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श्रीमद् भागवत महापुराण दशम स्कन्ध

श्रीमद् भागवत महापुराण स्कन्ध 10 अध्याय 80

Spread the Glory of Sri SitaRam!

80 CHAPTER
श्रीमद्भागवतपुराणम्
स्कन्धः १०/उत्तरार्धः/अध्यायः ८०

सुदामोपाख्यानम् – पत्‍नीप्रेरणया सुदाम्नो भगवत् समीपे गमनं; भगवता तस्य सत्कारश्च –
श्रीराजोवाच –
( अनुष्टुप् )
भगवन् यानि चान्यानि मुकुन्दस्य महात्मनः ।
वीर्याण्यनन्तवीर्यस्य श्रोतुमिच्छामि हे प्रभो ॥ १ ॥

राजा परीक्षित्ने कहा-भगवन्! प्रेम और मुक्तिके दाता परब्रह्म परमात्मा भगवान् श्रीकृष्णकी शक्ति अनन्त है। इसलिये उनकी माधुर्य और ऐश्वर्यसे भरी लीलाएँ भी अनन्त हैं। अब हम उनकी दूसरी लीलाएँ, जिनका वर्णन आपने अबतक नहीं किया है, सुनना चाहते हैं ||१||

को नु श्रुत्वासकृद् ब्रह्मन् उत्तमःश्लोकसत्कथाः ।
विरमेत विशेषज्ञो विषण्णः काममार्गणैः ॥ २ ॥

ब्रह्मन्! यह जीव विषय-सुखको खोजते-खोजते अत्यन्त दुःखी हो गया है। वे बाणकी तरह इसके चित्तमें चुभते रहते हैं। ऐसी स्थितिमें ऐसा कौन-सा रसिक-रसका विशेषज्ञ पुरुष होगा, जो बार-बार पवित्रकीर्ति भगवान् श्रीकृष्णकी मंगलमयी लीलाओंका श्रवण करके भी उनसे विमुख होना चाहेगा ।।२।।

( मिश्र )
सा वाग् यया तस्य गुणान् गृणीते
करौ च तत्कर्मकरौ मनश्च ।
स्मरेद्‌ वसन्तं स्थिरजङ्‌गमेषु
श्रृणोति तत्पुण्यकथाः स कर्णः ॥ ३ ॥

जो वाणी भगवानके गणोंका गान करती है, वही सच्ची वाणी है। वे ही हाथ सच्चे हाथ हैं, जो भगवान्की सेवाके लिये काम करते हैं। वही मन सच्चा मन है, जो चराचर प्राणियोंमें निवास करनेवाले भगवान्का स्मरण करता है; और वे ही कान वास्तवमें कान कहनेयोग्य हैं, जो भगवान्की पुण्यमयी कथाओंका श्रवण करते हैं ||३||

शिरस्तु तस्योभयलिङ्‌गमानं
एत्तदेव यत्पश्यति तद्धि चक्षुः ।
अङ्‌गानि विष्णोरथ तज्जनानां
पादोदकं यानि भजन्ति नित्यम् ॥ ४ ॥

वही सिर सिर है, जो चराचर जगत्को भगवान्की चल-अचल प्रतिमा समझकर नमस्कार करता है; और जो सर्वत्र भगवद्विग्रहका दर्शन करते हैं, वे ही नेत्र वास्तवमें नेत्र हैं। शरीरके जो अंग भगवान् और उनके भक्तोंके चरणोदकका सेवन करते हैं, वे ही अंग वास्तवमें अंग हैं; सच पूछिये तो उन्हींका होना सफल है ।।४।।

सूत उवाच –
( अनुष्टुप् )
विष्णुरातेन सम्पृष्टो भगवान् बादरायणिः ।
वासुदेवे भगवति निमग्नहृदयोऽब्रवीत् ॥ ५ ॥

सूतजी कहते हैं-शौनकादि ऋषियो! जब राजा परीक्षित्ने इस प्रकार प्रश्न किया, तब भगवान् श्रीशुकदेवजीका हृदय भगवान् श्रीकृष्णमें ही तल्लीन हो गया। उन्होंने परीक्षित्से इस प्रकार कहा ||५||

