कर दिया ।।१२।।

एवं सौभं च शाल्वं च दन्तवक्रं सहानुजम्
हत्वा दुर्विषहानन्यैरीडितः सुरमानवैः १३

मुनिभिः सिद्धगन्धर्वैर्विद्याधरमहोरगैः
अप्सरोभिः पितृगणैर्यक्षैः किन्नरचारणैः १४

उपगीयमानविजयः कुसुमैरभिवर्षितः
वृतश्च वृष्णिप्रवरैर्विवेशालङ्कृतां पुरीम् १५

इस प्रकार भगवान् श्रीकृष्णने शाल्व, उसके विमान सौभ, दन्तवक्त्र और विदूरथको, जिन्हें मारना दूसरोंके लिये अशक्य था, मारकर द्वारकापुरीमें प्रवेश किया। उस समय देवता और मनुष्य उनकी स्तुति कर रहे थे। बड़े-बड़े ऋषि-मुनि, सिद्ध-गन्धर्व, विद्याधर और वासुकि आदि महानाग, अप्सराएँ, पितर, यक्ष, किन्नर तथा चारण उनके ऊपर पुष्पोंकी वर्षा करते हुए उनकी विजयके गीत गा रहे थे। भगवान्के प्रवेशके अवसरपर पुरी खूब सजा दी गयी थी और बड़े-बड़े वृष्णिवंशी यादव वीर उनके पीछे-पीछे चल रहे थे ।।१३-१५।।

एवं योगेश्वरः कृष्णो भगवान्जगदीश्वरः
ईयते पशुदृष्टीनां निर्जितो जयतीति सः १६

योगेश्वर एवं जगदीश्वर भगवान् श्रीकृष्ण इसी प्रकार अनेकों खेल खेलते रहते हैं। जो पशुओंके समान अविवेकी हैं, वे उन्हें कभी हारते भी देखते हैं। परन्तु वास्तवमें तो वे सदा-सर्वदा विजयी ही हैं ।।१६।।

श्रुत्वा युद्धोद्यमं रामः कुरूणां सह पाण्डवैः
तीर्थाभिषेकव्याजेन मध्यस्थः प्रययौ किल १७

एक बार बलरामजीने सुना कि दुर्योधनादि कौरव पाण्डवोंके साथ युद्ध करनेकी तैयारी कर रहे हैं। वे मध्यस्थ थे, उन्हें किसीका पक्ष लेकर लड़ना पसंद नहीं था। इसलिये वे तीर्थों में स्नान करनेके बहाने द्वारकासे चले गये ||१७||

स्नात्वा प्रभासे सन्तर्प्य देवर्षिपितृमानवान्
सरस्वतीं प्रतिस्रोतं ययौ ब्राह्मणसंवृतः १८

वहाँसे चलकर उन्होंने प्रभासक्षेत्रमें स्नान किया और तर्पण तथा ब्राह्मणभोजनके द्वारा देवता, ऋषि, पितर और मनुष्योंको तृप्त किया।इसके बाद वे कुछ ब्राह्मणोंके साथ जिधरसे सरस्वती नदी आ रही थी, उधर ही चल पड़े ।।१८।।

पृथूदकं बिन्दुसरस्त्रितकूपं सुदर्शनम्
विशालं ब्रह्मतीर्थं च चक्रं प्राचीं सरस्वतीम् १९

वे क्रमशः पृथूदक, बिन्दुसर, त्रितकूप, सुदर्शनतीर्थ, विशालतीर्थ, ब्रह्मतीर्थ, चक्रतीर्थ और पूर्ववाहिनी सरस्वती आदि तीर्थों में गये ।।१९।।

यमुनामनु यान्येव गङ्गामनु च भारत
जगाम नैमिषं यत्र ऋषयः सत्रमासते २०

परीक्षित्! तदनन्तर यमुनातट और गंगातटके प्रधान-प्रधान तीर्थों में होते हुए वे नैमिषारण्य क्षेत्रमें गये। उन दिनों नैमिषारण्य क्षेत्रमें बड़े-बड़े ऋषि सत्संगरूप महान् सत्र कर रहे थे ।।२०।।

तमागतमभिप्रेत्य मुनयो दीर्घसत्रिणः
अभिनन्द्य यथान्यायं प्रणम्योत्थाय चार्चयन् २१

दीर्घकालतक सत्संगसत्रका नियम लेकर बैठे हुए ऋषियोंने बलरामजीको आया देख अपने-अपने आसनोंसे उठकर उनका स्वागत-सत्कार किया और यथायोग्य प्रणाम-आशीर्वाद करके उनकी पूजा की ।।२१।।

सोऽर्चितः सपरीवारः कृतासनपरिग्रहः
रोमहर्षणमासीनं महर्षेः शिष्यमैक्षत २२

वे अपने साथियोंके साथ आसन ग्रहण करके बैठ गये और उनकी अर्चा-पूजा हो चुकी, तब उन्होंने देखा कि भगवान् व्यासके शिष्य रोमहर्षणव्यासगद्दीपर बैठे हुए हैं ||२२||