श्रीशुक उवाच –
कृष्णस्यासीत् सखा कश्चिद् ब्राह्मणो ब्रह्मवित्तमः ।
विरक्त इन्द्रियार्थेषु प्रशान्तात्मा जितेन्द्रियः ॥ ६ ॥

श्रीशुकदेवजीने कहा-परीक्षित्! एक ब्राह्मण भगवान् श्रीकृष्णके परम मित्र थे। वे बड़े ब्रह्मज्ञानी, विषयोंसे विरक्त, शान्तचित्त और जितेन्द्रिय थे ।।६।।

यदृच्छयोपपन्नेन वर्तमानो गृहाश्रमी ।
तस्य भार्या कुचैलस्य क्षुत्क्षामा च तथाविधा ॥ ७ ॥

वे गृहस्थ होनेपर भी किसी प्रकारका संग्रह-परिग्रह न रखकर प्रारब्धके अनुसार जो कुछ मिल जाता, उसीमें सन्तुष्ट रहते थे। उनके वस्त्र तो फटे-पुराने थे ही, उनकी पत्नीके भी वैसे ही थे। वह भी अपने पतिके समान ही भूखसे दुबली हो रही थी ।।७।।

पतिव्रता पतिं प्राह म्लायता वदनेन सा ।
दरिद्रं सीदमाना वै वेपमानाभिगम्य च ॥ ८ ॥

एक दिन दरिद्रताकी प्रतिमूर्ति दःखिनी पतिव्रता भूखके मारे काँपती हुई अपने पतिदेवके पास गयी और मुरझाये हुए मुँहसे बोली- ||८||

ननु ब्रह्मन् भगवतः सखा साक्षाच्छ्रियः पतिः ।
ब्रह्मण्यश्च शरण्यश्च भगवान् सात्वतर्षभः ॥ ९ ॥

‘भगवन्! साक्षात् लक्ष्मीपति भगवान् श्रीकृष्ण आपके सखा हैं। वे भक्तवाञ्छाकल्पतरु, शरणागतवत्सल और ब्राह्मणोंके परम भक्त हैं ||९||

तमुपैहि महाभाग साधूनां च परायणम् ।
दास्यति द्रविणं भूरि सीदते ते कुटुम्बिने ॥ १० ॥

परम भाग्यवान् आर्यपुत्र! वे साधुसंतोंके, सत्पुरुषोंके एकमात्र आश्रय हैं। आप उनके पास जाइये। जब वे जानेंगे कि आप कुटुम्बी हैं और अन्नके बिना दुःखी हो रहे हैं तो वे आपको बहुत-सा धन देंगे ।।१०।।

आस्तेऽधुना द्वारवत्यां भोजवृष्ण्यन्धकेश्वरः ।
स्मरतः पादकमलं आत्मानमपि यच्छति ।
किं न्वर्थकामान् भजतो नात्यभीष्टान्जगद्‌गुरुः ॥ ११ ॥

आजकल वे भोज, वृष्णि और अन्धकवंशी यादवोंके स्वामीके रूपमें द्वारकामें ही निवास कर रहे हैं और इतने उदार हैं कि जो उनके चरणकमलोंका स्मरण करते हैं, उन प्रेमी भक्तोंको वे अपने-आपतकका दान कर डालते हैं। ऐसी स्थितिमें जगद्गुरु भगवान् श्रीकृष्ण अपने भक्तोंको यदि धन और विषय-सुख, जो अत्यन्त वाञ्छनीय नहीं है, दे दें तो इसमें आश्चर्यकी कौन-सी बात है?’ ||११||

स एवं भार्यया विप्रो बहुशः प्रार्थितो मृदु ।
अयं हि परमो लाभ उत्तमःश्लोकदर्शनम् ॥ १२ ॥