अप्रत्युत्थायिनं सूतमकृतप्रह्वणाञ्जलिम्
अध्यासीनं च तान्विप्रांश्चुकोपोद्वीक्ष्य माधवः २३

बलरामजीने देखा कि रोमहर्षणजी सूत-जातिमें उत्पन्न होनेपर भी उन श्रेष्ठ ब्राह्मणोंसे ऊँचे आसनपर बैठे हुए हैं और उनके आनेपर न तो उठकर स्वागत करते हैं और न हाथ जोड़कर प्रणाम ही। इसपर बलरामजीको क्रोध आ गया ।।२३।।

यस्मादसाविमान्विप्रानध्यास्ते प्रतिलोमजः
धर्मपालांस्तथैवास्मान्वधमर्हति दुर्मतिः २४

वे कहने लगे कि ‘यह रोमहर्षण प्रतिलोम जातिका होनेपर भी इन श्रेष्ठ ब्राह्मणोंसे तथा धर्मके रक्षक हमलोगोंसे ऊपर बैठा हुआ है, इसलिये यह दुर्बुद्धि मृत्युदण्डका पात्र है ||२४||

ऋषेर्भगवतो भूत्वा शिष्योऽधीत्य बहूनि च
सेतिहासपुराणानि धर्मशास्त्राणि सर्वशः २५

अदान्तस्याविनीतस्य वृथा पण्डितमानिनः
न गुणाय भवन्ति स्म नटस्येवाजितात्मनः २६

भगवान् व्यासदेवका शिष्य होकर इसने इतिहास, पुराण, धर्मशास्त्र आदि बहुत-से शास्त्रोंका अध्ययन भी किया है; परन्तु अभी इसका अपने मनपर संयम नहीं है। यह विनयी नहीं, उद्दण्ड है। इस अजितात्माने झूठमूठ अपनेको बहुत बड़ा पण्डित मान रखा है। जैसे नटकी सारी चेष्टाएँ अभिनयमात्र होती हैं, वैसे ही इसका सारा अध्ययन स्वाँगके लिये है। उससे न इसका लाभ है और न किसी दूसरेका ।।२५-२६||

एतदर्थो हि लोकेऽस्मिन्नवतारो मया कृतः
वध्या मे धर्मध्वजिनस्ते हि पातकिनोऽधिकाः २७

जो लोग धर्मका चिह्न धारण करते हैं, परन्तु धर्मका पालन नहीं करते, वे अधिक पापी हैं
और वे मेरे लिये वध करने योग्य हैं। इस जगतमें इसीलिये मैंने अवतार धारण किया है’ ||२७||

एतावदुक्त्वा भगवान्निवृत्तोऽसद्वधादपि
भावित्वात्तं कुशाग्रेण करस्थेनाहनत्प्रभुः २८

भगवान् बलराम यद्यपि तीर्थयात्राके कारण दुष्टोंके वधसे भी अलग हो गये थे, फिर भी इतना कहकर उन्होंने अपने हाथमें स्थित कुशकी नोकसे उनपर प्रहार कर दिया और वे तुरंत मर गये। होनहार ही ऐसी थी ||२८||

हाहेतिवादिनः सर्वे मुनयः खिन्नमानसाः
ऊचुः सङ्कर्षणं देवमधर्मस्ते कृतः प्रभो २९

सूतजीके मरते ही सब ऋषि-मुनि हाय-हाय करने लगे, सबके चित्त खिन्न हो गये। उन्होंने देवाधिदेव भगवान् बलरामजीसे कहा–’प्रभो! आपने यह बहुत बड़ा अधर्म किया ।।२९।।

अस्य ब्रह्मासनं दत्तमस्माभिर्यदुनन्दन
आयुश्चात्माक्लमं तावद्यावत्सत्रं समाप्यते ३०

यदुवंशशिरोमणे! सूतजीको हम लोगोंने ही ब्राह्मणोचित आसनपर बैठाया था और जबतक हमारा यह सत्र समाप्त न हो, तबतकके लिये उन्हें शारीरिक कष्टसे रहित आयु भी दे दी थी ||३०||

अजानतैवाचरितस्त्वया ब्रह्मवधो यथा
योगेश्वरस्य भवतो नाम्नायोऽपि नियामकः ३१

यद्येतद्ब्रह्महत्यायाः पावनं लोकपावन
चरिष्यति भवांल्लोक सङ्ग्रहोऽनन्यचोदितः ३२

आपने अनजानमें यह ऐसा काम कर दिया, जो ब्रह्महत्याके समान है। हमलोग यह मानते हैं कि आप योगेश्वर हैं, वेद भी आपपर शासन नहीं कर सकता। फिर भी आपसे यह प्रार्थना है कि आपका अवतार लोगोंको पवित्र करनेके लिये हआ है; यदि आप किसीकी प्रेरणाके बिना स्वयं अपनी इच्छासे ही इस ब्रह्महत्याका प्रायश्चित्त कर लेंगे तो इससे लोगोंको बहुत शिक्षा मिलेगी’ ||३१-३२।।