इस प्रकार जब उन ब्राह्मणदेवताकी पत्नीने अपने पतिदेवसे कई बार बडी नम्रतासे प्रार्थना की, तब उन्होंने सोचा कि ‘धनकी तो कोई बात नहीं है; परन्त भगवान् श्रीकृष्णका दर्शन हो जायगा, यह तो जीवनका बहुत बड़ा लाभ है’ ||१२||

इति सञ्चिन्त्य मनसा गमनाय मतिं दधे ।
अप्यस्त्युपायनं किञ्चिद् गृहे कल्याणि दीयताम् ॥ १३ ॥

यही विचार करके उन्होंने जानेका निश्चय किया और अपनी पत्नीसे बोले-‘कल्याणी! घरमें कुछ भेंट देनेयोग्य वस्तु भी है क्या? यदि हो तो दे दो’ ।।१३।।

याचित्वा चतुरो मुष्टीन् विप्रान् पृथुकतण्डुलान् ।
चैलखण्डेन तान् बद्ध्वा भर्त्रे प्रादादुपायनम् ॥ १४ ॥

तब उस ब्राह्मणीने पास-पड़ोसके ब्राह्मणोंके घरसे चार मुट्ठी चिउड़े माँगकर एक कपड़ेमें बाँध दिये और भगवान्को भेंट देनेके लिये अपने पतिदेवको दे दिये ।।१४।।

स तानादाय विप्राग्र्यः प्रययौ द्वारकां किल ।
कृष्णसन्दर्शनं मह्यं कथं स्यादिति चिन्तयन् ॥ १५ ॥

इसके बाद वे ब्राह्मणदेवता उन चिउड़ोंको लेकर द्वारकाके लिये चल पड़े। वे मार्गमें यह सोचते जाते थे कि ‘मुझे भगवान् श्रीकृष्णके दर्शन कैसे प्राप्त होंगे?’ ||१५||

त्रीणि गुल्मान्यतीयाय तिस्रः कक्षाश्च सद्विजः ।
विप्रोऽगम्यान्धकवृष्णीनां गृहेष्वच्युतधर्मिणाम् ॥ १६ ॥

परीक्षित्! द्वारकामें पहुँचनेपर वे ब्राह्मणदेवता दूसरे ब्राह्मणोंके साथ सैनिकोंकी तीन छावनियाँ और तीन ड्योढ़ियाँ पार करके भगवद्धर्मका पालन करनेवाले अन्धक और वृष्णिवंशी यादवोंके महलोंमें, जहाँ पहँचना अत्यन्त कठिन है, जा पहँचे ।।१६।।

गृहं द्‌व्यष्टसहस्राणां महिषीणां हरेर्द्विजः ।
विवेशैकतमं श्रीमद् ब्रह्मानन्दं गतो यथा ॥ १७ ॥

उनके बीच भगवान् श्रीकृष्णकी सोलह हजार रानियोंके महल थे। उनमेंसे एकमें उन ब्राह्मणदेवताने प्रवेश किया। वह महल खूब सजा-सजाया-अत्यन्त शोभा-युक्त था। उसमें प्रवेश करते समय उन्हें एसे मालूम हुआ, मानो वे ब्रह्मानन्दके समुद्रमें ड्रब-उतरा रहे हों! ।।१७।।

तं विलोक्याच्युतो दूरात् प्रियापर्यङ्कमास्थितः ।
सहसोत्थाय चाभ्येत्य दोर्भ्यां पर्यग्रहीन्मुदा ॥ १८ ॥

उस समय भगवान् श्रीकृष्ण अपनी प्राणप्रिया रुक्मिणीजीके पलंगपर विराजे हुए थे। ब्राह्मणदेवताको दूरसे ही देखकर वे सहसा उठ खड़े हुए और उनके पास आकर बड़े आनन्दसे उन्हें अपने भुजपाशमें बाँध लिया ।।१८।।

सख्युः प्रियस्य विप्रर्षेः अङ्‌गसङ्‌गातिनिर्वृतः ।
प्रीतो व्यमुञ्चदब्बिन्दून् नेत्राभ्यां पुष्करेक्षणः ॥ १९ ॥

परीक्षित्! परमानन्दस्वरूप भगवान्
अपने प्यारे सखा ब्राह्मणदेवताके अंग-स्पर्शसे अत्यन्त आनन्दित हुए। उनके कमलके समान कोमल नेत्रोंसे प्रेमके आँसू बरसने लगे ||१९||

अथोपवेश्य पर्यङ्के स्वयं सख्युः समर्हणम् ।
उपहृत्यावनिज्यास्य पादौ पादावनेजनीः ॥ २० ॥

अग्रहीच्छिरसा राजन् भगवान् लोकपावनः ।
व्यलिम्पद् दिव्यगन्धेन चन्दनागुरुकुङ्कमैः ॥ २१ ॥

परीक्षित्! कुछ समयके बाद भगवान् श्रीकृष्णने उन्हें ले जाकर अपने पलंगपर बैठा दिया और स्वयं पूजनकी सामग्री लाकर उनकी पूजा की। प्रिय परीक्षित! भगवान श्रीकष्ण सभीको पवित्र करनेवाले हैं; फिर भी उन्होंने अपने हाथों ब्राह्मणदेवताके पाँव पखारकर उनका चरणोदक अपने सिरपर धारण किया और । उनके शरीरमें चन्दन, अरगजा, केसर आदि दिव्य गन्धोंका लेपन किया ।।२०-२१||

धूपैः सुरभिभिर्मित्रं प्रदीपावलिभिर्मुदा ।
अर्चित्वाऽऽवेद्य ताम्बूलं गां च स्वागतमब्रवीत् ॥ २२ ॥

फिर उन्होंने बड़े आनन्दसे सुगन्धित धूप और दीपावलीसे अपने मित्रकी आरती उतारी। इस प्रकार पूजा करके पान एवं गाय देकर मधुर वचनोंसे ‘भले पधारे’ ऐसा कहकर उनका स्वागत किया ||२२||

कुचैलं मलिनं क्षामं द्‌विजं धमनिसंततम् ।
देवी पर्यचरत् साक्षात् चामरव्यजनेन वै ॥ २३ ॥

ब्राह्मणदेवता फटे-पुराने वस्त्र पहने हुए थे। शरीर अत्यन्त मलिन और दर्बल था। देहकी सारी नसें दिखायी पड़ती थीं। स्वयं भगवती रुक्मिणीजी चँवर डुलाकर उनकी सेवा करने लगीं ||२३||

अन्तःपुरजनो दृष्ट्वा कृष्णेनामलकीर्तिना ।
विस्मितोऽभूदतिप्रीत्या अवधूतं सभाजितम् ॥ २४ ॥

अन्तःपुरकी स्त्रियाँ यह देखकर अत्यन्त विस्मित हो गयीं कि पवित्रकीर्ति भगवान् श्रीकृष्ण अतिशय प्रेमसे इस मैले-कुचैले अवधूत ब्राह्मणकी पूजा कर रहे हैं ।।२४।।

किमनेन कृतं पुण्यं अवधूतेन भिक्षुणा ।
श्रिया हीनेन लोकेऽस्मिन् गर्हितेनाधमेन च ॥ २५ ॥

योऽसौ त्रिलोकगुरुणा श्रीनिवासेन सम्भृतः ।
पर्यङ्कस्थां श्रियं हित्वा परिष्वक्तोऽग्रजो यथा ॥ २६ ॥

वे आपसमें कहने लगीं-‘इस नंग-धडंग, निर्धन, निन्दनीय और निकृष्ट भिखमंगेने ऐसा कौन-सा पुण्य किया है, जिससे त्रिलोकी-गुरु श्रीनिवास श्रीकृष्ण स्वयं इसका आदरसत्कार कर रहे हैं। देखो तो सही, इन्होंने अपने पलंगपर सेवा करती हुई स्वयं लक्ष्मीरूपिणी रुक्मिणीजीको छोड़कर इस ब्राह्मणको अपने बड़े भाई बलरामजीके समान हृदयसे लगाया है’ ||२५-२६।।