श्रीभगवानुवाच
चरिष्ये वधनिर्वेशं लोकानुग्रहकाम्यया
नियमः प्रथमे कल्पे यावान्स तु विधीयताम् ३३

भगवान् बलरामने कहा-मैं लोगोंको शिक्षा देनेके लिये, लोगोंपर अनुग्रह करनेके लिये इस ब्रह्महत्याका प्रायश्चित्त अवश्य करूँगा, अतः इसके लिये प्रथम श्रेणीका जो प्रायश्चित्त हो, आपलोग उसीका विधान कीजिये ||३३||

दीर्घमायुर्बतैतस्य सत्त्वमिन्द्रि यमेव च
आशासितं यत्तद्ब्रूते साधये योगमायया ३४

आपलोग इस सूतको लम्बी आयु, बल, इन्द्रियशक्ति आदि जो कुछ भी देना चाहते हों, मुझे बतला दीजिये; मैं अपने योगबलसे सब कुछ सम्पन्न किये देता हूँ ।।३४।।

ऋषय ऊचुः
अस्त्रस्य तव वीर्यस्य मृत्योरस्माकमेव च
यथा भवेद्वचः सत्यं तथा राम विधीयताम् ३५

ऋषियोंने कहा-बलरामजी! आप ऐसा कोई उपाय कीजिये जिससे आपका शस्त्र, पराक्रम और इनकी मृत्यु भी व्यर्थ न हो और हमलोगोंने इन्हें जो वरदान दिया था, वह भी सत्य हो जाय ||३५||

श्रीभगवानुवाच
आत्मा वै पुत्र उत्पन्न इति वेदानुशासनम्
तस्मादस्य भवेद्वक्ता आयुरिन्द्रि यसत्त्ववान् ३६

भगवान् बलरामने कहा-ऋषियो! वेदोंका ऐसा कहना है कि आत्मा ही पुत्रके रूपमें उत्पन्न होता है। इसलिये रोमहर्षणके स्थानपर उनका पुत्र आपलोगोंको पुराणोंकी कथा सुनायेगा। उसे मैं अपनी शक्तिसे दीर्घायु, इन्द्रियशक्ति और बल दिये देता हूँ ।।३६||

किं वः कामो मुनिश्रेष्ठा ब्रूताहं करवाण्यथ
अजानतस्त्वपइ!तिं यथा मे चिन्त्यतां बुधाः ३७

ऋषियो! इसके अतिरिक्त आपलोग और जो कुछ भी चाहते हों, मुझसे कहिये। मैं आपलोगोंकी इच्छा पूर्ण करूँगा। अनजानमें मुझसे जो अपराध हो गया है, उसका प्रायश्चित्त भी आपलोग सोच-विचारकर बतलाइये; क्योंकि आपलोग इस बिषयके विद्वान् हैं ।।३७।।

ऋषय ऊचुः
इल्वलस्य सुतो घोरो बल्वलो नाम दानवः
स दूषयति नः सत्रमेत्य पर्वणि पर्वणि ३८

ऋषियोंने कहा-बलरामजी! इल्वलका पुत्र बल्वल नामका एक भयंकर दानव है। वह प्रत्येक पर्वपर यहाँ आ पहुँचता है और हमारे इस सत्रको दूषित कर देता है ।।३८।।

तं पापं जहि दाशार्ह तन्नः शुश्रूषणं परम्
पूयशोणितविन्मूत्र सुरामांसाभिवर्षिणम् ३९

यदुनन्दन! वह यहाँ आकर पीब, खून, विष्ठा, मूत्र, शराब और मांसकी वर्षा करने लगता है। आप उस पापीको मार डालिये। हमलोगोंकी यह बहुत बड़ी सेवा होगी ।।३९।।

ततश्च भारतं वर्षं परीत्य सुसमाहितः
चरित्वा द्वादशमासांस्तीर्थस्नायी विशुध्यसि ४०

इसके बाद आप एकाग्रचित्तसे तीर्थों में स्नान करते हुए बारह महीनोंतक भारतवर्षकी परिक्रमा करते हुए विचरण कीजिये। इससे आपकी शुद्धि हो जायगी ।।४०।।

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां दशमस्कन्धे उत्तरार्धे बलदेवचरित्रे बल्वलवधोपक्रमो नामाष्टसप्ततितमोऽध्यायः


Spread the Glory of Sri SitaRam!

Shweta Srinet

गरिमा जी संस्कृत भाषा में परास्नातक एवं राष्ट्रीय पात्रता परीक्षा उत्तीर्ण हैं। यह RamCharit.in हेतु 2018 से सतत पूर्णकालिक सदस्य के रूप में कार्य कर रही हैं। धार्मिक ग्रंथों को उनके मूल आध्यात्मिक रूप में सरलता से उपलब्ध कराने का कार्य इसके द्वारा ही निष्पादित होता है।

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