कथयां चक्रतुर्गाथाः पूर्वा गुरुकुले सतोः ।
आत्मनोर्ललिता राजन् करौ गृह्य परस्परम् ॥ २७ ॥

प्रिय परीक्षित्! भगवान् श्रीकृष्ण और वे ब्राह्मण दोनों एक-दूसरेका हाथ पकड़कर अपने पूर्वजीवनकी उन आनन्ददायक घटनाओंका स्मरण और वर्णन करने लगे जोगुरुकुलमें रहते समय घटित हुई थीं ।।२७।।

श्रीभगवानुवाच –
अपि ब्रह्मन्गुरुकुलाद्‌ भवता लब्धदक्षिणात् ।
समावृत्तेन धर्मज्ञ भार्योढा सदृशी न वा ॥ २८ ॥

भगवान् श्रीकृष्णने कहा-धर्मके मर्मज्ञ ब्राह्मणदेव! गुरुदक्षिणा देकर जब आप गुरुकुलसे लौट आये, तब आपने अपने अनुरूप स्त्रीसे विवाह किया या नहीं? ||२८||

प्रायो गृहेषु ते चित्तं अकामविहितं तथा ।
नैवातिप्रीयसे विद्वन् धनेषु विदितं हि मे ॥ २९ ॥

मैं जानता हूँ कि आपका चित्त गृहस्थीमें रहनेपर भी प्रायः विषय-भोगोंमें आसक्त नहीं है।विद्वन्! यह भी मुझे मालूम है कि धन आदिमें भी आपकी कोई प्रीति नहीं है ।।२९।।

केचित् कुर्वन्ति कर्माणि कामैरहतचेतसः ।
त्यजन्तः प्रकृतीर्दैवीः यथाहं लोकसङ्‌ग्रहम् ॥ ३० ॥

जगत्में विरले ही लोग ऐसे होते हैं, जो भगवानकी मायासे निर्मित विषयसम्बन्धी वासनाओंका त्याग कर देते हैं और चित्तमें विषयोंकी तनिक भी वासना न रहनेपर भी मेरे समान केवल लोकशिक्षाके लिये कर्म करते रहते हैं ।।३०।।

कच्चिद्‌ गुरुकुले वासं ब्रह्मन् स्मरसि नौ यतः ।
द्‌विजो विज्ञाय विज्ञेयं तमसः पारमश्नुते ॥ ३१ ॥

ब्राह्मणशिरोमणे! क्या आपको उस समयकी बात याद है, जब हम दोनों एक साथ गुरुकुलमें निवास करते थे। सचमुच गुरुकुलमें ही द्विजातियोंको अपने ज्ञातव्य वस्तुका ज्ञान होता है, जिसके द्वारा वे अज्ञानान्धकारसे पार हो जाते हैं ||३१||

स वै सत्कर्मणां साक्षाद् द्विजातेरिह सम्भवः ।
आद्योऽङ्‌ग यत्राश्रमिणां यथाहं ज्ञानदो गुरुः ॥ ३२ ॥

मित्र! इस संसारमें शरीरका कारण-जन्मदाता पिता प्रथम गुरु है। इसके बाद उपनयन-संस्कार करके सत्कर्मोकी शिक्षा देनेवाला दूसरा गुरु है। वह मेरे ही समान पूज्य है। तदनन्तर ज्ञानोपदेश करके परमात्माको प्राप्त करानेवाला गुरु तो मेरा स्वरूप ही है। वर्णाश्रमियोंके ये तीन गुरु होते हैं ||३२||

नन्वर्थकोविदा ब्रह्मन् वर्णाश्रमवतामिह ।
ये मया गुरुणा वाचा तरन्त्यञ्जो भवार्णवम् ॥ ३३ ॥

मेरे प्यारे मित्र! गुरुके स्वरूपमें स्वयं मैं हूँ। इस जगत्में वर्णाश्रमियोंमें जो लोग अपने गुरुदेवके उपदेशानुसार अनायास ही भवसागर पार कर लेते हैं, वे अपने स्वार्थ और परमार्थके सच्चे जानकार हैं ||३३||

नाहमिज्याप्रजातिभ्यां तपसोपशमेन वा ।
तुष्येयं सर्वभूतात्मा गुरुशुश्रूषया यथा ॥ ३४ ॥

प्रिय मित्र! मैं सबका आत्मा हूँ, सबके हृदयमें अन्तर्यामीरूपसे विराजमान हूँ। मैं गृहस्थके धर्म पंचमहायज्ञ आदिसे, ब्रह्मचारीके धर्म उपनयन-वेदाध्ययन आदिसे, वानप्रस्थीके धर्म तपस्यासे और सब ओरसे उपरत हो जाना—इस संन्यासीके धर्मसे भी उतना सन्तुष्ट नहीं होता, जितना गुरुदेवकी सेवाशुश्रूषासे सन्तुष्ट होता हूँ ||३४।।

अपि नः स्मर्यते ब्रह्मन् वृत्तं निवसतां गुरौ ।
गुरुदारैश्चोदितानां इन्धनानयने क्वचित् ॥ ३५ ॥

ब्रह्मन्! जिस समय हमलोग गुरुकुलमें निवास कर रहे थे; उस समयकी वह बात आपको याद है क्या, जब हम दोनोंको एक दिन हमारी गुरुपत्नीने ईंधन लानेके लिये जंगलमें भेजा था ||३५||

प्रविष्टानां महारण्यं अपर्तौ सुमहद् द्विज ।
वातवर्षं अभूत्तीव्रं निष्ठुराः स्तनयित्‍नवः ॥ ३६ ॥

उस समय हमलोग एक घोर जंगलमें गये हुए थे और बिना ऋतुके ही बड़ा भयंकर आँधी-पानी आ गया था। आकाशमें बिजली कड़कने लगी थी ।।३६।।

सूर्यश्चास्तं गतस्तावत् तमसा चावृता दिशः ।
निम्नं कूलं जलमयं न प्राज्ञायत किञ्चन ॥ ३७ ॥

तबतक सूर्यास्त हो गया; चारों ओर अंधेरा-ही-अँधेरा फैल गया। धरतीपर इस प्रकार पानी-ही-पानी हो गया कि कहाँ गड्ढा है, कहाँ किनारा, इसका पता ही न चलता था ।।३७।।

( वंशस्था )
वयं भृशम्तत्र महानिलाम्बुभिः
निहन्यमाना महुरम्बुसम्प्लवे ।
दिशोऽविदन्तोऽथ परस्परं वने
गृहीतहस्ताः परिबभ्रिमातुराः ॥ ३८ ॥

वह वर्षा क्या थी, एक छोटा-मोटा प्रलय ही था। आँधीके झटकों और वर्षाकी बौछारोंसे हमलोगोंको बड़ी पीड़ा हुई, दिशाका ज्ञान न रहा। हमलोग अत्यन्त आतुर हो गये और एकदूसरेका हाथ पकड़कर जंगलमें इधर-उधर भटकते रहे ।।३८।।

( अनुष्टुप् )
एतद्‌ विदित्वा उदिते रवौ सान्दीपनिर्गुरुः ।
अन्वेषमाणो नः शिष्यान् आचार्योऽपश्यदातुरान् ॥ ३९ ॥

जब हमारे गुरुदेव सान्दीपनि मुनिको इस बातका पता चला, तब वे सूर्योदय होनेपर अपने शिष्य हमलोगोंको ढूँढ़ते हुए जंगलमें पहुँचे और उन्होंने देखा कि हम अत्यन्त आतुर हो रहे हैं ।।३९।।

अहो हे पुत्रका यूयं अस्मदर्थेऽतिदुःखिताः ।
आत्मा वै प्राणिनां प्रेष्ठः तं अनादृत्य मत्पराः ॥ ४० ॥

वे कहने लगे – ‘आश्चर्य है, आश्चर्य है! पुत्रो! तुमलोगोंने हमारे लिये अत्यन्त कष्ट उठाया। सभी प्राणियोंको अपना शरीर सबसे अधिक प्रिय होता है; परन्तु तुम दोनों उसकी भी परवा न करके हमारी सेवामें ही संलग्न रहे ।।४०||

एतदेव हि सच्छिष्यैः कर्तव्यं गुरुनिष्कृतम् ।
यद्‌ वै विशुद्धभावेन सर्वार्थात्मार्पणं गुरौ ॥ ४१ ॥

गुरुके ऋणसे मुक्त होनेके लिये सत्-शिष्योंका इतना ही कर्तव्य है कि वे विशुद्ध भावसे अपना सब कुछ और शरीर भी गुरुदेवकी सेवामें समर्पित कर दें ।।४१।।

तुष्टोऽहं भो द्विजश्रेष्ठाः सत्याः सन्तु मनोरथाः ।
छन्दांस्ययातयामानि भवन्त्विह परत्र च ॥ ४२ ॥

द्विज-शिरोमणियो! मैं तुमलोगोंसे अत्यन्त प्रसन्न हूँ। तुम्हारे सारे मनोरथ, सारी अभिलाषाएँ पूर्ण हों और तुमलोगोंने हमसे जो वेदाध्ययन किया है, वह तुम्हें सर्वदा कण्ठस्थ रहे तथा इस लोक एवं परलोकमें कहीं भी निष्फल न हो’ ||४२।।

इत्थंविधान्यनेकानि वसतां गुरुवेश्मसु ।
गुरोरनुग्रहेणैव पुमान् पूर्णः प्रशान्तये ॥ ४३ ॥

प्रिय मित्र! जिस समय हमलोग गुरुकुलमें निवास कर रहे थे, हमारे जीवनमें ऐसी-ऐसी अनेकों घटनाएँ घटित हुई थीं। इसमें सन्देह नहीं कि गुरुदेवकी कृपासे ही मनुष्य शान्तिका अधिकारी होता और पूर्णताको प्राप्त करता है ।।४३।।

श्रीब्राह्मण उवाच –
किमस्माभिरनिर्वृत्तं देवदेव जगद्‌गुरो ।
भवता सत्यकामेन येषां वासो गुरावभूत् ॥ ४४ ॥

ब्राह्मणदेवताने कहा-देवताओंके आराध्यदेव जगद्गुरु श्रीकृष्ण! भला, अब हमें क्या करना बाकी है? क्योंकि आपके साथ, जो सत्यसंकल्प परमात्मा हैं, हमें गुरुकुलमें रहनेका सौभाग्य प्राप्त हुआ था ।।४४।।

यस्य च्छन्दोमयं ब्रह्म देह आवपनं विभो ।
श्रेयसां तस्य गुरुषु वासोऽत्यन्तविडम्बनम् ॥ ४५ ॥

प्रभो! छन्दोमय वेद, धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष, चतुर्विध पुरुषार्थके मूल स्रोत हैं; और वे हैं आपके शरीर। वही आप वेदाध्ययनके लिये गुरुकुलमें निवास करें, यह मनुष्य-लीलाका अभिनय नहीं तो और क्या है? ||४५।।

इति श्रीमद्‍भागवते महापुराणे पारमहंस्यां
संहितायां दशमस्कन्धे उत्तरार्धे
श्रीदामचरिते अशीतितमोऽध्यायः ॥ ८० ॥
हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥


Spread the Glory of Sri SitaRam!

Shweta Srinet

गरिमा जी संस्कृत भाषा में परास्नातक एवं राष्ट्रीय पात्रता परीक्षा उत्तीर्ण हैं। यह RamCharit.in हेतु 2018 से सतत पूर्णकालिक सदस्य के रूप में कार्य कर रही हैं। धार्मिक ग्रंथों को उनके मूल आध्यात्मिक रूप में सरलता से उपलब्ध कराने का कार्य इसके द्वारा ही निष्पादित होता है।

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